मंगलवार, 24 जनवरी 2012

!!खजुराहो के मंदिरों में नग्न मुर्तिया क्यों ?

http://www.bhaskar.com/article/c-58-1881635-NOR.html?seq=2&HF-9=
सदियों  से एक अनसुलझा पहलु है की आखिर अजन्ता एलोरा की गुफाओ में खजुराहो की मंदिरों में इस प्रकार की नग्न कलाकृत का निर्माण क्यों हुआ है ? जबके समाज में इस प्रकार के नग्न चित्र भी देखना पाप और अमर्यादित मना जाता है ,फिर खले आम इस प्रकार के मंदिरों का निर्माण का क्या ओचित्य है ?कलाकरी का उत्क्रिस्ट नमूना है खजुराहो की मुर्तिया!
खजुराहो की मूर्तियों की सबसे अहम और महत्त्वपूर्ण ख़ूबी यह है कि इनमें गति है, देखते रहिए तो लगता है कि शायद चल रही है या बस हिलने ही वाली है, या फिर लगता है कि शायद अभी कुछ बोलेगी, मस्कुराएगी, शर्माएगी या रूठ जाएगी। और कमाल की बात तो यह है कि ये चेहरे के भाव और शरीर की भंगिमाऐं केवल स्त्री पुरुषों में ही नहीं बल्कि जानवरों में भी दिखाई देते हैं। कुल मिलाके कहा जाय तो हर मूर्ति में एक अजीब सी जुंबिश नज़र आती है।तंत्र ने सेक्‍स को स्प्रिचुअल बनाने का दुनिया में सबसे पहला प्रयास किया था। खजुराहो में खड़े मंदिर, पुरी और कोणार्क के मंदिर सबूत है। कभी आप खजुराहो की मूर्तियों देखी। तो आपको दो बातें अदभुत अनुभव होंगी। पहली तो बात यह है कि नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि उन में जरा भी कुछ गंदा है। जरा भी कुछ अग्‍ली है। नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देख कर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि कुछ कुरूप है; कुछ गंदा है, कुछ बुरा है। बल्‍कि मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर एक शांति, एक पवित्रता का अनुभव होगा जो बड़ी हैरानी की बात है। वे प्रतिमाएं आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स को जिन लोगों ने अनुभव किया था, उन शिल्‍पियों से निर्मित करवाई गई है।उन प्रतिमाओं के चेहरों पर……आप एक सेक्‍स से भरे हुए आदमी को देखें, उसकी आंखें देखें,उसका चेहरा देखें, वह घिनौना, घबराने वाला, कुरूप प्रतीत होगा। उसकी आंखों से एक झलक मिलती हुई मालूम होगी। जो घबराने वाली और डराने वाली होगी। प्‍यारे से प्‍यारे आदमी को, अपने निकटतम प्‍यारे से प्‍यारे व्‍यक्‍ति को भी स्‍त्री जब सेक्‍स से भरा हुआ पास आता हुआ देखती है तो उसे दुश्‍मन दिखाई पड़ता है, मित्र नहीं दिखाई पड़ता। प्‍यारी से प्‍यारी स्‍त्री को अगर कोई पुरूष अपने निकट सेक्‍स से भरा हुआ आता हुआ दिखाई देगा तो उसे आसे भीतर नरक दिखाई पड़ेगा, स्‍वर्ग नहीं दिखाई पड़ सकता।लेकिन खजुराहो की प्रतिमाओं को देखें तो उनके चेहरे को देखकर ऐसा लगता है, जैसे बुद्ध का चेहरा हो, महावीर का चेहरा हो, मैथुन की प्रतिमाओं और मैथुन रत जोड़े के चेहरे पर जो भाव है, वे समाधि के है, और सारी प्रतिमाओं को देख लें और पीछे एक हल्‍की-सी शांति की झलक छूट जाएगी और कुछ भी नहीं। और एक आश्‍चर्य आपको अनुभव होगा।आप सोचते होंगे कि नंगी तस्‍वीरें और मूर्तियां देखकर आपके भीतर कामुकता पैदा होगी,तो मैं आपसे कहता हूं, फिर आप देर न करें और सीधे खजुराहो चले जाएं। खजुराहो पृथ्‍वी पर इस समय अनूठी चीज है। आध्यातिमिक  जगत में उस से उत्‍तम इस समय हमारे पास और कोई धरोहर उस के मुकाबले नहीं बची है।लेकिन हमारे बिद्वान पुरष पुरूषोतम दास टंडन और उनके कुछ साथी इस सुझाव के थे कि खजुराहो के मंदिर पर मिटटी छाप कर दीवालें बंद कर देनी चाहिए, क्‍योंकि उनको देखने से वासना पैदा हो सकती है। खजुराहो के मंदिर जिन्‍होंने बनाए थे, उनका ख्‍याल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठकर घंटे भर देखे तो वासना से शून्‍य हो जाएगा। वे प्रतिमाएं आब्‍जेक्‍ट फार मेडि़टेशन रहीं हजारों वर्ष तक वे प्रतिमाएं ध्‍यान के लिए आब्‍जेक्‍ट का काम करती रही। जो लोग अति कामुक थ, उन्‍हें खजुराहो के मंदिर के पास भेजकर उन पर ध्‍यान करवाने के लिए कहा जाता था। कि तुम ध्‍यान करों—इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हाँ जाओ।अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठ कर ध्‍यानमग्‍न होकर देखे तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।कुछ बिद्वानो का तो ऐसा मानना है की खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गांव-गांव में होने चाहिए।बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है। वे बेवकूफी के सबूत है, उनमें कुछ नहीं है। उनमें न कोई वैज्ञानिकता है, न कोई अर्थ, न कोई प्रयोजन है।  लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूर अर्थपूर्ण है।जिस आदमी का भी मन सेक्‍स से बहुत भरा हो, वह जाकर इन पर ध्‍यान करे और वह हल्‍का लौटेगा शांत लोटेगा। तंत्रों ने जरूर सेक्‍स को आध्‍यात्‍मिक बनाने की कोशिश की थी।एक गृहस्थ के जीवन में संपूर्ण तृप्ति के बाद ही मोक्ष की कामना उत्पन्न होती है | संपूर्ण तृप्ति और उसके बाद मोक्ष, यही दो हमारे जीवन के लक्ष्य के सोपान हैं | कोणार्क, पूरी, खजुराहो, तिरुपति आदि के देवालयों मैं मिथुन मूर्तियों का अंकन मानव जीवन के लक्ष्य का प्रथम सोपान है | इसलिए इसे मंदिर के बहिर्द्वार पर ही अंकित/प्रतिष्ठित किया जाता है | द्वितीय सोपान मोक्ष की प्रतिष्ठा देव प्रतिमा के रूप मैं मंदिर के अंतर भाग मैं की जाती है | प्रवेश द्वार और देव प्रतिमा के मध्य जगमोहन बना रहता है, ये मोक्ष की छाया प्रतिक है | मंदिर के बाहरी द्वार या दीवारों पर उत्कीर्ण इन्द्रिय रस युक्त मिथुन मूर्तियाँ देव दर्शनार्थी को आनंद की अनुभूतियों को आत्मसात कर जीवन की प्रथम सीढ़ी - काम तृप्ति - को पार करने का संकेत कराती है ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थी को ये स्मरण कराती है की जिस व्यक्ती ने जीवन के इस प्रथम सोपान ( काम तृप्ति ) को पार नहीं किया है, वो देव दर्शन - मोक्ष के द्वितीय सोपान पर पैर रखने का अधिकारी नहीं | दुसरे शब्दों मैं कहें तो देवालयों मैं मिथुन मूर्तियाँ मंदिर मैं प्रवेश करने से पहले दर्शनार्थीयों से एक प्रश्न पूछती हैं - "क्या तुमने काम पे विजय पा लिया?" उत्तर यदि नहीं है, तो तुम सामने रखे मोक्ष ( देव प्रतिमा ) को पाने के अधिकारी नहीं हो | ये मनुष्य को हमेशा इश्वर या मोक्ष को प्राप्ति के लिए काम से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है | मंदिर मैं अश्लील भावों की मूर्तियाँ भौतिक सुख, भौतिक कुंठाओं और घिर्णास्पद अश्लील वातावरण मैं भी आशायुक्त आनंदमय लक्ष्य प्रस्तुत करती है | भारतीय कला का यह उद्देश्य समस्त विश्व के कला आदर्शों , उद्देश्यों एवं व्याख्या मानदंड से भिन्न और मौलिक है |

प्रश्न किया जा सकता है की मिथुन चित्र जैसे अश्लील , अशिव तत्वों के स्थान पर अन्य प्रतिक प्रस्तुत किये जा सकते थे/हैं ? - ये समझना नितांत भ्रम है की मिथुन मूर्तियाँ , मान्मथ भाव अशिव परक हैं | वस्तुतः शिवम् और सत्यम की साधना के ये सर्वोताम माध्यम हैं | हमारी संस्कृति और हमारा वाड्मय इसे परम तत्व मान कर इसकी साधना के लिए युग-युगांतर से हमें प्रेरित करता आ रहा है –


मैथुनंग परमं तत्वं सृष्टी स्थित्यंत कारणम्

मैथुनात जायते सिद्धिब्रह्म्ज्ञान सदुर्लाभम |

देव मंदिरों के कमनीय कला प्रस्तरों मैं हम एक ओर जीवन की सच्ची व्याख्या और उच्च कोटि की कला का निर्देशन तो दूसरी ओर पुरुष प्रकृति के मिलन की आध्यात्मिक व्याख्या पाते हैं | इन कला मूर्तियों मैं हमारे जीवन की व्याख्या शिवम् है , कला की कमनीय अभिव्यक्ती सुन्दरम है , रस्यमय मान्मथ भाव सत्यम है | इन्ही भावों को दृष्टिगत रखते हुए महर्षि वात्सयायन मैथुन क्रिया, मान्मथ क्रिया या आसन ना कह कर इसे 'योग' कहा है |लेकिन इस मुल्‍क के नीति शास्त्री और मारल प्रीचर्स है उन दुष्‍टों ने उनकी बात को समाज तक पहुंचने नहीं दिया।मेरा चारों तरफ विरोध को कोई और कारण थोड़े ही है। लेकिन मैं न इन राजनितिगों से डरता हूं और न इन नीतिशास्‍त्रीयों से। जो सच है वो में कहता रहूंगा। उस की चाहे मुझे कुछ भी कीमत क्‍यों न चुकानी पड़े।मुझे पता है की मेरे बहुत से दोस्त यह सोचते होगे की आखिर सर को क्या हो गया जो इस प्रकार बाते अपने ब्लॉग में लिख रहे है पर मन में जो भाव पैदा हुए है वह लिख दिया ....
नोट --आप सभी एक बार खजुराहो के मंदिरों का दर्शन  जरुर करे ,मूर्ति कला का ऐसा संग्रह संसार में सायद ही कही देखने को मिले --!!

6 टिप्‍पणियां:

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    मैं भी एक बार खजुराहो गया तब मंदिरों के साथ-साथ आसपास के गावों में जाकर ग्राम-वासियों से संपर्क किया और जानकारी चाहि कि इस प्रकार के मंदिर बनवाने के पीछे क्या उद्देश्य रहा था .. तब ज्ञात हुआ कि एक समय खजुराहो में सात्विकता का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि पति-पत्नी भी बहन-भाइयों की तरह से व्यवहार करने लग गए थे .. तब राजा प्रजा के इस प्रकार के बेराग से चिन्ति हुआ और उसने इस प्रकार के मंदिर बनवाये..
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    बुराई में आंकना छोड़ और अच्छाई में झांकना प्रारम्भ करना श्रेष्ठकर है.. प्राचीन दर्शन के पीछे सकारात्मक तार्किक कारण रहे है.. केवल कपोलकल्पना से मिथ्या को नहीं घडा गया था..
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    आपका अच्छा प्रस्तुतिकरण है धन्यवाद ..

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  2. स्वागत है भाई ....हौसला अफजाई के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद !

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  3. दुनिया मे आशावादी और निराशावादी दो तरह के लोग होतै हैं| हमारे लिये अपने पूर्वजो के द्वारा बिकसित की गयी हर विधा को एक आशावादी की दृष्टि से ही देखना श्रेयस्कर होगा| भले ही हमे आज तक खजुराहो की कला के विकसित होने के कारणो की सही जानकारी प्राप्त नही हो पाई है| हमे इस कला मे बुरे पक्ष की अपेक्षा अच्छे पक्ष को ही खोजना चाहिये | यह विचारधारा आज के विकृत होते हुये समाज को वापस अच्छाई की ओर लाने मे सहायक हो सकती है |
    धन्यवाद

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