शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

कैसे हिंदुओं को जाति में बांटा गया ?

इतिहास में या कथाओं में वही लिखा जाता है जो 'विजयी' लिखवाता है। हम हारी हुई कौम हैं। अपने ही लोगों से हारी हुई कौम। हमें किसी बाहर के व्यक्ति ने नहीं अपने ही लोगों ने बाहरी लोगों के साथ मिलकर हराया है। क्यों?
जातिवाद से संबंधित संघर्ष भारत में आए दिन होता ही रहता है, लेकिन भारतीय मुसलमान, हिन्दू और अन्य यह नहीं जानते हैं कि यह सब आखिर क्यों हो रहा है। धर्म के लिए, राज्य के लिए या किसी और के लिए। यदि भारतीय मुसलमान और हिन्दू अपने देश का पिछले 1000 वर्षों के इतिहास का गहन अध्ययन करें तो शायद पते चलेगा कि हम क्या था और अब क्या हो गए।
आज भारतीय इ‍तने अलग अलग हो गए हैं कि अब मुश्किल है यह समझना कि हिंदू या मुसलमान, दलित या ब्राह्मण कोई और नहीं यह उनका अपना ही खून है और वह अपने ही खून के खिलाफ हथियार उठाने में अब जरा भी सोचते नहीं है। पहले भारतीयों के एक हाथ में रोटी और दूसरे हाथ में धर्मग्रंथ दिए गए और अब रोटी वाले हाथों में हथियार थौप दिए हैं।
ग्रंथों के साथ छेड़खानी : प्राचीन काल में धर्म से संचालित होता था राज्य। हमारे धर्म ग्रंथ लिखने वाले और समाज को रचने वाले ऋषि-मुनी जब विदा हो गए तब राजा और पुरोहितों में सांठगाठ से राज्य का शासन चलने लगा। धीरे धीरे अनुयायियों की फौज ने धर्म को बदल दिया। बौद्ध काल ऐसा काल था जबकि ग्रंथों के साथ छेड़खानी की जाने लगी। फिर मुगल काल में और बाद में अंग्रेजों ने सत्यानाश कर दिया। अंतत: कहना होगा की साम्यवादी, व्यापारिक और राजनीतिक सोच ने बिगाड़ा धर्म को।
इसकी क्या ग्यारंटी है कि हमारे पास आज जो वेद हैं उसे तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया, हमारे पास आज जो स्मृति ग्रंथ है उसमें जानबूझकर गलत बाते नहीं जोड़ी गई। हमारे हाथ में नहीं था इतिहास लिखना, हमारे हाथ में नहीं था हमारे ग्रंथों को संजोकर रखना। बस जो कंठस्थ था उसे ही हमने जिंदा बनाए रखा। हमारे पुस्तकालय जला दिए गए। हमारे विश्व विद्यालय खाक में मिला दिए गए और हमारे मंदिर तोड़ दिए गए। क्यों? इसलिए कि हम अपने असली इतिहास को भूल जाएं।

1.
राजा और पुरोहितों की चाल : यह ऐसा काल था जबकि तथाकथित पुरोहित वर्ग ने पुरोहितों के फायदे के लिए स्मृति और पुराणों में हेरफेर किया। ऐसा राजा के इशारे पर भी होता रहा। बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी पुस्तक पॉवर में लिखा है कि प्राचीन काल में पुरोहित वर्ग धर्म का प्रयोग धन और शक्ति के संग्रहण के लिए करता था। ऐसा हर देश में हुआ।

2.
यह ऐसा काल था जबकि अरब, ईरानी, मंगोल और तुर्क मुसलमानों ने भारत के धार्मिक और राजनीतिक इतिहास के ग्रंथों को जलाकर उनका नामोनिशान मिटाने का प्रयास किया और इसमें वह कुछ हद तक सफल भी रहे। उन्होंने जहां हिंदू और बौद्धों के विश्वविद्यालय, ग्रंथालय और मंदिरों को जला दिया वहीं उनकी स्त्रियों को ले गए अरब और पुरुषों को दास बनाकर रखा अफगानिस्तान में। प्रो. केएस लाल की पुस्तक 'मुस्लिम स्लेव सिस्टम इन मिडायबल इंडिया' में इस संबंध में विस्तार से जानकारी मिल जाएगी।
आक्रमणकारी मुसलमानों ने ऐसा इसलिए किया ताकि भारतीय भूल जाएं सब कुछ और याद रखें सिर्फ इस्लाम। ईरानी, तुर्क और अरबी आदि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत पर 700 वर्ष से अधिक राज किया और यहां के गरीब हिन्दुओं को निरंतर मुसलमान बनाया और समाज में एक नई दीवार खड़ी कर दी।

3.
यह ऐसा काल था जबकि अंग्रेज भारत पर शासन करना चाहते थे। इसमें 'बांटो और राज करो' के सिद्धांत का बड़ा योगदान रहा जो ब्रिटेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति भी करता था। इसके लिए जहां उन्होंने मुसलमानों और हिन्दुओं में फूट डालने का कार्य किया वही उन्होंने हिन्दुओं को आपस में बांटकर धर्मांतरण के जरिये बंगाल सहित दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत में लोगों को ईसाई बनाया। इस तरह उन्होंने 200 से अधिक वर्ष तक सफल तरीके से शासन किया।
इस सबका परिणाम यह निकला कि जहां हिन्दू दिनहिन हो गया वहीं वह हजारों जातियों में बंटकर अपने ही लोगों को पराया समझकर उनसे दूर रहने लगा। वह धीरे-धीरे विदेशी भक्त बन गया और अपने ही धर्म तथा देश को हिन दृष्टि से देखने लगा।
 
 आगे  पढ़ें वह प्रमुख पाइंट जिनसे हिंदू बंट गया जातियों में.

पाइंट 1. बौद्ध और शंकराचार्य के काल में स्मृति और पुराण ग्रंथों में हेरफेर किया गया। इस हेरफेर के चलते ही शास्त्र में उल्लेखित क्षूद्र शब्द के अर्थ को समझे बगैर ही आधुनिक काल में निचले तबके के लोगों को यह समझाया गया कि शस्त्रों में उल्लेखित क्षूद्र शब्द आप ही के लिए इस्तेमाल किया गया है। जबकि वेद कहते हैं कि जन्म से सभी क्षूद्र होते हैं और वह अपनी मेहनत तथा ज्ञान के बल पर श्रेष्ठ अर्थात आर्य बन जाते हैं।
क्षूद्र एक ऐसा शब्द था जिसने देश को तोड़ दिया। दरअसल यह किसी दलित के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया था। लेकिन इस शब्द के अर्थ का अनर्थ किया गया और इस अनर्थ को हमारे आधुनिक साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों ने बखूबी अपने भाषण और लेखों में भुनाया।
पाइंट- 2 मध्यकाल में जबकि मुस्लिम और ईसाई धर्म को भारत में अपनी जड़े जमाना थी ‍तो उन्होंने इस जातिवादी धारणा का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और इसे और हवा देकर समाज के नीचले तबके के लोगों को यह समझाया गया कि आपके ही लोग आपसे छुआछूत करते हैं। मध्यकाल में हिन्दू धर्म में बुराईयों का विस्तार हुआ। कुछ प्रथाएं तो इस्लाम के जोरजबर के कारण पनपी, जैसे सतिप्रथा, घर में ही पूजा घर बनाना, स्त्रीयों को घुंघट में रखना आदि।
पाइंट 3- अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो की नीति' तो 1774 से ही चल रही थी जिसके तहत हिंदुओं में उच-नीच और प्रांतवाद की भावनाओं का क्रमश: विकास किया गया अंतत: लॉर्ड इर्विन के दौर से ही भारत विभाजन के स्पष्ट बीज बोए गए। माउंटबैटन तक इस नीति का पालन किया गया। बाद में 1857 की असफल क्रांति के बाद से अंग्रेजों ने भारत को तोड़ने की प्रक्रिया के तहत हिंदू और मुसलमानों को अलग-अलग दर्जा देना प्रारंभ किया।
हिंदुओ को विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिंदुओ को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले गए और हिंदुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाप देकर उन्हों स्पष्टतौर पर जातियों में बांट दिया गया। इतना ही नहीं 1891 की जनगणना में केवल चमार की ही लगभग 1156 उपजातियों को रिकॉर्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज तक कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होगी।
पाइंट 4- आजादी के बाद में यही काम हमारे राजीतिज्ञ करते रहे। उन्होंने भी अंग्रेजों की नीति का पालन किया और आज तक हिन्दू ही नहीं मुसलमानों को भी अब हजारों जातियों में बांट दिया। बांटो और राज करो की नीति के तहत आरक्षण, फिर जातिगत जनगणना, हर तरह के फार्म में जाति का उल्लेख करना और फिर चुनावों में इसे मुद्दा बनाकर सत्ता में आना आज भी जारी है।
गरीब दलित यह नहीं जानता की हमारी जनसंख्या का फायदा हमें बांटकर उठाया जा रहा है। आजादी के 65 साल में आज भी गरीब गरीब ही है तो क्यों। नेहरुजी कहते थे हम भारत से जातिवाद और गरीबी को मिटा देगें और आज सोनिया भी यही कहती है कि हमें भारत से गरीबी मिटाना है। क्या 65 साल से ज्यादा लगते हैं गरीबी मिटाने के लिए ? 
By --अनिरुध्ध ....

!!इन 10 पोप को मिली इतिहास की सबसे भयानक मौत !!

पोप का मतलब होता है, पापा यानी पिताजी. इस शब्द का इस्तेमाल उस व्यक्ति के लिए किया जाता है, जो कैथोलिक चर्च पर राज करता है. पोप के पद को लेकर बहुत सारे किस्से-कहानियां प्रचलित हैं.
 
कुछ किस्से दुष्ट पोप के बारे में बताए जाते हैं तो इसके विपरीत पोप सेंट ग्रिओगरी द ग्रेट, जिन्होंने दुनिया को कैलेंडर दिया के बारे में भी बात की जाती है. इतिहास में पोप के पद से जुड़े लोगों का कई तरह से खून-खराबे से भी नाता रहा है. .......
 
'पोप सेंट पीटर' (13 अक्टूबर 64 A.D.)
पोप सेंट पीटर प्रभु यीशु से बहुत प्रभावित थे। वह अपने समय में ईसाई धर्म के बड़े पैरोकार माने जाते थे। ईसाईयों से नफरत करने वाले रोमन शासक 'नीरो' एक बार पोप सिमोन पीटर से नाराज हो गए। उनके आदेश पर पोप को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया, लेकिन वह किसी तरह भाग निकले। 'पीटर' को बाद में पश्चाताप हुआ। उन्होंने सम्राट नीरो के सामने आत्मसर्मपण कर अपने लिए मौत मांगी। उन्होंने कहा कि 'मेरे साथ वैसा ही बर्ताव किया जाए, जैसे यीशु के साथ हुआ। पोप को क्रूस पर लटका दिया गया, लेकिन उनकी गर्दन टेढ़ी होने के कारण वह लटकते हुए तड़पते रहे. बड़ी मुश्किल से आत्मा ने उनका साथ छोड़ा।

पोप सेंट क्लिमेंट-I (99 A.D.)
 
एक किवदंती के अनुसार, रोम से निर्वासित होने के बाद पोप क्लिमेंट को सजा के तौर पर दूर एक खदान में काम करने के लिए भेज दिया। वहां क्लिमेंट ने एक कैदी साथी को प्यास से तड़पते हुए देखा। वह भगवान से प्रार्थना करने लगे,  तभी उन्हें पहाड़ी पर एक भेड़ का बच्चा दिखा। वे एक कुदाल लेकर आए और उस जगह खोदना शुरू कर दिया, जहां भेड़ का बच्चा था। थोड़ी देर में ही वहां से पानी का फव्वारा निकल पड़ा। इस चमत्कार को देख स्थानीय निवासी और कैदियों ने उसी समय ईसाई धर्म अपना लिया। इस बात से नाराज सुरक्षा गार्डो ने उनके गले में भारी एंकर बांध 'काले सागर' में फेंक दिया। 

पोप सेंट स्टीफन-I  (2 अगस्त 257)
 
स्टीफन केवल अकेले व्यक्ति थे, जो सिर्फ तीन साल के लिए पोप बने। उनके साथ चर्च और बाहरी ताकतों के साथ विवादों की अनगिनत कहानियां थीं। चर्च में वह पापी ईसाईयों के पुर्नदीक्षा के विरोध में सबसे ज्यादा मुखर होकर बोलते थे। वहीं बाहर,  कभी ईसाई लोगों के सहायक माने जाने वाले राजा वेलेरियन दो राजाज्ञाओं का पालन न किए जाने के कारण उनके विरोधी हो गए थे। एक उत्सव के दौरान स्टीफन राजा के सिंहासन पर बैठ गए थे। इसे देख राजा के आदमियों ने उन्हें वहीं सिर कलम कर दिया। पूरा सिंहासन खून से लथपथ हो गया। ऐसा कहा जाता है कि 18वीं सदी तक चर्च के पास यह खून से सना सिंहासन था।

पोप सेंट सिक्टस-II (6 अगस्त 257)   
 
पोप स्टीफन के मरने के बाद ही सिक्टस-II को नया पोप घोषित किया गया। उनके समय में राजा वेलेरियन के आदेश के तहत सभी ईसाईयों को रोमन देवताओं के सम्मान समारोहों में आना अनिवार्य था। पोप होने के कारण सिर्फ सिक्टर पर समारोह में जाने का आदेश लागू नहीं होता था। आदेश की अवहेलना करने वाले कई ईसाई पादरियों, बिशप और छोटे पादरियों को मौत के घाट उतार दिया गया। वहीं भक्तों को उपदेश देने के दौरान राजा के आदमियों ने सिक्टस का सिर कलम कर दिया। यह साल 248 की सबसे भयावह घटना मानी जाती है..
पोप जॉन-VII (18 अक्टूबर 707)
 
सीनेटर के पोते और राज्याधिकारी के बेटे जॉन सप्तम अपने प्रतिष्ठित परिवार से पहले पोप थे। वह बैंजाटाइन पैपेसी के समय पोप थे, जहां सभी पोप राजा बैंजाटाइन के आदेशों का पालन करते थे। हालांकि कई पोप उनके आदेशों को ठीक नहीं मानते थे, लेकिन उन्हें मौत से डर लगता था। एक महिला के साथ सोते हुए पकड़े जाने के अधिनियम के तहत जॉन को जमकर पीटा गया और बाद में मौत के घाट उतार दिया
पोप जॉन-VIII (16 दिसम्बर 882)
 
अगर सारी बातों को दरकिनार कर दिया जाए पोप जॉन अष्टम अपने समय के सबसे बेहतरीन पोप थे। उनके समय में राजनीतिक षड्यंत्र का बोलबाला था। पोप भी इससे बचे नहीं थे। उन्होंने एक बार अंदाजा कहा था कि या तो उनकी हत्या कर दी जाएगी या फिर उन्हें चर्च के खजाने की चोरी के इल्जाम में पद से हटा दिया जाएगा। एक शाम पोप के रिश्तेदार उनसे मिलने आए और चुपचाप से उनकी ड्रिंक में जहर मिला दिया। कुछ देर बाद रिश्तेदार ने देखा कि जहर का असर नहीं हो रहा है तो उसने हथौड़ा उठाकर उनके सिर में जोर से दे मारा..

पोप स्टीफन-VII (अगस्त 897)
 
पोप स्टीफन (सप्तम) अपने किसी आदेश और परोपकार के कामों के लिए प्रसिद्ध नहीं थे। उनके दुश्मनों ने उनके कपड़े उतारकर जमकर पीटा, फिर उनके दाएं हाथ की तीन अंगुलियां काट डाली। फिर उन्हें टिबर नदी में फेंक दिया। उनके द्वारा दिए गए सारे आदेशों को रद्द कर दिया गया। उन्हें जेल में डाल दिया गया, जहां घुट-घुट कर उनकी मौत हो गई।

पोप जॉन-12 (14 मई 964)
 
पोप के बारे में सोचते ही दयालू, परोपकारी और भक्तों के घिरे हुए आदमी का चेहरा उभरता है, लेकिन पोप जॉन-12 उनमें से नहीं थे। पोप बनते ही उन्होंने सोचा कि सारी उम्र वह ब्रह्मचारी बने रहना उनके लिए संभव नहीं हैं। उनके समय हत्या, लूटपाट, अनाचार ने जमकर सिर उठाया। एक बार एक घर में एक महिला के साथ सेक्स करते हुए पकड़े जाने पर महिला के पति ने उन्हें पीट-पीट कर मार डाला।
 पोप बेनेडिक्ट-VI (जून 974)
 
पोपपोप पोप बेनेडिक्ट-VI अपने पहले के पोप जॉन-XIII की गलतियों का शिकार हुए. दरअसल पोप जॉन-XIII के समय में वह कई दुश्मनों से घिरे हुए थे। कुछ तो यूरोप के बड़े अमीर घराने से ताल्लुक रखते थे। पहले पोप जॉन को गिरफ्तार कर निर्वासित कर दिया। बाद में जब कैसे भी करके जॉन लौटे तो उन्होंने अपने विरोधियों को फांसी पर लटकवा दिया और कुछ को देश निकाला दे दिया। जॉन भाग्यशाली थे कि उनकी मौत किसी दुश्मन के हाथों नहीं, बल्कि प्राकृतिक तरीके से हुई। उसके डेढ़ साल बाद बेनेडिक्ट-VI को पोप बनाया गया। पूर्व पोप जॉन-XIII के पादरी भाई ने दुर्भावना स्वरूप उन्हें गिरफ्तार करवा दिया और बाद में मरवा डाला।
 
पोप जॉन-XXI (18 अगस्त 1277)
 
पोप जॉन-XXI के बड़े प्रसिद्ध लेखक होने के साथ डॉक्टरी की प्रैक्टिस भी करते थे। उनके लेखन में तथ्य, दर्शन, मेडिकल का मिश्रण होता था। अपने समय में उन्होंने डेंट्स का क्लासिक महाकाव्य लिखा। सच्चे मायनों वे स्वर्ग जाने का हकदार थे। इटली में उनके पैलेस में एक नई विंग का निर्माण किया गया था। दुर्भाग्य से उसकी छत कमजोर निकली। जिस समय वह सोए हुए थे, छत उनके ऊपर गिर गई। आठ दिनों तक तड़पने के बाद उनकी मौत हो गई।
 
 BY ---भास्कर.कॉम से साभार ...