तुलसीदास ने कहा है कि " ढोल गंवार शूद्र पशु नारी ये सब ताङन के अधिकारी " इसमें ढोल की डोरियों से उसके पुरे कसे रहे तो बेहतर आवाज निकलेगी..इसमें किसी को कोईआपत्ति नहीं होगी . गंवार याने दुष्ट या मूरख भी यदि डांट डपट या दन्ड से भयभीत रहे तो सही चलेगा..इसका भी सभी एक स्वर में समर्थन करते हैं . शूद्र का अर्थ जैसा कि लोग लगाते है हमेशा ही निम्न जातियां नहीं है इसका असली अर्थ बहुत हटकर है फ़िर भी सामान्यतः छूत कर्मों के दुष्प्रभाव से बचने की सलाह है..अगर शूद्र का हम एक कामन रिजल्ट निकालें तो वो नीचता होगा..कर्म और स्वभाव की नीचता..इससे दूर रहना भी अच्छा ही है !.शूद्र और स्त्री को एक साँस में ढोल आदि के साथ रखने और ताडन का पात्र बताने वाली चौपाई की अनेक प्रकार से व्याख्याएं हो चुकी हैं। '
पशु..पशु को भी नियंत्रण में रखना चाहिये इससे भी कोई असहमत न होगा..नारी ? जब भी सतसंग या किसी प्रकार की चर्चा में तुलसी का ये दोहा चर्चा का विषय होता है तुलसी अच्छी खासी आलोचना का शिकार होते हैं..तुलसी ने इस दोहे में शूद्र और नारी का जिक्र करके मानों आफ़त मोल ले ली हो..जबकि मैं कहता हूँ कि आप धर्म शास्त्रों की a b c d भी अगर ठीक से जानते होते तो तुलसी की ये बात आपको एकदम सटीक लगती सबसे पहले तो जब इस तरह की चर्चा अपने चरम पर होती है..और विरोध की आग विकरालता धारण कर लेती है..लोग सोचते हैं कि तुलसी सठिया गये थे जो शूद्र और नारी का जिक्र किया . मैं कहता हूँ जिस रामायण को आप इतनी श्रद्धा और आदर देते हैं । आपके घरों में उसके अखन्ड पाठ का आयोजन होता है और निर्विवाद तुलसी को सामाजिक सम्मान और संत की उपाधि प्राप्त है । तो वो यूँ ही तो हरगिज नहीं है । इसलिये अगर तुलसीदास ने नारी को नियंत्रण मे रखने की बात कही है तो उसके निहितार्थ साधारण तो हरगिज नहीं होंगे ।
अब यदि एक नारी के तौर पर आपसे नियंत्रण या ताङना की बात कही जाय तो निसंदेह यह बात कङवी और अप्रिय लगती है परन्तु जब आपकी खुद की लङकी जवानी की दहलीज पर कदम रखती है तो फ़िर ढेरों ऊँच नीच विचार आपके दिमाग में स्वयँ आने लगते है और आप तरह तरह की हिदायतों से उसे लैस रखने की कोशिश करती है । आप उन नारियों के परिणाम देखे जिन्होने उन्मुक्त यौन जीवन या नारी के लज्जा सहनशीलता स्नेह शर्मीलापन से इतर मुँहफ़ट फ़ूहङ बेशर्म स्टायल जीवन जीने की कोशिश की आज समाज में उनकी क्या स्थिति है...ये तो ऐसी ही है...वो बङी वैसी है ..जैसे कमेंट मैंने औरतों से औरतों के लिये सुने है और सब गाँव की भौजाई..जैसी इमेज उनकी स्वतः ही बन गयी । मैं नारी की शिक्षा का विरोध हरगिज नहीं करता
प्राचीनकाल में गार्गी मैत्रेयी अनसूया आदि अनेको विदुषी नारियाँ हुयी हैं । मैं नारी के अंगप्रदर्शन से भी असहमत नहीं हूँ पर जैसा कि किसी कवि ने कहा है..कि अधखुले कुच ( उरोज ) कटि प्रदर्शन
विभिन्न श्रंगार नारी के सौन्दर्य को कई गुना बङा देते है पर इसकी मर्यादा पार होते ही बे फ़ूहङता की श्रेणी में आ जाते है । आज जो भी प्रदर्शन हो रहा है वो अधिकतर फ़ूहङ श्रेणी का अधिक है । नारी मुक्ति के नाम पर बेशर्मी और उन्मुक्त यौन जीवन की चाह अधिक नजर आती है और इसका अन्त गहरे अन्धकारमय गढ्ढे में जाकर खत्म होता है । जिससे निकलने का फ़िर कोई रास्ता नहीं बचता और आपका परलोक तो निश्चय बिगङता ही है इसलिये नारी के लिये क्या बेहतर है ये नारी स्वयँ ही तय कर सकती है और खुशी की बात है कि आज की नारियाँ धीरे धीरे ही सही इस मामले में बेहद जागरूक होती जा रही है । देखिये तुलसी क्या कह रहे है..गौर से पढें...।
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।।बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अधं बधिर क्रोधी अति दीना।।ऐसेहु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। काय बचन मन पति पद प्रेमा।।जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं। बेद पुरान संत सब कहहिं।।उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहु आन पुरुष जग नाहीं।।मध्यम परपति देखइ कैसे। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे।।धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।।बिनु अवसर भय ते रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई।।पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई।।छन सुख लागि जनम सत कोटि। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी।।बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई।।पति प्रतिकुल जनम जहं जाई। बिधवा होई पाई तरुनाई।।
केहि बिधि अस्तुति करों तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महं मैं मतिमंद अघारी।।कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउं एक भगति कर नाता।।
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