गुरुवार, 25 मई 2023

आरएसएस बनाम आतंकी संगठन ।।

पूरी दुनिया को मुसलमान बनाने के लिए कितने संगठन और कितने देशों में कार्य कर रहे हैं इसको नीचे से जानकारी ले सकते हैं जबकि हिन्दुस्तान के हिन्दुओं को हिन्दू बने रहने के लिए केवल एक संगठन कार्य कर रहा और उसका इतना विरोध केवल हिन्दू ही कर रहे वास्तव में चिंतनीय है ।
1) अल -शबाब (अफ्रीका), 
2) अल मुराबितुंन (अफ्रीका), 
3) अल -कायदा (अफगानिस्तान), 
4) अल -क़ाएदा (इस्लामिक मघरेब), 
5) अल -क़ाएदा (इंडियन सबकॉन्टिनेंट), 
6) अल -क़ाएदा (अरेबियन पेनिनसुला),
7) हमास (पलेस्टाइन), 
8) पलिस्तीनियन इस्लामिक जिहाद (पलेस्टाइन), 
9) पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ़ (पलेस्टाइन), 
10) हेज़बोल्ला (लेबनान), 
11) अंसार अल -शरीया -बेनग़ाज़ी (लेबनान), 
12) असबात अल -अंसार (लेबनान), 
13) ISIS (इराक), 
14) ISIS (सीरिया),
15) ISIS (कवकस)
16) ISIS (लीबिया)
17) ISIS (यमन)
18) ISIS (अल्जीरिया), 
19) ISIS (फिलीपींस)
20) जुन्द अल -शाम (अफगानिस्तान), 
21) मौराबितौं (लेबनान), 
22) अलअब्दुल्लाह अज़्ज़म ब्रिगेड्स (लेबनान), 
23) अल -इतिहाद अल -इस्लामिया (सोमालिया), 
24) अल -हरमैन फाउंडेशन (सऊदी अरबिया), 
25) अंसार -अल -शरीया (मोरोक्को),
26) मोरोक्को मुदजादिने (मोरक्को), 
27) सलफीआ जिहदिआ (मोरक्को), 
28) बोको हराम (अफ्रीका), 
29) इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ (उज़्बेकिस्तान), 
30) इस्लामिक जिहाद यूनियन (उज़्बेकिस्तान), 
31) इस्लामिक जिहाद यूनियन (जर्मनी), 
32) DRW True -रिलिजन (जर्मनी)
33) फजर नुसंतरा मूवमेंट (जर्मनी)
34) DIK हिल्देशियम (जर्मनी)
35) जैश -ए -मुहम्मद (कश्मीर), 
36) जैश अल -मुहाजिरीन वल -अंसार (सीरिया), 
37) पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ़ पलेस्टाइन (सीरिया), 
38) जमात अल दावा अल क़ुरान (अफगानिस्तान), 
39) जुंदल्लाह (ईरान)
40) क़ुद्स फाॅर्स (ईरान)
41) Kata'ib हेज़बोल्लाह (इराक), 
42) अल -इतिहाद अल -इस्लामिया (सोमालिया), 
43) Egyptian इस्लामिक जिहाद (Egypt), 
44) जुन्द अल -शाम (जॉर्डन)
45) फजर नुसंतरा  बहुत (ऑस्ट्रेला)
46) सोसाइटी ऑफ़ द रिवाइवल ऑफ़ इस्लामिक हेरिटेज (टेरर फंडिंग, वर्ल्डवाइड ऑफिसेस)
47) तालिबान (अफगानिस्तान), 
48) तालिबान (पाकिस्तान), 
49) तहरीक -i-तालिबान (पाकिस्तान), 
50) आर्मी ऑफ़ इस्लाम (सीरिया), 
51) इस्लामिक मूवमेंट (इजराइल)
52) अंसार अल शरीया (तुनिशिया), 
53) मुजाहिदीन शूरा कौंसिल इन द एनवीरोंस ऑफ़ (जेरूसलम), 
54) लिबयान इस्लामिक फाइटिंग ग्रुप (लीबिया), 
55) मूवमेंट फॉर वेनेस्स एंड जिहाद इन (वेस्ट अफ्रीका), 
56) पलिस्तीनियन इस्लामिक जिहाद (पलेस्टाइन)
57) तेव्हीद-सेलम (अल -क़ुद्स आर्मी)
58) मोरक्कन इस्लामिक कोंबटेंट ग्रुप (मोररोको), 
59) काकेशस अमीरात (रूस), 
60) दुख्तरान -ए -मिल्लत फेमिनिस्ट इस्लामिस्ट्स (इंडिया),
61) इंडियन मुजाहिदीन (इंडिया), 
62) जमात -उल -मुजाहिदीन (इंडिया)
63) अंसार अल -इस्लाम (इंडिया)
64) स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ (इंडिया), 
65) हरकत मुजाहिदीन (इंडिया), 
66) हिज़्बुल मुझेडीन (इंडिया)
67) लश्कर ए इस्लाम (इंडिया)
68) जुन्द अल -खिलाफह (अल्जीरिया), 
69) तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी ,
70) Egyptian इस्लामिक जिहाद (Egypt),
71) ग्रेट ईस्टर्न इस्लामिक रेडर्स' फ्रंट (तुर्की),
72) हरकत -उल -जिहाद अल -इस्लामी (पाकिस्तान),
73) तहरीक -ए -नफ़ज़ -ए -शरीअत -ए -मोहम्मदी (पाकिस्तान), 
74) लश्कर ए तोइबा (पाकिस्तान)
75) लश्कर ए झांगवी (पाकिस्तान)
76) अहले सुन्नत वल जमात (पाकिस्तान ),
77) जमात उल -एहरार (पाकिस्तान), 
78) हरकत -उल -मुजाहिदीन (पाकिस्तान), 
79) जमात उल -फुरकान (पाकिस्तान), 
80) हरकत -उल -मुजाहिदीन (सीरिया), 
81) अंसार अल -दिन फ्रंट (सीरिया), 
82) जब्हत फ़तेह अल -शाम (सीरिया), 
83) जमाह अन्शोरूट दौलाह (सीरिया), 
84) नौर अल -दिन अल -ज़ेन्कि मूवमेंट (सीरिया),
85) लिवा अल -हक़्क़ (सीरिया), 
86) अल -तौहीद ब्रिगेड (सीरिया), 
87) जुन्द अल -अक़्सा (सीरिया), 
88) अल-तौहीद ब्रिगेड(सीरिया), 
89) यरमूक मार्टियर्स ब्रिगेड (सीरिया), 
90) खालिद इब्न अल -वालिद आर्मी (सीरिया), 
91) हिज़्ब -ए इस्लामी गुलबुद्दीन (अफगानिस्तान), 
92) जमात -उल -एहरार (अफगानिस्तान) 
93) हिज़्ब उत -तहरीर (वर्ल्डवाइड कलिफाते), 
94) हिज़्बुल मुजाहिदीन (इंडिया), 
95) अंसार अल्लाह (यमन), 
96) हौली लैंड फाउंडेशन फॉर रिलीफ एंड डेवलपमेंट (USA), 
97) जमात मुजाहिदीन (इंडिया), 
98) जमाह अंशरूत तौहीद (इंडोनेशिया), 
99) हिज़्बुत तहरीर (इंडोनेशिया), 
100) फजर नुसंतरा मूवमेंट (इंडोनेशिया), 
101) जेमाह इस्लामियाह (इंडोनेशिया), 
102) जेमाह इस्लामियाह (फिलीपींस), 
103) जेमाह इस्लामियाह (सिंगापुर), 
104) जेमाह इस्लामियाह (थाईलैंड), 
105) जेमाह इस्लामियाह (मलेशिया), 
106) अंसार दीने (अफ्रीका), 
107) ओस्बत अल -अंसार (पलेस्टाइन), 
108) हिज़्ब उल -तहरीर (ग्रुप कनेक्टिंग इस्लामिक केलिफेट्स अक्रॉस द वर्ल्ड इनटू वन वर्ल्ड इस्लामिक केलिफेट्स)
109) आर्मी ऑफ़ द मेन ऑफ़ द नक्शबंदी आर्डर (इराक)
110) अल नुसरा फ्रंट (सीरिया), 
111) अल -बदर (पाकिस्तान), 
112) इस्लाम 4UK (UK), 
113) अल घुरबा (UK), 
114) कॉल टू सबमिशन (UK), 
115) इस्लामिक पथ (UK), 
116) लंदन स्कूल ऑफ़ शरीया (UK), 
117) मुस्लिम्स अगेंस्ट क्रुसडेस (UK), 
118) नीड 4Khilafah (UK), 
119) द शरिया प्रोजेक्ट (UK), 
120) द इस्लामिक दवाह एसोसिएशन (UK), 
121) द सवियर सेक्ट (UK), 
122) जमात उल -फुरकान (UK), 
123) मिनबर अंसार दीन (UK), 
124) अल -मुहाजिरों (UK) (Lee Rigby, लंदन 2017 मेंबर्स), 
125) इस्लामिक कौंसिल ऑफ़ ब्रिटैन (UK) (नॉट टू बी कन्फ्यूज्ड विद ओफ़फिशिअल मुस्लिम कौंसिल ऑफ़ ब्रिटैन), 
126) अहलुस सुन्नाह वल जमाह (UK), 
128) अल -गामा'अ (Egypt), 
129) अल -इस्लामियया (Egypt), 
130) आर्म्ड इस्लामिक मेन ऑफ़ (अल्जीरिया), 
131) सलाफिस्ट ग्रुप फॉर कॉल एंड कॉम्बैट (अल्जीरिया), 
132) अन्सारु (अल्जीरिया), 
133) अंसार -अल -शरीया (लीबिया), 
134) अल इत्तिहाद अल इस्लामिआ (सोमालिया), 
135) अंसार अल -शरीया (तुनिशिया), 
136) शबब (अफ्रीका), 
137) अल -अक़्सा फाउंडेशन (जर्मनी)
138) अल -अक़्सा मार्टियर्स' ब्रिगेड्स (पलेस्टाइन), 
139) अबू सय्याफ (फिलीपींस), 
140) अदेन-अबयान इस्लामिक आर्मी (यमन), 
141) अजनाद मिस्र (Egypt), 
142) अबू निदाल आर्गेनाइजेशन (पलेस्टाइन), 
143) जमाह अंशरूत तौहीद (इंडोनेशिया)

अपने देश के कई नेता ये कहते है कि, कई लोग गलत तरीके से इस्लाम को बदनाम करते हैं। ये ऊपर लिखे सारे इस्लामिक संगठन तो शांति की स्थापना में लगे हुए है।
बस केवल "आरएसएस" ही ऐसा संगठन है, जो पूरे विश्व में भगवा आतंकवाद फैलाता है।

ऐसी सोच का क्या मतलब है.? ये तो है मानसिक विकलांगता है ।

शनिवार, 20 मई 2023

2000 की नोट बंद ही होना था...??

2016 में जब नोटबन्दी हुई थी तब आपको नोटबन्दी की जरूरत बताई थी। इसमें काला धन, पाकिस्तान पर चोट आदि शामिल नही थे। बस भारत के आर्थिक हालात जो कांग्रेस कर चुकी थी उसे समझाया गया था। तो पेश है पुनः पोस्ट आपकी खिदमत में।

अर्थशास्त्र का एक अंग होता है वित्त। वित्त ही अर्थशास्त्र नही होता। अर्थशास्त्र संसाधनों के समूह को कहते है और संसाधन, प्रकृति के स्रोत से मिलता है। मतलब इकोलॉजी से निकलता है इकोनॉमिक्स और इकोनॉमिक्स से निकलता है फाइनेंस।

भारत मे हम इस पर कंफ्यूज रहते है, क्योंकि हमने संसाधन से अर्थशास्त्र को अलग कर दिया है। एक समय मे सोने से मुद्रा तय होती थी, आज सरकार अपनी पावर से मुद्रा तैयार करती है। मैं धारक को 100 रुपये अदा करने का वचन देता हूँ। उस वचन का आधार सरकारी संवैधानिक शक्ति है, ना कि संसाधन।

कई बार हम सोने से या डॉलर से तुलना कर उसे नोट में परिवर्तित समझते हैं, लेकिन ऐसा नही है। सरकार जितना चाहे मुह उठा नोट छाप सकती है और ये दुनिया भर की कहानी है। आज की अर्थव्यवस्था संसाधन से कटके वित्त पे टिक गई है। इसी लिए GDP के लिए भी आपको वित्त के अंदर आना होगा, वरना आप GDP में योगदान नही दे रहे हो।

इसी का नतीजा था नोटबन्दी। लेकिन नोटबन्दी थी क्या? इससे पहले ये समझें कि नोट होता क्या है?

नोट को बनाया गया था विनिमय के माध्यम हेतु, नोट कभी विनिमय की वस्तु नही था। माध्यम जो होता है उसे आप एक जगह रोक नही सकते हो, वस्तु एक जगह रोकी जा सकती है। नोट माध्यम के लिए बनाया गया है कि जैसे ही आपने इस्तेमाल किया इसे आगे बढ़ाए, अब दूसरा इस्तेमाल करेगा। हुआ क्या कि लोगों ने नोट को वस्तु की तरह होल्ड पे रखना शुरू कर दिया, जैसे वो सोना चांदी या सम्पत्ति रखते थे। उसकी फ्लोटिंग बंद कर दी। अब जब फ्लोटिंग बंद होती है मार्किट में नोट की कमी शुरू हो जाती है, ऐसे में बाजार में नए नोट उतारने पड़ते हैं, और फिर मांग से ज्यादा आपूर्ति मार्किट में होती है, नतीजा महंगाई।

लेकिन ये महंगाई सीधे तौर पर ना आकर, पिछले दरवाजे से आती है, जिससे देश मे एक समांतर अर्थव्यवस्था बन जाती है। वो अर्थ्यवस्था देश तो चला रही होती है लेकिन सरकार के पास उसका कोई लेखा जोखा नही रहता। उदाहरण के लिए; एक घर खरीदते वक्त 50% सफेद धन दी और 50% काला धन, तो बाजार में तो 100% पैसा घुमा लेकिन आधिकारिक रुप से आधा ही गिना गया। इसके अलावा जब हम अपने पैसे को होल्ड पर रख उसे वस्तु या कमोडिटी बना देते हैं, तो वो सार्वजनिक उपयोग से बाहर हो जाता है और काला ना भी हो लेकिन बाजार से बाहर रहता है। जिस वजह से वो जीडीपी का हिस्सा भी नही बन पाता।

एक और मुख्य बात थी कि आज जो हम नोट बना रहे हैं अगर वो 2000 की है तो उसको बनाने का खर्चा करीब 4 रुपये आता है। यानी 4 रुपया खर्च के आप 2000 का मूल्य बाजार में उत्पन्न कर सकते हैं। यही होता आया था कि आज से पहले जितने नोट बनते थे उनका कागज स्याही सब बाहर से आता था और वही कंपनियां ये कागज स्याही दुश्मन देशों को बेच देती थी और वो अपनी सरकारी प्रिंट्स में वही 1000-500 का नोट बना भारत मे उसे भेज देते थे। मतलब 4 रुपये खर्च कर दुश्मन यहां 2000 के मूल्य से काम कर रहा था।

ये वो मुख्य वजह थी जिससे नोटबंदी जरूर हो गयी थी, ताकि आज तक कि जितनी मुद्रा थी वो एक बार बैंकिंग सिस्टम में आये और इस समानांतर अर्थव्यवस्था को खत्म करे। इससे भले ही कुछ समय के लिए बाजार रुक गया हो, रोजगार बंद हो गया हो, लेकिन यही धन जब रफ्तार पकड़ता है तो रोजगार और बाज़ार को बूम देता है। जो बाजार सुस्त हुआ भी था या रोजगार बंद भी हुआ उसका कारण भी समांतर अर्थव्यवस्था थी, नाकि नोटबन्दी। अब एक व्यापारी अपने काले धन में से दो कर्मचारी रखता है तो अचानक उसका काला धन बैंकिंग में चला गया तो स्वतः ही उसके दो कर्मचारी कम हो गए और उतना काम भी ठप्प हो गया। लेकिन कल को जब वो फिर से उस काम को गति देगा तो इस बार वो अर्थव्यवस्था के दायरे में आयेगा और जैसा बताया गया है कि दायरे में होने वाले हर वित्तीय कार्य GDP का हिस्सा बनते हैं।

कुछ लोग 2004 से 2011 के GDP की बात करते हैं कि उस समय भारत की अर्थव्यवस्था चरम पर थी, लेकिन वो एक खोखली अर्थव्यवस्था थी। ये वो दौर था जब औसतन 8.5 जीडीपी जितनी अच्छी अर्थव्यवस्था कही गयी लेकिन वो सिर्फ 27 लाख नौकरियां ही सृजन कर सकी आखरी 5 साल में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में। जबकि इससे पहले NDA1 में 5.7 की जीडीपी से 6 करोड़ नौकरियां सृजन हुई थी।

ऐसा क्यों हुआ? कि नौकरियां नही बढ़ी सिर्फ जीडीपी बढ़ी।

क्योंकि NDA1 के समय जहां महंगाई दर 4.5 थी जो 5 से कम थी, जिसे अच्छा कहा जाता है, लेकिन उस दौर में एसेट्स वैल्यू थी वो भी नियंत्रण में थी। सोने का मूल्य इस 5 साल के दौरान 38% बढ़ा, स्टॉक मार्केट 32% बढ़ा, रियल स्टेट 25 से 30% बढ़ा। वो सही तरीके से थी तो नौकरियां सृजन की।

जबकि अगले 5 साल UPA की सरकार में रियल स्टेट 10 गुना महंगा हो गया जो 5 साल में 38% बढ़ा था, स्टॉक मार्केट 300% से ज्यादा हो गया, गोल्ड 330% बढ़ गया जबकि इस दौरान नई मुद्रा बाजार में सिर्फ 17% ज्यादा आयी। तो ये इतना ज्यादा दाम वो भी बिना नौकरियां बढ़ कैसे गया?

इसका कारण था बड़े नोट, 500 और 1000. NDA1 के समय कुल बड़े नॉट थे करीब 1 लाख 40 हज़ार करोड़ थे, जो UPA1 & UPA 2 के खत्म होते होते सन 2015 में 15 लाख 50 हज़ार करोड हो गए। यानी 10 गुना ज्यादा। दूसरे अर्थों में, बड़े नोट कुल नोट में 37% से बढ़कर 87% हो गए।

जब मोदी सरकार बनी तो RBI से रिपोर्ट मांगी गई, जिसमे रघुराम राजन ने रिपोर्ट दी कि देश मे जितने 500 और 1000 के नोट हैं उनमें से एक तिहाही 500 के और 1000 के दो तिहाई नोट कभी बैंकिंग सिस्टम में वापस आये ही नही। मतलब 5 से 6 लाख करोड़ रुपया भारतीय अर्थव्यवस्था से बाहर खुद ही डील कर रहा था। यही समांतर अर्थव्यवस्था थी। यही कारण था गोल्ड, शेयर मार्केट और प्रॉपर्टी के दाम बढ़ने का। जो जीडीपी को भी बढ़ा रहा था। इनमे से सबसे ज्यादा सोना वस्तु ऐसी थी जो पकड़ से बाहर रहती थी लेकिन उसकी खपत तब भी होते जा रही थी।

भारत दुनिया का एक तिहाही सोने खरीदता है और चीन भारत मिलकर दुनिया का आधे से ज्यादा सोना खरीदते हैं। कहने का मतलब दुनिया मे सोने के दाम नही बढ़ रहे थे बल्कि समांतर धन को खपाने के लिए बढ़वाए जा रहे थे, ताकि सोने के नाम पर उतने मूल्य की संपत्ति बनी रहे। लेकिन नोटबन्दी होते ही सोने के दाम तुरन्त 15% गिर गए? क्यों? क्योंकि समान्तर पैसा रोक दिया गया। ऐसा ही रियल स्टेट के साथ हुआ था।

इसके अलावा भारत के चोर जिन्होंने सहभागी नोट बनाये थे, वो हवाला के जरिये इन्हें बाहर भेजते थे और फिर मॉरिशस या सिंगापुर मार्ग से इसे भारत मे निवेश करते थे, जिससे ये दिखता था कि जीडीपी बढ़ रही है। इसके कारण  2004 में शेयर मार्केट जो 64000 करोड़ का था वो 2007 में ही 5.7 लाख करोड़ का हो गया, जिससे सेंसेक्स अपने चरम पर पहुंच गया।

रिज़र्व बैंक बार बार मना करता रहा कि बड़े नोट छपने बंद हो लेकिन वो छपते गए, यही वजह रही कि जब इस सरकार को ये सब बताया गया तो नोटबंदी का फैसला लिया गया। इसलिए जो GDP गिरने की बात हो रही है, अब आप समझ रहे होंगे कि वो क्यों गिर रही है? क्यों चिंदम्बरम जैसे हवाला अर्थशास्त्री इसे फेल बता रहे हैं, क्यों कांग्रेस जिसका काला धन डूब गया वो मनमोहन जैसे अर्थशास्त्री से इसे फेल बता रही है। क्यों दुश्मन देश के पैसे पे पलने वाले रो रहे हैं। क्यों गलत तरीके से कमाने वाले लोग और व्यापारी सरकार को गाली दे रहे हैं।

यकीन मानिए भले ही आपका रोजगार और जीडीपी कुछ समय के लिए सुस्त है, लेकिन इतने आश्वस्त हो जाइए कि आगे के समय वाली अर्थव्यवस्था समान्तर नही होगी। सोना या प्रॉपर्टी में काला धन जमा नही होगा, नोट को होल्ड पे कोई नही रखेगा। मॉरीशस सिंगापुर से कोई फ़र्ज़ी कम्पनी के नाम पर काले को सफेद नही कर पायेगा। दुश्मन देश नकली नोट नही बेच पाएंगे। क्योंकि ऐसे में वो पुनः झटका खाने को तैयार रहेगा।

मोदी जी इसीलिए डिजिटल ट्रांसक्शन की बात करते है ताकि आप बैंकिंग सिस्टम से चले। सोने पे एक्साइज इसी लिए कि उसपर नज़र रखे। मॉरीशस सिंगापुर से अग्रीमनेट इसलिए किये कि अब इस तरह की कम्पनी नही चलेंगी, हमे उनका डिटेल देना होगा और टेक्स भी वो यहां भरेंगे।

ना खाऊंगा ना खाने दूंगा, इसी का नाम है। 2000 का नोट भी कब बंद हो जाये कोई नही जानता, इस देश मे अब सबसे बड़ा नोट 200 का ही रह जाएगा आने वाले दिनों में।

नोट:- पोस्ट 2016 की है इसलिए कन्फ्यूज न होयें कुछ पुरानी बातों से। पोस्ट ज्यों की त्यों चेपी गयी है।

मंगलवार, 16 मई 2023

मुगल डकैत थे,निर्माता नही ।।

मुगलों को लेकर सेक्युलर्स, लिबेरल्स, वामी, और तालिबानी मीडिया गैंग एक सवाल करते हैं कि मुगल तो यहीं बस गए थे, उन्होंने अंग्रेजो के जैसे लूट कर अपना देश नही भरा। यहाँ की चीज यहीं रही। वे लुटेरे कैसे हुए बल्कि वे तो भारत के निर्माता थे। 

भारत के निर्माता मुगल थे कहने वाले मार्क्सवादी अपने बाप कार्ल मार्क्स के साथ धोखा करते हैं। वह ऐतिहासिक भौतिकवादी सिद्धांतों को भूल जाते हैं, खैर धोखाधड़ी तो इन लोगों के रग रग में है वापस अपने मुद्दे पर आते हैं। भारत मुगलों से पहले सुशिक्षित, सुसभ्य, सम्पन्न और समृद्ध देश था। ये लुटेरे लूटने के लिए अपनी बंजर भूमि छोड़कर आये और यहां पीढ़ियों लूटकर्म में रत रहे। अगर हम लूट का माल देश मे है इसलिए वह लूट नही है वाले तर्क का इस्तेमाल करें तो देश मे जितने डकैत चोर उचक्के हैं उन सबको भारत का निर्माता घोषित कर देना चाहिए क्योंकि वे डकैती से प्राप्त माल कहीं बाहर एक्सपोर्ट नही कर रहे बल्कि देश मे ही निवेश कर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे। इन्हें तो भारत रत्न मिलना चाहिए। कितना वाहियात तर्क है। 

मुगलों की लूट को लूट न मानने वाले भूल जाते हैं कि यहां की अधिसंख्य जनता को अपने धर्म का पालन करने के लिए भी पैसा देना पड़ता था, जजिया लूट का घृणितम तरीका था। जिस राज्य पर मुगल आक्रमण करते थे वहां क्या कुछ छोड़ देते होंगे? एक सजीव उदाहरण देता हूँ शायद लोगों की आंख खुल जाए। महाराणा और वहां के लोग जो अपने मेवाड़ को बचाने के लिए घास की रोटी खाने पर विवश हो गए, वहां के राजपूत आज भी उस दरिद्रता से निकल नही पाए और आज भी यायावरी की जिंदगी जीने को अभिशप्त हैं। यह लूट का जीता जागता उदाहरण नही है क्या?  

महिलाओं की लूट मुगलों का प्रिय कर्म था। बाबर ने 1528 में हिन्दू मंडरों को लूटने के लिए चढ़ाई की जिसने उस इलाक़े के हिन्दुओं पर जमकर ज़ुल्म ढाया। मंडाहर बस्ती को जमींदोज कर दिया गया। हथियाई गई हिन्दू महिलाओं में से 20 को छांटकर बाबर ने स्वयं के लिए रख लिया व बाकी उसने अपने साथियों में बांट दी । अहमद यादगार लिखता है कि हिन्दू मंडाहर पुरूषों को ज़मीन में आधा दफ्न कर तीरों से मारा गया था और उनकी स्त्रियों को फौज में बांट दिया गया । जनवरी 1624 में जहांगीर अपनी आत्मकथा में जाटों के लिए तिरस्कारपूर्ण संबोधन का प्रयोग करते हुए बताता है कि उसने उन्हें दबाने के लिए फौज भेजी। इसी प्रकार अपनी आत्मकथा में पृष्ठ संख्या 285 पर वह लिखता है कि, 1634 में भेजी गई एक मुगल फौज ने आगरा क्षेत्र में 10000 जाट पुरूषों को मार डाला ...महिलाओं को "गणना से परे" संख्या में बंदी बना लिया गया।

1619 में, कालपी कनौज के चौहान राजपूतों ने विद्रोह कर दिया था। जिसे दबाने हेतु अब्दुल्लाह खान नामक एक उज़्बेक मुसलमान आप्रवासी सैन्य अधिकारी को फौज सहित भेजा गया। हिन्दू वीरों ने भरपूर मुकाबला किया, लेकिन मुगलों की ज़्यादा तादाद, बेहतर बख्तर व बंदूकों के सामने वह जीत न सके। हिन्दू किले के जीते जाने से पहले कुछ कठिन लड़ाई हुई, जिसमें 30,000 हिन्दू यौद्धा मारे गए । 10,000 सिर काट कर 20 लाख रुपयों के लगभ लूट की गई ।

इसके बाद 1632 में एक अंग्रेज़ यात्री पीटर मुंडी भी इसी क्षेत्र से गुजरने के 4 दिनों के दौरान उस ने 200 मीनार या खंभे देखे, जिन पर कुल 7,000 कटे इंसानी सिर चिन दिए गए थे । इसे मुंडी अब्दुल्ला खान और उसकी 12,000 घोड़े और 20,000 पैदल मुग़ल सेना का कारनामा बताता है | मुंडी के अपने शब्दों में, "उसने सभी को नष्ट कर दिया उनके शहर, उनके (हिन्दुओं के) सभी सामान लूट लिए गए, उनकी पत्नियों और बच्चों को गुलाम बना लिया गया, और उनके पुरूषों के सिर काट काट कर मीनारों में चिनवा दिए गए" । किसी मुगल द्वारा यह पूछे जाने पर की उसने कितने काफिरों को मौत के घाट उतार दिया होगा, अब्दुल्लाह खान ने जवाब दिया, "इतने कटे हुए सिर होंगे कि आगरा से पटना तक दो कतारों में लगाए जा सकें"।

चार महीने बाद जब पीटर मुंडी इसी रास्ते पटना से आगरा आया, तो उसने देखा कि हर मीनार पर 2,100 से 2,400 कटे हुए हिन्दू सिरों के साथ 60 नई मीनारें बना दी गई हैं और नई मीनारों का निर्माण अब तक रुका ही नहीं था। डच इतिहासकार डर्क कोफ बताते हैं कि मुगल काल में हर वर्ष हजारों हिन्दू किसानों को गुलाम बनाकर मध्य एशिया में बेचे जाने के अकाट्य सबूत हैं । 

दरअसल , मुगल अभिजात्य वर्ग हिन्दू किसानों से कर वसूली निर्दयता से करता था। किसी साल फसल खराब होने की सूरत में भी कर कम नहीं होता था और किसानों को अपनी पत्नियों, बच्चों व खुद को बेच कर उसे चुकाना पड़ता था। जो अपने परिवारों को बेचने को तैयार नहीं होते थे, उनके साथ वैसा व्यवहार किया जाता था जैसा कि ऊपर वर्णित है।

चित्तौड़ के तीसरे शाके के बारे में कई हिन्दू जानते ही हैं। जब किले की रक्षा में जुटे 8,000 राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए व उनकी महिलाओं के राख बने जिस्म देखकर भी जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने हुक्म दे दिया कि किले में कत्ल ए आम किया जाए। 40,000 बेकसूर हिन्दू पुजारियों, किसानों, काश्तकारों व व्यापारियों को बेरहमी से काट दिया गया। उनके परिवारों को गुलाम बना लिया गया।

औरंगजेब ने लगभग सभी मंदिरों को नष्ट करने के आदेश दिए ताकि मंदिरों के पैसे की लूट से मुगल दरबार की तामीर की जा सके। और हां मुगलों की लूट का एक बड़ा हिस्सा मध्य एशिया बड़ा भेजा जाता रहा। यह हिस्सा धन, गुलाम और वस्तुओं के रूप में था। 

मुगल डकैत ही थे निर्माता नही। इस लेख में कुछ संदर्भ इसलिए लिए गए ताकि तथाकथित कहानीबाज इतिहासकारों को थप्पड़ लगाया जा सके जो 'एक अनुमान के आधार पर' पूरा इतिहास लिख देते।

ऐसे अत्याचारी मुगलों की डकैती/ क्रूरता  पर लगाम लगाने वाले महाराणा प्रताप की आज जयंती है, महायोद्धा को प्रणाम। 🙏

मुस्लिमो का इतिहास जो छिपाया गया है

9 सितम्बर 1947 की मध्यरात्रि को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा सरदार पटेल को सूचना दी गई कि 10 सितम्बर को संसद भवन उड़ा कर एवं सभी मन्त्रियों की हत्या कर के लाल किले पर पाकिस्तानी झण्डा फहराने की दिल्ली के मुसलमानों की योजना है। 
सूचना क्यों कि संघ की ओर से थी, इसलिये अविश्वास का प्रश्न नहीं था। पटेल तुरंत हरकत में आए और सेनापति आकिन लेक को बुला कर सैनिक स्थिति के बारे में पूछा। 
उस समय दिल्ली में बहुत ही कम सैनिक थे। आकिन लेक ने कहा कि आस-पास के क्षेत्रों में तैनात सैनिक टुकड़ियों को दिल्ली बुलाना भी खतरे से खाली नहीं है। कुल मिला कर आकिन लेक का तात्पर्य था कि यह इतनी जल्दी भी नहीं किया जा सकता, इसके लिये समय चाहिए। यह सारी वार्ता वायसराय माउंटबैटन के सामने ही हो रही थी, लेकिन पटेल तो पटेल ही थे। उन्होंने आकिन लेक को कहा-“विभिन्न छावनियों को संदेश भेजो, उनके पास जितनी जितनी भी टुकड़ियाँ फालतू हो सकती हैं, उन्हें तुरंत दिल्ली भेजें।” आखिर ऐसा ही किया गया। 

उसी दिन शाम से टुकड़ियाँ आनी शुरू हो गई। अगले दिन तक पर्याप्त टुकड़ियाँ दिल्ली पहुँच चुकी थीं।

सैनिक कार्यवाही....
सैनिक कार्यवाही आरम्भ हुई। दिल्ली के जिन-जिन स्थानों के बारे में संघ ने सूचना दी थी, उन सभी स्थानों पर एक साथ छापे मारे गये और हर जगह से बड़ी मात्रा में शस्त्रास्त्र बरामद हुए। पहाड़गंज की मस्जिद, सब्ज़ी मंडी मस्जिद तथा मेहरौली की मस्जिद से सब से अधिक शस्त्र मिलेl अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने स्टेन गनों तथा ब्रेन गनों से मुकाबला किया, लेकिन सेना के सामने उन की एक न चली। सब से कड़ा मुकाबला हुआ सब्जी मण्डी क्षेत्र में स्थित ‘काकवान बिल्डिंग’ में। इस एक बिल्डिंग पर कब्जा करने में सेना को चौबीस घण्टों से भी अधिक समय लगा।

मेहरौली की मस्जिद से भी स्टेनगनों व ब्रेनगनों से सेना का मुकाबला किया गया। चार-पाँच घंटे के लगातार संघर्ष के बाद ही सेना उस मस्जिद पर कब्जा कर सकी।

तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी के अनुसार....
“मुसलमानों ने हथियार एकत्र कर लिए थे। उन के घरों की तलाशी लेने पर बम, आग्नेयास्त्र और गोला बारूद के भण्डार मिले थे। स्टेनगन, ब्रेनगन, मोर्टार और वायर लेस ट्रांसमीटर बड़ी मात्रा में मिले। इन को गुप्तरूप से बनाने वाले कारखाने भी पकड़े गए।

अनेक स्थानों पर घमासान लड़ाई हुई, जिस में इन हथियारों का खुल कर प्रयोग हुआ। पुलिस में मुसलमानों की भरमार थी। इस कारण दंगे को दबाने में सरकार को काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा। इन पुलिस वालों में से अनेक तो अपनी वर्दी व हथियार लेकर ही फरार हो गए और विद्रोहियों से मिल गए। शेष जो बचे थे, उन की निष्ठा भी संदिग्ध थी। सरकार को अन्य प्रान्तों से पुलिस व सेना बुलानी पड़ी।” (कृपलानी, गान्धी, पृष्ठ  292-293)

मुसलमान सरकारी अधिकारी थे योजनाकार....
दिल्ली पर कब्जा करने की योजना बनाने वाले कौन थे ये लोग? ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। इन में बड़े – बड़े मुसलमान सरकारी अधिकारी थे, जिन पर भारत सरकार को बड़ा विश्वास था। इन में उस समय के दिल्ली के बड़े पुलिस अधिकारी तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारी थे, जो कि मुसलमान थे।
एक-एक पहलू को अच्छी तरह सोच-विचार करके लिख लिया गया था और वे लिखित कागज-पत्र विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी की ही कोठी में एक तिजोरी में सुरक्षित रख लिए गए थे।

       उन दिनों मुसलमान बन कर मुस्लिम अधिकारियों की गुप्तचरी करने वाले संघ के स्वयंसेवकों को इस की जानकारी मिल गई और उन्होंने संघ अधिकारियों को सूचित किया । संघ अधिकारियों ने योजना के कागजात प्राप्त करने का दायित्व एक खोसला नाम के स्वयंसेवक को सौंपा ।
खोसला ने उपयुक्त स्वयंसेवकों की एक टोली तैयार की और सभी मुसलमानी वेश में रात को विश्वविद्यालय के उस अधिकारी की कोठी पर पहुँच गए। मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ता वहाँ पहरा दे रहे थे। खोसला ने उन्हें ‘वालेकुम अस्सलाम’ किया और कहा – “हम अलीगढ़ से आए हैं। अब यहाँ पहरा देने की हमारी ड्यूटी लगी है। आप लोग जाकर सो जाओ।” वे लोग चले गए।

कोठी से तिजोरी ही उठा लाए....
खोसला के लोग कोठी से उस तिजोरी को ही निकाल कर ट्रक पर रख कर ले गए। उस में से वे कागज निकाल कर देखे गए तो सब सन्न रह गए।

नई दिल्ली में आजकल जो संसद सदस्यों की कोठियाँ हैं, इन्हीं में से ही किसी कोठी में रात को कुछ स्वयंसेवक सरकारी अधिकारियों की बैठक बुलाई गई और दिल्ली पर कब्जे की उन कागजों में अभिलिखित योजना पर मन्थन किया गया। इसी मन्थन में से यह बात सामने आई कि यह योजना इतने बड़े और व्यापक स्तर की है कि हम संघ के स्तर पर उस को विफल नहीं कर सकते। इसे सेना ही विफल कर सकती है। अतः इस की सूचना हमें सरदार पटेल को देनी चाहिए। फलतः उस बैठक से ही दो - तीन कार्यकर्ता रात्रि को एक बजे के लगभग सीधे सरदार पटेल की कोठी पर पहुँचे तथा उन्हें जगा कर यह सारी जानकारी दी। पटेल बोले – “अगर यह सच न हुआ तो?” कार्यकर्ताओं ने उत्तर दिया - “आप हमें यहीं बिठा लीजिए तथा अपने गुप्तचर विभाग से जाँच करा लीजिए। अगर यह सच साबित न हुआ तो हमें जेल में डाल दीजिए।” इस के बाद सरदार हरकत में आए।

कल्पना करें कि यदि सरदार पटेल संघ की उक्त सूचना पर विश्वास न करते अथवा वे आकिन लेक की बातों में आ जाते तो भारत सरकार को भाग कर अपनी राजधानी लखनऊ, कलकत्ता या मुम्बई में बनानी पड़ती और परिणाम स्वरूप आज पाकिस्तान की सीमा दिल्ली तक तो जरूर ही होती।

साभार : पुस्तक : ”विभाजनकालीन भारत के साक्षी” (पृष्ठ संख्या 92-93)
लेखक - श्री कृष्णानन्द सागर जी ।

बुधवार, 10 मई 2023

अकबर की महानता का काला सच

अकबर के समय के इतिहास लेखक “अहमद यादगार" ने लिखा: “बैरम खाँ ने निहत्थे और बुरी तरह घायल हिन्दू राजा हेमू के हाथ पैर बाँध दिये और उसे नौजवान शहजादे के पास ले गया और बोला, आप अपने पवित्र हाथों से इस काफिर का कत्ल कर दें और “गाज़ी” की उपाधि कुबूल करें, और शहजादे ने उसका सिर उसके धड़ से अलग कर दिया। इस तरह अकबर ने १४ साल की आयु में ही गाज़ी (काफिरों का कातिल) होने का सम्मान पाया। इसके बाद हेमू के कटे सिर को काबुल भिजवा दिया और धड़ को दिल्ली के दरवाजे पर टाँग दिया।”

अबुल फजल ने आगे लिखा: “हेमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने पेश किया गया... जिसने उसे इस्लाम कबूल करने का आदेश दिया, किन्तु उस वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, मैंने अस्सी वर्ष तक अपने ईश्वर की पूजा की है; मैं अपने धर्म को कैसे त्याग सकता हूँ? मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर अपनी तलवार से उसका सर काट दिया।” (अकबर नामा, अबुल फजल: एलियट और डाउसन, पृष्ठ २१)

इस विजय के तुरन्त बाद अकबर ने काफिरों के कटे हुए सिरों से एक ऊँची मीनार बनवायी। २ सितम्बर १५७३ को भी अकबर ने अहमदाबाद में २००० दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊँची सिरों की मीनार बनवायी और अपने दादा बाबर का रिकार्ड तोड़ दिया। यानी घर का रिकार्ड घर में ही रहा।

अकबरनामा के अनुसार ३ मार्च १५७५ को अकबर ने बंगाल विजय के दौरान इतने सैनिकों और नागरिकों की हत्या करवायी कि उससे कटे सिरों की आठ मीनारें बनायी गयीं। यह फिर से एक नया रिकार्ड था। जब वहाँ के हारे हुए शासक दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में भरकर पानी पीने के लिए दिया गया।

अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने लिखा था: “अकबर के आदेशानुसार प्रथम ८००० राजपूत योद्धाओं को बंदी बना लिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ विजय के बाद प्रात:काल से दोपहर तक अन्य ४०००० किसानों का भी वध कर दिया गया जिनमें ३००० बच्चे और बूढ़े थे।” (अकबरनामा, अबुल फजल, अनुवाद एच. बैबरिज)

चित्तौड़ की पराजय के बाद महारानी जयमाल मेतावाड़िया समेत १२००० क्षत्राणियों ने मुगलों के हरम में जाने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। जरा कल्पना कीजिए विशाल गड्ढों में धधकती आग और दिल दहला देने वाली चीखों-पुकार के बीच उसमें कूदती १२००० महिलाएँ।
अकबर की गंदी नजर गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर थी। “सन् १५६४ में अकबर ने अपनी हवस की शांति के लिए रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक वीरतापूर्ण संघर्ष के बाद अपनी हार निश्चित देखकर रानी ने अपनी ही छाती में छुरा घोंपकर आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन और पुत्रवधू को को बन्दी बना लिया गया। और अकबर ने उसे अपने हरम में ले लिया। उस समय अकबर की उम्र २२ वर्ष और रानी दुर्गावती की ४० वर्ष थी।”

सन् 1561 में आमेर के राजा भारमल और उनके ३ राजकुमारों को यातना दे कर उनकी पुत्री को साम्बर से अपहरण कर अपने हरम में आने को मज़बूर किया। औरतों का झूठा सम्मान करने वाले अकबर ने सिर्फ अपनी हवस मिटाने के लिए न जाने कितनी मुस्लिम औरतों की भी अस्मत लूटी थी। इसमें मुस्लिम नारी चाँद बीबी का नाम भी है।

अकबर ने अपनी सगी बेटी आराम बेगम की पूरी जिंदगी शादी नहीं की और अंत में उस की मौत अविवाहित ही जहाँगीर के शासन काल में हुई।

सबसे मनगढ़ंत किस्सा कि अकबर ने दया करके सतीप्रथा पर रोक लगाई; जबकि इसके पीछे उसका मुख्य मकसद केवल यही था कि राजवंशीय हिन्दू नारियों के पतियों को मरवाकर एवं उनको सती होने से रोककर अपने हरम में डालकर ऐय्याशी करना। राजकुमार जयमल की हत्या के पश्चात अपनी अस्मत बचाने को घोड़े पर सवार होकर सती होने जा रही उसकी पत्नी को अकबर ने रास्ते में ही पकड़ लिया।

शमशान घाट जा रहे उसके सारे सम्बन्धियों को वहीं से कारागार में सड़ने के लिए भेज दिया और राजकुमारी को अपने हरम में ठूँस दिया। इसी तरह पन्ना के राजकुमार को मारकर उसकी विधवा पत्नी का अपहरण कर अकबर ने अपने हरम में ले लिया।

अकबर औरतों के लिबास में मीना बाज़ार जाता था जो हर नये साल की पहली शाम को लगता था। अकबर अपने दरबारियों को अपनी स्त्रियों को वहाँ सज-धज कर भेजने का आदेश देता था। मीना बाज़ार में जो औरत अकबर को पसंद आ जाती, उसके महान फौजी उस औरत को उठा ले जाते और कामी अकबर की अय्याशी के लिए हरम में पटक देते। अकबर महान उन्हें एक रात से लेकर एक महीने तक अपनी हरम में खिदमत का मौका देते थे।

जब शाही दस्ते शहर से बाहर जाते थे तो अकबर के हरम की औरतें जानवरों की तरह महल में बंद कर दी जाती थीं।

अकबर ने अपनी अय्याशी के लिए इस्लाम का भी दुरुपयोग किया था। चूँकि सुन्नी फिरके के अनुसार एक मुस्लिम एक साथ चार से अधिक औरतें नहीं रख सकता और जब अकबर उस से अधिक औरतें रखने लगा तो काजी ने उसे रोकने की कोशिश की। इस से नाराज होकर अकबर ने उस सुन्नी काजी को हटा कर शिया काजी को रख लिया क्योंकि शिया फिरके में असीमित और अस्थायी शादियों की इजाजत है, ऐसी शादियों को अरबी में “मुतअ” कहा जाता है।

अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है: “अकबर के हरम में पाँच हजार औरतें थीं और ये पाँच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं। शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था। वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी। अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी। कई बार सुन्दर लड़कियों को ले जाने के लिए लोगों में झगड़ा भी हो जाता था। एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया।”

बैरम खान जो अकबर के पिता जैसा और संरक्षक था, उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के समान स्त्री से शादी की। इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी मुस्लिम राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों को अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से बचाने के लिए इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे। कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने जजिया खत्म कर दिया था। लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त रखी गयी थी। रणथम्भौर की सन्धि में बूंदी के सरदार को शाही हरम में औरतें भेजने की “रीति” से मुक्ति देने की बात लिखी गई थी। जिससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों के परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को माँग लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और केवल बूंदी ही इस क्रूर रीति से बच पाया था।

यही कारण था की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियों के जौहर की आग में जलने की हजारों घटनाएँ हुईं।

जवाहर लाल नेहरु ने अपनी पुस्तक “डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” में अकबर को 'महान' कहकर उसकी प्रशंसा की है। हमारे कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भी अकबर को एक परोपकारी उदार, दयालु और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया है।

अकबर के दादा बाबर का वंश तैमूरलंग से था और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की नसों में एशिया की दो प्रसिद्ध आतंकी और खूनी जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था। जिसके खानदान के सारे पूर्वज दुनिया के सबसे बड़े जल्लाद थे और अकबर के बाद भी जहाँगीर और औरंगजेब दुनिया के सबसे बड़े दरिन्दे थे तो ये बीच में महानता की पैदाईश कैसे हो गयी।

अकबर के जीवन पर शोध करने वाले इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने साफ़ लिखा है की अकबर एक दुष्कर्मी, घृणित एवं नृशंस हत्याकांड करने वाला क्रूर शाशक था। विन्सेंट स्मिथ ने किताब ही यहाँ से शुरू की है कि “अकबर भारत में एक विदेशी था। उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था। अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था”।

चित्तौड़ की विजय के बाद अकबर ने कुछ फतहनामें प्रसारित करवाये थे। जिससे हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन आन्तरिक घृणा प्रकाशित हो गई थी।

उनमें से एक फतहनामा पढ़िये: “अल्लाह की ख्याति बढ़े इसके लिए हमारे कर्तव्य परायण मुजाहिदीनों ने अपवित्र काफिरों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वध कर दिया। हमने अपना बहुमूल्य समय और अपनी शक्ति घिज़ा (जिहाद) में ही लगा दिया है और अल्लाह के सहयोग से काफिरों के अधीन बस्तियों, किलों, शहरों को विजय कर अपने अधीन कर लिया है, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों, उसकी मूर्तियों को और काफिरों के अन्य स्थानों का विध्वंस कर दिया है।” (फतहनामा-ई-चित्तौड़ मार्च १५८६,नई दिल्ली)

महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए सबसे बड़ा प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना जो उसके अन्दर कूट-कूटकर भरी हुई थी। अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, 'मुन्तखाव-उत-तवारीख' में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौजें राणाप्रताप के खिलाफ युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो मैनें (बदाउनीने) “युद्ध अभियान में शामिल होकर हिन्दुओं के रक्त से अपनी इस्लामी दाढ़ी को भिगोंकर शाहंशाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की। मेरे व्यक्तित्व और जिहाद के प्रति मेरी निष्ठा भावना से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि उन्होनें प्रसन्न होकर मुझे मुठ्ठी भर सोने की मुहरें दे डालीं।” (मुन्तखाब-उत-तवारीख: अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३,अनुवाद वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)

बदाउनी ने हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना के बारे में लिखा था: “हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर की सेना से जुड़े राजपूत, और राणा प्रताप की सेना के राजपूत जब परस्पर युद्धरत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब मैनें शाही फौज के अपने सेना नायक से पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु ही मरे। तब कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि यह जरूरी नहीं कि गोली किसको लगती है क्योंकि दोनों ओर से युद्ध करने वाले काफिर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इस्लाम को ही होगा।”

थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था। अकबर ने आदेश दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले। उन मूर्ख लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी। जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनिकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया और अंत में इसने दोनों ही तरफ के लोगों को अपने सैनिकों से मरवा डाला और फिर अकबर महान जोर से हँसा।

एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है। इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को मीनार से नीचे फिंकवा दिया।

अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था। विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा। उसने किले के राजा मीरां बहादुर को संदेश भेजकर अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा। जब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया तो उसे अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुकने का आदेश दिया गया क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था।

उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे। मीराँ के सेनापति ने इसे मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने उसके बच्चे से पूछा क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए उसका पिता समर्पण नहीं करेगा। यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया। यह घटना अकबर की मृत्यु से पाँच साल पहले की ही है।

हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया। असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि इस्लाम के लिए हराम है और इसीलिए इसके नाम की मस्जिद भी हराम है।

अकबर स्वयं पैगम्बर बनना चाहता था इसलिए उसने अपना नया धर्म “दीन-ए-इलाही - ﺩﯾﻦ ﺍﻟﻬﯽ ” चलाया। जिसका एकमात्र उद्देश्य खुद की बड़ाई करवाना था। यहाँ तक कि मुसलमानों के कलमें में यह शब्द “अकबर खलीफतुल्लाह - ﺍﻛﺒﺮ ﺧﻠﻴﻔﺔ ﺍﻟﻠﻪ ” भी जुड़वा दिया था। उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में अस्सलाम वालैकुम नहीं बल्कि “अल्लाह ओ अकबर” कहकर एक दूसरे का अभिवादन किया जाए।

यही नहीं अकबर ने हिन्दुओं को गुमराह करने के लिए एक फर्जी उपनिषद् “अल्लोपनिषद” बनवाया था जिसमें अरबी और संस्कृत मिश्रित भाषा में मुहम्मद को अल्लाह का रसूल और अकबर को खलीफा बताया गया था। इस फर्जी उपनिषद् का उल्लेख महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में किया है।

उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया। जबकि वास्तविकता ये है कि उस धर्म को मानने वाले अकबरनामा में लिखित कुल १८ लोगों में से केवल एक हिन्दू बीरबल था।

अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले। जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है। अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी। उसके दरबारियों को तो इसलिए अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए।

अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग उसे पसंद नहीं। अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कत्ल कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब जो इसे नापसंद थे। पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है।
स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)

बदाउनी ने हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना के बारे में लिखा था: “हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर की सेना से जुड़े राजपूत, और राणा प्रताप की सेना के राजपूत जब परस्पर युद्धरत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब मैनें शाही फौज के अपने सेना नायक से पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु ही मरे। तब कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि यह जरूरी नहीं कि गोली किसको लगती है क्योंकि दोनों ओर से युद्ध करने वाले काफिर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इस्लाम को ही होगा।”

थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था। अकबर ने आदेश दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले। उन मूर्ख लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी। जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनिकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया और अंत में इसने दोनों ही तरफ के लोगों को अपने सैनिकों से मरवा डाला और फिर अकबर महान जोर से हँसा।

एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है। इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को मीनार से नीचे फिंकवा दिया।

अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था। विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा। उसने किले के राजा मीरां बहादुर को संदेश भेजकर अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा। जब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया तो उसे अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुकने का आदेश दिया गया क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था।

उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे। मीराँ के सेनापति ने इसे मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने उसके बच्चे से पूछा क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए उसका पिता समर्पण नहीं करेगा। यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया। यह घटना अकबर की मृत्यु से पाँच साल पहले की ही है।

हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया। असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि इस्लाम के लिए हराम है और इसीलिए इसके नाम की मस्जिद भी हराम है।

अकबर स्वयं पैगम्बर बनना चाहता था इसलिए उसने अपना नया धर्म “दीन-ए-इलाही - ﺩﯾﻦ ﺍﻟﻬﯽ ” चलाया। जिसका एकमात्र उद्देश्य खुद की बड़ाई करवाना था। यहाँ तक कि मुसलमानों के कलमें में यह शब्द “अकबर खलीफतुल्लाह - ﺍﻛﺒﺮ ﺧﻠﻴﻔﺔ ﺍﻟﻠﻪ ” भी जुड़वा दिया था। उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में अस्सलाम वालैकुम नहीं बल्कि “अल्लाह ओ अकबर” कहकर एक दूसरे का अभिवादन किया जाए।

यही नहीं अकबर ने हिन्दुओं को गुमराह करने के लिए एक फर्जी उपनिषद् “अल्लोपनिषद” बनवाया था जिसमें अरबी और संस्कृत मिश्रित भाषा में मुहम्मद को अल्लाह का रसूल और अकबर को खलीफा बताया गया था। इस फर्जी उपनिषद् का उल्लेख महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में किया है।

उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया। जबकि वास्तविकता ये है कि उस धर्म को मानने वाले अकबरनामा में लिखित कुल १८ लोगों में से केवल एक हिन्दू बीरबल था।

अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले। जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है। अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी। उसके दरबारियों को तो इसलिए अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए।

अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग उसे पसंद नहीं। अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कत्ल कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब जो इसे नापसंद थे। पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है।

अकबर के सभी धर्म के सम्मान करने का सबसे बड़ा सबूत: अकबर ने गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम का तीर्थनगर “प्रयागराज” जो एक काफिर नाम था को बदलकर इलाहाबाद रख दिया था।
वहाँ गंगा के तटों पर रहने वाली सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को जीता तो वहाँ की हिन्दू जनता ने उसका इस्तकबाल नहीं किया। यही कारण है कि प्रयागराज के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है। अकबर ने हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित संगम प्रयाग के किनारे के सारे घाट तुड़वा डाले थे। आज भी वो सारे साक्ष्य वहाँ मौजूद हैं।

२८ फरवरी १५८० को गोवा से एक पुर्तगाली मिशन अकबर के पास पहुँचा और उसे बाइबल भेंट की जिसे इसने बिना खोले ही वापस कर दिया।

4 अगस्त १५८२ को इस्लाम को अस्वीकार करने के कारण सूरत के २ ईसाई युवकों को अकबर ने अपने हाथों से क़त्ल किया था... जबकि इसाईयों ने इन दोनों युवकों को छोड़ने के लिए १००० सोने के सिक्कों का सौदा किया था। लेकिन उसने क़त्ल ज्यादा सही समझा।

सन् 1582 में बीस मासूम बच्चों पर भाषा परीक्षण किया और ऐसे घर में रखा जहाँ किसी भी प्रकार की आवाज़ न जाए और उन मासूम बच्चों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी वो गूंगे होकर मर गये । यही परीक्षण दोबारा 1589 में बारह बच्चों पर किया।

सन् 1567 में नगर कोट को जीत कर कांगड़ा देवी मंदिर की मूर्ति को खण्डित की और लूट लिया फिर गायों की हत्या कर के गौ रक्त को जूतों में भरकर मंदिर की प्राचीरों पर छाप लगाई।

जैन संत हरिविजय के समय सन् 1583-85 को जजिया कर और गौ हत्या पर पाबंदी लगाने की झूठी घोषणा की जिस पर कभी अमल नहीं हुआ।

एक अंग्रेज रूडोल्फ ने अकबर की घोर निंदा की।कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ डाली और उस स्थान पर नमाज पढ़ी।

1587 में जनता का धन लूटने और अपने खिलाफ हो रहे विरोधों को ख़त्म करने के लिए अकबर ने एक आदेश पारित किया कि जो भी उससे मिलना चाहेगा उसको अपनी उम्र के बराबर मुद्राएँ उसको भेंट में देनी पड़ेगी।

जीवन भर इससे युद्ध करने वाले महान महाराणा प्रताप जी से अंत में इसने खुद ही हार मान ली थी यही कारण है कि अकबर के बार बार निवेदन करने पर भी जीवन भर जहाँगीर केवल ये बहाना करके महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह से युद्ध करने नहीं गया की उसके पास हथियारों और सैनिकों की कमी है... जबकि असलियत ये थी की उसको अपने बाप का बुरा हश्र याद था।

विन्सेंट स्मिथ के अनुसार अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया। हमजबान की जबान ही कटवा डाली।

मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं। उसके 300 साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरों पर अजीबो- गरीब तरीकों से गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया।

मुग़ल आक्रमणकारी थे यह सिद्ध हो चुका है। मुगल दरबार तुर्क एवं ईरानी शक्ल ले चुका था। कभी भारतीय न बन सका। भारतीय राजाओं ने लगातार संघर्ष कर मुगल साम्राज्य को कभी स्थिर नहीं होने दिया। राजपूताना ने मुगलों को कभी स्वीकार नहीं किया। गुजरात, मालवा, मराठा, बिहार, बंगाल, असम तथा दक्षिण का कोई प्रदेश कभी भी मुगलों के पूर्ण अधिकार में नहीं रहा। फिर भी कुछ चापलूस लोग अकबर को शहंशाहे हिन्द कहते हैं।