! गाली की पीड़ा इस मार से भी अधिक घातक है ! |
है न विचित्र किन्तु सत्य कि हम सब जानते हैं कि गाली देना बुरी बात है लेकिन गाली है कि मुँह से निकल ही जाती है। हमारा अपनी जुबान पर नियंत्रण ही नहीं रहता। पहले भी ब्याह-बारातों में ज्योनार के समय गाली गायी जाती थी लेकिन वह अधिकतर दूल्हे की माँ बहनो को बारात में नचाने का उपालंभ ही हुआ करता था। हम जब किसी को अपमानित करना चाहते हैं तो हमारा सबसे बड़ा हथियार गाली ही हुआ करता है। बचपन में हम भी कुत्ता, बेबकूफ, उल्लू, बदतमीज जैसी गालियां दिया करते थे और जब बहुत गुस्सा आता था तो मर जा, कट जा और तेरे हाथ पैर टूट जाए जैसी अनिष्टसूचक अथवा कोसने नुमा गाली गालियों का प्रयोग करते थे।
कुछ और समझदार हुए और बाहरी परिवेश से परिचय हुआ तो माँ-बहन की गाली कानों में सुनाई पड़ी। तब तक इन गालियों के गूढ़ार्थ पता नहीं हुआ करते थे। इसलिए बचपना में एक बार इस गाली का प्रयोग किया और माँ से खूब पिटाई भी खाई। सख्त हिदायत दी गई कि अब कभी ऐसे शब्द जुबान पर भी आये तो जुबान खींच ली जायेगी। बस इस प्रकरण का यहीं पटाक्षेप हो गया।जैसे-जैसे बड़े होते गए और समाज का हिस्सा बनते गए, देखा कि कुछ सज्जनों की भाषा में गालियां ऐसे सम्मिलित होने लगी जैसे दाल में तड़का। कई सज्जनों की बातें तो इन आलंकारिक शब्दों के बिना पूरी नहीं होती, तब बहुतदुख होता था पर हम कर क्या सकते थे, बहुत हुआ तो ऐसे लोगो के आगे नहीं पड़ते थे, समझदारी आई तब जाना इन गालियों के मूल में स्त्री जाति और उसके पक्षधरों को अपमानित करने की मूल मंशा ही थी।(क्योकि सभी गालिया स्त्री जाति के लिए ही बनी है ) साला और साली कितने मधुर रिश्ते होते हैं पर ये भी गाली के पर्याय होते चले गए और अब साला तो इतना फैशन में आ गया कि उसे गाली नहीं वरन बातचीत का जरूरी हिस्सा माना जाने लगा। लेकिन इसी रिश्ते का एक पहलू और था पति के भाई और बहन यानी देवर और ननद। ये रिश्ते सदैव पूजनीय रहे कभी गाली की कोटि में नहीं गिने गए। आखिर क्यों ? क्योंकि ये पति परमेश्वर के हिस्से जो थे और साला-साली उस बदनसीब के भाई-बहन। धीरे-धीरे इस साजिश ने एक और रूप अख्तियार कर लिया। पूरी की पूरी शक्ति औरतों के खिलाफ प्रयोग होने लगी। उनकी इज्जत के इतने चीथड़े बिखेरने के लिए एक गाली पर्याप्त होती और वह शर्म से मुंह छिपा बैठी। समय बदला और बराबरी की धुन में औरतों ने भी इसी हथियार का प्रयोग करना शुरू कर दिया पर वह यह भूल बैठी कि ये तो पुरुषों के द्वारा दी जाने वाली गालियां हैं हम अपनी गालियों का शास्त्र अलग बनाएं। कौन मेहनत करता सो उसी कोश से गालियां चुन ली गई ओरतो द्वारा और उनका धड़ल्ले से प्रयोग किया जाने लगा। बिना सोचे समझे कि इन सब गालियों से तो ओरत ही अपमानित हो रही हैं। मेरा बहुत मन हुआ कि किसी ओरत से पुछु अरे ये कैसा अनर्थ कर रही हो। भला अपने को भी कभी गाली दी जाती है पर बराबरी की होड़ में किसे ये सब फालतू बकबास सुनने की पड़ी थी। पुलिस का महकमा तो गालियों के बिना अधूरा ही है। और अब तो स्थिति यह है कि वे बच्चे जो इन गालियों की एबीसीडी भी नहीं जानते वे भी इन गालियों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। ऐसे कुछ बच्चों को मैंने जब कुछ समझाने की कोशिश की तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से जबाव दिया कि ये खराब बात होती तो सब लोग क्यों देते। दुकान पर, चौराहे पर और घर पर ये गालियां तो उसके कानो में रोज ही पडती है। आखिर किस-किस से बचायेंगे आप। और बस हमने मान लिया है कि किसी को डराने-धमकाने के लिए दो-चार भद्दी गालियों का प्रयोग कर दो। सज्जन तो ऐसा भाग खड़ा होगा जैसे गधे के सिर से सींग और भले घर की लड़कियां तो उस माहौल से बचना ही सुरक्षित मानेगी। और भला मानुष तो बेचारे की तरह अपनी बेचारीपन पर या सीधेपन पर चुपचाप किसी कोने में बैठकर मन की भड़ास निकलने के लिए रो कर मन को हल्का कर लेगा और बेसरम की तरह फिर से समाज में आ जाएगा जैसे की मैं खुद भी यही करता हु ! पर यही दुःख दोगुना हो जाता है जब लोग मुझे और मेरी भावनाओं को नहीं समझते और गाली देने वालो का साथ देते है ! गाली हमेशा से ही कमजोरी की निसानी रही है पर मेरे कुछ मित्र इन गालियों को मजबूती के रूप में देखते है और अपनी मर्दानगी इन गालियों के माध्यम से दिखाते है समाज में और इंटरनेट में ! टीक है भगवान् भला करे उन गाली देने वालो का और कोई अच्छा मर्द मिल जाए गलियों का उस्ताद तब पता चलेगा की शेर के भी सवा शेर होते है !
कुछ और समझदार हुए और बाहरी परिवेश से परिचय हुआ तो माँ-बहन की गाली कानों में सुनाई पड़ी। तब तक इन गालियों के गूढ़ार्थ पता नहीं हुआ करते थे। इसलिए बचपना में एक बार इस गाली का प्रयोग किया और माँ से खूब पिटाई भी खाई। सख्त हिदायत दी गई कि अब कभी ऐसे शब्द जुबान पर भी आये तो जुबान खींच ली जायेगी। बस इस प्रकरण का यहीं पटाक्षेप हो गया।जैसे-जैसे बड़े होते गए और समाज का हिस्सा बनते गए, देखा कि कुछ सज्जनों की भाषा में गालियां ऐसे सम्मिलित होने लगी जैसे दाल में तड़का। कई सज्जनों की बातें तो इन आलंकारिक शब्दों के बिना पूरी नहीं होती, तब बहुतदुख होता था पर हम कर क्या सकते थे, बहुत हुआ तो ऐसे लोगो के आगे नहीं पड़ते थे, समझदारी आई तब जाना इन गालियों के मूल में स्त्री जाति और उसके पक्षधरों को अपमानित करने की मूल मंशा ही थी।(क्योकि सभी गालिया स्त्री जाति के लिए ही बनी है ) साला और साली कितने मधुर रिश्ते होते हैं पर ये भी गाली के पर्याय होते चले गए और अब साला तो इतना फैशन में आ गया कि उसे गाली नहीं वरन बातचीत का जरूरी हिस्सा माना जाने लगा। लेकिन इसी रिश्ते का एक पहलू और था पति के भाई और बहन यानी देवर और ननद। ये रिश्ते सदैव पूजनीय रहे कभी गाली की कोटि में नहीं गिने गए। आखिर क्यों ? क्योंकि ये पति परमेश्वर के हिस्से जो थे और साला-साली उस बदनसीब के भाई-बहन। धीरे-धीरे इस साजिश ने एक और रूप अख्तियार कर लिया। पूरी की पूरी शक्ति औरतों के खिलाफ प्रयोग होने लगी। उनकी इज्जत के इतने चीथड़े बिखेरने के लिए एक गाली पर्याप्त होती और वह शर्म से मुंह छिपा बैठी। समय बदला और बराबरी की धुन में औरतों ने भी इसी हथियार का प्रयोग करना शुरू कर दिया पर वह यह भूल बैठी कि ये तो पुरुषों के द्वारा दी जाने वाली गालियां हैं हम अपनी गालियों का शास्त्र अलग बनाएं। कौन मेहनत करता सो उसी कोश से गालियां चुन ली गई ओरतो द्वारा और उनका धड़ल्ले से प्रयोग किया जाने लगा। बिना सोचे समझे कि इन सब गालियों से तो ओरत ही अपमानित हो रही हैं। मेरा बहुत मन हुआ कि किसी ओरत से पुछु अरे ये कैसा अनर्थ कर रही हो। भला अपने को भी कभी गाली दी जाती है पर बराबरी की होड़ में किसे ये सब फालतू बकबास सुनने की पड़ी थी। पुलिस का महकमा तो गालियों के बिना अधूरा ही है। और अब तो स्थिति यह है कि वे बच्चे जो इन गालियों की एबीसीडी भी नहीं जानते वे भी इन गालियों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। ऐसे कुछ बच्चों को मैंने जब कुछ समझाने की कोशिश की तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से जबाव दिया कि ये खराब बात होती तो सब लोग क्यों देते। दुकान पर, चौराहे पर और घर पर ये गालियां तो उसके कानो में रोज ही पडती है। आखिर किस-किस से बचायेंगे आप। और बस हमने मान लिया है कि किसी को डराने-धमकाने के लिए दो-चार भद्दी गालियों का प्रयोग कर दो। सज्जन तो ऐसा भाग खड़ा होगा जैसे गधे के सिर से सींग और भले घर की लड़कियां तो उस माहौल से बचना ही सुरक्षित मानेगी। और भला मानुष तो बेचारे की तरह अपनी बेचारीपन पर या सीधेपन पर चुपचाप किसी कोने में बैठकर मन की भड़ास निकलने के लिए रो कर मन को हल्का कर लेगा और बेसरम की तरह फिर से समाज में आ जाएगा जैसे की मैं खुद भी यही करता हु ! पर यही दुःख दोगुना हो जाता है जब लोग मुझे और मेरी भावनाओं को नहीं समझते और गाली देने वालो का साथ देते है ! गाली हमेशा से ही कमजोरी की निसानी रही है पर मेरे कुछ मित्र इन गालियों को मजबूती के रूप में देखते है और अपनी मर्दानगी इन गालियों के माध्यम से दिखाते है समाज में और इंटरनेट में ! टीक है भगवान् भला करे उन गाली देने वालो का और कोई अच्छा मर्द मिल जाए गलियों का उस्ताद तब पता चलेगा की शेर के भी सवा शेर होते है !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें