मंगलवार, 24 जनवरी 2012

!!खजुराहो के मंदिरों में नग्न मुर्तिया क्यों ?

http://www.bhaskar.com/article/c-58-1881635-NOR.html?seq=2&HF-9=
सदियों  से एक अनसुलझा पहलु है की आखिर अजन्ता एलोरा की गुफाओ में खजुराहो की मंदिरों में इस प्रकार की नग्न कलाकृत का निर्माण क्यों हुआ है ? जबके समाज में इस प्रकार के नग्न चित्र भी देखना पाप और अमर्यादित मना जाता है ,फिर खले आम इस प्रकार के मंदिरों का निर्माण का क्या ओचित्य है ?कलाकरी का उत्क्रिस्ट नमूना है खजुराहो की मुर्तिया!
खजुराहो की मूर्तियों की सबसे अहम और महत्त्वपूर्ण ख़ूबी यह है कि इनमें गति है, देखते रहिए तो लगता है कि शायद चल रही है या बस हिलने ही वाली है, या फिर लगता है कि शायद अभी कुछ बोलेगी, मस्कुराएगी, शर्माएगी या रूठ जाएगी। और कमाल की बात तो यह है कि ये चेहरे के भाव और शरीर की भंगिमाऐं केवल स्त्री पुरुषों में ही नहीं बल्कि जानवरों में भी दिखाई देते हैं। कुल मिलाके कहा जाय तो हर मूर्ति में एक अजीब सी जुंबिश नज़र आती है।तंत्र ने सेक्‍स को स्प्रिचुअल बनाने का दुनिया में सबसे पहला प्रयास किया था। खजुराहो में खड़े मंदिर, पुरी और कोणार्क के मंदिर सबूत है। कभी आप खजुराहो की मूर्तियों देखी। तो आपको दो बातें अदभुत अनुभव होंगी। पहली तो बात यह है कि नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि उन में जरा भी कुछ गंदा है। जरा भी कुछ अग्‍ली है। नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देख कर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि कुछ कुरूप है; कुछ गंदा है, कुछ बुरा है। बल्‍कि मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर एक शांति, एक पवित्रता का अनुभव होगा जो बड़ी हैरानी की बात है। वे प्रतिमाएं आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स को जिन लोगों ने अनुभव किया था, उन शिल्‍पियों से निर्मित करवाई गई है।उन प्रतिमाओं के चेहरों पर……आप एक सेक्‍स से भरे हुए आदमी को देखें, उसकी आंखें देखें,उसका चेहरा देखें, वह घिनौना, घबराने वाला, कुरूप प्रतीत होगा। उसकी आंखों से एक झलक मिलती हुई मालूम होगी। जो घबराने वाली और डराने वाली होगी। प्‍यारे से प्‍यारे आदमी को, अपने निकटतम प्‍यारे से प्‍यारे व्‍यक्‍ति को भी स्‍त्री जब सेक्‍स से भरा हुआ पास आता हुआ देखती है तो उसे दुश्‍मन दिखाई पड़ता है, मित्र नहीं दिखाई पड़ता। प्‍यारी से प्‍यारी स्‍त्री को अगर कोई पुरूष अपने निकट सेक्‍स से भरा हुआ आता हुआ दिखाई देगा तो उसे आसे भीतर नरक दिखाई पड़ेगा, स्‍वर्ग नहीं दिखाई पड़ सकता।लेकिन खजुराहो की प्रतिमाओं को देखें तो उनके चेहरे को देखकर ऐसा लगता है, जैसे बुद्ध का चेहरा हो, महावीर का चेहरा हो, मैथुन की प्रतिमाओं और मैथुन रत जोड़े के चेहरे पर जो भाव है, वे समाधि के है, और सारी प्रतिमाओं को देख लें और पीछे एक हल्‍की-सी शांति की झलक छूट जाएगी और कुछ भी नहीं। और एक आश्‍चर्य आपको अनुभव होगा।आप सोचते होंगे कि नंगी तस्‍वीरें और मूर्तियां देखकर आपके भीतर कामुकता पैदा होगी,तो मैं आपसे कहता हूं, फिर आप देर न करें और सीधे खजुराहो चले जाएं। खजुराहो पृथ्‍वी पर इस समय अनूठी चीज है। आध्यातिमिक  जगत में उस से उत्‍तम इस समय हमारे पास और कोई धरोहर उस के मुकाबले नहीं बची है।लेकिन हमारे बिद्वान पुरष पुरूषोतम दास टंडन और उनके कुछ साथी इस सुझाव के थे कि खजुराहो के मंदिर पर मिटटी छाप कर दीवालें बंद कर देनी चाहिए, क्‍योंकि उनको देखने से वासना पैदा हो सकती है। खजुराहो के मंदिर जिन्‍होंने बनाए थे, उनका ख्‍याल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठकर घंटे भर देखे तो वासना से शून्‍य हो जाएगा। वे प्रतिमाएं आब्‍जेक्‍ट फार मेडि़टेशन रहीं हजारों वर्ष तक वे प्रतिमाएं ध्‍यान के लिए आब्‍जेक्‍ट का काम करती रही। जो लोग अति कामुक थ, उन्‍हें खजुराहो के मंदिर के पास भेजकर उन पर ध्‍यान करवाने के लिए कहा जाता था। कि तुम ध्‍यान करों—इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हाँ जाओ।अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठ कर ध्‍यानमग्‍न होकर देखे तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।कुछ बिद्वानो का तो ऐसा मानना है की खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गांव-गांव में होने चाहिए।बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है। वे बेवकूफी के सबूत है, उनमें कुछ नहीं है। उनमें न कोई वैज्ञानिकता है, न कोई अर्थ, न कोई प्रयोजन है।  लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूर अर्थपूर्ण है।जिस आदमी का भी मन सेक्‍स से बहुत भरा हो, वह जाकर इन पर ध्‍यान करे और वह हल्‍का लौटेगा शांत लोटेगा। तंत्रों ने जरूर सेक्‍स को आध्‍यात्‍मिक बनाने की कोशिश की थी।एक गृहस्थ के जीवन में संपूर्ण तृप्ति के बाद ही मोक्ष की कामना उत्पन्न होती है | संपूर्ण तृप्ति और उसके बाद मोक्ष, यही दो हमारे जीवन के लक्ष्य के सोपान हैं | कोणार्क, पूरी, खजुराहो, तिरुपति आदि के देवालयों मैं मिथुन मूर्तियों का अंकन मानव जीवन के लक्ष्य का प्रथम सोपान है | इसलिए इसे मंदिर के बहिर्द्वार पर ही अंकित/प्रतिष्ठित किया जाता है | द्वितीय सोपान मोक्ष की प्रतिष्ठा देव प्रतिमा के रूप मैं मंदिर के अंतर भाग मैं की जाती है | प्रवेश द्वार और देव प्रतिमा के मध्य जगमोहन बना रहता है, ये मोक्ष की छाया प्रतिक है | मंदिर के बाहरी द्वार या दीवारों पर उत्कीर्ण इन्द्रिय रस युक्त मिथुन मूर्तियाँ देव दर्शनार्थी को आनंद की अनुभूतियों को आत्मसात कर जीवन की प्रथम सीढ़ी - काम तृप्ति - को पार करने का संकेत कराती है ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थी को ये स्मरण कराती है की जिस व्यक्ती ने जीवन के इस प्रथम सोपान ( काम तृप्ति ) को पार नहीं किया है, वो देव दर्शन - मोक्ष के द्वितीय सोपान पर पैर रखने का अधिकारी नहीं | दुसरे शब्दों मैं कहें तो देवालयों मैं मिथुन मूर्तियाँ मंदिर मैं प्रवेश करने से पहले दर्शनार्थीयों से एक प्रश्न पूछती हैं - "क्या तुमने काम पे विजय पा लिया?" उत्तर यदि नहीं है, तो तुम सामने रखे मोक्ष ( देव प्रतिमा ) को पाने के अधिकारी नहीं हो | ये मनुष्य को हमेशा इश्वर या मोक्ष को प्राप्ति के लिए काम से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है | मंदिर मैं अश्लील भावों की मूर्तियाँ भौतिक सुख, भौतिक कुंठाओं और घिर्णास्पद अश्लील वातावरण मैं भी आशायुक्त आनंदमय लक्ष्य प्रस्तुत करती है | भारतीय कला का यह उद्देश्य समस्त विश्व के कला आदर्शों , उद्देश्यों एवं व्याख्या मानदंड से भिन्न और मौलिक है |

प्रश्न किया जा सकता है की मिथुन चित्र जैसे अश्लील , अशिव तत्वों के स्थान पर अन्य प्रतिक प्रस्तुत किये जा सकते थे/हैं ? - ये समझना नितांत भ्रम है की मिथुन मूर्तियाँ , मान्मथ भाव अशिव परक हैं | वस्तुतः शिवम् और सत्यम की साधना के ये सर्वोताम माध्यम हैं | हमारी संस्कृति और हमारा वाड्मय इसे परम तत्व मान कर इसकी साधना के लिए युग-युगांतर से हमें प्रेरित करता आ रहा है –


मैथुनंग परमं तत्वं सृष्टी स्थित्यंत कारणम्

मैथुनात जायते सिद्धिब्रह्म्ज्ञान सदुर्लाभम |

देव मंदिरों के कमनीय कला प्रस्तरों मैं हम एक ओर जीवन की सच्ची व्याख्या और उच्च कोटि की कला का निर्देशन तो दूसरी ओर पुरुष प्रकृति के मिलन की आध्यात्मिक व्याख्या पाते हैं | इन कला मूर्तियों मैं हमारे जीवन की व्याख्या शिवम् है , कला की कमनीय अभिव्यक्ती सुन्दरम है , रस्यमय मान्मथ भाव सत्यम है | इन्ही भावों को दृष्टिगत रखते हुए महर्षि वात्सयायन मैथुन क्रिया, मान्मथ क्रिया या आसन ना कह कर इसे 'योग' कहा है |लेकिन इस मुल्‍क के नीति शास्त्री और मारल प्रीचर्स है उन दुष्‍टों ने उनकी बात को समाज तक पहुंचने नहीं दिया।मेरा चारों तरफ विरोध को कोई और कारण थोड़े ही है। लेकिन मैं न इन राजनितिगों से डरता हूं और न इन नीतिशास्‍त्रीयों से। जो सच है वो में कहता रहूंगा। उस की चाहे मुझे कुछ भी कीमत क्‍यों न चुकानी पड़े।मुझे पता है की मेरे बहुत से दोस्त यह सोचते होगे की आखिर सर को क्या हो गया जो इस प्रकार बाते अपने ब्लॉग में लिख रहे है पर मन में जो भाव पैदा हुए है वह लिख दिया ....
नोट --आप सभी एक बार खजुराहो के मंदिरों का दर्शन  जरुर करे ,मूर्ति कला का ऐसा संग्रह संसार में सायद ही कही देखने को मिले --!!

!!उफ्फ ! यह जाति की दीवार आखिर कब तक ???

कहते हैं ‘Truth is stranger than Fiction ‘ .इस घटना पर यह उक्ति पूर्णतः खरी उतरती है.
काफी पहले की घटना है,मेरे गाँव से एक छोटे से लड़के को एक उच्च वर्ग वाले अपने शहर नौकर के तौर पर ले गए.उन दिनों ऐसा चलन सा था.पिता खेतों में काम करता और उनके बच्चे शहरों में किसी ना किसी के घर नौकर बन कर जाते.अब तो यह चलन समाप्तप्राय है.नयी पीढ़ी के नौजवान खुद ही पंजाब,असाम जाकर मजदूरी करते हैं. पर बीवी बच्चों को आराम से रखते हैं.
खैर, ऐसे ही हमारे ‘शालिक काका’ का बेटा ‘शिव ज्योति ‘ किसी के साथ शहर गया और दो दिनों बाद ही वहाँ से भाग निकला.उसे ना शहर का नाम पता था,ना अपने घर का पता और वह गुम हो गया.गाँव में जब पता चला तो बहुत हंगामा मचा.उन महाशय के घर के सामने शालिक काकी (हम उन्हें यही,कहते थे) ने जाकर बहुत गालियाँ दीं.उन दिनों ऐसा ही करते थे,जिस से नाराजगी हो उसके घर के सामने जाकर चिल्ला चिल्ला कर खूब गालियाँ दीं जाती थीं.और बाकी पूरा गाँव तमाशा देखता था.’शालिक काका’ ने भी अपने बाल और  दाढ़ी,मूंछ बढा ली थी . लोग कहते , उन्होंने कसम खाई है कि जिस शख्स की वजह से उनका बच्चा गुम हो गया है., उसका क़त्ल करने के बाद ही कटवाएँगे. उन महाशय का, जो ‘शिव ज्योति ‘ को गाँव से लेकर गए थे का गाँव आना बंद हो गया.
इसके बाद तो इतनी अफवाहें उड़ने लगीं, जितनी धूल भी किसी  कच्ची मिटटी पर चलती कोई बस भी क्या उड़ाएगी .रोज नए किस्से.कोई कहता,  शिव ज्योति (वैसे उसके नाम का सही उच्चारण कोई नहीं  करता…कुछ लोग ‘सिजोती’ कहते पर ज्यादातर लोग ‘सिजोतिया’ ही कहते)  को सर्कस में देखा है,कोई कहता किसी बाज़ार में तो कोई कहता किसी प्लेटफ़ॉर्म पर.ढोंगी बाबाओं की भी खूब बन आई.पता बताने के बहाने उस गरीब से खूब रुपये ऐंठते.!ऐसे ही एक बार गाँव में साधुओं का एक दल आया. उसमे से एक किशोर साधू का चेहरा थोडा बहुत शिव ज्योति से मिलता था. फिर क्या पूरा गाँव उसके पीछे.संयोग से मैं भी उन दिनों गाँव गयी हुई थी.बड़े भाई’ राम ज्योति’ ने उस साधू का हाथ कस कर पकड़ रखा था.हमारे गाँव में उस जाति विशेष में कुछ ऐसी ही प्रथा थी.,बड़े बेटे का नाम ‘राम’ पर रखते और छोटे बेटे का ‘शिव’ पर . गाँव के सारे बच्चे, बड़े उसे घेर कर खड़े.सैकड़ों सवाल उस से पूछे जाते.और हर सवाल का मतलब अपनी तरह से लोग निकाल लेते.उस से पूछा “ये पास वाले खेत किसके हैं.?”..उसने कहा,”मालिक के”..और पूरा गाँव अश अश कर उठा क्यूंकि मेरे दादाजी को सबलोग मालिक कह कर बुलाते थे.आस पास के खेत उनके ही थे.ऐसे ही उसके शरीर पर के सारे चिन्ह लोगों को शिव ज्योति से मिलते जुलते लगे,दिन भर यह तमाशा होता रहा.हार कर उसने मान लिया कि वही ‘शिव ज्योति’ है और कहा” ठीक है,चलो घर चलता हूँ”.घर जाकर उसने खाना खाया अच्छे से बातें कीं और जब सब लोग सो गए तो रात के अँधेरे में उठ कर भाग निकला.उस फूस की झोपडी में कोई मजबूत दरवाजे और ताले तो थे नहीं.,सबने शालिक काका को समझाया जाने दो ,वो साधू बन गया है.संसार त्याग दिया है.अब उसे घर बार का मोह नहीं.शालिक काका ने भी अपनी जटा से निजात पा ली.और अब उनके बेटे को यहाँ वहाँ देखने के किस्से भी बंद हो गए.उन ढोंगी बाबाओं को जरूर तकलीफ हुई होगी.
काफी सालों बाद,संयोग से मैं गाँव में ही था .उन्ही दिनों एक १७,१८ साल का एक सुन्दर नवयुवक अच्छे शर्ट पेंट,जूते पहने एक सज्जन के साथ नमूदार हुआ.उस से नाम और परिचय पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ी क्यूंकि वह अपने भाई की कार्बन कॉपी लग रहा था.पूरे गाँव में शोर मच गया.
हमारे घर के बाहर के बरामदे में उसे कुर्सी दी गयी बैठने को,जबकि उसके पिता और भाई जिंदगी भर जमीन पर ही बैठते आए थे.पर वेश भूषा को ही तो इज्जत मिलती है.उस सज्जन ने बताया कि बरसों पहले वह लड़का उन्हें अपनी मिठाई की दुकान के पास बैठा मिला था.जब दो तीन दिन लगातार उसे एक ही जगह पर बैठा देखा तो पूछताछ की पर उसे कुछ भी मालूम नहीं था.उन्हें दया आ गयी और दुकान पर छोटे मोटे काम के लिए रख लिया.धीरे धीरे उस से अपनापन हो गया और अपने बेटे जैसा मानने लगे.उसे स्कूल भी भेजा.पर उसने आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी.
इन सज्जन की एक बेटी थी…अब ये सोचने लगे कि शिवज्योति की शादी अपनी बेटी से कर दें.पर अपने देश में शादी में सबसे पहले देखी जाती है ‘जाति’.और उन्हें इस लड़के की जाति का कुछ पता नहीं.लड़के को अपना घर तक याद नहीं.उसे सिर्फ इतना याद था कि उसके गाँव के स्टेशन का नाम ‘डभौरा’(मेरे गाव से ११ किलोमीटर दूर है उत्तरप्रदेश के बार्डर पर) है और स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर एक बरगद का पेड़ है.और पेड़ के सामने उसके मामा का घर.इतने से सूत्र से वे महाशय ढूंढते हुए सही जगह पहुँच गए.उन्हें लगा बरगद का पेड़ हर जगह तो नहीं होता.और उनका सोचना सही ही था.पर इसके बाद जो कुछ भी हुआ…वह कल्पना से परे है.शालिक काका लड़के वाले बन गए और उन महाशय से जब जाति पूछी तो उनकी जाति शालिक काका की जाति से नीची थी.बस इनके भाई बन्धु सब कहने लगे नीचे घर की लड़की(मतलब उसकी साडी किस जाति में करेगे) कैसे घर में लायेंगे?? मेरे दादाजी प्रगतिशील विचारों वाले थे .उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की.पर "शालिक काका" की बड़ी बड़ी काल्पनिक मूंछे निकल आई थीं.और उसपे ताव देते हुए, वे बेटे के बाप के गुरूर में मदमस्त थे. शिव ज्योति भी अपने आपको इतने लोगों के आकर्षण का केंद्र बना देख, उन सज्जन के किये सारे अहसान भुला बैठा.और बिलकुल श्रवण कुमार बन गया .नीची निगाह किये यही कहता रहता,’जो ये लोग बोलें’.जैसे आजकल के लड़के दहेज़ लेने के नाम पर श्रवण कुमार बन जाते हैं और सर झुकाए कहते हैं,”‘हमें तो कुछ नहीं चाहिए,माता-पिता जानें”.वे सज्जन,आँखों में आंसू भरे वापस लौट गए.
कुछ दिन तो शिव ज्योति गाँव का हीरो बना घूमता रहा.हर बड़े घर वाले लोग उसे अपने घर बुलाते .कुर्सी पर बिठाते,सारी कहानी सुनते.
घर की महिलाएं भी उसे आँगन में बुला उसकी खूब खातिर तवज्जो करतीं. पर कुछ ही दिन चला ये.सब फिर सबलोग अपने काम में मशगूल हो गए.शिवज्योति को गाँव का कठिन जीवन रास नहीं आया और वह बगल के शहर भाग गया और वहाँ अब रिक्शा खींचने लगा.पर क्यों ??
इस जाति की दीवार ने उस से एक अच्छे जीवन का सुख हर लिया.वाह रे जाति की दीवार !!
नोट --सत्य घटना पर आधारित एक कहानी है यह !!

!!हम गणतंत्र दिवस में खुसिया क्यों मनाये ???

आज के माहौल को देखकर, कुछ पंक्तियाँ (शायद “निराला” जी की) साझा कर रहा हूँ |
जाने क्या क्या है छुपा हुआ,
                         सरकार तुम्हारी आँखों में |
झलका करता है, राम-राज्य का. 
                        प्यार तुम्हारी आँखों में |
मनचाही मांगीं जमानते,
                       मन चाहा, तब धावा बोल दिया |
’सी सम-सम” ताला बंद हुआ,
                       ’सी सम-सम” ताला खोल दिया |
चालीस चोर का खेल प्रेस-
                      अखबार तुम्हारी आँखों में |
गहन मंथन के बाद दो वर्ष ग्यारह महीना व अठारह दिन में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़े संविधान की रचना की गयी, जिसे 26 जनवरी 1950 को देश में विधिवत लागू कर दिया गया। संविधान का मूल स्वरूप वास्तव में उत्तम ही है, क्योंकि संविधान की रचना के दौरान रचनाकारों के मन में जाति या धर्म नहीं थे। उन्होंने जाति-धर्म दरकिनार कर देश के नागरिकों के लिए एक श्रेष्ठ संविधान की रचना की। तभी नागरिकों को समानता का विशेष अधिकार दिया गया, लेकिन संविधान में आये दिन होने वाले संशोधन मूल संविधान की विशेषता को लगातार कम करते जा रहे हैं। माना जा सकता है कि देश की आजादी के दौरान कुछ जातियों के लोगों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी, तभी डा. भीमराव अंबेडकर ने बेहद कमजोर सामाजिक या आर्थिक स्थिति वाले जाति वर्ग को एक दशक तक आरक्षण देने का सुझाव रखा, जिसे बेहद जरूरी मानते हुए मान लिया गया, लेकिन अब वही आरक्षण व्यवस्था घृणित राजनीति का शिकार होती जा रही है।

संविधान के अनुसार नागरिकों को समानता का अधिकार मिला हुआ है, जिसके अनुसार जाति व वंश के आधार पर कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं है। देश या कानून की नजर में सब एक समान ही हैं, लेकिन आरक्षण की व्यवस्था ने इस अधिकार के मायने ही बदल दिये हैं। समानता के अधिकार के बीच स्पष्ट रूप से आरक्षण व्यवस्था आड़े आने लगी है। आरक्षण का मूल उदेद्श्य समाज के दबे-कुचले लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति सुदृढ़ कर समतामूलक समाज की स्थापना करना ही था, लेकिन अब वही आरक्षण गंभीर समस्या बनती रहती है, वहीं आरक्षण का लाभ आरक्षण के दायरे में आने वाली सभी जातियों के सभी लोगों को भी नहीं मिल पा रहा है। भ्रष्टाचार का राक्षस इतना प्रभावी हो गया है कि आरक्षण का लाभ संबधित जातियों के दस या पन्द्रह प्रतिशत धनाढ्य लोग ही उठा पा रहे हैं, साथ ही आरक्षण विहीन जातियों के लोगों को लगने लगा है कि आरक्षण के चलते उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है।

आरक्षण से समाज के किसी वर्ग को कोई आपत्ति न थी और न है, पर घृणित राजनीति के चलते किसी न किसी राज्य में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति व पिछड़े वर्ग में एक-दो जाति को और शामिल कर दिये जाने का क्रम चलता ही रहता है, जिससे सामान्य वर्ग में सवर्ण कही जाने वाली कुछेक अंगुलियों पर गिनने लायक ही जातियां बची हैं और जो बची हैं, उनमें भी उनके जातिगत संगठन या राजनीतिक दल आरक्षण के दायरे में लाने की मांग करते देखे जा सकते हैं और हो सकता है, एक दिन बाकी बची जातियों को भी आरक्षण के दायरे में शामिल करा दिया जाये, ऐसे में सिर्फ ब्राह्मण, ठाकुर व वैश्य ही बचेंगे, जबकि आज के आंकड़े बताते हैं कि अब इन तीनों जातियों या सामान्य वर्ग में आने वाली सभी जातियों की भी आर्थिक या सामाजिक स्थिति सुदृढ़ नहीं है।

सवाल यह भी उठता है कि एक ओर केन्द्र व राज्य सरकारें, तमाम राजनीतिक दल, दलित नेता एवं तमाम बुद्धिजीवी वर्ण व्यवस्था के तहत चली आ रही जाति व्यवस्था को समाप्त करने की बात करते हैं और दूसरी ओर उसी जाति व्यवस्था के तहत आरक्षण दिया जा रहा है, ऐसे में जातिगत आधार पर दूरियां बढऩे के साथ नफरत बढऩी स्वाभाविक ही है। आरक्षणविहीन सामान्य वर्ग में आने वाली जातियों के लोगों को अब यह लगने लगा है कि आरक्षण के चलते उन्हें पीछे धकेलने का प्रयास किया जा रहा है, तभी कई जगह कुछ जातियों के लोगों का आक्रोश आंदोलन के रूप में सामने आ जाता है। राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर चलने वाले आंदोलन का भयावह रूप दिख ही जाता है। इससे केन्द्र सरकार के साथ देश के बाकी राज्यों की सरकारों को भी सबक लेना चाहिए, क्योंकि यह आक्रोश बाकी जातियों के अंदर भी सुलगता देखा जा सकता है, जो कभी भी निकल कर बाहर आ सकता है। गृह युद्ध जैसे हालात उत्पन्न होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए समय रहते केन्द्र व राज्य सरकारों को आरक्षण के मुद्दे पर गहन मंथन कर लेना चाहिए और जाति व्यवस्था के तहत दिये जा रहे आरक्षण को गरीबी के आधार पर तत्काल परिवर्तित कर देना चाहिए, इससे कई अन्य तरह की समस्याओं पर भी स्वत: ही विराम लग जायेगा।

मूल संविधान कहता है कि किसी जाति या वंश में जन्मा व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं है। हर नागरिक भारतीय है और सभी के अधिकार समान हैं, तभी भारतीय हर्ष पूर्वक वर्षगांठ के रूप में प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस मनाते आ रहे हैं और मूल संविधान की वर्षगांठ मनानी भी चाहिए, जबकि संशोधित संविधान किसी-किसी को अहम घोषित करता स्पष्ट नजर आ रहा है। गाली, मारपीट, हत्या या किसी भी तरह की घटना पर दो तरह के कानून स्पष्ट नजर आ रहे हैं। जाति के आधार पर ही अलग-अलग धारायें लगाने का प्रावधान है, इतना ही नहीं जाति के आधार पर ही रोजगार तक के अवसर दिये व छीने जा रहे हैं। लोकतंत्र भी कहने को ही बचा है, क्योंकि जनप्रतिनिधि चुनने की भी आजादी छीन ली गयी है। जाति के आधार पर जनप्रतिनिधि चुनने का भी कानून बना दिया गया है, ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि जाति के आधार पर दिये जा रहे आरक्षण के चलते जिन जातियों के लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है, वह गणतंत्र दिवस क्यूं मनायें ?