मंगलवार, 25 सितंबर 2012

!! शाह बानो केस: घोर साम्प्रदायिकता और तुष्टीकरण !!

राजीव गाँधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में जो अनेक मूर्खतापूर्ण निर्णय किये थे, उनमें शाह बानो का मामला अपनी तरह का अनोखा है, जिसमें एक सम्प्रदाय के कट्टरपंथियों को संतुष्ट करने के लिए उन्होंने देश के संविधान, कानून, न्यायपालिका और संसद सबको अपमानित किया। 

कल्पना कीजिए कि एक 62 साल की बूढ़ी महिला शाह बानो, जिसके 5 बच्चे थे, को उसका पति केवल तीन शब्द बोलकर तलाक दे देता है और उसको कोई निर्वाह भत्ता भी नहीं देता, जिससे वह बेसहारा महिला कम से कम रोटी खा सके। बेचारी महिला इस्लाम के झंडाबरदार मुल्ला-मौलवियों के दरवाजों पर जाकर गिड़गिड़ायी कि मुझे अपने खर्च लायक भत्ता दिलवा दो। परन्तु मुल्लों ने उसे टका सा जबाब दे दिया कि इस्लामी कानून के अनुसार निर्वाह भत्ता केवल इद्दत की मियाद तक होता है, उसके बाद हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

बेचारी बुढि़या के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वह न्यायालय में गुहार लगाती। वह हर न्यायालय में किसी प्रकार जीती, लेकिन उसका सम्पन्न पति और ऊपर की अदालत में अपील कर देता था। अन्ततः मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा। वहाँ विद्वान् न्यायाधीशों ने मामले पर गहरायी से विचार करके मानवीय आधार पर उसे निर्वाह भत्ता देने का निर्देश दिया। 

यह फैसला आते ही कठमुल्लों को मिर्च लग गयी। न्यायाधीशों ने मुस्लिम पर्सनल लाॅ को दर किनार करके मानवीय आधार पर फैसला दिया था, इसलिए ‘इस्लाम खतरे में है’ के नारे लगाये जाने लगे और न्यायाधीशों के पुतले जलाये जाने लगे। स्वयं को ‘सेकूलर’ कहने वाले तमाम राजनैतिक दल इस मामले में पूरी निर्लज्जता से मुस्लिम कठमुल्लावाद का समर्थन करने लगे। किसी ने यह पूछने की हिम्मत नहीं की कि यह कैसा धर्म है, जो एक बूढ़ी महिला को निर्वाह भत्ता देने मात्र से खतरे में पड़ जाता है? ओबैदुल्ला खाँ आजमी और सैयद शहाबुद्दीन जैसे ‘महा-सेकूलर’ लोगों ने तत्काल आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड का गठन कर डाला और ‘इस्लाम बचाने’ के कार्य में जुट गये।

राजीव गाँधी की तत्कालीन सरकार और कांग्रेस का रवैया इस मामले में घोर आपत्तिजनक रहा। उन्होंने न केवल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की खुली आलोचना की, बल्कि संसद में अपने प्रचण्ड बहुमत का दुरुपयोग करते हुए संविधान में ऐसा संशोधन कर दिया, जिससे तलाक के बाद निर्वाह भत्ते के मामले कानून की परिधि से बाहर हो गये और केवल मुस्लिम पर्सनल लाॅ के अनुसार तय किये जाने लगे। इस प्रकार उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पूरी तरह बेकार कर दिया। 

‘इस्लाम’ बच गया, लेकिन उसे बचाने की कोशिश में राजीव गाँधी की सरकार ने निम्नलिखित 5 अपराध कर दिये-
1. सर्वोच्च न्यायालय और न्यायाधीशों का अपमान
2. संविधान के साथ खिलवाड़
3. संसद का घोर दुरुपयोग
4. साम्प्रदायिक तत्वों का तुष्टीकरण
5. मानवता का अपमान

राजीव गाँधी ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को जिस प्रकार खाद-पानी दिया, उससे यह समस्या आगे चलकर और भी भयावह हो गयी, जैसा कि हम आगे देखेंगे।
देखेगे क्या सब दिखाई दे गया ......

नोट --उपरोक्त ब्लॉग नवभारत  टाइम से साभार ...
                
                     !! क्या है सह्बनो प्रकरण !!
मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम, AIR 1985 SC 945
इस मुक़दमे में अपीलार्थी मोहम्मद अहमद खान मध्य प्रदेश के प्रसिद्द नगर इंदौर के निवासी और एक नामी अधिवक्ता थे। उनकी वार्षिक आय लगभग साठ हज़ार रुपए थी, उन्होंने 1932 में अपना विवाह बाईस वर्षीय शाहबानो बेगम से किया था, इस विवाह के परिणाम स्वरुप तीन बेटे और दो बेटियों के वे पिता बने। 1975 में 65 वर्षीय शाहबानो बेगम को पति ने घर से निकाल दिया। पत्नी की अपनी सम्पति या आय न होने के कारण शाहबानो ने अपनी पुत्री के यहाँ शरण ली। पति ने जब शाहबानो की कोई खबर न ली और ना ही उसके गुज़ारे की कोई व्यवस्था की, तो घर से निष्काषित पत्नी ने दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 के अंतर्गत पति से 500 रूपये प्रतिमाह गुज़ारा भत्ता पाने के लिए अप्रेल 1978 में प्रथम क्ष्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट इंदौर के न्यायालय में एक आवेदन पत्र दाखिल किया। अपीलार्थी पति चूँकि पेशे से वकील था और विधि का ज्ञाता था और वह जानता था की शाहबानो बेगम अपने दावे में ज़रूर सफल होगी इसलिए उसने एक चाल चली। 6 नवंबर, 1978 ही को अपीलार्थी ने अपनी पत्नी को अप्रतीसहंरणीय तलाक यह कहकर दिया “मैं तुम्हे तलाक देता हूँ, मैं तुम्हे तलाक देता हूँ मैं तुम्हे तलाक देता हूँ!!”
अपीलार्थी पति ने अपनी पत्नी द्वारा गुज़ारे के लिए दायर वाद में न्यायिक मजिस्ट्रेट इंदौर के न्यायालय में यह बचाव लिया कि चूँकि उसने (पति) प्रत्यर्थी शाहबानो बेगम को तलाक दे दिया है और यह तलाक प्रभावी हो गया अतः उसे भरण पोषण देने का अब उसका कोई दायित्व नहीं है, तथा यह इद्दत काल के भरण पोषण के लिए और उसकी मेहर अदायगी के लिए उसने तीन हज़ार रूपये न्यायलय में जमा कर दिए हैं। पति ने अपने पेशे का लाभ उठाया और इसलिए विद्वान न्यायिक मजिस्ट्रेट इंदौर ने यह आदेश दिया की पति द्वारा आवेदिका पत्नी को गुज़ारे करे लिए नाममात्र की धनराशि 25 रूपये प्रतिमाह दी जाए। न्यायिक मजिस्ट्रेट इंदौर के इस आदेश के विरुद्ध शाहबानो बेगम ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में रिविज़न का प्रार्थना पत्र दिया। उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश ने मासिक धनराशि को 25 रूपये से बढाकर 179.20 पैसे कर दिया। इससे क्षुब्ध होकर पति ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध माननीय उच्चतम न्यायालय में अपील की।
चूँकि इस मामले के निर्णय का प्रभाव आम मुसलमानों पर पड़ सकता था, इस कारण आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने प्रार्थना पत्र दिया कि उसे भी सुना जाए और इस कारण आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को भी प्रत्यर्थी (पक्षकार) बनाया गया। इस बोर्ड के अध्यक्ष दारुल उलूम देवबंद के मौलाना तैयब थे। बोर्ड ने पैरवी का इंचार्ज तत्कालीन जनता पार्टी के नेता सैय्यद शहाबुद्दीन को बनाया जो बोर्ड के सक्रीय सदस्य भी थे और आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की और से भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री युनुस सलीम (एडवोकेट ) ने बहस की। अपीलार्थी मोहम्मद आजाम खान स्वयं वकील होने के नाते उन्होंने मुक़दमे की पैरवी में कोई कसर बाकी न रखी।
अपीलार्थी की तरफ से और आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की तरफ से ये दलील उच्चतम न्यायालय के समक्ष दी गयी की मुस्लिम पर्सनल ला के अनुसार तलाकशुदा पत्नी केवल इद्दत काल में ही भरण पोषण की अधिकारिणी है इद्दत की अवधि बीत जाने के पश्चात पति का कोई दायित्व नहीं है कि वह तलाकशुदा पत्नी का भरण पोषण प्रदान करे (इद्दत काल तलाक की दशा में सामान्यतः तीन मॉस का होता है )। अपनी दलील के समर्थन में वे मुस्लिम विधि की पाठ्य पुस्तके दिनशा मुल्ला की मोहम्डन ला. तथा तैय्यब जी की 'मुस्लिम ला' तथा पारस दीवान की 'मुस्लिम ला इन मोर्डन इण्डिया' का हवाला देते हैं। यह भी दलील दी गयी की चूँकि दंड प्रक्रिया सहिंता की धारा 125 तलाकशुदा पत्नी के भरण पोषण का प्रबंध करती है इसलिए वह मुस्लिम पर्सनल ला के विरोध में है और उसे संशोधित करती है।
किन्तु उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णित किया की उपर्युक्त मुस्ल्लिम विधि की पाठ्य पुस्तकों में जो विधि वर्णित है कि तलाकशुदा पत्नी इद्दतकाल के बाद भरण पोषण की हकदार नहीं है वह केवल धनवान पत्नी पर लागू होता है या ऐसी पत्नी पर जो अपना भरण पोषण अपनी आय या संपत्ति से कर सकती है, ना कि निर्धन या असमर्थ पत्नी पर।
शाहबानो बेगम वाद में दिए गए निर्णय से कट्टर और प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने कडा विरोध किया और आवाज़ उठाई की ये निर्णय उनके धर्म (शरियत) के प्रतिकूल है। कट्टरपंथी मुसलमानों के अनुसार पति तलाकशुदा पत्नी को इद्दतकाल के बाद भरण पोषण देने के लिए बाध्य नहीं है।
भारतीय संसद ने इस विषय पर मुस्लिम विधि को स्पष्ट करने के लिए सन 1986 में मुस्लिम महिला (विवाह-विच्छेद पर अधिकारों का सरंक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया।
इस केस में महत्वपूर्ण बात ये थी की सुप्रीम कोर्ट ने जहाँ कुरआन की आयतों का सहारा लेकर ये तय किया था की कुरआन में भरण पोषण जायज़ है वहीँ आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और अन्य पाठ्य पुस्तक और मुस्लिम पर्सनल ला अधिनियम 1937 का हवाला दे रहे थे। इससे साफ़ था की उनकी मंशा, मज़हब के अनुसार नहीं बल्कि तलाक के बाद पुरुष को महिला को कुछ न देना पड़े इस पर आधारित थी, एक महिला पर मुस्लिम पुरुष समाज का बड़े हिस्से का गठित हो जाना और उसमे आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का दखल बहुत अनहोनी घटना लगती है।
यहाँ ये भी ध्यान रखना चाहिए की शाहबानो पहला केस नहीं था जिसमे भरण पोषण दिया गया। अंग्रेजो के समय पारित दंड प्रक्रिया सहिंता और 1973 में पारित सहिंता के अनुसार पहले भी भरण पोषण दिया जाता था, मगर ये केस हाईलाईट हुआ क्योंकि मोहम्मद आज़म एक जाने माने वकील थे और उनकी जिद और पेंसठ साल की उम्र में बीवी को उसका हक देने की बजाय उसको तलाक दे देने की सनक ने सारे देश और न्यायविदों का ध्यान इस और खींच और हमेशा की तरह से आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड का हर मामले में टांग अड़ा देना भी इसका बड़ा कारण बना।
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