आज हमारे फेसबुक के एक सज्जन श्री मान अशोक त्रिपाठी जी ने मुझसे पूछा की आपने गीता और रामायण से क्या सीखा ...?? बस वही से मन में यह प्रश्न उठा की सच में मैंने क्या सीखा श्री मद भगवत गीता से ? रामायण व रामचरित मानश से अब क्या जबाब देता उन्हें ..सोचा चलो कुछ लिखा जाए की क्या सीखा मैंने ...बस उसी परिपेक्ष में यह ब्लॉग समर्पित है श्री मान अशोक त्रिपाठी जी को .....
ज्ञान व प्रकाश की अगाधजलराशिजिसमें समाहित है,वह गीता है.! . गीता
महज एक धार्मिक पुस्तक नहीं है, वस्तुत:यह हमारी पथ-प्रदर्शिका है, जिसमें
जीवन जीने की कला प्रमुखता से वर्णित किया गया है.! इसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग
एवं भक्तियोगका समन्वय अवश्य है पर यह मनुष्य को एक ऐसी जीवन पद्धति से
परिचित कराती है, जिसका पालन कर वह एक भयमुक्त एवं शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत
करते हुए अपने महत् उद्देश्यों को सहज ही प्राप्त कर सकता है। विश्व की यह
अकेली पुस्तक है जो मनुष्य को एक ऐसा जीवन दर्शन प्रदान करती है जिसके
द्वारा वह जीवन-संघर्ष में विजयश्री से मंडित होकर एक सुखमय जीवन व्यतीत
करने में सक्षम हो सकता है............
महाभारत में गीतोपदेशकी समाप्ति पर महर्षि वेदव्यासने ठीक ही लिखा है कि
मात्र गीता को अच्छी तरह समझ लो जो स्वयं पद्मनाभ (विष्णु अवतार कृष्ण) के
मुख-कमल से निस्सृत है, अन्य शास्त्रों के विस्तार में जाने की क्या
आवश्यकता ?
गीता सुगीताकर्तव्या
किमन्यै:शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य
मुखपद्माद्विनि:सृता
मनुष्य की प्रमुख समस्याएं भय, चिन्ता, एवं समुचित जीवन-यापन से संबंधित
हैं..! उसका प्रथम एवं प्रमुख भय मृत्यु है.. मृत्यु कोई नहीं चाहता.. उसके
नाम से कोई भी भयभीत हो सकता है..मृत्यु प्राणिमात्र का सबसे बडा शत्रु है.. गीता इस भय को पूर्णतया मुक्त करती है क्योंकि वह मृत्यु को ही नकार देती
है...! मृत्यु है ही नहीं तो इसको लेकर इतना रोना-पीटना क्यों ? वह कहती है कि
यह तो वस्त्र परिवर्तन मात्र है..व्यक्ति जैसे पुराने वस्त्रों को छोडकर नए
वस्त्र धारण करता है, इसी तरह अमर आत्मा जीर्ण-शीर्ण शरीर को त्याग कर नया
शरीर धारण करती है-
वासांसिजीर्णानियथा विहाय !
नवानिगृह्णातिनरोऽपराणि..!!
तथा शरीराणिविहायजीर्णान्यन्यानिसंयातिनवानिदेही !!!!
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए जीवन की निरन्तरता को रेखांकित करते हैं
कि ऐसा नहीं है कि मैं पहले नहीं था अथवा तू नहीं या ये राजा-लोग (महाभारत
युद्ध में उपस्थित) नहीं थे और ऐसा भी नहीं है कि इसके बाद हम सब नहीं
होंगे
"" न त्वेवाहंजातु नासंन त्वंनेमेजनाधिपा:! न चैवन भविष्याम:सर्वे वयमत:परम्॥""
इन दो ही नहीं कई श्लोकों में विभिन्न प्रकार से, विभिन्न विश्वसनीय
तर्काे से श्रीकृष्ण सिद्ध कर देते हैं कि मृत्यु हमारी अपनी कल्पना की उपज
मात्र है..! न परिजनों की मृत्यु को लेकर भयभीत होना है, न अपनी मृत्यु का
भय पालना है........
मनुष्य की दूसरी समस्या उसकी चिन्ता है ! सभी चिन्तारहितहोकर एक
शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहते हैं ! अशान्त रहना कौन चाहता है?
अशान्तस्य कुत:सुखम्पर अशान्ति है कि हमें सदा सर्प की तरह आबद्ध किए रहती
है ! व्यावहारिक जीवन में मुख्यत:अशान्ति कर्म-फलों को लेकर है-कृषि में
पूर्ण उत्पादन होगा या ओले या सूखे से वह विनष्ट हो जाएगी, परीक्षा दिया
है, उत्तीर्ण होंगे या सफल हो जाएंगे, मुकदमे में विजय होगी या पराजय?
श्रीकृष्ण के पास उस चिन्ता को दूर करने की महौषधिहै.. वह कहते हैं कि
परिणाम की चिन्ता क्यों करते हो? वह तुम्हारे हाथ में है ? कर्म पर तुम्हारा
अधिकार है, उसे करो,, फल पर तुम्हारा वश कहां है? कर्मफल को अपने अनुकूल
बनाने का (व्यर्थ) प्रयास नहीं करो और नहीं कर्म के साथ बंध जाओ.. अर्थात
निर्लिप्त भाव से कर्म करो...........
कर्मण्येवाधिकारास्तेमा फलेषुकदाचन !
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मातेसंङ्गोऽस्त्वकर्मणि !!
मनुष्य की एक समस्या उसकी अकर्मण्यता, उसका आलस्य है...! कर्महीन आलसी
व्यक्ति अवसादग्रस्तहोगा कि नहीं ? बैठे-बैठे चिन्ताकुल होगा कि नहीं ? अपना
जीवन-यापन भी कर पाएगा ? गीता कहती है अकर्मण्य नहीं बैठो, अपने नियत कर्म
को करो, कर्म सदा अकर्म से श्रेष्ठतर है, अकर्मण्यता से तो तुम्हारी शरीर
यात्रा भी नहीं सिद्ध होगी, सुधा पिपासाग्रस्तहो मर जाओगे,,,
नियतंकुरु कर्म त्वंकर्म ज्यायोह्यकर्मण:! शरीरयात्रापिचतेन प्रसिद्ध्येदकर्मण:!!
अन्तत:श्रीकृष्ण हमारी सारी समस्याओं को अपने हाथों में लेकर तथा हमारे
कल्याण और उत्थान का दायित्व स्वयं संभाल कर हमें पूरी तरह निश्चित कर देते
हैं, बशर्ते हम उनकी उपासना में मन लगाएं ..!
अनन्याश्चिन्तयन्तोमां ये जना:
पर्युपासते..! तेषांनित्याभियुक्तानांयोगक्षेमंवहाम्यहम्..!!
गीता से बढकर हमारी शुभ चिन्तिका,हमारी मार्गदर्शिका भला कोई है...???
!! ब्लॉग पथ प्रदर्शक को आभार .. !!
नोट --रामायण के बारे में समय मिला तो जरुर लिखुगा अशोक त्रिपाठी जी ....
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