मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

!! वेदों में जाति-व्यवस्था नहीं !!



इस श्रृंखला में प्रकाशित अब तक के लेखों में हम आक्रमणकारी आर्यों के भारतवर्ष में आकर यहाँ के आदि निवासियों को पराजित कर दास बना उनसे नीचा काम करवाने की मनघडंत कहानियों द्वारा गुमराह करने का षड़यंत्र देख चुके हैं | इसके विपरीत हम वेदों में श्रम का सर्वोच्च महत्त्व पाते हैं | हमने देखा कि आर्यों के चाकर या आदि निवासी समझे गए दास \ दस्यु या राक्षस वस्तुतः अपराधियों के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले पर्यायवाची शब्द हैं | प्रत्येक सभ्य समाज ऐसे अपराधियों पर अंकुश लगाता है |
हम यह भी देख चुके हैं कि वेदों में सभी चार वर्णों को जिनमें शूद्र भी शामिल हैं, आर्य माना गया है और अत्यंत सम्मान दिया गया है | यह हमारा दुर्भाग्य है कि वेदों की इन मौलिक शिक्षाओं को हमने विस्मृत कर दिया है, जो कि हमारी संस्कृति की आधारशिला हैं | और जन्म-आधारित जाति व्यवस्था को मानने तथा कतिपय शूद्र समझी जाने वाली जातियों में जन्में व्यक्तियों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार आदि करने की गलत अवधारणाओं में हम फँस गए हैं |
कम्युनिस्ट और पूर्वाग्रह ग्रस्त भारतीय चिंतकों की भ्रामक कपोल कल्पनाओं ने पहले ही समाज में अलगाव के बीज बो कर अत्यंत क्षति पहुंचाई है | अभाग्यवश दलित कहे जाने वाले लोग खुद को समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करते हैं, फलतः हम समृद्ध और सुरक्षित सामाजिक संगठन में नाकाम रहे हैं | इस का केवल मात्र समाधान यही है कि हमें अपने मूल, वेदों की ओर लौटना होगा और हमारी पारस्परिक (एक-दूसरे के प्रति) समझ को पुनः स्थापित करना होगा | इस लेख में हम वेदों में जाति व्यवस्था की वास्तविकता और शूद्र के यथार्थ अर्थ का आकलन करेंगे |
१. जैसे कि हम पहले लेख “vedas and shudra” में चर्चा कर चुके हैं कि वेदों में मूलतः ब्राहमण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र पुरुष या स्त्री के लिए कहीं कोई बैरभाव या भेदभाव का स्थान नहीं है |
२. जाति (caste) की अवधारणा यदि देखा जाए तो काफ़ी नई है | जाति (caste) के पर्याय के रूप में स्वीकार किया जा सके या अपनाया जा सके ऐसा एक भी शब्द वेदों में नहीं है | जाति (caste) के नाम पर साधारणतया स्वीकृत दो शब्द हैं — जाति और वर्ण | किन्तु सच यह है कि तीनों ही पूर्णतया भिन्न अर्थ रखते हैं |
... जाति (caste) की अवधारणा यूरोपियन दिमाग की उपज है जिसका तनिक अंश भी वैदिक संस्कृति में नहीं मिलता |
जाति – जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण | न्याय सूत्र यही कहता है “समानप्रसवात्मिका जाति:” अथवा जिनके जन्म का मूल स्त्रोत सामान हो (उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो) वह एक जाति बनाते हैं | ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है – उद्भिज(धरती में से उगने वाले जैसे पेड़, पौधे,लता आदि), अंडज(अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी, सरीसृप आदि), पिंडज (स्तनधारी- मनुष्य और पशु आदि), उष्मज (तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से उत्त्पन्न होने वाले – जैसे सूक्ष्म जिवाणू वायरस, बैक्टेरिया आदि) |
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है | एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं | अतः जाति ईश्वर निर्मित है |
जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं | इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है |
बहुत समय बाद जाति शब्द का प्रयोग किसी भी प्रकार के वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त होने लगा | और इसीलिए हम सामान्यतया विभिन्न समुदायों को ही अलग जाति कहने लगे | जबकि यह मात्र व्यवहार में सहूलियत के लिए हो सकता है | सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं |
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया सही शब्द – वर्ण है – जाति नहीं | सिर्फ यह चारों ही नहीं बल्कि आर्य और दस्यु भी वर्ण कहे गए हैं | वर्ण का मतलब है जिसे वरण किया जाए (चुना जाए) | अतः जाति ईश्वर प्रदत्त है जबकि वर्ण अपनी रूचि से अपनाया जाता है | जिन्होंने आर्यत्व को अपनाया वे आर्य वर्ण कहलाए और जिन लोगों ने दस्यु कर्म को स्वीकारा वे दस्यु वर्ण कहलाए | इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कहे जाते हैं | इसी कारण वैदिक धर्म ’वर्णाश्रम धर्म’ कहलाता है | वर्ण शब्द का तात्पर्य ही यह है कि वह चयन की पूर्ण स्वतंत्रता व गुणवत्ता पर आधारित है |
३. बौद्धिक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों ने ब्राहमण वर्ण को अपनाया है | समाज में रक्षा कार्य व युद्धशास्त्र में रूचि योग्यता रखने वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं | व्यापार-वाणिज्य और पशु-पालन आदि का कार्य करने वाले वैश्य तथा जिन्होंने इतर सहयोगात्मक कार्यों का चयन किया है वे शूद्र वर्ण कहलाते हैं | ये मात्र आजीविका के लिए अपनाये जाने वाले व्यवसायों को दर्शाते हैं, इनका जाति या जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है |
४. वर्णों को जन्म आधारित बताने के लिए ब्राह्मण का जन्म ईश्वर के मुख से हुआ, क्षत्रिय ईश्वर की भुजाओं से जन्में, वैश्य जंघा से तथा शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए यह सिद्ध करने के लिए पुरुष सूक्त के मंत्र प्रस्तुत किये जाते हैं | इस से बड़ा छल नहीं हो सकता, क्योंकि -
(a) वेद ईश्वर को निराकार और अपरिवर्तनीय वर्णित करते हैं | जब परमात्मा निराकार है तो इतने महाकाय व्यक्ति का आकार कैसे ले सकता है ? (देखें यजुर्वेद ४०.८)
(b) यदि इसे सच मान भी लें तो इससे वेदों के कर्म सिद्धांत की अवमानना होती है | जिसके अनुसार शूद्र परिवार का व्यक्ति भी अपने कर्मों से अगला जन्म किसी राजपरिवार में पा सकता है | परन्तु यदि शूद्रों को पैरों से जन्मा माना जाए तो वही शूद्र पुनः ईश्वर के हाथों से कैसे उत्त्पन्न होगा?
(c) आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता | यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है | तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है? आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया? किन्तु वेदों की साक्षी से प्रकृति भी शाश्वत है और कुछ अणु पुनः विभिन्न मानव शरीरों में प्रवाहित होते हैं | अतः यदि परमात्मा सशरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले |
(d) जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है | यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है | इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
उदाहरणतः यह पूछा जाए, “दशरथ कौन हैं?” और जवाब मिले “राम ने दशरथ से जन्म लिया”, तो यह निरर्थक जवाब है |
इसका सत्य अर्थ है – समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी लोग समाज का मस्तिष्क, सिर या मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे | बाहुओं के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय हैं, वैश्य या उत्पादक और व्यापारीगण जंघा के सामान हैं जो समाज में सहयोग और पोषण प्रदान करते हैं (ध्यान दें ऊरू अस्थि या फिमर हड्डी शरीर में रक्तकोशिकाओं का निर्माण करती हैं और सबसे सुदृढ़ हड्डी होती है ) | अथर्ववेद में ऊरू या जंघा के स्थान पर ‘मध्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है | जो शरीर के मध्य भाग और उदर का द्योतक है | जिस तरह पैर शरीर के आधार हैं जिन पर शरीर टिक सके और दौड़ सके उसी तरह शूद्र या श्रमिक बल समाज को आधार देकर गति प्रदान करते हैं |

इससे अगले मंत्र इस शरीर के अन्य भागों जैसे मन, आंखें इत्यादि का वर्णन करते हैं | पुरुष सूक्त में मानव समाज की उत्पत्ति और संतुलित समाज के लिए आवश्यक मूल तत्वों का वर्णन है |
यह अत्यंत खेदजनक है कि सामाजिक रचना के इतने अप्रतिम अलंकारिक वर्णन का गलत अर्थ लगाकर वैदिक परिपाटी से सर्वथा विरुद्ध विकृत स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है |
ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति, महाभारत, रामायण और भागवत में भी कहीं परमात्मा ने ब्राह्मणों को अपने मुख से मांस नोंचकर पैदा किया और क्षत्रियों को हाथ के मांस से इत्यादि ऊलजूलूल कल्पना नहीं पाई जाती है |
५. जैसा कि आधुनिक युग में विद्वान और विशेषज्ञ सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक होने के कारण हम से सम्मान पाते हैं इसीलिए यह सीधी सी बात है कि क्यों ब्राह्मणों को वेदों में उच्च सम्मान दिया गया है | अपने पूर्व लेखों में हम देख चुके हैं कि वेदों में श्रम का भी समान रूप से महत्वपूर्ण स्थान है | अतः किसी प्रकार के (वर्ण व्यवस्था में) भेदभाव के तत्वों की गुंजाइश नहीं है |
६. वैदिक संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः शूद्र ही माना जाता है | उसके द्वारा प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण निर्धारित किया जाता है | शिक्षा पूर्ण करके योग्य बनने को दूसरा जन्म माना जाता है | ये तीनों वर्ण ‘द्विज’ कहलाते हैं क्योंकि इनका दूसरा जन्म (विद्या जन्म) होता है | किसी भी कारणवश अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों के सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं |
७. यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है | इसी तरह शूद्र या दस्यु का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है |यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है | जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती हैं उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था | प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था |
८. वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे -
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की | ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |

(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
९. वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है | कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है | और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है |
१०. वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है (“तपसे शूद्रम”-यजु .३०.५), और इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को सम्पूर्ण मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है |
११. चार वर्णों से अभिप्राय यही है कि मनुष्य द्वारा चार प्रकार के कर्मों को रूचि पूर्वक अपनाया जाना | वेदों के अनुसार एक ही व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करता है | अतः प्रत्येक व्यक्ति चारों वर्णों से युक्त है | तथापि हमने अपनी सुविधा के लिए मनुष्य के प्रधान व्यवसाय को वर्ण शब्द से सूचित किया है |
अतः वैदिक ज्ञान के अनुसार सभी मनुष्यों को चारों वर्णों के गुणों को धारण करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए | यही पुरुष सूक्त का मूल तत्व है | वेद के वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगीरा, गौतम, वामदेव और कण्व आदि ऋषि चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करते हैं | यह सभी ऋषि वेद मंत्रों के द्रष्टा थे (वेद मंत्रों के अर्थ का प्रकाश किया) दस्युओं के संहारक थे | इन्होंने शारीरिक श्रम भी किया तथा हम इन्हें समाज के हितार्थ अर्थ व्यवस्था का प्रबंधन करते हुए भी पाते हैं | हमें भी इनका अनुकरण करना चाहिए |
सार रूप में, वैदिक समाज मानव मात्र को एक ही जाति, एक ही नस्ल मानता है | वैदिक समाज में श्रम का गौरव पूर्ण स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है | किसी भी किस्म के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते |
अतः हम भी समाज में व्याप्त जन्म आधारित भेदभाव को ठुकरा कर, एक दूसरे को भाई-बहन के रूप में स्वीकारें और अखंड समाज की रचना करें |
हमें गुमराह करने के लिए वेदों में जातिवाद के आधारहीन दावे करनेवालों की मंशा को हम सफल न होने दें और समाज के अपराधी बनाम दस्यु\दास\राक्षसों का भी सफ़ाया कर दें |
हम सभी वेदों की छत्र-छाया में एक परिवार की तरह आएं और मानवता को बल प्रदान करें |
वेदों में कोई जाति व्यवस्था नहीं है |

मैकाले की कुटिल शिक्षा नीति के कारण ही अनेक भारतीय विद्वान भी यह मानते हैं कि वेद में कथित आर्यों और दस्युओं के संघर्ष का वर्णन है | आर्य लोग मध्य एशिया से आए हैं | भारत के मूल निवासी दास या दस्यु थे, जिन्हें आर्यों ने आकर लूटा, खदेडा, पराजित कर दास बनाया, कठोर व्यवहार कर उनसे नीचा काम करवाया और सदा के लिए भारतवर्ष पर आधिपत्य स्थापित कर लिया |
वेदों के बारे में पाश्चात्य विद्वानों ने यह लाल बुझक्कड़ वाली कल्पना इस देश की वैदिक विचारधारा, सभ्यता, संस्कृति को नष्ट कर पाश्चात्य पद्धतियों के प्रचार – प्रसार तथा यहां साम्राज्य स्थापित करने के लिए ही गढ़ी थी | और इस देश का सत्यानाश करने के षड्यंत्र में शामिल उनके पुछल्ले साम्यवादी भी यही राग अलापते रहते हैं कि आर्यों ने अपनी महत्ता को जन्मगत भेदभाव के आधार पर प्रस्थापित किया |

भारतवर्ष को विभाजित करनेवाले इन्हीं विचारों के कारण आज स्वयं को द्रविड़ तथा दलित कहलानेवाले भाई – बहन जो अपने आप को अनार्य मानते हैं – उनके मन में वेदों के प्रति तथा उन्हें मानने वालों के प्रति घृणा और द्वेष का ज़हर भर गया है, परिणाम देश भुगत ही रहा है |
उनकी इस निराधार कल्पना का खंडन कई विद्वान कर चुके हैं | यहां तक कि डा. अम्बेडकर भी उनके इन विचारों से सहमत नहीं थे | क्योंकि  इस मिथ्या विवाद का आधार वेदों को बताया जा रहा है तो अब हम वेदों से ही आर्य और दस्यु के वास्तविक अर्थ जानेंगे | यही इस लेख का मूल उद्देश्य है |

आरोप :   वेदों में कई स्थानों पर आर्य और दस्यु का वर्णन आया है | कई मंत्र दस्यु के विनाश तथा आर्यों के रक्षा की प्रार्थना करते हैं | कुछ मंत्र तो यह भी कहते हैं कि जो स्त्रियां भी दस्यु पाई जाएं तो उन्हें भी नहीं बख्शना चाहिए |  इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वेद में दस्युओं पर आर्यों के अत्यंत घातक आक्रमण का वर्णन है |

समाधान :  ऋग्वेद में दस्यु से संबंधित ८५ मंत्र हैं | जिन में से कई दास के संदर्भ में भी हैं, जो दस्यु का ही पर्यायवाची है | आइए उन में से कुछ के अर्थ देखें -

  • ऋग्वेद १|३३|४
हे शूरवीर राजन्  ! विविध शक्तियों से युक्त आप एकाकी विचरण करते हुए अपने शक्तिशाली अस्त्र से धनिक दस्यु (अपराधी) और सनक(अधर्म से दूसरों के पदार्थ छीनने वाले ) का वध कीजिये | आपके अस्त्र से वे मृत्यु को प्राप्त हों | यह सनक: शुभ कर्मों से रहित हैं |
यहां  दस्यु  के  लिए  ’अयज्व’  विशेषण आया है अर्थात् जो शुभ कर्मों और संकल्पों से रहित हो और ऐसा व्यक्ति पाप कर्म करने वाला अपराधी ही होता है |  अतः यहां राजा को प्रजा की रक्षा के लिए ऐसे लोगों का वध करने के लिए कहा गया है | सायण ने इस में दस्यु का अर्थ चोर किया है | दस्यु का मूल ‘ दस ‘ धातु है जिसका अर्थ होता है – ‘ उपक्क्षया ‘ – जो नाश करे  | अतः दस्यु कोई अलग जाति या नस्ल नहीं है, बल्कि दस्यु का अर्थ विनाशकारी और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों से है |

  • ऋग्वेद १|३३|५
जो दस्यु (दुष्ट जन ) शुभ कर्मों से रहित हैं परंतु शुभ करने वालों के साथ द्वेष रखने वाले हैं,  आपकी रक्षा के प्रताप से वे भाग जाते हैं | हे पराक्रमी राजेन्द्र !  आपने सभी स्थानों से ‘ अव्रत ‘  (शुभ कर्म रहित ) जनों को निकाल बाहर किया है |  इस मंत्र में दस्यु के दो विशेषण आए हैं – ‘ अयज्व ‘ = शुभ कर्म और संकल्पों से रहित , ‘ अव्रत ‘ = नियम न पलनेवाला तथा अनाचारी | साफ़ है, दस्यु शब्द अपराधियों के लिए ही आया है | और सभ्य समाज में ऐसे लोगों को दिए जानेवाले दंड का ही विधान वेद करते हैं |

  • ऋग्वेद १|३३|७
हे वीर राजन् !  इन रोते हुए या हँसते हुए दस्युओं को इस लोक से बहुत दूर भगा दीजिये और उन्हें नष्ट कर दीजिये तथा  जो शुभ कर्मों से युक्त तथा ईश्वर का गुण गाने वाले मनुष्य हैं उनकी रक्षा कीजिये |

  • ऋग्वेद १|५१|५
हे राजेन्द्र ! आप अपनी दक्षता से छल कपट से युक्त ‘ अयज्वा’  ’ अव्रती’ दस्युयों को कम्पायमान करें, जो प्रत्येक वस्तु का उपभोग केवल स्वयं के लिए ही करते हैं, उन दुष्टों को दूर करें | हे मनुष्यों के रक्षक ! आप उपद्रव, अशांति फैलानेवाले दस्युओं के नगर को नष्ट करें और सत्यवादी सरल प्रकृति जनों की रक्षा करें |
इस मंत्र में दान- परोपकार से रहित, सब कुछ स्वयं पर ही व्यय करने वाले को दस्यु कहा है |
कौषीतकी ब्राह्मण में ऐसे लोगों को असुर कहा गया है | जो दान न करे वह असुर है,  अतः  असुर और दास दोनों का तात्पर्य दुष्ट अपराधी जनों से है |

  • ऋग्वेद १|५१|६
हे वीर राजन्  !  आप प्रजाओं का शोषण करने वालों की हत्या और ऋषियों की रक्षा करते हैं |  और दुसरों  की सहायता करने वालों के कल्याण के लिए आप महादुष्ट जनों को भी कुचल देते हैं | सदा से ही आप दस्यु ( दुष्ट जनों )  के हनन के लिए ही उत्पन्न होते हैं |
यहां दस्यु के लिए ‘ शुष्ण ‘ का प्रयोग है – जिसका अर्थ है शोषण – दु:ख  देना |

  • ऋग्वेद १|५१|७
हे परमेश्वर ! आप आर्य और दस्यु को अच्छे प्रकार जानते हैं | शुभ कर्म करने वालों के लिए आप ‘ अव्रती’  (शुभ कर्म के विरोधी ) दस्युओं को नष्ट करो | हे भगवन् !  मैं सभी उत्तम कर्मों के प्रति पालन में आपकी प्रेरणा सदा चाहता हूं |

  • ऋग्वेद १|५१|९
हे राजेन्द्र ! आप नियमों का पालन करने वाले तथा शुभ कर्म करने वाले के कल्याण हेतु व्रत रहित दस्यु का संहार करते हो | स्तुति करने वालों के साथ द्वेष रखने वाले, अनाचारी, ईश्वर गुण गान रहित लोगों को वश में रखते हो |

  • ऋग्वेद १|११७|२१
हे शूरवीर सेनाधीशों !  आप उत्तम जनों की रक्षा तथा दस्यु का संहार करो |
इस मंत्र में रचनात्मक कार्यों में संलग्न मनुष्यों को आर्य कहा गया है |

  • ऋग्वेद १|१३०|८
हे परम ऐश्वर्यवान् राजा ! आप तीन प्रकार के – साधारण, स्पर्धा के लिए और सुख की वृद्धि के लिए किए जाने वाले संग्रामों में यजमानम् आर्यम् ( उत्तम गुण, कर्म स्वभाव के लोग ) का रक्षण करें | और अव्रतान् ( नियन के न् पलनेवाले, दुष्ट आचरण वाले ), जिनका अंतकरण काला हो गया है, हिंसा में रत या हिंसा की इच्छा करने वाले को नष्ट कर दें |
यहां ‘ कृष्ण त्वक् ‘  शब्द से कलि त्वचा वाले लोगों की कल्पना कर ली गई है | जब की यहाँ ‘ कृष्ण त्वक् ‘ का अर्थ अंतकरण का दुष्ट भाव है | साथ ही यहां ‘ ततृषाणाम् ‘ और  ’अर्शसानम्’  भी आए हैं,  जिनका अर्थ है – हिंसा करना चाहना और हिंसा में रत | इस के विरुद्ध आर्य यहां श्रेष्ठ और परोपकारी मनुष्यों के लिए आया है |
इस से स्पष्ट होता है  कि आर्य और दस्यु शब्द गुण वाचक हैं, जाति वाचक नहीं हैं |

  • ऋग्वेद ३|३४|९
यह मंत्र भी दस्यु का नाश और आर्य की रक्षा का अर्थ रखता है | यहां आर्य के लिए वर्ण शब्द आया है, वर्ण अर्थात्  स्वीकार किए जाने योग्य इसलिए आर्य वर्ण = स्वीकार करने योग्य उत्तम व्यक्ति |

  • ऋग्वेद ४|२६|२
मैं आर्य को भूमि देता हूं, दानशील मनुष्य को वर्षा देता हूं और सब मनुष्यों के लिए अन्य संपदा देता हूं |
यहां आर्य दान शील मनुष्यों के विशेषण रूप में आया है |

ऋग्वेद के अन्य मंत्र हैं -

  1. ऋग्वेद ४|३०|१८
  2. ऋग्वेद ५|३४|६
  3. ऋग्वेद ६|१८|३
  4. ऋग्वेद ६|२२|१०
  5. ऋग्वेद ६|२२|१०
  6. ऋग्वेद ६|२५|२
  7. ऋग्वेद ६|३३|३
  8. ऋग्वेद ६|६०|६
  9. ऋग्वेद ७|५|७
  10. ऋग्वेद ७|१८|७
  11. ऋग्वेद ८|२४|२७
  12. ऋग्वेद ८|१०३|१
  13. ऋग्वेद १०|४३|४
  14. ऋग्वेद १०|४०|३
  15. ऋग्वेद १०|६९|६
इन मंत्रों में भी आर्य और दस्यु \ दास शब्दों के विशेषणों से पता चलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही मनुष्य आर्य और दस्यु नाम से पुकारे जाते हैं अतः उत्तम स्वभाव वाले, शांतिप्रिय, परोपकारी गुणों को अपनाने वाले आर्य तथा अनाचारी और अपराधी प्रवृत्ति वाले दस्यु हैं |

ऋग्वेद ६|२२|१० दास को भी आर्य बनाने की शिक्षा देता है | साफ़ है कि आर्य और दस्यु का अंतर कर्मों के कारण है जाति के कारण नहीं |

ऋग्वेद ६|६०|६ में कहा गया है – यदि आर्य ( विद्वान श्रेष्ठ लोग ) भी अपराधी प्रवृत्ति के हो जाएं तो उनका भी संहार करो | यही भावना ऋग्वेद १०|६९|६ और १०|८३|१ में व्यक्त की गई है |

अतः आर्य कोई सदैव बने रहने वाला विशेषण नहीं है | आर्य गुणवाचक शब्द है | श्रेष्ठ गुणों को धारण करनेवाले आर्य कहलाते हैं | अगर वह अपने गुणों से विमुख हो जाएं – अपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्त हो जाएं – तो वह भी दस्यु की तरह ही दंड के पात्र हैं |

अथर्ववेद  ५ | ११ |३ वर्णन करता है कि ईश्वर के नियमों को आर्य या दास कोई भंग नहीं कर सकता |

शंका : इस मंत्र में आर्य और दास शब्दों से दो अलग जातियां होने का संदेह होता है | यदि दास का अर्थ अपराधी है तो ईश्वर अपराधियों को अपराध करने ही क्यों देता है ? जबकि वो स्वयं कह रहा है कि मेरे नियम कोई नहीं तोड़ सकता ? 

समाधान :
ईश्वर के नियमानुसार मनुष्य का आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र है | वह अपने लिए भले या बुरे दोनों प्रकार के कर्मों में से चुनाव कर सकता है | लेकिन, कर्म का फ़ल उसके हाथ में नहीं है | कर्मफल प्राप्त करने में जीवात्मा ईश्वर के अधीन है |  यही इस मंत्र में दर्शाया गया है |

इसी सूक्त के अगले दो मंत्रों अथर्ववेद ५|११|४ और ५|११|६ में कहा गया है कि बुरे लोग भी ईश्वर के अपरिवर्तनीय नियमों से डरते हैं, परंतु वे मनुष्यों से भयभीत नहीं होते और उपद्रव करते रहते हैं |  इसलिए यहां ईश्वर से प्रार्थना है कि बदमाश और अपराधियों की नहीं चले, वे दबे रहें और विद्वानों को बढ़ावा मिले |

यहां बदमाश अपराधियों के लिए दास या दस्यु ही नहीं आए बल्कि कई मंत्रों में ज्ञान, तपस्या और शुभ कर्मों से द्वेष करने वालों के लिए ‘ ब्रह्म द्वेषी ‘ शब्द भी आया है |

ऋग्वेद के ३|३०|१७ तथा ७|१०४|२ मंत्र  ब्रह्म द्वेषी, नरभक्षक, भयंकर और कुटिल लोगों को युद्ध के द्वारा वश में रखने को कहते हैं | अब जैसे ब्रह्म द्वेषी, नरभक्षक, भयंकर और कुटिल कोई अलग जाति नहीं है, मनुष्यों में ही इन अवगुणों को अपनानेवालों को कहते हैं | उसी तरह, अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को दास, दस्यु और ब्रह्म द्वेषी कहते हैं – यह अलग कोई जाति या नस्ल नहीं है |

ऋग्वेद ७|८३|७ इसे और स्पष्ट करता हुआ कहता है कि दस अपराधी प्रवृत्ति के राजा मिलकर भी एक सदाचारी राजा को नहीं हरा सकते | क्योंकि उत्तम मनुष्यों की प्रार्थनाएं हमेशा पूर्ण होती हैं और उन्हें बहुत से बलवान जनों का सहयोग और साधन भी मिलते हैं | यहां अपराधी प्रवृत्ति के लिए ‘ अयज्व ‘ आया है जो कि ऊपर के कुछ मंत्रों में दस्यु के लिए भी आ चुका है | और कथित बुद्धिवादी पाश्चात्यों ने इस में दस राजाओं का युद्ध दिखाने का प्रयास किया है !

अंत में ऋग्वेद के मंत्र ७|१०४|१२ से हम आर्य और दास \ दस्यु \ अव्रत \ अयज्व के संघर्ष को सार रूप में समझें -
” विद्वान यह जानें कि सत् ( सत्य) और असत् ( असत्य) परस्पर संघर्ष करते रहते हैं | सत् – असत् को और असत् – सत् को दबाना चाहता है | परंतु इन दोनों में जो सत् है और ऋत ( शाश्वत सत्य ) है उसी को ईश्वर सदा रक्षा करता है और असत् का हनन करता है | ”

आइए, हम भी झूठा अभिमान त्याग कर, सत् और ऋत के मार्ग पर चलें |

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