ब्राह्मण
क्षत्रिय विशाम् शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥ (गीता १८/४१)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कर्म स्वभाव से ही
उत्पन्न गुणों के आधार पर ही विभाजित किए गए हैं।
इतिहास की दृष्टि से वर्ण व्यवस्था --------------1कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:॥ (गीता १८/४१)
अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र कर्म स्वभाव से ही
उत्पन्न गुणों के आधार पर ही विभाजित किए गए हैं।
अरविन्द शर्मा की
"क्लास्सिकल हिंदू थोअट" में वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में तीन मुख्य
भ्रांतियां बताई गयी हैं -
१) वर्ण व्यवस्था को ऋग्वेद के पुरूष सूक्त ने अध्यात्मिक (दैवीय) मान्यता दी हैं।
२) वर्ण व्यवस्था ने हिंदू समाज को अभेद्य वर्गों में विभाजित कर दिया हैं।
३) हिन्दू समाज में सभी वर्गों की सामान उत्त्पति नहीं नहीं माने जाती हैं ।
यह भ्रांतिया सम्पूर्ण व्यवस्था को समझे बिना और शास्त्रों को उनके शाब्दिक आधार पर लेने से हैं। हमने पिछली चर्चाओंमें पाया था की शास्त्र-सम्मत आधार पर भी ये तीनो बातें आधारहीन प्रतीत होती हैं। ऋग्वेद जहाँ इस व्यवस्था को कर्मगत बताते हैं वहीं एक वर्ण के दुसरे के साथ सम्बन्ध और परिवर्तन भी सामान्य था। और जहाँ तक तीसरी भ्रान्ति का सम्बन्ध हैं वो भी यदि सभी वर्गों को मनु-पुत्र माने या पुरूषसूक्त के आधार पर इस समाज की संतान दोनों ही रूपों में वे सामान सामाजिक-उत्त्पति वाले प्रतीत होते हैं (हाँ पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर वे आदम और इव की संतान नहीं हैं)। शास्त्र के आधार पर हम तथ्यपूर्ण रूप से पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था का वास्तविक रूप तो कर्मगत ही हैं। वेदों से लेकर रामायण और गीता तक, उपनिषद और ब्राह्मण व्याख्या से लेकर पौराणिक कथाओं तक प्रथम दृष्टया वर्ण-व्यवस्था कर्मणा ही मान्य हैं। गीता में स्वं श्री कृष्ण भी कहते हैं - "चातुर्वंर्यम् मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः"(गीता ४-१२) अर्थात् चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा कर्म गुण के आधार पर विभागपूर्वक रचित हैं (वर्गीकृत हैं)।
१) वर्ण व्यवस्था को ऋग्वेद के पुरूष सूक्त ने अध्यात्मिक (दैवीय) मान्यता दी हैं।
२) वर्ण व्यवस्था ने हिंदू समाज को अभेद्य वर्गों में विभाजित कर दिया हैं।
३) हिन्दू समाज में सभी वर्गों की सामान उत्त्पति नहीं नहीं माने जाती हैं ।
यह भ्रांतिया सम्पूर्ण व्यवस्था को समझे बिना और शास्त्रों को उनके शाब्दिक आधार पर लेने से हैं। हमने पिछली चर्चाओंमें पाया था की शास्त्र-सम्मत आधार पर भी ये तीनो बातें आधारहीन प्रतीत होती हैं। ऋग्वेद जहाँ इस व्यवस्था को कर्मगत बताते हैं वहीं एक वर्ण के दुसरे के साथ सम्बन्ध और परिवर्तन भी सामान्य था। और जहाँ तक तीसरी भ्रान्ति का सम्बन्ध हैं वो भी यदि सभी वर्गों को मनु-पुत्र माने या पुरूषसूक्त के आधार पर इस समाज की संतान दोनों ही रूपों में वे सामान सामाजिक-उत्त्पति वाले प्रतीत होते हैं (हाँ पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर वे आदम और इव की संतान नहीं हैं)। शास्त्र के आधार पर हम तथ्यपूर्ण रूप से पाते हैं कि वर्ण-व्यवस्था का वास्तविक रूप तो कर्मगत ही हैं। वेदों से लेकर रामायण और गीता तक, उपनिषद और ब्राह्मण व्याख्या से लेकर पौराणिक कथाओं तक प्रथम दृष्टया वर्ण-व्यवस्था कर्मणा ही मान्य हैं। गीता में स्वं श्री कृष्ण भी कहते हैं - "चातुर्वंर्यम् मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः"(गीता ४-१२) अर्थात् चारों वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा कर्म गुण के आधार पर विभागपूर्वक रचित हैं (वर्गीकृत हैं)।
इसी प्रकार इतिहास के पृष्ठ
पलटने पर भी वर्ण-व्यवस्था का कर्मगत रूप ही उजागर होता हैं किंतु कालांतर
में एक पीढी द्वारा दूसरी पीढी को अपने व्यवसाय के गुण पैत्रिक धरोहर के
रूप में विरासत में देने से संभवतः यह व्यवस्था जन्मणा मान्य हो गई हो ...
आइये एक दृष्टि अपनी पुरातन व्यवस्था पर डालें और भारतीय समाज और
वर्ण-व्यवस्था के उस विकास क्रम को समझने के प्रयास करें जिसने इतनी
शताब्दियों तक इस समाज को जीवंत बनाये रखा ।
जैसाकि हम
प्रारंभिक चर्चाओं के आधार पर जानते हैं कि वर्ण व्यवस्था का जन्म कर्मगत
आधार पर समाज के श्रम विभाजन के कारण हुआ था। इस विभाजन के पीछे समाज के
स्थायित्व और उसके सुचारू संचालन की कामना अवश्य ही थी। आर्यावर्त में वर्ण
व्यवस्था के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभ्यताओं,जैसे कि ईरान और मिस्र , में
भी वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ । यह सभी व्यवस्थाएं कर्मगत ही थी। जान
अवेस्ता (जोराष्ट्रियन धार्मिक ग्रन्थ) में प्रारंभिक ईरानी समाज को तीन
श्रेणियों -शिकारियों, पशुपालकों और कृषकों, में बांटा गया हैं (विलियम
क्रूक - दा ट्राइब एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध)। यह
सभी श्रेणियां कर्मगत हैं। कालांतर में जब ईरानी सामाजिक व्यवस्था उन्नत
हुई तो चार वर्णों में विभक्त हुई। यह वर्ण थे - अथोर्नन (पुजारी),
अर्थेश्तर (योद्धा), वास्तारिउश (व्यापारी) और हुतुख्श (सेवक)। कर्मगत आधार
पर पनपे इन चारों वर्णों की वैदिक भारत से समानता विस्मयकरी हैं। अन्य
जोराष्ट्रियन ग्रन्थ डेनकार्ड (जो कालांतर में लिखा गया ) में चार वर्णों
के जन्म का उल्लेख हैं भी आश्चर्यजनक रूप से वैदिक पुरुषसूक्त का अनुवाद ही
प्रतीत होता हैं (पुस्तक ४ -ऋचा १०४ )। किंतु इससे यह अवश्य सिद्ध होता
हैं कि स्वतंत्र रूप से विकसित हुए इन दो सभ्यताओं में सामाजिक संरचना का
रूप अवश्य ही कर्मगत था। यह भी सम्भावना हैं कि सिन्धु घटी सभ्यता काल में
ही इस प्रकार की व्यवस्था का जन्म हुआ हो और वो अपने सहज रूप के कारण ईरान
में भी अपनाई गयी हो। आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत में विश्वास करने
वाले यदि ये तर्क रखते हैं कि ऐसा एक ही शाखा से जन्मे होने के कारण इन
सभ्यताओं में समानता के कारण हैं तो मैं स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस
सिद्धांत के अनुसार ही वेदों की रचना आर्यों के भारत आने के बाद हुई हैं।
उस समय के तत्कालीन जोराष्ट्रियन ग्रन्थ जान अवेस्ता में तीन ही श्रेणियों
का वर्णन हैं । डेनकार्ड की रचना नवी शताब्दी के आसपास की हैं।
इसी काल के आसपास मिस्र में भी कर्म आधारित वर्ग का जन्म
हुआ जिसमे दरबारी, सैनिक, संगीतज्ञ, रसोइये आदि कर्माधारित वर्गों का जन्म
हुआ। मिस्र के शासक राम्सेस तृतीय के अनुसार मिस्र का समाज भूपतियों,
सैनिकों, राजशाही, सेवक, इत्यादी में विभक्त था (हर्रिस अभिलेख (Harris
papyrus ) जेम्स हेनरी ब्रासटेड - ऐन्सीएंट रेकॉर्ड्स ऑफ़ ईजिप्ट पार्ट ४)।
इसी काल में यूनानी पर्यटक हेरोडोटस (Herodotus) के वर्णन के अनुसार मिस्र
में सात वर्ण थे - पुजारी, योद्धा, गो पालक, वराह पालक, व्यापारी,
दुभाषिया और नाविक। इनके अतिरि़क उसने दास का भी वर्णन किया हैं (उसके
अनुसार दास बोलने वाले यन्त्र/औजार थे जोकि दास के अमानवीय जीवन को दर्शाता
हैं)। इसके अतिरिक्त एक अन्य यूनानी पर्यटक स्त्रबो (Strabo) के वर्णन के
अनुसार शासक के अतिरिक्त समाज में तीन भाग थे - पुजारी, व्यापारी और सैनिक।
(यूनान की प्रचिलित दास व्यवस्था के कारण स्त्रबो ने भी दासों का उल्लेख
आवश्यक नहीं समझा होगा)। मिस्र की सामाजिक व्यवस्था में मुख्यतः लोग अपने
पैत्रिक कामों को वंशानुगत रूप से अपनाते रहे। इस प्रकार ये व्यवस्था
कर्मगत होते हुए भी जन्मणा प्रतीत होती हैं। संभवतः ऐसा ही कुछ भारतीय वर्ण
व्यवस्था के साथ भी हुआ होगा।
पुरातन काल की सभी
स्वतंत्र रूप से विकसित सभ्यताओं में, हम पाते हैं कि समाज का कर्मगत
वर्गीकरण स्वाभाविक रूप से हुआ। कालांतर में यह सभ्यताएं अवश्य ही वाणिज्य
और राष्ट्र विस्तार के लिए एक दुसरे के संपर्क में आई और इन सभ्यताओं ने
अवश्य ही एक दुसरे के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित किया होगा किंतु इनके
पुरातन विकास को देखकर यह कयास तो लगाया जा सकता हैं कि वर्ण निर्माण की
भावना में सर्वत्र एक ही रही होगी। अतः यदि अन्य तत्कालीन सभ्यताओं में
वर्ण व्यवस्था समाज के बढती जटिलताओं के समाधान के रूप में श्रम विभाजन के
आधार पर उत्त्पन्न हुई तो वही विकासक्रम वैदिक व्यवस्था में भी रहा हुआ
होगा। जेम्स फ्रांसिस हेविट ने अपने निबंध संग्रह "दा रूलिंग रेसस ऑफ़
प्रिहिस्टोरिक टाईम्स इन इंडिया, साउथ वेस्टर्न एशिया एंड साउथर्न यूरोप
में भी पुरानी लोककथाओं, शास्त्रों और साक्ष्यों के आधार पर इन सभ्यताओं के
विकासक्रम में ऐसी ही समानता स्थापित करने का प्रयास किया हैं। अगली कड़ी
में हम भारतीय इतिहास के कुछ पृष्ठों में वर्ण-व्यवस्था का विकास क्रम
देखें
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शास्त्रों के अनुसार वर्ण व्यवस्था ----2
पिछली चर्चा में हम वर्ण व्यवस्था की वेदानुसार
व्याख्या कर रहे थे और उसके प्रारंभिक रूप को कर्मगत ही पाया। आज उस चर्चा
को वेदों और मनु-स्मृति के अनुसार समझने का प्रयास करेंगे।
पिछली चर्चा में यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण के अनुसार हमने
वर्णों के जन्म के विषय में जाना। किस प्रकार स्वर्ग, व्योम और भूमि से
वर्णों का सम्बन्ध स्थापित किया गया था - जिसका विश्लेषणात्मक पहलु कर्मगत
आधार पर यूँ किया जा सकता हैं कि दार्शनिक, बौधिक और धार्मिक कृत्यों से
सम्बंधित कार्य (स्वर्ग) से ब्राह्मण, प्रशासनिक, संरक्षण एवं आश्रय देने
के कृत्यों (व्योम) से क्षत्रिय और भूमि से जुड़े कार्यों से अन्य वर्ण
(वैश्य और शूद्र) जन्मे। इस व्यवस्था में सभी को सामान अवसर भी प्राप्त थे।
शतपथ ब्राह्मण के १.१.४.१२ श्लोक में वैदिक क्रियाओं में सभी वर्णों का
संबोधन दिए हैं जिससे ये स्पष्ट होता हैं कि वैदिक कार्यों में सारे वर्ग
भाग लेते थे । शतपथ ब्राह्मण (श्लोक १४.४.२.२३, ४.४.४.१३), तैत्तिरीय
ब्राह्मण (३.९.१४) में क्षत्रियों को संरक्षण और व्यवस्था कायम करने के
कारण सभी वर्णों में श्रेष्ठ बताया गया हैं । वहीं दूसरी ओर तैत्तिरीय
संहिता ( ५.१.१०.३) और ऐतरेय ब्राह्मण (८.१७) में ब्राह्मणों को ज्ञान के
कारण श्रेष्ठ मन गया हैं। इन विरोधाभासी प्रतीत होने वाले विचारों से यह तो
सिद्ध होता ही कि सर्वमान्य रूप से किसी वर्ण की भी श्रेष्ठता नहीं थी और
un वर्गों को केवल अपने कर्मो के आधार पर ही आँका जाता था। वेदों से चर्चा
समाप्त करने से पहले मैं अरविन्द शर्मा जी के विचार भी प्रस्तुत करना
चाहूँगा। उनके मतानुसार सभी वर्गों की समानता उनको एक-एक वेद के साथ जोड़
भी हमारे मनीषियों ने प्रदान की हैं ("क्लास्सिकल हिंदू थॉट")। तैत्तिरीय
ब्राह्मण (३.१२.९.२) में कहा गया हैं -
"सर्वं तेजः सामरूप्य हे शाश्वत।
सर्व हेदम् ब्रह्मणा हैव सृष्टम्
ऋग्भ्यो जातं वैश्यम् वर्णमाहू:
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।
सामवेदो ब्रह्मणनाम् प्रसूति
अर्थात ऋगवेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण का जन्म हुआ। इस आधार पर ये भी मन जा सकता हैं कि अथर्ववेद का सम्बन्ध शूद्रों से हैं। जिस प्रकार कोई भी ज्ञानवां व्यक्ति किसी भी वेदों को दुसरे से ऊपर नहीं मान सकता उसी प्रकार उनसे जुड़े वर्ण भी एक दुसरे से ऊपर नहीं हो सकते।
"सर्वं तेजः सामरूप्य हे शाश्वत।
सर्व हेदम् ब्रह्मणा हैव सृष्टम्
ऋग्भ्यो जातं वैश्यम् वर्णमाहू:
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।
सामवेदो ब्रह्मणनाम् प्रसूति
अर्थात ऋगवेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण का जन्म हुआ। इस आधार पर ये भी मन जा सकता हैं कि अथर्ववेद का सम्बन्ध शूद्रों से हैं। जिस प्रकार कोई भी ज्ञानवां व्यक्ति किसी भी वेदों को दुसरे से ऊपर नहीं मान सकता उसी प्रकार उनसे जुड़े वर्ण भी एक दुसरे से ऊपर नहीं हो सकते।
वेदों के बाद वर्ण-व्यवस्था से सम्बंधित सबसे ज्यादा
चर्चित ग्रन्थ मनु-स्मृति ही हैं (संभवतः वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में
वेदों से भी अधिक चर्चित)। भारतीय दर्शन को समझने के लिए जिस ग्रन्थ को
पाश्चात्य विद्वानों (अंग्रेजो) ने सर्वप्रथम चुना
था वो मनु स्मृति ही था (सन् १७९४
में सर विलियम जोन्स)। इस ग्रन्थ के जिन अंशो को
लेकर इसकी निंदा होती रही हैं उनमे से अधिकांश ८वे आध्याय से हैं। वास्तव
में उनके अध्ययन के बाद कुछ तो अत्यन्त ही क्रूर और अमानवीय प्रतीत होते
हैं (मुझे तो व्यक्तिगत रूप से कुछ अत्याचार के दिशा-निर्देशों
से भरे किसी डरावनी पुस्तक से उठाये हुए प्रतीत हुए - जैसे जिह्वा,
हस्त विच्छेदित करना, जीवन पर्यन्त
बंधुआ मजूरी करना, एक वर्ण का दुसरे का
उत्पीडन शास्त्र सम्मत मानना आदि) किंतु इस सम्बन्ध
में श्री सुरेन्द्र कुमार की लिखित पुस्तक "विशुद्ध मनुस्मृति"
से विचार प्रकट करना चाहूँगा। उन्होंने
मनु-स्मृति के 2,६८५ छंदों (श्लोकों) में से मात्र
१,२१४ को मूल ग्रन्थ का अंश माना हैं।
उनके अनुसन्धान के अनुसार बाकी के श्लोक कालांतर में मनु-स्मृति से जुड़े -
उनमे से अधिकांश या तो तत्कालिन लेखकों/ऋषियों की व्यतिगत समझ के अनुसार
की हुई व्याख्याएं हैं। इसी सम्बन्ध श्री भीमराव अम्बेडकर जी
का भी शोध महत्वपूर्ण हैं। उनके अनुसार मनुस्मृति
के अधिकांश भाग (जोकि यह कालांतर में जुड़े अंश हो सकते हैं) पुष्यमित्र
सुंग के राज्य में बढ़ते बौध्य प्रभाव को दबाने के
लिए लिखे गए (Revolution and Counter-Revolution in India )। यदि इन
कालांतर में जुड़े हुए श्लोकों की भाषा को देखें तो
वो भी एक विलुप्त होते समाज की साम, दाम दंड भेद की भाषा ही लगती हैं जोकि
उस काल के उच्च वर्ग को लुभाकर अन्य पंथ की तरफ़ होने वाले रुझान से एन केन प्रकारेण रोकना चाह रहा हो।
यदि इस ग्रन्थ को इन श्लोको से हटा कर देखें तो हम मनु-स्मृति के मूल रूप
को समझ पाएंगे और जान पाएंगे कि शंकराचार्य, स्वामी दयानंद, एन्नी बेसेंट, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और
फ्रिएद्रीच निएत्ज़सचे जैसे विद्वानों ने इस ग्रन्थ को क्यों सराहा।
मनु स्मृति में वर्ण व्यवस्था को अत्यन्त विस्तार से समझाया गया हैं। किंतु इसमे भी वर्ण परिवर्तनीय और कर्म बोधक ही
हैं.... मनु की मूल व्यवस्था विद्वेषकारी नहीं हैं।
मनु कहते हैं "शुद्रो ब्रह्मणाथामेथी ब्रह्मणास्चेथी शुद्रताम" अपने कर्मो
के आधार पर ब्राह्मण शूद्र हो सकता हैं और शूद्र ब्राह्मण. इसी प्रकार
अन्यत्र मनु कहते हैं "आददीत परां विद्यां प्रयत्नादवरादपि । अन्त्याद्पी
परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि" अर्थात जिस प्रकार दुष्कुल (छोटे कुल)
की स्त्री से मिलने पर रत्न (उपहार) ले जाने चाहिए उसी प्रकार ज्ञान किसी
भी व्यक्ति से (वर्ण भेद नगण्य हैं) आदर पूर्वक लेना चाहिए।
इसी प्रकार मनु
ने १०वे अध्याय में कहा हैं "अहिंसा सत्यम् अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रह: । एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वंर्ये आब्रवीन मनु:
॥ " अर्थात चारों वर्णों के लिए नियम बनाते हए मनु कहते हैं - "अहिंसा, इन्त्रियों पर संयम, शुद्धता और सत्यता ही सभी
वर्णों के लिए आवश्यक हैं"। (जब अहिंसा सभी वर्णों ले लिए आवश्यक हैं तो
फ़िर आठवें अध्याय में बताये नियम कियान्वित ही नहीं किए जा सकते। ) इसी
अध्याय में २४वे श्लोक में ब्राह्मण और शूद्र से उत्पन्न वंशजों के पुनः
ब्राह्मण वर्ण में पुनः लौट आने का भी नियम भी दिया हैं। वर्ण परिवर्तन और
उसकी उन्मुक्तता छान्दोग्य उपनिषद के सत्यकामा जाबाला की
कथा में भी मिलता हैं, जहाँ केवल माता
के परिचय के आधार पर बिना वर्ण के ज्ञान पर भी गुरु ने सत्यकामा को
दीक्षित किया। ऐसा ही विवरण चंद्रप्रभा राजन की तीन
हाथ वाली उपनिषद कथा में भी मिलता हैं (भारत
एक खोज एपिसोड ४)। नारद भक्ति सूत्र में भी
ईश्वर भक्ति और उपासना में जाति भेदों को नगण्य
बताया हैं क्योंकि सभी भक्त भगवान् के ही हैं. - "नास्ति तेषु
जातिविद्यारूपकुलधनक्रियाभेदः । यतस्तदीया: । "। इसी प्रकार शाण्डिल्य
सूत्र में कहा गया हैं - "आनिन्द्ययोंयाधिक्रियते पारम्पर्यात
सामान्यवत" शास्त्रों और उपदेशों की परम्परा
से सिद्ध होता हैं कि भक्ति पर सभी का बराबर अधोकार हैं।
इसी प्रकार मनु
स्मृति में विभिन्न वर्णों के मिलन से उत्पन्न वर्णों (जातियों ) का भी
उल्लेख हैं किंतु यदि इन संकर वर्णों का प्रथम दृष्टया विश्लेषण उन्हें
कर्मगत ही पाते हैं। इन वर्णों में से कई तो कर्म सूचक ही हैं जैसे निषाद, वीणा, सूत इत्यादि। अन्य
संकर वर्ण जैसे ब्राह्मण और वैश्य के मिलन से उत्पन्न अम्बष्ठ (चिकित्सक)
वर्ण भी कर्मगत ही हैं। यह तो सम्भव नहीं कि इस प्रकार के मिलन से उत्पन्न हर व्यक्ति वैद्य ही होगा ....किंतु इस प्रकार
के श्लोकों को यूँ समझा जा सकता हैं कि वैश्य गुण से
व्यापारिक समझ और ब्राह्मण गुण से ज्ञान पिपासु होने से इस वर्ग की
चिकित्सा क्षेत्र में सफलता निश्चित हैं। किंतु ये संकर वर्ण फ़िर भी कर्मगत
रूप ही दिखाते हैं। इस विषय पर ऐसे ही कुछ विचार विलियम क्रूकस ने भी अपनी
पुस्तक "दा ट्राइब्स एंड कास्ट ऑफ़ दा नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध" में व्यक्त किए हैं।
इतिहास के पन्नों में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो कि
अ-क्षत्रीय शासको का भी वर्णन करते हैं जैसे कि सिंध के ब्राह्मण वंश के
अन्तिम हिंदू शासक या वर्त्तमान काशी नरेश भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध
रखते हैं। भूमिहार ब्राह्मणों के अतिरिक्त सुंग साम्राज्य, हिन्दू-शाही ,
त्यागी-ब्राह्मण और कोंकणास्थ-ब्राह्मण अन्य अ-क्षत्रीय -राजवंशों के
उदाहरण हैं जिन्होंने कालांतर में क्षत्रिय रूप पा लिया था। यह परिवर्तन की
परम्परा आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक चला आया हैं। विलियम क्रूक ने
ब्रिटिश शासन-काल में ही मिर्जापुर में सिंगरौली के राजा के
खारवार जाति से को वनवासी क्षत्रिय के रूप में
परिवर्तन का जिक्र किया हैं। इसी प्रकार ब्रिटिश कर्नल स्लीमन ने अपने
यात्रा संस्मरण "जर्नी थ्रू अवध (Journey through
Oudh)" में भी एक पासी समुदाय के व्यक्ति द्वारा
अपनी पुत्री के पुअर जाति में विवाह के बाद क्षत्रिय वंशी हो जाने की
जानकारी दी हैं। विलियम क्रूक ने अवध में ही अन्य वर्ण परिवर्तन के विषय
में भी वर्णन किया हैं । इन घटनाओ मे ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैश्य सभी वर्णों में अन्य अवैदिक समुदायों और जनजातियों से
आगमन होता रहा हैं। (पिछली चर्चा में हम जन-मान्यताओं में ब्राह्मण शासक के
शूद्र परिवर्तन देख चुके हैं - ह्वेन त्सांग यात्रा के
दौरान सिंध नरेश)। अवध की ही कुछ प्रमुख वर्ण परिवर्तन की घटनाओं के बारे
में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य -
- चंद्रवंशी और नागवंशी शासको में बघेल, अह्बन आदि समुदाय में अन्य शासक जातियाँ स्वीकृत हुई।
- क्षत्रिय राजाओं में वंश-परम्परा की समाप्ति के भय पर दासी पुत्र अथवा अन्य अन्य जातियों से दत्तक पुत्र लेने की परम्परा रही हैं। (जोकि वर्ण के जन-स्वीकृत परिवर्तनीय रूप को ही दर्शाता हैं। जन्म से वंश में होना अनिवार्यता नहीं थी। )
- असोथर के राजा भगवंत राय द्वारा लगभग ढाई शताब्दियों पहले लुनिया समुदाय (नमक व्यवसायी) के एक व्यक्ति को मिश्रा ब्राह्मण बनाना।
- इसी प्रकार प्रतापगढ़ के तत्कालीन नरेश राजा मानिकचंद द्वारा सवा-लाख ब्राह्मणों की आवश्यकता के लिए कुंडा ब्राह्मणों का निर्माण।
- इस तरह के प्रकरण तिर्गुनैत ब्राह्मण, अंतर के पाठकों, हरदोई के पाण्डेय प्रवर, गोरखपुर और बस्ती के सवालाखिया ब्राह्मण के सम्बन्ध में भी मिलते हैं।
- इसी प्रकार वैश्य समुदाय में भी कई जातियों के मिलने का उल्ल्लेख किया हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक
तौर पर भी वर्ण-व्यवस्था की दीवारें उतनी अभेद्य नहीं हैं। पुरातन काल से
ही वर्ण की परिभाषा और उसकी परिधि का विस्तार समय की मांग के अनुसार बदलता
रहा हैं। संभवतः यही वर्ण-व्यवस्था का वह रूप हैं जिसने इस प्रथा को
युगों-युगों तक जीवित रखा हैं। सभी वर्गों के उत्थान की भावना और उन्हें
अंगीकार करके उन्हें समान अवसर प्रदान करने के अपने इस स्वरुप के कारण ही
यह काल के अनुसार स्वयं को ढाल पाई। अन्य प्रारंभिक सभ्यताएँ कर्म की
आवश्यकता से शुरू अवश्य हुई थी किंतु भारतीय वर्ण-व्यवस्था की
तरह सभी को समान अवसर न प्रदान कर पाने की वजह से उनका ह्रास हो गया (पुरोहितों और सम्राटों की प्रजा शोषण की नितियां और अन्य
समुदायों को आत्मसात न कर पाना एक बड़ा कारक रहा)। अपने
कर्म-बोधक स्वरुप के कारण ही यह व्यवस्था न केवल स्वयं को जीवित रख पाई बल्कि
इसमें अन्य जनजातियों को कर्म के आधार पर सम्मलित होने देने से इसका
विस्तार और विकास भी हुआ। जे सी नेसफिल्ड ने अपनी
पुस्तक "ब्रीफ वियूस ऑफ़ दा कास्ट सिस्टम ऑफ़ दा नॉर्थ-वेस्टर्न
प्रोविंस एंड अवध" में भी इस विषय पर विचार रखते
हुए कहा हैं कि "जनजातीय कबीलों और परिवारों को जिस भावना ने जाति के रूप
में बांधे रखा वह पंथ-सम्प्रदाय की भावना या सगोत्रीय (पारिवारिक) भावना से अधिक कर्मगत समानता ही थी। कर्मात्मक केवल कर्मात्मक
समानता ही जाति व्यवस्था के निर्माण की अवधारणा थी। " यह बात अनेक पौराणिक
और ऐतिहासिक घटनाओं से भी सिद्ध होती हैं जैसे महर्षि वेदव्यास और
विचित्रवीर्य व चित्रांगद के भ्राता होते हुए भी ब्राह्मण और क्षत्रिय रूप;
इसी प्रकार गोरखनाथ मठ के क्षत्रिय उत्तराधिकारी को संत रूप नें मानना
आदि।
इस सम्बन्ध में सबसे सहज प्रश्न जो आता हैं
कि वर्त्तमान में जगह-जगह दलित शोषण का जो विकृत रूप देखने को मिलता हैं;
उसके कारण क्या हैं? मैक्स मूलर के विचार इस बारे में महत्त्वपूर्ण तथ्य
प्रदान करते हैं - उसके अनुसार बौध और जैन धर्म के कारण हुए ह्रास
के बाद जब वैदिक धर्म का पुनर्जागरण हुआ तब हिंदू वैदिक (ब्राह्मण वादी
व्यवस्था) ने कठोरता से अपने मत का अनुपालन करना शुरू किया। मेरे विचार से
यह व्यवस्था और कट्टर अन्य गैर-भारतीय धर्मों के प्रभाव और उससे बचाव के
कारण भी हुई होगी। हम मनु-स्मृति सम्बंधित अपनी चर्चा में भी इसी प्रकार के
विचार पातें हैं - जब बौध धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण मनु-स्मृति के कई
अंशो का विस्तार हुआ और साथ ही उनमे कई दंडात्मक नियमो का सृजन हुआ। इसी
प्रभाव से कुछ स्थानों पर संभवतः आधुनिक दौर में वर्ण-व्यवस्था ने
शोषणात्मक और क्रूर रूप ले लिया हो। किंतु सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक नज़र
डालने पर और उसके सामाजिक ढांचे के तर्तिक मूल्यांकन से हमे यह व्यवस्था
सर्व कल्याण -सर्व-उत्थान की अधिक प्रतीत होती हैं। हमारी जीवन-शैली,
धार्मिक संस्कृति, वैचारिक प्रबुद्धता, सामाजिक दर्शन और वर्षो के निरंतर
चले आ रहे रीति-रिवाजों का ताना-बाना हमारी वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द ही
बुना हैं और इनमे से कोई भी लेस मात्र भी मानवीय भेदभाव अथवा शोषण की
अनुमति नहीं देता है । श्रीमद् भागवत में कहा हैं 'आद्योऽवतार: पुरूष:
परस्य' अर्थात् यह संसार भगवान का पहला अवतार हैं । इस सम्पूर्ण जगत -मित्र
या शत्रु , जड़ या चेतन, सभी को अपने प्रभु का अंश मानने वाला समुदाय
"वसुधैव कुटुंबकम्" और "सर्वेभवन्तु सुखिनः" की भावना के अलावा मानव जाति
के लिए कोई और भावः रख ही नहीं सकता।
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