बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

!! इस तरह के चित्र में आप क्या देखते है ?






























जब अलग अलग जनवारो में दोस्ती हो सकती है तो फिर हम हिन्दुओ में जाती के नाम पर कडुवाहट को भुला कर दोस्ती नहीं कर सकते है क्या ?

!! इसे क्या कहते है ?

कामना पूरी न होगी, ..... भावना बढती रहेगी !
चक्र चलता ही रहेगा,..... विश्व गलता ही रहेगा !!
क्या इसे संसार कहते ?

आस मिटती ही रहेगी,.....श्वास घुटती ही रहेगी !
... आयु नित घटती रहेगी,..मृत्यु हंसती ही रहेगी !!
क्या इसे व्यापार कहते ?

लौ मचलती ही रहेगी,.. शलभ को डसती रहेगी !
निशा घुलकर सुबह होगी, शाम ढलती ही रहेगी !!
क्या इसे दिन-रात कहते ?

घन घटायें घुल गिरेंगी, अवनि प्यासी ही रहेगी !
दामिनी दमका करेगी,. विरहणी व्याकुल रहेगी !!
क्या इसे अभिशाप कहते ?

पतन होता ही रहेगा,......प्रगति पंखों से उड़ेगी !
जन्म होता ही रहेगा,.... लाश धू-धू ही जलेगी !!
क्या इसे अमरत्व कहते ?

प्रेम छलता ही रहेगा,..... वासना जलती रहेगी !
नयन रोते ही रहेंगे,..... नीर सरिता बन बहेगा !!
क्या इसे संताप कहते ?

'चन्द्र' छिपता ही रहेगा,.......चांदनी ढूँढा करेगी !
प्यास पपिहा की न बुझेगी, स्वाति झरती ही रहेगी !!
क्या इसे अभिमान कहते ?

!! कलयुगी श्रवण कुमार !!



नेत्रहीन मां को 27 हजार किमी पैदल चलकर कराए चारधाम
17 साल पहले शुरू हुई यात्रा समाप्त
जेब में एक रुपया नहीं, चल दिए यात्रा पर

८७ वर्षीय मां को कावड़ में ले जाते हैं कैलाश गिरी

उज्जैन (मप्र)त्न 87 साल की नेत्रहीन मां की इच्छा पूरी करने के लिए वह इस कलियुग में श्रवण कुमार बन गया।

कैलाश ने जब यात्रा शुरू की तो उसके पास जेब में एक रुपया नहीं था।
भगवान भरोसे वह कावड़ लेकर निकल पड़ा और गर्मी, ठंड व बारिश के बीच यात्रा आगे बढ़ती चली गई।
जहां भी गया, उस शहर में लोगों ने रहने, खाने की मदद की और कुछ रुपए भी दिए, लेकिन पूरी यात्रा में कहीं कोई सरकारी मदद नहीं ली।

अपने कंधों पर कावड़ में मां को बैठाकर 17 साल और कुछ महीनों में 27 हजार किलोमीटर पैदल चलकर उसने चारधाम की तीर्थ यात्रा पूरी करा दी।
बरगी (ग्वालियर) के 40 वर्षीय कैलाश गिरि ब्रह्मचारी कावड़ में बैठी मां कीर्ति देवी के साथ सोमवार को जब उज्जैन की सड़कों से गुजरा
तो उसे देखने वालों की नजरें थम गईं और बूढ़े मां-बाप को कंधों पर यात्रा कराने वाले पौराणिक पात्र श्रवण कुमार की याद आ गई।
कैलाश गिरि ने कहा कि 1995 में क्रम से रामेश्वर, जगन्नाथपुरी, बद्रीनाथ और द्वारिका धाम की यात्रा कर अब उज्जैन में महाकाल दर्शन के
साथ यात्रा पूरी की है। हालांकि संकल्प के मुताबिक वह मां को गांव तक कावड़ से ही ले जाएगा।
उज्जैन से वह देवास के रास्ते ग्वालियर के लिए रवाना हो गया....

फेसबुक में लोकप्रिय कैसे बने ?

फेसबुक पर अमर्यादित, गाली गलौज, पर्सनल कमेंटस (छींटाकशी) आदि को तुरंत हटा दें साथ ही सार्वजनिक तौर पर सावधान करें... न माने तो ब्लॉक कर दें............

फेसबुक पर स्वीकृति या साख बनाने के लिए जरूरी है कि नियमित लिखें और सारवान और सामयिक लिखें... प्रतिदिन किसी भी मसले को उठाएं तो उससे जुड़े विभिन्न आयामों को अलग-अलग पोस्ट में दें... इससे एजेण्डा बनेगा.. कभी-कभार अपनी कहें, आमतौर पर निजता के सवालों और निजी उपलब्धियों के बारे में बताने से बचें ! यदि आप प्रतिदिन अपनी रचनात्मक उपलब्धियां बताएंगे तो अनेक किस्म के कु-कम्युनिकेशन में कैद होकर रह जाएंगे, इससे मन संतोष भी कम मिलेगा... मन संतोष तब ज्यादा मिलता है जब सामाजिक सरोकारों के सवालों पर लिखते हैं और लोग उस पर तरह तरह की राय देते हैं.........
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फेसबुक कम्युनिकेशन के लिए इसकी संचार अवस्था को स्वीकारने और समझने की जरूरत है..मसलन् आपने किसी के स्टेटस पर कोई टिप्पणी दी,जरूरी नहीं है वह व्यक्ति आपके उठाए सवालों का जबाव दे, आपने किसी को फेसबुक चैटिंग के जरिए मैसेज दिया, जरूरी नहीं है वह आपको तुरंत जबाव दे, धैर्य रखें और गुस्सा न करें.......
फेसबुक ,चैटिंग आदि में अधीरता पागल कर सकती है, ब्लडप्रैशर बढ़ा सकती है.. दुश्मनी भी पैदा कर सकती है... मिसअंडरस्टेंडिंग भी पैदा कर सकती है..फेसबुक रीयलटाइम मीडियम है यह धैर्य की मांग करता है....रीयलटाइम में अधीरता, गुस्सा आदि बेहद खतरनाक हैं, इससे उन्माद पैदा होता है...फेसबुक कम्युनिकेशन को सहज भाव से लें और अधीर न हों.. इसमें आपका भला है और दूसरे का भी भला है..........!
फेसबुक पर यदि कोई व्यक्ति आपकी वॉल पर नापसंद बात लिख जाए तो उसे रहने दें.. इससे यह पता चलता है कि आप अन्य को चाहते हैं, पसंद करते हैं...

फेसबुक असल में कबीर की उक्ति का साकार अभिव्यक्ति रूप है.. उनका मानना था “काल करै सो आज कर, आज करै सो अब..” यानी जो कुछ कहना अभी कहो.. रीयलटाइम में कहो....

फेसबुक चूंकि कम्युनिकेशन है अतः वह रहेगा, इसके पहले के कम्युनिकेशन मीडियम भी रहेंगे, यह गलत धारणा है कि पूर्ववर्ती कम्युनिकेशन रूपों या माध्यमों का लोप हो जाएगा.. पहले के माध्यमों की भी प्रासंगिकता रहेगी, उपयोगिता रहेगी और फेसबुक की भी.. फेसबुक या अन्य रीयलटाइम माध्यम तो इस जगत को जानने में हमारी मदद कर रहे हैं..........!

फेसबुक में कम्युनिकेशन महत्वपूर्ण है, अन्य चीजें जैसे वंश, जाति, धर्म, उम्र, हैसियत आदि गौण हैं.... फेसबुक एक तरह से अभिव्यक्ति की अति तीव्रगति का खेल है। यहां आप मुस्कराते रहिए, लाइक करते रहिए, कोई आपको हाशिए पर नहीं डाल सकता।
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वर्चुअल तकनीक में अन्य माध्यमों की तुलना में ऑब्शेसन का भाव ज्यादा है। ऑब्शेसन की यह खासियत है कि यह जल्दी अंतरंग जगत को खोल देता है। यही वजह है वर्चुअल माध्यमों के जरिए आदान-प्रदान ,संवाद, खुलेपन की अभिव्यक्ति जल्दी और सहज ढ़ंग से हो जाती है।
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कलाओं में कलाकार का लगाव व्यक्त होता है। लेकिन फेसबुक लेखन में यूजर का कोई लगाव नहीं होता। यहां लोग व्यक्तिगत तौर पर आते हैं और जातें है। लाइक करते हैं, टिप्पणी करते हैं और निर्विकार अंजान भाव से चले जाते हैं। इस तरह का परायापन अन्य माध्यमो में नहीं देखा। फेसबुक पर लिखते समय शब्द और शरीर में अंतराल रहता है। कलासृजन में यह संभव नहीं है।
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फेसबुक यूजर का ऑब्शेसन अवसाद पैदा करता है और कलाकार का ऑब्शेसन कला की आत्मा से साक्षात कराता है।
मनुष्य अकेला प्राणी है जिसकी अभिव्यक्ति की इच्छाएं कभी शांत नहीं होतीं। वह इनको शांत करने के लिए नए नए उपाय और मीडियम खोजता रहता है। फेसबुक उस प्रक्रिया में उपजा एक मीडियम है। पता नहीं कब जल्द ही नया मीडियम आ जाए और हम सब फेसबुक को छोड़कर वहां मिलें।
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सभी मानवीय उपकरण मानसिक सुख के लिए बने हैं । फेसबुक का भी यही हाल है इससे आप मानसिक सुख हासिल कर सकते हैं। फेसबुक वस्तुतः अभिव्यक्ति का फास्टफूड है।
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फेसबुक लेखन अ-कलात्मक सपाटलेखन है। आप यहां कला के जितने भी प्रयोग करें संतोष नहीं मिलेगा। फेसबुक का मीडियम के रूप में कला से बैर है। कलात्मक अभिव्यक्ति के लिहाज से फेसबुक बाँझ है।
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फेसबुक पर लिखते समय प्रत्येक यूजर यथाशक्ति कोशिश करता है बेहतरीन लिखे, लेकिन लिखने के बाद महसूस करता है अब अगली पोस्ट ज्यादा बेहतर लिखूँगा। लेकिन बेहतर पोस्ट कभी नहीं बन पाती।

    फेसबुक असंतोष को हवा देता है। लोग संतोष के लिए यहां अभिव्यक्त करते हैं लेकिन असंतोष लेकर जाते हैं।
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फेसबुक निर्भीक कम्युनिकेशन है। निर्भीक कम्युनिकेशन को असभ्यता और मेनीपुलेशन का इससे बैर है। निर्भीक फेसबुक कम्युनिकेशन मित्रता की मांग करता है। बराबरी,समानता की मांग करता है। इसके लिए जरूरी है आप पूर्वाग्रह से मुक्त होकर बात करें। जो लोग पूर्वाग्रह रखकर फेसबुक में बातें करते हैं वे ही रोते हैं, रूठते,गुस्सा करते हैं, पलायन करते हैं,बदमाशियां करते हैं। मित्रता में पूर्वाग्रह ,शत्रुता का काम करते हैं। फेसबुक मित्रों को इन बातों को समझना होगा वरना वे फेसबुक को आनंद और सूचना के माध्यम की बजाय कलह का माध्यम बना देंगे।

फेसबुक में किसी मित्र की स्टेटस पर दी गयी राय से नाराज और खुश होने की जरूरत नहीं है। वह तो राय है। इसका अभिव्यक्ति से संबंध है ,संवेदनाओं से नहीं। फेसबुक या रीयलटाइम मीडियम में जो भी कम्युनिकेशन होता है वो संवेदनाहीन होता है। उससे विचलित होने की जरूरत नहीं है। रीयलटाइम मीडियम में यदि संवेदनाएं संप्रेषित होतीं तो लेखक लोग कलम से लिखना बंद कर देते। कलम के लेखन में संवेदनाएं संप्रेषित होती हैं, साहित्य की सृष्टि होती है। चित्रकार की तूलिका से जानदार चित्र जन्म लेते हैं। वर्चु्अल ब्रश से नहीं। फेसबुक पर लिखो ,कम्युनिकेट करो ।

भारत में ई-लेखन का सबसे त्रासद पहलू यह है कि यहां पर यूजर अपनी मातृभाषा के यूनीकोड फॉण्ट का इस्तेमाल करना नहीं जानते और जानबूझकर सीखना नहीं चाहते ,वे अंग्रेजी में हिन्दी लिखते हैं। यह शर्मनाक स्थिति है। फ्रेंच लोग,चीनी लोग अपने यहां अपनी भाषा के यूनीकोड फाण्ट का इस्तेमाल करते हैं। हमारे यहां नामी गिरामी हिन्दी लेखक भी हिन्दी में लिखना तौहीन समझते हैं।जय हो हिन्दीवालों की अंग्रेजी गुलामी की।
कायदे से एक सर्वे कराया जाना चाहिए विभिन्न विश्वविद्यालयों और सरकारी ,गैर सरकारी संस्थानों ,कंपनियों आदि में कि वहां पर कितना ई लेखन, ई कम्युनिकेशन का प्रयोग होता है। हमारे अधिकांश संस्थान अभी न्यनतम स्तर पर भी ई कम्युनिकेशन नहीं करते और हम ढ़ोंग करते हैं,हल्ला करते हैं कि हमारे यहां संचार क्राति हो गयी। हम कम से कम झूठ न बोला करें।

ई-लेखन को सीखने का अर्थ है अपने लेखन संस्कार बदलना। भारतीय लोगों की मुश्किल यह है कि वे पुरानी आदतों-संस्कारों को जल्दी नहीं छोड़ते। यही हाल राईटिंग का है। ई-लेखन के लिए राईटिंग के पुराने खयालात और संस्कार बदलने होंगे। बदलो बंधु बदलो।

इंटरनेट लेखन निजी लेखन है और सामाजिक अभिव्यक्ति है, इसका समाज को लाभ होता है।यह बिना पैसे का लेखन है।इसके प्रति अपने पूर्वाग्रहों को हमें दिल से निकाल देना चाहिए।


ई साक्षरता की दुर्दशा का आलम यह है कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में सभी शिक्षकों-कर्मचारियों और छात्रों को अभी तक ई-साक्षरता का अभ्यस्त नहीं बना पाए हैं।अन्य केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों का हाल तो और भी बुरा है। हमारे शिक्षक सामान्य सी नेट गतिविधियां सम्पन्न नहीं कर पाते। आखिरकार हम किस दिशा में जा रहे हैं ? क्या हम परवर्ती पूंजीवाद की तेजगति पकड़ पाए हैं ? परवर्ती पूंजीवाद की ई-साक्षरता की गति को पकड़े,समझे और सीखे बिना गुजारा नहीं होने वाला।कहां सोए हैं भारत भारती के सपूत।
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एक जमाना था साक्षरता और शिक्षा से काम चल जाता था, हमने इस काम को अंजाम नहीं दिया,इसी बीच बहुस्तरीय शिक्षा का बोझ हमारे सिर पर आ पड़ा है। आज के दौर में कम्प्यूटर लेखन या इ लेखन को जानना अनिवार्य है।यानी साक्षरता के साथ ई साक्षरता भी जरूरी है। मुश्किल यह है कि हमारे देश में अधिकांश लोग ई निरक्षर हैं। कहां सोई है सरकार, सरकार के हस्तक्षेप के बिना ई साक्षरता संभव नहीं।ई साक्षरता के बिना साक्षर और शिक्षित भी अशिक्षित से प्रतीत होते हैं।
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एक सर्वेक्षण के मुताबिक ट्विटर और फेसबुक जैसी साइटों पर अपने दोस्तों से आगे निकलने की होड़, लोगों को कुंठित बनाने के साथ -साथ उनके आत्मविश्वास पर भी असर डाल रही है।
टेलीग्राफ समाचार पत्र के मुताबिक इस सर्वेक्षण में भाग लेने वाले आधे से ज्यादा लोगों का मानना था कि इन साइटों ने उनके व्यवहार को बदल दिया है और वे सोशल मीडिया के कुप्रभाव का शिकार हो चुके हैं। जबकि दो-तिहाई लोगों का मानना था कि इन साइटों पर वक्त बिताने के बाद वे आराम नहीं कर पाते। वहीं एक चौथाई लोगों ने माना कि इन साइटों के चलते वे झगड़ालू हो गए हैं जिसका खामियाजा उन्हें अपने रिश्तों और कार्यस्थलों पर चुकाना पड़ रहा है।
ब्रिटेन की सैलफोर्ड विशवविद्यालय बिजनेस स्कूल को ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण में 298 लोगों ने भाग लिया। इनमें से 53 फीसदी लोगों का मानना था कि सोशल नेटवर्किंग ने उनके व्यवहार में बदलाव ला दिया है और उनमें से 51 फीसदी ने इसे नकारात्मक प्रभाव बताया।
55 फीसदी लोगों का कहना था कि अगर वे अपने फेसबुक अकाउंट या ई-मेल अकाउंट को किसी वजह से खोल न पाएं तो वे चिंतित हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि किस तरह से इंटरनेट की लत ने लोगों को जकड़ में ले लिया है।

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फेसबुक पर इमोशनल होना, अतिचंचल होना, रूठना, पंगा करना ,नीचता दिखाना, अपमान करना वैसे ही दुखदायी है जिस तरह सामान्य तौर पर आमने-सामने संवाद के समय होता है। आमने-सामने बातें करते समय भी ये चीजें नुकसान करती हैं। फेसबुक को रीयलटाइम कम्युनिकेसन के मीडियम के रूप में इस्तेमाल करें , न कि रीयलटाइम नीचताओं और असभ्यता के लिए। असभ्यता कभी भी व्यक्ति के गले की हड्डी बन सकती है।
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फेसबुक पर इमोशनल होना, अतिचंचल होना, रूठना, पंगा करना ,नीचता दिखाना, अपमान करना वैसे ही दुखदायी है जिस तरह सामान्य तौर पर आमने-सामने संवाद के समय होता है। आमने-सामने बातें करते समय भी ये चीजें नुकसान करती हैं। फेसबुक को रीयलटाइम कम्युनिकेसन के मीडियम के रूप में इस्तेमाल करें , न कि रीयलटाइम नीचताओं और असभ्यता के लिए। असभ्यता कभी भी व्यक्ति के गले की हड्डी बन सकती है।
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क्या आप फेसबुक या ट्विटर के बिना नहीं रह सकते? अगर ऐसा है तो इस नए अध्ययन पर ध्यान दीजिए। इसमें कहा गया है कि इस तरह की प्रचलित वेबसाइट आपको परेशान करती हैं और आपको असुरक्षित भी महसूस करा सकती हैं। सैकड़ों सोशल नेटवर्किंग साइट उपयोगकर्ताओं पर किए गए सर्वे में शामिल आधे से अधिक लोगों ने माना कि इन वेबसाइटों का इस्तेमाल शुरू करने के बाद से उनके व्यवहार में बहुत बदलाव आया है। दैनिक अमरउजाला ( 9जुलाई 2012) में छपी खबर के अनुसार आधे लोगों ने यह भी कहा कि फेसबुक और ट्विटर के कारण ही उनकी जिंदगी बदतर हो गई। सोशल मीडिया का नकारात्मक प्रभाव जिन लोगों पर पड़ता है, उसमें से ज्यादातर लोगों ने कहा कि उनका विश्वास अपने ऑनलाइन दोस्तों के मुकाबले काफी गिर जाता है। ‘द डेली टेलीग्राफ’ में छपी खबर के मुताबिक, दो तिहाई लोगों ने कहा कि इन वेबसाइटों का इस्तेमाल करने के बाद उन्हें आराम करने अथवा सोने में दिक्कत होती है, जबकि उनमें से एक तिहाई लोगों ने कहा कि आनलाइन टकराव के बाद उन्होंने संबंधों में या कार्य स्थल पर कठिनाइयों का सामना करना छोड़ दिया।
यह शोध ब्रिटेन की सालफोर्ड विश्वविद्यालय में सालफोर्ड बिजनेस स्कूल द्वारा करवाया गया है। सर्वे इंटरनेट की ताकत की लत का भी विरोध करता है। अखबार के अनुसार, कुल 55 फीसदी लोगों ने कहा कि अगर वे अपने फेसबुक या ईमेल अकाउंट तक नहीं पहुंच पाते हैं तो वे बेचैनी और परेशानी महसूस करते हैं।
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इंटरनेट मानव सभ्यता की शानदार सुगंध है ,इसे फैलने से रोक नहीं सकते और इससे बचकर रह नहीं सकते।
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मानव मन का साइकिल है कम्प्यूटर।
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मानवीय जीवन के बाद भगवान का दिया सबसे बड़ा उपहार है तकनीक । यह सभी किस्म की सभ्यताओं ,कलारूपों और विज्ञानों की जननी है।
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बेवसाइटस का शत्रु है इनर्सिया। य़थार्थ जगत से सामंजस्यपूर्ण संबंध से ही एक्शन के परिणाम निकलते हैं।
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मानवीय जीवन के बाद भगवान का दिया सबसे बड़ा उपहार है तकनीक । यह सभी किस्म की सभ्यताओं ,कलारूपों और विज्ञानों की जननी है।
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इंटरनेट पर कोई पुलिसवाला नहीं है। बेईमानी,धूर्तता, मेनीपुलेशन आदि इंटरनेट के आम नियम हैं।यह सक्रिय मानवीय प्रकृति का दुखद उदाहरण है।
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फेसबुक मित्र या ईमेलर को अपनी प्राथमिकताएं तय न करने दें वरना संकट में फंस सकते हैं।
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मैं कम्प्यूटर से नहीं डरता बल्कि कम्प्यूटर के अभाव से डरता हूँ।
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यदि आप तकनीक के ईंजन में सवार नहीं होंगे तो आपको सड़क के रूप में जीना होगा।
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मानव सभ्यता में जितने भी कम्युनिकेशन मीडियम हैं उनकी तुलना में कम्प्यूटर से ज्यादा और सबसे तेजगति से गलती करते हैं।
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रेडियो मन का खेल है।टीवी मूर्ख का खेल है।फेसबुक अवचेतन का ड्रामा है।
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मानव सभ्यता में जितने भी कम्युनिकेशन मीडियम हैं उनकी तुलना में कम्प्यूटर से ज्यादा और सबसे तेजगति से गलती करते हैं।
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तकनीक (इंटरनेट या कैमरा) जब आदमी के साथ होती है तो सूचना की प्रकृति बदल जाती है। इसे आप आसानी से अन्य को दे सकते हैं, इसके लिए वरीयता,वरिष्ठता,श्रेष्ठता आदि अप्रासंगिक हैं।
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तकनीक में दलाल की कोई भूमिका नहीं होती। यही हाल कम्प्यूटर का है इसमें भी मिडिलमैन की कोई भूमिका नहीं हो सकती।
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एक सर्वेक्षण के मुताबिक ट्विटर और फेसबुक जैसी साइटों पर अपने दोस्तों से आगे निकलने की होड़, लोगों को कुंठित बनाने के साथ -साथ उनके आत्मविश्वास पर भी असर डाल रही है।
टेलीग्राफ समाचार पत्र के मुताबिक इस सर्वेक्षण में भाग लेने वाले आधे से ज्यादा लोगों का मानना था कि इन साइटों ने उनके व्यवहार को बदल दिया है और वे सोशल मीडिया के कुप्रभाव का शिकार हो चुके हैं। जबकि दो-तिहाई लोगों का मानना था कि इन साइटों पर वक्त बिताने के बाद वे आराम नहीं कर पाते। वहीं एक चौथाई लोगों ने माना कि इन साइटों के चलते वे झगड़ालू हो गए हैं जिसका खामियाजा उन्हें अपने रिश्तों और कार्यस्थलों पर चुकाना पड़ रहा है।
ब्रिटेन की सैलफोर्ड विशवविद्यालय बिजनेस स्कूल को ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण में 298 लोगों ने भाग लिया। इनमें से 53 फीसदी लोगों का मानना था कि सोशल नेटवर्किंग ने उनके व्यवहार में बदलाव ला दिया है और उनमें से 51 फीसदी ने इसे नकारात्मक प्रभाव बताया।
55 फीसदी लोगों का कहना था कि अगर वे अपने फेसबुक अकाउंट या ई-मेल अकाउंट को किसी वजह से खोल न पाएं तो वे चिंतित हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि किस तरह से इंटरनेट की लत ने लोगों को जकड़ में ले लिया है।

सिर हाथ पर रख लड़ी लड़ाई, इस योद्धा ने नहीं स्वीकारा इस्लाम.

बाबा दीप सिंह 300 वर्ष पुराने धार्मिक शिक्षा देने वाले दमदमी टक्साल के पहले प्रमुख थे।अहमद शाह अब्दाली द्वारा हरमिंदर साहिब (गोल्डन टेंपल) को नुकसान पहुंचाए जाने की खबर जब बाबा दीप सिंह को मिली तो उनका आदेश सुनकर तकरीबन 3000 खालसा उनके बेड़े में शामिल हो गए और उन्होंने अमृतसर की ओर कूच किया।उनका अहमद शाह अब्दाली से सामना 11 नवंबर सन् 1757 को गोहलवाड़ के नजदीक हुआ।

इस लड़ाई में अट्टल खान व बाबा दीप सिंह दोनों ने एक दूसरे पर तलवार से प्रहार किया। अट्टल खान वहीं ढेर हो गया। इस हमले में बाबा दीप सिंह की गर्दन भी धड़ से अलग हो गई। हरमिंदर साहिब को अहमद शाह अब्दाली के कब्जे से छुड़वाने के लिए बाबा दीप सिंह अपनी सेना के साथ काफी बहादुरी से युद्ध कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने खालसा लड़ाकों से कहा कि उनका सिर हरमिंदर साहिब में ही गिरेगा। तरनतारन तक पहुंचते-पहुंचते उनकी सेना में तकरीबन 5000 खालसा योद्धा शामिल हो चुके थे।दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध चला और बाबा दीप सिंह की सेना विरोधी सेना को खदेड़कर छब्बा गांव तक पहुंच गई। यहां जनरल अट्टल खान और बाबा दीप सिंह के बीच युद्ध हुआ।तभी एक खालसा ने दीप सिंह को यह याद दिलाया कि उन्होंने अपना सिर हरमिंदर साहिब में गिरने की बात कही थी। खालसा की बात सुनकर उन्होंने अपने कटे हुए सिर को बांये हाथ में उठाया और वीरता से लड़ते हुए वह हरमिंदर साहिब में दाखिल हो गए। यहां बाबा दीप सिंह अपना सिर गुरुद्वारे की पावन धरती पर रखा और अंतिम सांस ली।बाबा दीप सिंह का जन्म अमृतसर के पहुविंड गांव में 20 जनवरी सन् 1682 को हुआ था। उनके पिता का नाम भाई भगतू था। सन् 1700 में उन्होंने बैसाखी के अवसर पर उन्होंने सिक्ख धर्म की दीक्षा ली और युद्ध कला और घुड़सवारी सीखी।
भाई मणी सिंह से उन्होंने गुरुमुखी की शिक्षा ली। गुरु के दरबार में दो साल शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद वह सन् 1702 में अपने गांव वापस आ गए और शादी करके यहीं रहने लगे।सन् 1705 में वह सिक्खों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी से मिलने तलवंडी गए, जहां उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब की प्रतियां तैयार करने में भाई मणि सिंह जी की मदद की। गुरु गोबिंद साहिब के दिल्ली चले जाने के बाद उन्होंने लंबे समय तक दमदमा साहिब में रहकर सेवा की।


श्रोत ..भास्कर डाट कॉम  ...