सोमवार, 23 सितंबर 2013

यूपी में चली सांप्रदायिक राजनीति का फायदा किसे होगा ?

उत्तर प्रदेश में निश्चय ही ये दंगा की राजीनीत के कारण वोटो का ध्रुवीकरण होगा और इस ध्रुवीकरण का फायदा बीजेपी और सपा को होगा । दिलचस्प बात ये होगी की इस ध्रुवीकरण में किसको अधिक फायदा होगा यह समय की गर्त में छिपा हुआ है । उत्तर प्रदेश फिर 1990 के दौर में पहुंच गया है । तब मुख्यमंत्री मुलायम यादव थे। इस बार गद्दी पर भले ही उनके बेटे अखिलेश यादव बैठे हैं लेकिन सत्ता की बागडोर उन्हीं के हाथों में है। तब बाबरी मस्जिद को लेकर सांप्रदायिक तनाव चरम पर था। इस बार दंगों को लेकर फिजा बिगड़ी हुई है। तब टकराव भाजपा और सपा (तब जनता दल) के बीच था। इस बार भी रस्साकशी इन्हीं दलों के बीच है।  
          एक चैनल के स्टिंग में पुलिस अफसरों ने बताया कि आज़म ने उन पर दो जाट युवकों की हत्या के आरोप में गिरफ्तार  आठ लोगों को रिहा करने का दबाव बनाया। आज़म डायन वाले बयान को झूठा बताते रहे हैं, वैसे ही जैसे इस बार वे पुलिस पर दबाव डालने से इंकार कर रहे हैं।  

    1990 में मुलायम के दाहिने हाथ माने जाने वाले मंत्री आज़म खां के एक बयान ने दंगों को हवा दी थी। उन्होंने भारत मां को डायन बताया था। एक हफ्ते पहले मुज़फ्फरनगर में हुए दंगों के पीछे भी उनका ही एक बयान बताया जा रहा है। आज़म ने तीन युवकों की हत्या के बाद पुलिस अधिकारियों को कहा, ‘जो हो रहा है, होने दो।’ यानी दंगा मत रोको। क्योंकि दंगे के बाद सुरक्षा की तलाश में अल्पसंख्यक सपा के करीब आएंगे।
आज वहां जो कुछ भी हो रहा है उसकी विवेचना के लिए 23 साल पहले की स्थिति समझना जरूरी है। तब मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने कहा था कि विहिप के अयोध्या मार्च को विफल करने के लिए ऐसे सुरक्षा इंतज़ाम करेंगे कि वहां परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा। लेकिन उमा भारती वेश बदलकर 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या पहुंच गई थीं। इससे पहले प्रदेश भर में सांप्रदायिकता-विरोधी रैलियों में मुलायम खुलकर कहते थे, ‘यदि मुसलमान ख़ुद को असुरक्षित समझते हों तो उन्हें अपने पास हथियार रखने चाहिए।’ वातावरण इतना विषैला हो गया था कि 30 अक्टूबर को अयोध्या में कारसेवकों पर फायरिंग के बाद भड़के दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए थे। तब मुलायम को मौलाना मुलायम कहा जाता था और वे इस संबोधन पर गौरवान्वित महसूस करते थे। इस बार दंगों के दौरान अखिलेश के गोल टोपी लगाकर टीवी पर बयान देने के पीछे ‘मौलाना अखिलेश’ की छवि बनाने की कोशिश साफ दिख रही थी। 
 
2009 के लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यकों ने सपा के बजाए कांग्रेस को समर्थन दिया। वे मुलायम द्वारा कल्याण सिंह को सपा में शामिल किए जाने से नाराज़ थे। अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस ने 80 में से 21 सीटें जीत लीं। मुलायम नहीं चाहते कि 2014 के चुनाव में वैसी कोई स्थित बने। ख़ासतौर पर इसलिए कि इस बार दांव पर प्रधानमंत्री का पद है। त्रिशंकु लोकसभा स्थिति में वे अपना दावा मजबूत रखना चाहते हैं। 
 
यही वजह है कि वे अल्पसंख्यकों के वोट के लिए हर संभव जतन कर रहे हैं। डेढ़ साल पहले अखिलेश सरकार के बनने के बाद से अभी तक कोई तीन दर्जन दंगे हो चुके हैं। लेकिन गिरफ्तार बमुशकिल पंद्रह-सोलह लोग हुए। वे भी छोड़ दिए गए। राज्य सरकार की हर योजना में अल्पसंख्यकों के लिए 20 फीसदी का आरक्षण है। इससे उस पर पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने के आरोप लग रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा भाजपा नेताओं के मुज़फ्फरनगर जाने पर रोक लगाना और कांग्रेस नेताओं को वहां जाने की इजाजत देने के पीछे भी इसी तरह की मंशा जताई जा रही है। 
 
लेकिन क्या सपा की रणनीति कामयाब है ? अल्पसंख्यकों द्वारा अखिलेश की मुज़फ्फरनगर यात्रा के दौरान उनके विरोध में लगाए नारों को संकेत मानें तो फिलहाल यह रणनीति सफल होती नहीं दिख रही। लोकसभा चुनाव में अभी सात महीने हैं। और भाजपा के तीखे तेवर अगर यूं ही रहे तो प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतिक सांप्रदायिकता की नीति संभवत: जारी रहेगी।
 
           देखते है २०१४ का लोकसभा चुनाव क्या क्या गुल खिलाता है ?