प्राचीन भारतीय दर्शनों में ‘ब्रह्म’ शब्द लंबी चर्चा
का विषय रहा है। अलग-अलग काल खंडों में उस समय के सम्प्रदायों ने
‘ब्रह्म’ शब्द के साथ नये-नये विशेषण जोड़े। जैसे
शब्द-ब्रह्म, अन्न-ब्रह्म, सगुण-ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म इत्यादि।
व्यापक ब्रह्म को वर्णन की सीमा से बाहर मानते हुए इस प्रकार भी उसकी
विशेषता कही गयी, जैसे ब्रह्म जो अद्वैत है, अर्थात् जो दो में विभाजित
नहीं है, जो अल्प नहीं है, जो नाशवान नहीं है इत्यादि।
इन सब चर्चाओं में ब्रह्म के जिस स्वरूप को अधिकतर पक्षों द्वारा स्वाकीर
किया गया, वह है, कि ब्रह्म अनंत है, वह सबसे बड़ा है, वह सबसे महान है,
उसमें सृष्टि (जन्म) स्थिति (निरंतरता) और प्रलय (मृत्यु) की सभी
संभावनाएं समायी हुई हैं।
भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो विराट रूप
दिखाया था, वह ब्रह्म की विशालता का प्रतीक था। दिखाने से तात्पर्य
भली-भांति समझाना है कि व्यापक ब्रह्म में मनोरम और भयंकर सभी कुछ
समाविष्ट है। ग्यारहें अध्याय को इसलिए ‘विश्व रूप
दर्शन’ नाम दिया गया था।
प्राचीन समय में व्यापाक ब्रह्म के अलग-अलग पक्षों पर विचार करने वाले
मनीषियों को सामान्य जन ब्रह्मज्ञानी कहते थे। बाद में
‘ब्रह्मज्ञान’ को धार्मिक विषयों तक सीमित कर लिया
गया जो कि असीम की चर्चा को सीमित करने का प्रयास था। इस स्थिति को देखते
हुए हम आगे ब्रह्मज्ञानी शब्द की बजाय ‘ब्रह्म वेत्ता’ शब्द का
प्रयोग करेंगे।
ब्रह्म से आशय है संपूर्ण ब्रह्मांड। हमारी पृथ्वी सहित हमारा सौर मंडल इस
विशाल ब्रह्मांड का एक छोटा सा भाग है। इस पृथ्वी पर विचरण करने वाला
मनुष्य इस ब्रह्मांड का एक अंश है। यह इसलिए कि मानव में सभी खनिज द्रव्य
और पदार्थ न्यून या अधिक मात्रा में विद्यमान हैं। इन सभी द्रव्यों की
आवश्यकता से कम या आवश्यकता से अधिक मात्रा मनुष्य के दोनों रोगों का कारण
बनती है। इस असंतुलन को संतुलित करने की दिशा में किये जाने वाले
प्रयत्नों के फलस्वरूप आयुर्वेद का जन्म हुआ है।
हमारे सौर मंडल के ग्रह नक्षत्रों की गति का मानव के मन, मस्तिस्क और शरीर
पर प्रभाव होता है, इस खोज के आधार पर ज्योतिष के फलित पक्ष का जन्म हुआ
है।
ब्रह्मांड के विषय में आधुनिक वैज्ञानिकों का कहना है कि यह निरंतर फैलता
है। एक सीमा तक फैलने के बाद इसके सिकुड़ने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।
सिकुड़ने के उपरांत ब्रह्मांड पुनः फैलने लगता है। ब्रह्मांड के विस्तार
और संकोचन के मध्य का समय हमारे कैलेंडर के अनुसार खरबों वर्ष से अधिक का
होता है।
ब्रह्मांड के संकोच से विस्तार और विस्तार से संकोच की प्रक्रिया रुकती
नहीं है। मानव क्योंकि ब्रह्मांड का एक अंश है, इसलिए मानव द्वारा निर्मित
सामाजिक नियमों में एक अति से दूसरी अति तक जाने की यात्रा भी ब्रह्मांड
की गतिशीलता जैसी होती है। मानव तथा मानव निर्मित समाज की इस प्रकृति को
समझने वाला व्यक्ति ही वास्तव में ब्रह्मवेत्ता कहलाने के योग्य होता है।
ब्रह्मवेत्ता अपने अनुभव और अध्ययन के बल पर यह भी जानता है कि अलग-अलग
भूखंडों में बसने वाले मानव समाज और अलग-अलग प्रकार के जलवायु को झेलने
वाले मानव समाज के सभी सदस्यों का स्वभाव और आवश्यकताएं एक जैसी नहीं
होतीं। हर व्यक्ति का वातावरण और हर व्यक्ति की मानसिकता और शारीरिक
अवस्था अलग-अलग प्रकार की होती है। इसलिए उसके जीवन व्यतीत करने के नियम
भी अलग-अलग होते हैं। ऐसे विविधता-मय समाज को किसी एक नियम किसी एक
धार्मिक पुस्तक के माध्यम से रोकने का यत्न करना मानो क्लाक के पेंडुलम को
बलपूर्वक रोकने का प्रयत्न किया है। इसलिए ब्रह्मवेत्ता किसी एक नियम या
एक पुस्तक द्वारा समाज को चलाने का आग्रह नहीं करता।
ब्रह्मवेत्ता के सामने भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के मध्य कोई सीमा नहीं
रेखा नहीं होती। इसलिए वह त्रिकालदर्शी कहलाने का पात्र होता है। वह यों
भी कि वर्तमान की घटनाओं को तटस्थ भाव से देखने से वह भूतकाल की घटनाओं का
आकलन कर सकता है और भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पा सकता है। वह
जानता है कि वह आज जो फल खा रहा है, उसका बीज भूतकाल में बोया गया था और जो
बीज आज बोया जा रहा है, उसका फल भविष्य में उपजेगा।
तटस्थ भाव का उदाहरण हम टेस्ट ट्यूब (Test Tube) के उदाहरण से देना चाहते
हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों के प्रयोग में काम आने वाले टेस्ट ट्यूबों में
पड़े द्रव्यों को ताप या शीत पहुंचाने से द्रव्यों में परिवर्तन होता है,
टेस्ट ट्यूबों में पड़े दृव्यों को ताप या शीत पहुंचाने से द्रव्यों में
परवर्तन होता है, टेस्ट ट्यूब निरपेक्ष रहता है। ब्रह्मवेत्ता का मन,
मस्तिष्क भी उस टेस्ट ट्यूब जैसा होता है। वह अपने आस पास होने वाली
क्रियाओं और घटनाओं से उद्वेलित नहीं होता बल्कि अपने भीतर उठने वाले काम,
क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मित्रता, शत्रुता आदि भावों और विचारों में वह
डूबता नहीं है, बल्कि जोश में होश बनाए रखता है।
दूसरों के मन में भावों और विचारों को ब्रह्मवेत्ता अपने मन रूपी तराजू
में तोलता है जैसे वे उसके मन मस्तिष्क में उठ रहे हों। इसके विपरीत
स्थिति में वह अपने मन मस्तिष्क में उठने वाले भाव और विचारों को इस
प्रकार देखता है जैसे वे दूसरे के मन मस्तिष्क में उठ रहे हैं। ऐसा
ब्रह्मवेत्ता अतंर्यामी हो जाता है।
अपने मन मस्तिष्क से तराजू जैसा कार्य निरंतर लेते रहने से ब्रह्मवेत्ता,
मानव की मुख्य इच्छाएं जानने समझने में समर्थ हो जाता है। इन इच्छाओं को
आधुनिक मनोविज्ञान में मूल प्रवृत्तियों (Instincts) कहा गया है।
मानव-प्रकृति का सूक्ष्म अध्ययन व्यापक ब्रह्म के एक पक्ष का
दर्शन है। ब्रह्म के अनेक पक्ष हैं। इन पक्षों को जानना भी ब्रह्मज्ञान के
अंतर्गत है। इन पक्षों में से कुछेक का विवरण प्रस्तुत है।
वृक्षों और पौधों को उगते, पकते और मरते देखकर पुराने समय में
जैन-तीर्थकारों और मुनियों ने उनमें प्राण का दर्शन किया और वृक्षों लताओं
से फल-फूलों को तोड़ने को हिंसा का रूप माना। वे तीर्थकार ब्रह्म के विशेष
पक्ष के द्रष्टा होने के कारण ब्रह्मवेत्ता थे।
इस युग के भारतीय विज्ञानी जगदीशचंद्र बसु ने वैज्ञानिक परीक्षणों से
तीर्थकारों के निष्कर्षों को सिद्ध किया है कि वे पौधे अनुकूल परिस्थिति
में प्रसन्न होते हैं और प्रतिकूल स्थिति में दुःखी होते हैं। बसु महोदय
भी ब्रह्मवेत्ता कहलाने के पात्र थे।
आकाश का विचरण करने वाले सूरज चांद सितारों की गति को सभी लोग देखते हैं
किंतु इन लोगों में आर्य भट्ट का नाम हम आदर से लेते हैं। छठी शताब्दी में
आर्य-भट्ट ने ग्रह नक्षत्रों की गति का सूक्ष्म अध्ययन करके बीज गणित
(Algebra) द्वारा खगोल विद्या (Astronomy) के सिद्धांत स्थापित किए। आर्य
भट्ट के समकालीन वराह मिहिर ने उन ग्रह नक्षत्रों द्वारा मनुष्य पर पड़ने
वाले प्रभाव का अध्ययन किया और फलित ज्योतिष के सिद्धांत स्थापित किए। वे
सब अपने-अपने कार्यक्षेत्र के ब्रह्मवेत्ता थे।
भारत के बाहर नज़र डालते हैं तो ब्रह्म के अन्य पक्षों के अध्येता के रूप
में आईन्स्टाइन का नाम सामने आता है। उन्होंने सूक्ष्मतम अणु (एटम) के
विस्फोट से अपार शक्ति उपजने की कल्पना की और इस कल्पना को अपने
आविष्कारों से साकार भी किया।
चार्ल्स डारविन ने प्राणी विज्ञान के क्षेत्र में सूक्ष्म अध्ययन करके
आदि-जीव से मानव के विकास की प्रक्रिया सिद्ध की।
आज के मशीनी मानव ‘रोबोट’ का नाम हम सब जानते हैं। इस
रोबोट की कल्पना चैकोस्लोवाकिया के नाटककार कैरेल चैपक (1890-1938) ने अपने नाटक ‘रोसुमज यूनिवर्सल रोबोज’ में प्रस्तुत की थी।
‘रोबो’ या ‘रोबोट’ शब्द उसी
‘रोबोज’ का रूपान्तर है।
ये सब विचारक व्यापक ब्रह्म के अलग-अलग पक्षों के द्रष्टा होने के कारण
‘ब्रह्मवेत्ता’ कहे जाने के पात्र हैं।
यहां दर्शक और द्रष्टा का अंतर समझना आवश्यक है। दर्शक प्रकट को देखता है
जबकि द्रष्टा प्रकट की पृष्ठभूमि में छिपे अप्रकट को अपनी कल्पना शक्ति
द्वारा देख लेता है यही कारण है कि हमारे मनीषियों ने वेद की ऋचाओं और वेद
मंत्रों के रचयिताओं को द्रष्टा कहा है। इन मंत्रों और ऋचाओं में
आध्यात्मिक ज्ञान के साथ भौतिक ज्ञान भी है। अतः ब्रह्मज्ञान को केवल
आध्यात्मिक ज्ञान तक सीमित रखना असीम को सीमित बनाना है।