बुधवार, 18 मई 2022

मोहम्मद पैगंबर हिंदू सनातनी थे ।

मुहम्मद स्वयं हिन्दू ही जन्मे थे, होती थी महादेव की पूजा, इसके तथ्य भी हैं मौजूद
इराक का एक पुस्तक है जिसे इराकी सरकार ने खुद छपवाया था। इस किताब में 622 ई से पहले के अरब जगत का जिक्र है। आपको बता दें कि ईस्लाम धर्म की स्थापना इसी साल हुई थी। किताब में बताया गया है कि मक्का में पहले शिवजी का एक विशाल मंदिर था जिसके अंदर एक शिवलिंग थी जो आज भी मक्का के काबा में एक काले पत्थर के रूप में मौजूद है। पुस्तक में लिखा है कि मंदिर में कविता पाठ और भजन हुआ करता था।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”
अर्थात-.
(1) हे भारत की पुण्य भूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझ को चुना।
(2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ।
(3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनकेअनुसार आचरण करो।(4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है।
(5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया
और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगेअस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े।
उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईर्ष्यावश अबुलजिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनीकुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था।
‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहां इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियों के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहां बने कुएं में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।
जबकि इस्लाम में मूर्ति पूजा या अल्लाह के अलावा किसी की भी स्तुति हराम है
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारत वर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों कात्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ से अरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है। ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नई दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़लामन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर कालीस्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है –
” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् –
(1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो।
(2) यदि अन्त में उसको पश्चाताप हो, और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ?
(3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्चपद को पा सकता है।
(4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहां पहुंचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है।
(5) वहां की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्शगुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है।
साभार पोस्ट:

रविवार, 15 मई 2022

बाँसी (उ.प.) का श्रीनेत राजवंश का इतिहास


(सूर्यवंश : अयोध्या से बाँसी तक)
अयोध्या के सूर्यवंशी-नरेशों की गौरवशाली परम्परा में 130वें शासक महाराज सुमित्र थे। महाराज सुमित्र की 57वीं एवं अयोध्या के प्रथम सम्राट् वैवस्वत मनु की 186वीं पीढ़ी में महाराज शंखदेव पैदा हुए। महाराज शंखदेव के ज्येष्ठ पुत्र महाराज अजबाहुदेव पिता के पश्चात् राज्य के उत्तराधिकारी हुए और कनिष्ठ पुत्र महाराज दीर्घबाहुदेव के पुत्र महाराज बृजभानुदेव उपाख्य वसिष्ठसेन ने 332 ई. पू. में अयोध्या के सुदूर उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अचिरावती नदी के अंचल में रुद्रपुर नामक राज्य की स्थापना करने के साथ ही 'श्रीनेत' पदवी धारण की। इस सम्बन्ध एक प्राचीन श्लोक प्रचलित है-
तस्य पुत्रो दयासिन्धु बृजभानुः प्रतापवान्।
श्रीनेत पदवीकेन लब्धा भुमिरनुत्तमा।।
इस ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख करते हुए महामहिमोपाध्याय डॉ. हीरालाल पाण्डेय लिखते हैं-
अयोध्याया नृपः ख्यातः सुमित्र इति नामभाक्।
पौरुषे सप्तपञ्चासे शङ्खदेवो नृपोभवत्।।
शङ्खदेवस्य पुत्रौ द्वौ विख्यातौ क्षितिमण्डले।
अजबाहुः नृपः श्रेष्ठ दीर्घबाहुः प्रतापवान्।।
दीर्घबाहुः सुतः श्रीमान् बृजभानुः नृपोत्तमः।
स एव हि वसिष्ठोऽपि प्रख्यां विन्दति भारते।।
येन रुद्रपुरं नाम राज्यं संस्थापितं महत्।
श्रीनेत पदवीकेन वंशो विस्तारतां गतः।।
'श्रीनेत' पदवी की व्याख्या करते हुए डॉ. राजबली पाण्डेय लिखते हैं- 'श्रीनेत विरुद (उपाधि) की व्याख्या दो प्रकार से हो सकती है : (1) श्री + न + इति = श्रीनेति (अपभ्रंश श्रीनेत) अर्थात् वह क्षत्रिय वंश, जिसकी श्री (समृद्धि और यश) का अन्त न हो और (2) श्री + नेतृ = श्रीनेतृ अर्थात् शोभायमान नेता अथवा सुन्दर और कुशल नेतृत्व करनेवाला क्षत्रिय वंश।'[1] श्रीनेत पदवी धारण करनेवाले महाराज बृजभानुदेव के वंशज कालान्तर में श्रीनेत क्षत्रिय के नाम से विख्यात हुए।
महाराज बृजभानुदेव उपाख्य वसिष्ठसेन द्वारा स्थापित रुद्रपुर राज्य कालान्तर में तीन भागों में विभक्त होकर सतासी, उनवल और बाँसी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वर्तमान में बाँसी का श्रीनेत राजवंश सर्वाधिक उन्नतिशील है। रुद्रपुर से बाँसी तक की राजावली[2] निम्नांकित है-
187. महाराज दीर्घबाहुदेव 360-332 ई. पू.
188. महाराज बृजभानुदेव (वसिष्ठसेन) 332-312 ई. पू.
189. महाराज हरनाथदेव 312-293 ई. पू.
190. महाराज योषदेव 293-273 ई. पू.
191. महाराज धर्मशीलदेव 273-255 ई. पू.
192. महाराज सुन्दरलालदेव 255-235 ई. पू.
193. महाराज अग्निवर्णदेव 235-216 ई. पू.
194. महाराज महावर्णदेव 216-198 ई. पू.
195. महाराज वीरपुरुषदेव 198-180 ई. पू.
196. महाराज देवजित्देव 180-162 ई. पू.
197. महाराज बालर्षिदेव 162-144 ई. पू.
198. महाराज महिपालदेव 144-125 ई. पू.
199. महाराज भद्ररणदेव 125-105 ई. पू.
200. महाराज भानुदेव 105-85 ई. पू.
201. महाराज विष्णुदेव 85-67 ई. पू.
202. महाराज परुषदेव 67-49 ई. पू.
203. महाराज वनदेव 49-31 ई. पू.
204. महाराज प्रकटदेव 31-13 ई. पू.
205. महाराज शिववर्तदेव 13 ई. पू.-05 ई.
206. महाराज वानदेव 05-23 ई.
207. महाराज स्वर्णचित्रदेव 23-42 ई.
208. महाराज मर्दराजदेव 42-62 ई.
209. महाराज कृतदेव 62-81 ई.
210. महाराज रणजीतदेव 81-100 ई.
211. महाराज शतयुद्धदेव 100-119 ई.
212. महाराज शकुनदेव 119-138 ई.
213. महाराज अमरजीतदेव 138-158 ई.
214. महाराज बृजभानुदेव द्वितीय 158-178 ई.
215. महाराज सत्यदेव 178-198 ई.
216. महाराज देवमणिदेव 198-218 ई.
217. महाराज रामदेव 218-236 ई.
218. महाराज सुखमणिदेव 236-254 ई.
219. महाराज महामणिदेव 254-274 ई.
220. महाराज विजयदेव 274-294 ई.
221. महाराज कर्णमणिदेव 294-314 ई.
222. महाराज सिद्धमणिदेव 314-334 ई.
223. महाराज कृष्णमणिदेव 334-356 ई.
224. महाराज मणिदीपदेव 356-379 ई.
225. महाराज अग्रसेनदेव 379-399 ई.
226. महाराज सुखवृत्तदेव 399-419 ई.
227. महाराज कृपिलदेव 419-439 ई.
228. महाराज देवमणि 439-456 ई.
229.  महाराज यशमणिदेव 456-479 ई.
230. महाराज शैलमणिदेव 479-499 ई.
231. महाराज सावन्तदेव 499-519 ई.
232. महाराज सर्वदेव 519-539 ई.
233. महाराज गंगदेव 539-562 ई.
234. महाराज महिमददेव 562-585 ई.
235. महाराज राजदेव 585-608 ई.
236. महाराज जयदेव 608-631 ई.
237. महाराज श्यामदेव 631-656 ई.
238. महाराज लवंगदेव 656-685 ई.
239. महाराज महिलोचन सिंह 685-710 ई.
240. महाराज कामदेव सिंह 710-730 ई.
241. महाराज मान सिंह प्रथम 730-750 ई.
242. महाराज धीर सिंह 750-768 ई.
243. महाराज विजयपाल सिंह 768-788 ई.
244. महाराज हमीर सिंह 788-808 ई.
245. महाराज प्रेम सिंह 808-828 ई.
246. महाराज मधुवर्ण सिंह 828-847 ई.
247. महाराज बिन्दुपाल सिंह 847-865 ई.
248. महाराज मान सिंह द्वितीय 865-883 ई.
249. महाराज बालपति सिंह 883-901 ई.
250. महाराज भद्र सिंह प्रथम 901-921 ई.
251. महाराज उदितवर्ण सिंह 921-941 ई.
252. महाराज राम सिंह 941-961 ई.
253. महाराज भद्र सिंह द्वितीय 961-979 ई.
254. महाराज मान सिंह तृतीय 979-998 ई.
255. महाराज कान्ध सिंह 998-1018 ई.
256. महाराज चतुर्भुज सिंह 1018-1038 ई.
257. महाराज भोज सिंह 1038-1058 ई.
258. महाराज भगवन्त सिंह प्रथम 1058-1076 ई.
259. राजा जय सिंह प्रथम 1076-1094 ई.
260. राजा प्रताप सिंह 1094-1114 ई.
261. राजा महिपति सिंह प्रथम 1114-1134 ई.
262. राजा भगवन्त सिंह द्वितीय 1134-1153 ई.
263. राजा मकरन्द सिंह 1153-1172 ई.
264. राजा मूरत सिंह 1172-1192 ई.
265. राजा सूरत सिंह 1192-1210 ई.
266. राजा मदन सिंह 1210-1225 ई.
267. राजा आनन्द सिंह 1225-1240 ई.
268. राजा अनन्त सिंह 1240-1255 ई.
269. राजा गोपाल सिंह 1255-1270 ई.
270. राजा वसन्त सिंह 1270-1285 ई.
271. राजा देव सिंह 1285-1300 ई.
272. राजा उदित सिंह 1300-1318 ई.
273. राजा अमर सिंह 1318-1333 ई.
274. राजा विक्रम सिंह 1333-1348 ई.
275. राजा महिपति सिंह द्वितीय 1348-1364 ई.
276. राजा उदय सिंह 1364-1382 ई.
277. राजा जय सिंह द्वितीय 1382-1400 ई.
278. राजा चन्द्रवर्ण सिंह 1400-1415 ई.
279. राजा लक्ष्मण सिंह 1415-1430 ई.
280. राजा राय सिंह 1430-1446 ई.
281. राजा अनुस्वार सिंह 1446-1456 ई.
282. राजा राघव सिंह 1456-1461 ई.
283. राजा माधव सिंह 1461-1471 ई.
284. राजा वंशदेव सिंह 1471-1484 ई.
285. राजा रतनसेन प्रथम 1484-1514 ई.
286. राजा तेज सिंह प्रथम 1514-1560 ई.
287. राजा संग्राम सिंह 1560-1583 ई.
288. राजा शक्ति सिंह 1583-1611 ई.
289. राजा रामप्रताप सिंह 1611-1649 ई.
290. राजा गजेन्द्र सिंह 1649-1678 ई.
291. राजा राम सिंह द्वितीय 1678-1716 ई.
292. राजा माधव सिंह द्वितीय 1716-1732 ई.
293. राजा तेज सिंह द्वितीय 1732-1743 ई.
294. राजा रणजीत सिंह 1743-1748 ई.
295. राजा बहादुर सिंह 1748-1777 ई.
296. राजा सर्वजीत सिंह 1777-1808 ई.
297. रानी रणजीत कुँवरि 1808-1813 ई.
298. राजा श्रीप्रकाश सिंह 1813-1840 ई.
299. राजा महिपति सिंह तृतीय 1840-1863 ई.
300. राजा बहादुर महेन्द्र सिंह 1863-1868 ई.
301. राजा बहादुर राम सिंह तृतीय 1868-1913 ई.
302. राजा बहादुर रतनसेन सिंह तृतीय 1913-1918 ई.
303. राजा बहादुर पशुपतिप्रताप सिंह 1918-1980 ई.
304. राजा बहादुर रुद्रप्रताप सिंह 1980-2018 ई.
305. राजा बहादुर जयप्रताप सिंह 2018 ई. से अद्यतन 
306. युवराज अधिराजप्रताप सिंह एवं राजकुमार अभयप्रताप सिंह। 
वस्तुतः अयोध्या के प्रतापी सूर्यवंशी सम्राटों की परम्परा में सम्राट् कुश की वंश-वेलि से निष्पन्न हुआ श्रीनेत राजवंश अपनी श्रेष्ठता और स्वतन्त्रता के कारण जगद्विख्यात है। सरयू और अचिरावती के मध्य की उर्वरा भूमि सतासी, बाँसी और उनवल के श्रीनेत राजवंश की गौरवगाथा से अलंकृत है। सतासी-नरेश राजा मंगल सिंह ने नाथपन्थ के आदिगुरु गोरखनाथ जी की समाधि के दक्षिण में एक छोटा-सा क़स्बा बसाया और उसका नाम गोरखपुर रखा। एक महल भी यहीं बना और सतासी राज्य की राजधानी उठकर यहीं चली आयी। राजा राय सिंह के समय में गुरु नानकदेव गोरखपुर आये थे और उन्होंने राजा राय सिंह का आतिथ्य ग्रहण किया था।श्रीनेत राजवंश अपनी स्वातन्त्र्यव्रती चेतना के कारण मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के समतुल्य है। डॉ. राजबली पाण्डेय लिखते हैं- 'मुग़ल कई बार के आक्रमण से भी श्रीनेतों का विनाश नहीं कर सके और न तो उनसे अपनी अधीनता स्वीकार करा सके। सतासी के राजाओं का दिल्ली दरबार में जाना किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है। राजस्थान के इतिहास में जिस प्रकार चित्तौड़ के राणावंश (सिसोदिया) ने मुग़लों के सामने शिर नहीं झुकाया, उसी प्रकार गोरखपुर जनपद में सतासी के श्रीनेतों ने भी मुग़लों के सामने कभी शिर नहीं टेका। जनपद में इनके आदर का यह एक बहुत बड़ा कारण था।'
बाँसी-नरेश राजा बहादुर पशुपतिप्रताप सिंह हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, फ़ारसी, अरबी आदि भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनकी बहुमुखी प्रतिभा के कारण लोग उन्हें चलता-फिरता पुस्तकालय कहते थे। राजा पशुपतिप्रताप सिंह के पुत्र राजा बहादुर रुद्रप्रताप सिंह भारतीय सैन्य सेवा में रहते हुए प्राणप्रण से राष्ट्ररक्षा में संलग्न रहे हैं। राजा बहादुर रुद्रप्रताप सिंह का 2018 ई. में नयी दिल्ली में स्वर्गवास हुआ। वर्तमान राजा बहादुर श्री जयप्रताप सिंह बाँसी विधानसभा का छह बार प्रतिनिधित्व कर चुके हैं तथा सातवीं बार विधायक बनने के बाद उत्तर प्रदेश के योगी मन्त्रिमण्डल में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मन्त्री हैं।
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1. डॉ. राजबली पाण्डेय : गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास : प्रकाशक - ठाकुर महातम राव ओमप्रकाश, रेती चौक, गोरखपुर, द्वितीय संस्करण 2015 ई., पृ. 155-156
2. (क) सुरेन्द्र सिंह : रुद्रपुर राजवंश-दर्पण : नीलकमल प्रकाशन, गोरखपुर, प्रथम संस्करण 2014 ई., पृ. 17-31
(ख) डॉ. योगेन्द्र पाल : श्रीनेत क्षत्रिय राजवंश का इतिहास : विजयबहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय की पी-एच.डी. उपाधि हेतु लिखित शोधप्रबन्ध (अप्रकाशित), पृ. 106-160
(ग) http://members.iinet.net.au/~royalty/ips/b/bansi_taluq.html
3. डॉ. राजबली पाण्डेय : गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास, पृ. 244 
4. डॉ. राजबली पाण्डेय : उपर्युक्त, पृ. 246