गुरुवार, 7 जून 2012

!!आर्थिक विकास के नाम पर जनता को धोका दिया जा रहा है!!

 
 मुझे लगता है की जान बूझ कर ही ऐसी नीतियाँ बना जा रही हें जो भविष्य को अन्धकार की ओर लेजा रही हें , क्या अभी तक भारत के अर्थ शास्त्रियों को यह सनझ नहीं आई की रुपय,डॉलर, येन, नुमा कागज़ के टुकड़े अर्थ व्यवस्था का गुणाक तो है अर्थ व्यवस्था नहीं है . जिस तरह पिछली बार आई मंदी को रोकने के लिए अमेरिका की तर्ज़ पर बाज़ार में धन परवाह बढ़ा कर देश को धोका दिया गया वह अब महंगाई का भूत बन कर जनता को डरा रहा है, जो भविष्य में और भी बड़ा हानि कारक सिद्ध होगा, देश में उत्पादन कम और धन्पर्वाह जियादा होना ही महंगाई का फिलहाल कारक है, किसी भी देश अर्थ व्यवस्था कागज़ के टुकड़े नहीं बल्कि नेट और ग्रोस उत्पादन ओर सेवा की स्तिथि ही होता है , अगर अबके बरस भारत पर इश्वर की असीम कृपा ना होती बारिश अच्छी ना होती तो महंगाई के कारण लोग भुकमरी के शिकार होकर खुद कुशी कर रहे होते क्यों की जो धन्पर्वाह साकार द्वारा बाज़ार में मंदी से निपटने को उतरा गया उसका लाब सिर्फ कपनियो या लोन लेने में शक्षम व्यक्तियों को ही मिला. जिसके कारण अमीर और अमीर होगया और गरीब महंगाई के कारण और गरीब होगया, यह फासला पैदा करने के लिए वह निति ही जुम्मेदार है. अमेरिकन निति के परभाव में जीने वाले लोग यह क्यों भूल जाते हें की भारतीय भगोल और कारोबार की स्तिथि अमेरिका से बिलकुल भिन्न है . वहाँ सिर्फ कम्पनियों का राज है बाकि सब उनके नोकर है , वहां कम्पेन्यों की मदत सीधे उनके नोकरों को मिलती है यानि वहाँ के आम आदमियों को , मगर भारत में ऐसा नहीं है यहाँ की अस्सी पर्तिशत आबादी तो गाँव में बस्ती है उनकी रोज़ी रोटी कपनियों के आधार पर नहीं चलती अपितु कृषि और मेहनत मजदूरी, और कुटीर उत्पादन से चलती है. क्या कोई बतायगा की इन सब के लिए देश की आर्थिक निति क्या है,? उस धन परवाह का जो लाभ मिला वह 10 से 15 पर्तिशत लोगो को ही मिला जो की सरकारी नोकर कम्पनिया या वो कारोबारी जिनका शेयर बाज़ार और बेंको से गहरा रिश्ता है. अनुदान और बैंक क़र्ज़ के रूप में इन पर अपार धन आगया जिसका निवेश शेहरी भूमि और सोना खरीद के रूप में सामने आया.मांग अचानक बढ़ना ही इनकी असंतुलित महंगाई का कारक बना और इसी महंगाई की तुलनात्मक अंतर्राष्ट्रय बाज़ार में रुपय की कीमत गिरती चली गई. और रुपय सस्ता होने के कारण यहाँ डॉलर महंगा होता गया और डॉलर के बदले कम्पुटर तेल और विदेशी उत्पाद महंगा होता गया, तेल महंगा होने से आम आदमी के लिए माल भाडा मंहगा होता गया और इश्वर की महरबानी हमारी फसल अच्छी भी हुई तो २ रुपय किलो आलू ने कई किसानो की जान लेली इसके लिए सरकार ने क्या किया, आलू का मंदा होना एक बात साफ़ करता है की उत्पादन ही महंगाई घटा सकता है ,, २९ रुपय और २२ रुपय रोज़ कमाने वाला अमीर होने की बात करने वाली सरकार को यह भी याद रखना चाहिए की अमेरिका में मिनिमम मजदूरी ७ डॉलर प्रति घंटा, ८ घन्टे में ५६ डॉलर. यानि लगभग २८०० रुपय. प्रति दिन,, इस हिसाब से लग भाग ९८ डॉलर का १ रूपया हो तो भारत अमेरिका की करेंसी बराबर होगी, अगर हम सरकार का २९ रुपय वाला अमीरी का फार्मूला मानते हें तो,,अगर भारत के प्रधान मंत्री अर्थ शास्त्री है तो क्या वह जान बूझ कर भारत को गर्त में धकेलना चाहते हें, और अगर हाँ तो फिर वो कोन है देश को सोचना होगा. ?

!!भगवान शिव और विश्व का इतिहास ((Lord Shiva and world history) )!!


  कुछ माह पहले ही 'ईश्वरकण' की खोज के प्रयोग से हलचल पैदा करने वाली 'नाभिकीय अनुसंधान यूरोपीय संगठन' (CERN) का नाम तो विज्ञान प्रेमियों को याद होगा। ११३ देशों के ६०८ अनुसंधान संस्थानों के ७९३१ वैज्ञानिक तथा इंजीनियर इस संस्थान में अनुसंधानरत हैं। यह फ़्रान्स और स्विट्ज़रलैण्ड दोनों देशों की‌ भूमि में १०० मीटर गहरे में स्थित है। यह अनेक अर्थों में विश्व की विशालतम भौतिकी‌ की प्रयोगशाला है।
१९८४ में यहां के दो वैज्ञानिकों को बोसान कणों की खोज के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया। १९९२ में ज़ार्ज शर्पैक को कणसंसूचक के आविष्कार के लिये नोबेल से सम्मानित किया गया।१९९५ में यहां 'प्रति हाइड्रोजन ' अणुओं का निर्माण किया गया। वैसे तो इसकी उपलब्धियों की सूची लम्बी है, किन्तु इस समय यह फ़िर गरम चर्चा में है क्योंकि इसके एक प्रयोग से ऐसा निष्कर्ष- सा निकलता दिखता है कि एक अवपरमाणुक कण ने प्रकाश के वेग को हरा दिया है।

यह तो आइन्स्टाइन को अर्थात एक दृष्टि से आधुनिक भौतिकी के एक आधार स्तंभ को ध्वस्त कर सकने वाली खोज है। अभी‌ इस क्रान्तिकारी खोज की जाँच पड़ताल चल रही है। सरलरूप से कहें तब इस प्रयोगशाला में मुल कणों को तेज से तेज दौड़ाया जाता है, अर्थात यह प्रयोगशाला 'कण त्वरक' है जो मूलकणों को प्रकाश वेग के निकटतम त्वरित वेग (particle accelerator) प्रदान करने की क्षमता रखती है, और फ़िर यह उनमें, यदि मैं विनोद में कहूं तब, मुर्गों के समान टक्कर कराती है (अतएव इसका नाम विशाल हेड्रान संघट्टक भी है ) और यह इस तरह नए कणों का निर्माण कर सकती है, और प्रयोगशाला में‌ ही यह ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की‌ सूक्ष्मरूप में रचना कर सकती है। न केवल यह आकार और प्रकार में विशालतम है वरन कार्य में‌ सूक्ष्मतम कणों के व्यवहार की‌ खोज करती है, जिनके अध्ययन से इस विराट ब्रह्माण्ड की संरचना समझने के लिये भी मदद मिलती है।

संभवत: आपको विश्वास न हो कि इस विशालतम भौतिकी प्रयोगशाला केन्द्र में शिव जी कहना चाहिये कि नटराज की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है ! जिस तरह शिव जी का ताण्डव नृत्य सृष्टि के विनाश और पुन: निर्माण का द्योतक है उसी‌ तरह इस ब्रह्माण्ड में सूक्ष्मतम कण नृत्य करते हैं, एक दूसरे को नष्ट करते हैं, और नए कणों की रचना करते हैं। अर्थात शिव जी का ताण्डव नृत्य ब्रह्माण्ड में हो रहे मूल कणों के 'नृत्य' का प्रतीक है।

१९७५ में फ़्रिट्याफ़ काप्रा, एक प्रसिद्ध अमैरिकी भौतिकी वैज्ञानिक ने 'द डाओ आफ़ फ़िज़िक्स' नाम की एक अनोखी पुस्तक लिखी, यह उनकी पाँचवी 'अंतर्राष्ट्रीय सर्वाधिक प्रिय पुस्तक सिद्ध हुई, इसके २३ भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। इस पुस्तक में‌ काप्रा ने शिव के ताण्डव और अवपरमाण्विक कणों के ऊर्जा नृत्य का संबन्ध दर्शाया है; "यह ऊर्जा नृत्य विनाश तथा रचना की स्पंदमान लयात्मक अनंत प्रक्रिया है। अतएव आधुनिक भौतिकी वैज्ञानिक के लिये हिन्दू पुराणों में वर्णित शिव का नृत्य समस्त ब्रह्माण्ड में अवपरमाण्विक कणॊं का नृत्य है, जो कि समस्त अस्तित्व तथा प्राकृतिक घटनाओं का आधार है।" वे आगे कहते हैं, "आधुनिक भौतिकी में‌ पदार्थ निष्क्रिय और जड़ नहीं‌ है वरन सतत नृत्य में रत है।" इस तरह आधुनिक भौतिकी तथा हिन्दू ज्ञान दोनों ही दृढ़ हैं कि ब्रह्माण्ड को गत्यात्मक ही समझना चाहिये, इसकी‌ निर्मिति स्थैतिक नहीं है।

नेपाल में

 पशुपतिनाथ क्षेत्र नेपाल में हिंदुओं का सबसे पवित्र तीर्थस्थान है। यह मंदिर प्राचीन श्लेस्मान्तक वन मे बागमती नदी के किनारे अवस्थित है। यह मंदिर युनेस्को अनुसार एक विश्व धरोहर क्षेत्र है। यहां पर मंदिरों की लंबी श्रृंखला, श्मशान घाट, धार्मिक स्‍नान और साधुओं की टोलियां देख सकते हैं। भगवान शिव को समर्पित पशुपतिनाथ मंदिर बागमती नदी के किनार बना है। नेपाल में बागमती को गंगा नदी समान श्रद्धापूर्वक पवित्र माना जाता है। इस मंदिर को भगवान शिव का एक घर माना जाता है। प्रतिवर्ष हजारों श्रद्धालु यहां दर्शनों के लिए आते हैं।
पाकिस्तान

ऎतिहासिक पृष्टभूमि

जहानाबाद जिला ऎतिहासिक दृषिकोण से अत्यंत महत्ववाला क्षेत्र है। प्रसिदॄ पुस्तक "आईना-ए-अकबरी" मे इस स्थान का जिक्र किया गया है। 17 वीं शताब्दी मे औरंगजेब के शासनकाल मे यहाँ एक भीषण अकाल पड़ा था। भूख के कारण प्रतिदिन सैकङों लोग काल का ग्रास बन रहे थे। ऎसी परिस्थिति मे मुगल बादशाह ने अपनी बहन जहानआरा के नेतृत्व मे एक दल अकाल राहत कार्य हेतु भेजा। जहानआरा के स्मृति मे इस स्थान का नाम जहानआराबाद जो कालांतर मे "जहानाबाद" के नाम से हुआ। प्राचीनकाल के इतिहास की ओर रुख करें तो यह क्षेत्र मगध का एक छोटा सा हिस्सा था। इस जिला के मखदुमपुर प्रखंड मे अवस्थित बराबर पहाङ भौगोलिक, ऎतिहासिक धार्मिक एवं पर्यटन की दृष्टि से प्राचीन काल से ही अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। प्रखंड मुख्यालय से 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस पर्वत की चोटी के मध्य मे बाबा सिद्धेश्वरनाथ उर्फ भगवान शंकर का अत्यंत प्राचीन मन्दिर है। मगध सेनापति बाणावर ने अपने प्रवास के दौरान एक विशाल मन्दिर का निर्माण कराया था। जो आज दबा पडा है। इसी पर्वत की चोटी पर सम्राट अशोक ने अपनी एक रानी की मांग पर आजीवक सम्प्रदाय के साधुओ के लिए गुफाओ का निर्माण कराया। जो आज भी उसी स्थिति मे विद्धमान है। ये गुफाए विश्व की प्रथम मानव निर्मित गुफाओ के रुप मे जानी जाती है। अशोक के पोत्र दशरथ ने भी बोद्ध भिक्षुओ के लिए कुछ गुफाओ का निर्माण कराया गुफाओ के अदर ग्रेनाइट पत्थर चिकनाहट की कला अभूतपूर्व है। पत्थर छूने पर ऎसा प्रतीत होता है मानो मिस्त्री अभी उठकर बाहर गए हो। ऎसा माना जाता है कि इसी पर्वत पर खुदा तालाब पर ब्राहण विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ कर बुद्ध यहाँ से फल्गु नदी के मार्ग से बोध-गया गए थे। अतः ऎतिहासिक द्रष्टि से इस स्थान का बहुत महत्व है। प्रसिद्ध पुस्तक " ए पसेज टू इडिया" में बराबर की मालावार के रुप मे प्रस्तुत किया गया है। 01 अगस्त 1986 ई0 को इसके इतिहास मे एक नया अध्याय का श्री गणेश हुआ जो स्वर्णाक्षरों से लिखे जाने योग्य है। उपर्युक्त तिथि को जहानाबाद एक जिले के रुप मे जग- जाहिर हुआ।

चीन देश मे चम्पा

वर्तमान ‘अनाम’ का अधिकांश भाग इस क्षेत्र में समाहित था। इसका विस्तार 140 से 100 उत्तरी देशान्तर के बीच में था। हिन्दचीन में भारतीयों का सर्वाधिक प्राचीन उपनिवेश 'चम्पा' था। ईसवी सन् से पूर्व ही भारतवासी इस देश में प्रविष्ट हो चुके थे। उस काल मे चम्पा राज्य सुख, वैभव और समृद्धि से भरपूर अनेक नगरों तथा अति सुन्दर हिन्दू व शिव मन्दिरों से सुशोभित था। वहाँ के ‘मिसांग’ और ‘डांग डुआंग’ नाग के दो नगर आज भी दर्शनीय मन्दिरों के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ के हिन्दू निवासी हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना करते थे। चम्पा की वास्तुकला और तक्षण-कला सर्वश्रेष्ठ थी। इस राज्य में संस्कृत भाषा और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का व्यापक प्रसार था। मंगोलों और अनामियों के भीषण आक्रमणों ने सोलहवीं सदी में भारत के इस औपनिवेशिक राज्य का अन्त कर दिया। चम्पापुरी के वर्तमान अवशेषों में यहाँ के प्राचीन भारतीय धर्म व संस्कृति की सुन्दर झलक

अफगानिस्तान में इस्लाम के आगमन के पहले अनेक हिन्दू राजाओं का भी राज रहा| ऐसा नहीं है कि ये राजा काशी, पाटलिपुत्र्, अयोध्या आदि से कन्धार या काबुल गए थे| ये एकदम स्थानीय अफगान या पठान या आर्यवंशीय राजा थे| इनके राजवंश को ‘हिन्दूशाही‘ के नाम से ही जाना जाता है| यह नाम उस समय के अरब इतिहासकारों ने ही दिया था| सन्र 843 में कल्लार नामक राजा ने हिन्दूशाही की स्थापना की| तत्कालीन सिक्कों से पता चलता है कि कल्लार के पहले भी रूतविल या रणथल, स्पालपति और लगतुरमान नामक हिन्दू या बौद्घ राजाओं का गांधार प्रदेश में राज था| ये राजा जाति से तुर्क थे लेकिन इनके ज़माने की शिव, दुर्गा और कार्तिकेय की मूतियाँ भी उपलब्ध हुई हैं| ये स्वयं को कनिष्क का वंशज भी मानते थे| अल-बेरूनी के अनुसार हिन्दूशाही राजाओं में कुछ तुर्क और कुछ हिन्दू थे| हिन्दू राजाओं को ‘काबुलशाह‘ या ‘महाराज धर्मपति‘ कहा जाता था| इन राजाओं में कल्लार, सामन्तदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं| इन राजाओं ने लगभग साढ़े तीन सौ साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिंधु नदी पार करके भारत में नहीं घुसने दिया| लेकिन 1019 में महमूद गज़नी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटा खा गया| फिर भी अफगानिस्तान को मुसलमान बनने में पैगम्बर मुहम्मद के बाद लगभग चार सौ साल लग गए

ग्रीक की इतिहास चीनी यात्री युवानच्वांग के अनुसार- कान्यकुब्ज प्रदेश की परिधि 400 ली या 670 मील थी। वास्तव में हर्षवर्धन (606-647 ई.) के समय में कान्यकुब्ज की अभूतपूर्व उन्नति हुई थी और उस समय शायद यह भारत का सबसे बड़ा एवं समृद्धशाली नगर था। युवानच्वांग लिखता है कि नगर के पश्चिमोत्तर में अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार गौतम बुद्ध ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे। युवानच्वांग ने नगर के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य स्तूप का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छः मास तक ठहरे थे।

युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के सौ बौद्ध विहारों और दो सौ देव-मन्दिरों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि 'नगर लगभग पाँच मील लम्बा और डेढ़ मील चौड़ा है और चतुर्दिक सुरक्षित है। नगर के सौंन्दर्य और उसकी सम्पन्नता का अनुमान उसके विशाल प्रासादों, रमणीय उद्यानों, स्वच्छ जल से पूर्ण तड़ागों और सुदूर देशों से प्राप्त वस्तुओं से सजे हुए संग्रहालयों से किया जा सकता है'। उसके निवासियों की भद्र वेशभूषा, उनके सुन्दर रेशमी वस्त्र, उनका विद्या प्रेम तथा शास्त्रानुराग और कुलीन तथा धनवान कुटुम्बों की अपार संख्या, ये सभी बातें कन्नौज को तत्कालीन नगरों की रानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थीं। युवानच्वांग ने नगर के देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य के मन्दिरों का भी ज़िक्र किया है। ये दोनों क़ीमती नीले पत्थर के बने थे और उनमें अनेक सुन्दर मूर्तियाँ उत्खनित थीं। युवानच्वांग के अनुसार कन्नौज के देवालय, बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मन्दिर दिन-रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूँजते रहते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के भद्रविहार नामक बौद्ध महाविद्यालय का भी उल्लेख किया है, जहाँ पर वह 635 ई. में तीन मास तक रहा था। यहीं रहकर उसने आर्य वीरसेन से बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया था।

प्राचीन समय मे पृथ्वी के मध्य मे स्थित सुमेरु (मेरु) पर्वत के उत्तर मे चार दिव्य जाती नाग, यक्ष, गांधर्व, कुंभन का वर्णन मिलता है। सुमेरु पर्वत के ऊपर सपाट प्रदेश मे सुरलोक व नीचे पाताललोक या असुरलोक होने की मान्यता है। जंबुद्वीप सुमेरु के दक्षिण मे होने का वर्णन मिलता है। संभवतः यह भारतीय उपखंड के स्खलन व जावा द्वीप के स्थिरीकरण से पहले की स्थिति का वर्णन हो सकता है।

प्राचीन मेसोपोटेमिया (सुरप्रदेश/सुमेरिया/सिरिया) के अभीर या सुराभीर नाग ब्राह्मणो की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गोवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, भाषा लेखन लिपि, चित्र व मूर्तिकला, स्थापत्य कला (नगर शैली), नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द), खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण है।

बाइबल मे उल्लेखित अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध ओफिर (सोफिर) क्षेत्र और बन्दरगाह भी अभीर (सूराभीर) का ही द्योतक है। ग्रीक भाषा मे ओफिर का अर्थ नाग होता है। हिब्रू भाषा मे ‘अबीर’ ‘Knight’ याने शूरवीर योद्धा या सामंत के अर्थ मे प्रयोग होता है। संस्कृत मे अभीर का अर्थ नीडर होता है। भारतवर्ष मे ‘अभीर’ अभीर-वंशी-राजा के अर्थ मे भी प्रयोग हुआ है। आज भी इस्राइल मे ओफिर शीर्ष नाम का प्रयोग होता है। यह जानना भी रसप्रद होगा की कोप्टिक भाषा (मिस्र/इजिप्त) मे ‘सोफिर’ भारतवर्ष के संदर्भ मे प्रयोग होता था।

सोफिर बन्दरगाह से हर तीन साल मे क्षेत्र के अभीर राजा सोलोमन को सोना, चाँदी, गंधसार (संदल), अनमोल रत्न, हाथीदांत, वानर, मयूर, इत्यादि प्राप्त होते थे। इसमे ओफिर पर्वत (वर्तमान मे गुनुङ्ग लेदान पर्वत, मुयार, मलेशिया-जहा उस काल मे अभीरों का दबदबा था) से भी सोने और अन्य वस्तुओ के प्रेषण आते थे। ओफिर नामक स्थल ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, कनाडा, यूएसए मे भी पाये जाते है और रोचक बात यह है की इनमेसे अधिक्तर कहीं न कही सोने से संबंधीत है।

अभीर राजा सोलोमन द्वारा बनवाए गए मंदिरो मे गर्भगृह (holiest of the holy chamber) के मध्य मे इष्ट देवता ईश्वर के प्रतीक पवित्र पत्थर (शिवलिंग) ‘कलाल’ का स्थापन होता था जो की महारुद्र भगवान शिव के कालकाल या कालांतक स्वरूप का द्योतक है। (Kalal or Qalal actually means Sacred Stone referring to deity(Shivlinga) placed at the centre of the Holiest of the Holy inside chamber (Garbhgruha) of the temples of Soloman). यह मंदिरो की रूपरेखा आश्चर्यजनक रूप से शिवालय एवं शाकाद्वीपीय या भोजक ब्राह्मणो द्वारा बनाए गए सूर्यमंदिरो से मिलती जुलती है। माना जाता है की भोजक ब्राह्मण मूलतः अश्वका प्रदेश या प्राचीन महाद्वीप कंबोज एवं साका से आए है। विष्णुपुराण मे कंभोजको को योद्धा एवं ज्ञानी (ब्राह्मण) और मित्र दर्शाया गया है। सोलोमन के मंदिरो मे ईश्वर के प्रतीक पवित्र पत्थर (कलाल) को अतिपवित्र स्थान (गर्भगृह) के मध्य मे रखा जाता था। मंदिरो मे बाहरी पवित्र स्थान Holy Chamber (मण्डप), ब्रेज़न या मोलटन सी (कुंड), सामने ओक्सेन (नंदी), परिक्रमा पथ, इत्यादि होते थे। बेबीलोनियन (असुर/Assyrian) आक्रमणों मे इन मंदिरो को नष्ट कर दीया गया था। कलाल (शिवलिंग), पवित्र कमान, पात्र (Vessel) एवं मंदिर का अन्य सामान अक्रांताओ से बचाने के लिए छुपा दिया गया था। कुछ लोग काबा के पवित्र पत्थर को भी इसी संदर्भ मे देखते है।

‘कलाल’ प्राचीन सोलोमन-बेबीलोनियन काल से भी पहले से प्रयोग किया जाता रहा अति पवित्र शब्द है जो त्रिनेत्रेश्वर रुद्र भगवान शिव के कालकाल या कालाहारी (कालांतक) स्वरूप का द्योतक है।

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत

अरब देश का भारत, भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहाँ तक कि "हिस्ट्री ऑफ पर्शिया" के लेखक साइक्स का मत है कि अरब का नाम और्व के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर "अरब" हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त था, जहाँ दैत्य और दानव बसते थे, इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी-पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। आदित्यों का आवास स्थान-देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में रहा था। बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्त्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले है, उनमें भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।

इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात 'ज्ञान का पिता' कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल 'अज्ञान का पिता' कहकर उनकी निन्दा की।

जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। 'Holul' के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात 'संगे अस्वद' को आदर मान देते हुए चूमते है।

यह मंदिर रामायण काल से भी अधिक प्राचीन है । यह रामायण से सम्बन्धित श्रीलंका का सबसे महत्वपूर्ण एवं भगवान शिव का सबसे प्राचीन व एतिहासिक मंदिर है । मुनेश्वरम्‌ का अर्थ है (मुनि+ईश्वरम) । भगवान शिव का प्रथम मंदिर । शिवलिंगम यहाँ पहले से ही (श्रीराम के आने से पूर्व) स्थापित था । इसका अर्थ है कि राजा रावण इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करते थे । श्रीराम और रावण के युद्ध एवं रावण की मृत्यु के पश्चात्‌ जब श्रीराम विमान से अयोध्या वापस जा रहे थे तो ब्रह्महस्थि दोष के कारण विमान में कंपन होने लगा और जब विमान मुनेश्वरम्‌ मन्दिर के ऊपर पहुँचा तो कम्पन रुक गया । श्रीराम जानते थे कि राजा रावण प्रतिदिन मुनेश्वरम्‌ मन्दिर में शिवजी की पूजा करने के लिए जाते थे । अतः श्रीराम ने अपना विमान मुनेश्वरम्‌ में रोका और भगवान से कोई मार्ग दिखाने की प्रार्थना की तब भगवान शिव ने सुझाव दिया कि ब्रह्महस्थि दोष को दूर करने के लिए चार लिंग मन्दिरों की स्थापना चारों कोनों पर करो तत्पश्चात्‌ श्रीराम ने लंका के चारों कोनों पर एक-एक लिंग की स्थापना की । इनमें से एक लिंग (रामेश्वरम्‌) भारत में है । लंकापुर में चारों कोनों पर मन्नावरी, तिरुकोनेश्वरम्‌, तिरुकेथेश्वरम्‌ एवं रामेश्वरम्‌ (भारत में) स्थापित है ।

कोई यह न समजे की भगवान शिव केवल भारत में पूजित है । विदेशो में भी कई स्थानों पर शिव मुर्तिया अथवा शिवलिंग प्राप्त हुए है कल्याण के शिवांक के अनुसार उत्तरी अफ्रीका के इजिप्त में तथा अन्य कई प्रान्तों में नंदी पर विराजमान शिव की अनेक मुर्तिया है वहा के लोग बेल पत्र और दूध से इनकी पूजा करते है । तुर्किस्थान के बबिलन नगर में १२०० फिट का महा शिवलिंग है । पहले ही कहा गया की शिव सम्प्रदायों से ऊपर है। मुसलमान भाइयो के तीर्थ मक्का में भी मक्केश्वर नमक शिवलिंग होना शिव का लीला ही है वहा के जमजम नमक कुएं में भी एक शिव लिंग है जिसकी पूजा खजूर की पतियों से होती है इस कारण यह है की इस्लाम में खजूर का बहूत महत्व है । अमेरिका के ब्रेजील में न जाने कितने प्राचीन शिवलिंग है । स्क्यात्लैंड में एक स्वर्णमंडित शिवलिंग है जिसकी पूजा वहा के निवासी बहूत श्रदा से करते है । indochaina में भी शिवालय और शिलालेख उपलब्ध है । यहाँ विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं । शिव निश्चय ही विश्वदेव है

!!ओ (मुस्लिम) करे तो सत्य और हम करे तो गुनाह ?

"दिल्ली हाई कोर्ट ने एक मामले में व्यवस्था दी है कि मासिक धर्म शुरू होने पर मुस्लिम लड़की 15 साल की उम्र में भी अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। इसी के साथ अदालत ने एक नाबालिग लड़की के विवाह को वैध ठहराते हुए उसे अपनी ससुराल में रहने की अनुमति प्रदान कर दी।"..... इस निर्णय से निश्चित ही एक नहीं बहस शुरू होगी, संभव है कुछ राजनितिक रोटियां भी सेकी जाए. लेकिन बड़ा सवाल ये है की क्या 15 साल की उम्र में शादी से लड़की के जीवन को स्वास्थय से सम्बंधित समस्या नहीं होगी. अगर शादी जल्दी होगी तो बच्चे भी जल्दी हो सकते हैं, और इस स्थिति में मां और बच्चे के स्वास्थय पर बुरा असर पड़ेगा ....
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नई दिल्ली/ शाहबानो प्रकरण का गवाह बन चुके इस देश में शादी से जुड़े कानून में धर्म के आधार पर एक बार फिर बदलाव आया है। एक नई बहस फिर से शुरू होगी, देखने वाली बात ये होगी की इस मामले में कौन कहाँ खड़ा दिखेगा। क्या इस देश में किसी नाबालिग लड़की को शादी करने का कानूनी अधिकार है? जी हां, यह हम नहीं दिल्ली...

!! वर्ण ब्यवस्था की सच्चाई ?

 भारत में समाज को व्यवस्थित करने और कार्य विभाजन के लिए वर्ण व्यवस्था लागू की गयी जिसका आरंभिक विवरण मनुस्मृति में तथा बाद में विष्णु गुप्त चाणक्य द्वारा अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' में प्रकाशित किया गया. चाणक्य महोदय के शब्दों में -
स्वधर्मो ब्राह्मनस्याध्ययनमध्यापनं यजनं याजनं दानं प्रतिग्रहश्चेती. क्षत्रियस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च. वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं कृषिपाशुपाल्ये वनिज्या च. शूद्रस्य द्विजाति शुश्रूषा वार्ता कारूकुशीलवकर्म च.
इस ग्रन्थ का प्रचलित हिंदी अनुवाद (श्री वाचस्पति गैरोला, चौखम्बा विद्याभवन) इस प्रकार है -
ब्राह्मण का धर्म अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-याजन, और दान देना तथा दान लेना है. क्षत्रिय का है पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, शास्त्रों के उपयोग से जीविकोपार्जन करना और प्राणियों की रक्षा करना. वैश्य का धर्म पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, कृषि कार्य एवं पशुपालन और व्यापार करना है. इसी प्रकार शूद्र का अपना धर्म है कि वह ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य की सेवा करे; पशु-पालन तथा व्यापार करे; और शिल्प (कारीगरी), गायन, वादन एवं चारण, भात आदि का कार्य करे.
इस अनुवाद की कपट-पूर्ण विकृतियों पर ध्यान दीजिये-
  1. मूल पाठ्य में दानं प्रथम तीन वर्णों का धर्म कहा गया है किन्तु हिंदी अनुवाद में केवल ब्राह्मण के लिए इसका अर्थ 'दान देना तथा दान लेना' किया गया है, शेष दो वर्णों के लिए इसका अर्थ केवल दान देना है. 
  2. मूल संस्कृत में शूद्र धर्म द्विजाति सुश्रुषा है जबकि हिंदी अनुवाद में इसके लिए तीनों वर्णों की सेवा करना कहा गया है.
  3. खेती, पशुपालन तथा व्यापार उसके लिए हिंदी अर्थों में बिना सन्दर्भ के ठूंसे गए हैं. 
इनसे स्पष्ट होता है कि अनुवादक मूल मंतव्य के अतिरिक्त अपना मत भी अनुवाद के माध्यम से अनधिकृत रूप से व्यक्त कर रहे हैं जो ब्राह्मणों को दान लेने का अधिकारी तथा शूद्रों को वैश्य धर्म में सम्मिलित करता है. शास्त्रों के साथ आधुनिक ब्राह्मण वादियों ने इसी प्रकार के छल कर उन्हें विकृत करके ही जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत किया है. इस प्रकार के छलों से ही भारत के इतिहास को विकृत किया गया है जिसका संशोधन किया जाना आवश्यक है. आइये हम इस विषय पर तर्कपूर्ण दृष्टिकोण से विचार करते हुए उक्त वर्ण व्यवस्था का सही अनुवाद करें.

सबसे पहले ब्राह्मण के बारे में - ब्रह्मा रचनाकार थे और उनके अनुयायी ब्राह्मण कहलाये जो रचनाकार ही थे. हिंदी शब्दावली के अनुसार अध्ययन और अध्यापन का अर्थ पढ़ना पढ़ाना है जो रचनात्मक कार्य नहीं हैं तो ये ब्राह्मण धर्म कैसे हो सकते हैं. इसी प्रकार दान देना तथा लेना किसी प्रकार भी रचनात्मक कार्य नहीं कहे जा सकते और ब्राह्मण धर्म नहीं हो सकते. यज्ञ का वर्तमान प्रचलित अर्थ अग्नि में घी एवं अन्य सामग्री जलाना लिया जाता है. ऐसा करने से यदि वातावरण शुद्ध होता है तो श्होद्र ही इससे वंचित क्यों किये गए हैं जबकि उन्हें तो वातावरण शुद्धि की सर्वाधिक आवशकता रहती है. इस सबसे यही प्रतीत होता है कि चाणक्य महोदय के शब्दों को समझाने के कोई प्रयास न किये जाकर अनुवादक ने अपने मत थोपे हैं. आइये, सही अनुवाद पाने के प्रयास करें. किन्तु पहले कुछ शब्दों की व्याख्या करें.


अध्ययन-अध्यापन

लैटिन भाषा का शब्द है aedis जिसका समतुल्य हिंदी शब्द 'भवन' हैं. लैटिन भाषा शब्दों में अंत के भागों -is, -us तथा ग्रीक भाषा के -os का उच्चारण नहीं होता. भवन बनाना उच्च कोटि का रचनात्मक कार्य है अतः यह ब्राह्मण का निर्धारित दर्म हो सकता है. इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रीय शब्द 'अध्य' का अर्थ 'भवन' है, जिसके आधार पर अध्ययन-अध्यापन का अर्थ 'भवनों में रहना और उनका निर्माण करना' होता है.  यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि उस समय बहुत अल्प जन समुदाय ही भवनों में रहते थे, अधिकाँश जन-समुदाय जंगलों में भ्रमणकारी जीवन व्यतीत करते थे. इस दृष्टि से भवनों में रहने का विशेष उल्लेख किया गया है.

यजन-याजन 

दक्षिण भारतीय परम्परा में आज भी हिंदी के 'ज्ञ' को 'ज्न' उच्चारित किया जाता है, अतः यजन-याजन का हिंदी रूपांतर 'यज्ञ-याज्ञ' है. यज्ञ के बारे में बहुत भारी भ्रान्ति प्रचलित है. यज्ञ शब्द 'योग' से बना है जो जिसका अर्थ मिश्रित करना अथवा एक साथ मिलाना होता है. प्राचीन काल में अंग्रेजी भाषा का एक शब्द 'yogh था जो दो अक्षरों के योग के लिए उपयोग में लिया जाता था जो योग के उपर्युक्त अर्थ को पुष्ट करता है.
व्यक्तियों का समाज बनने के लिए बस्तियों - ग्राम और नगर - का बनाना आवश्यक होता है. उस समय समाज बनाना मानवता  विकास के लिए महत्वपूर्ण था जो केवल सभ्य जन-समुदाय ही करते थे. इस आधार पर यज्ञ-याज्ञ का अर्थ 'समाज में रहना तथा समाज बनाना' अर्थात 'बस्ती में रहना तथा बस्ती बनाना' सिद्ध होता है.

दान

आधुनिक तथाकथित ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दान शब्द का दुरूपयोग बहुत अधिक किया है. हिंदी भाषा परिवार की भाषा हेब्रू में दान शब्द का अर्थ 'न्याय करना' है.जो एक अति महत्वपूर्ण धर्म होने की संभावना भी रखता है. अतः यही दान शब्द का सही अर्थ है जो ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वश्य वर्णों द्वारा अन्यों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाना निर्धारित करता है.

प्रतिग्रह

लैटिन भाषा के दो शब्द 'granum ' तथा 'graes' हैं जिनके अर्थ क्रमशः 'बीज' तथा 'घास' हैं जो परंपरागत रूप में भोजन के रूप में उपयोग में लिए जाते रहे हैं. अतः प्रतिग्रह का अर्थ 'खाद्यान्न और शाक-भाजी का उपयोग करते हुए भोजन बनाना' सिद्ध होता है, जो लगभग ५० वर्ष पहले तक अनेक ब्राह्मणों का निर्धारित कार्य था.

शस्त्र 

शस्त्र शब्द का वही अर्थ है जो हिंदी में 'शब्द' का है. प्राचीन काल में शब्दों के उपयोग से आजीविका चलने वाले लोग राजाओं के आश्रित हुआ करते थे जिन्हें भात कहा जाता था. युद्ध क्षेत्र में सेना उत्साह बढ़ने में उनका विशेष योगदान हुआ करता था.


भूत 

भूत शब्द लैटिन के बोटाने से उद्भूत है जिसका अर्थ पेड़-पौधे है.
 

कृषि

वैश्यों का एक धर्म कृषि कहा गया है, किन्तु वैश्य परम्परागत रूप में कभी खेती में लिप्त नहीं रहे और ना ही आज हैं. उनकी जीवनचर्या भी खेती के योग्य नहीं रही है. अतः कृषि शब्द का अर्थ खेती नहीं है. लैटिन भाषा में कृषि के निकटस्थ शब्द cratia (उच्चारण क्रशिया) तथा crucea पाए जाते हैं जिनमें से प्रथम का अर्थ 'शासन करना' तथा दूसरे का अर्थ 'क्रोस' है जो उस समय अपराधियों को दंड देने में उपयोग किया जाता था. शासन करना तथा दंड देना सम्बंधित कार्य हैं. चाणक्य महोदय के ग्रन्थ अर्थशास्त्र लिखे जाते समय गुप्त वंश का शासन चन्द्रगुप्त मोर्य के सम्राट बनने से आरम्भ हो चुका था. अतः इस ग्रन्थ में शासन करना वैश्यों का निर्धारित धर्म कहा गया है.

पाशुपाल्य

पशुपालन खेती से निकट सम्बन्ध रखता है. इसलिए उपर्युक्त चर्चा के आधार पर पशुपालन भी वैश्यों का धर्म सिद्ध नहीं होता. लैटिन भाषा में passus शब्द का उच्चारण पाशु तथा अर्थ 'यात्रा' है जो वैश्यों के परम्परागत धर्म वाणिज्य से गहन सम्बन्ध रखता है. अतः पाशुपाल्य शब्द का अर्थ 'यात्रा करना' सिद्ध होता है न कि पशुपालन.

द्विजाति शुश्रूषा

प्राचीन काल में सुश्रुत नामक महत्वपूर्ण चिकित्सक रहे हैं जिनके चिकित्सा संबंधी ग्रन्थ आज भी प्रचलित हैं. अतः शुश्रूषा शब्द का अर्थ सेवा न होकर चिकित्सा सिद्ध होता है. इसी आधार पर द्विज शब्द का अर्थ रोगी सिद्ध होता है. रोग की चिकित्सा व्यक्ति को दूसरा जन्म देने के समान होती है क्योंकि उस समय रोग अनेक लोगों की जान ले लेते थे.

कारुकुशीलवकर्म
 
लैटिन शब्द carruca का अर्थ 'हल' अथवा 'हल चलाना' है जो खेती कार्य का प्रतीक हैं. लैटिन में ही carnis तथा caro शब्दों के अर्थ 'मां'स' हैं जिसे चर्म के भाव में भी लिया जाता है. अतः उपरोक्त शब्द समूह में कारू दो भ्हवों में उपयुक्त किया गया है - एक कुशील के साथ तथा दूसरा कर्म के साथ. इस आधार पर पूरे शब्द समूह का अर्थ 'खेती करना तथा चर्म संबंधी कार्य करना' सिद्ध होता है. चर्म कार्य शूद्रों का परम्परागत कार्य रहा है.

इन सब्द व्याख्याओं के आधार पर चाणक्य महोदय के उक्त सूत्र वर्ण धर्म इस प्रकार निर्धारित करता है -


ब्राह्मण का अपना धर्म भवन में रहना तथा भवन बनाना, बस्ती (समाज) में रहना तथा बस्ती बसाना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना तथा भोजन पकाना है. क्षत्रिय धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, तथा शब्दों के उपयोग से उत्साह वर्धन कर जीविकोपार्जन करना तथा पेड़-पौधों की रक्षा करना है. वैश्य धर्म भवन में रहना, बस्ती में रहना, सभी के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करना, शासन करना, यात्राएं करना तथा व्यापार करना है. शूद्र धर्म रोगियों की चिकित्सा करना, सन्देश वाहक के रूप में कार्य करना, खेती करना तथा चमड़े का कार्य करना है. 


इस आलेख के अंत में 'ब्राह्मण' का परिचय भी प्रासंगिक है. उक्त वर्ण धर्म निर्धारण यह सिद्ध करता है ब्राह्मण धर्म मुख्यतः भोजन, भवन और बस्तियों का निर्माण करना है जो सभी रचनात्मक कार्य हैं और ब्रह्मा की रचनात्मकता से सम्बन्ध रखते हैं. आधुनिक युग में जो समुदाय स्वयं को ब्राह्मण कह रहे हैं, उन्होंने भोजन पकाने के अतिरिक्त कोई अन्य निर्धारित कार्य कभी नहीं किया है. अतः ये ब्राह्मण कभी नहीं रहे हैं और न आज हैं. ग्रामीण अंचलों में इन्हें वामन कहा जाता है. दूसरी ओर कृष्ण ने छल-कपट के लिए वामन का रूप धारण किया था. यह सिद्ध करता है कि आधुनिक समुदाय जो स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं, वस्तुतः वे 'वामन' हैं.