मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

जो राजा (सत्ताधारी) बनाता है ओ रंक हो रहा है क्यों ?

जनता सत्ता को देखती है। सत्ता जनता को नहीं देखती। जनता सत्ता परोसती है। सत्ता जनता को ही कोसती है। सत्ता में बैठा व्यक्ति झूठ के सहारे ही स्वयं की श्रेष्ठता साबित करता है। उसके लिए इससे अच्छा व्यक्तित्व होता ही नहीं। सम्पूर्ण सत्ता का उपयोग स्वयं को सुरक्षित करने में तो करता है, किन्तु दूसरा उसे हर हाल में ही सुरक्षित लगता है। संवदेना सत्ता की शत्रु है। लोकतंत्र भी है तो सत्ता का ही एक स्वरूप।
भोपाल का गैस काण्ड इसका जीता-जागता उदाहरण है। यूनियन कार्बाइड ने तो इसे डाऊ केमिकल्स को बेच दिया और स्वयं चल बसी। पीडितों को छोड़ गई डाऊ के भरोसे। व्यापारी कम्पनी थी। किन्तु हमारी सरकार भी क्या व्यापारी हो गई?
सारे सत्ताधीश मगरमच्छी आंसू बहाते रहते हैं। पीड़ा वहीं की वहीं है। किसी ने कोई संकल्प किया हो, बीड़ा उठाया हो, सहायता करने का, दिखाई नहीं देता। हां, आश्वासनों के आसव सब पिलाते ही रहते हैं। करोड़ों के सब्जबाग दिखाते आ रहे हैं। करोड़ों खर्च भी बता रहे हैं। खूब खा भी रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप भी चलते रहते हैं। ऊपर से वोटों की राजनीति कोढ़ में खाज का काम कर रही है। घर उजड़ गए। कोई बात नहीं। उनको तो नाम भी याद नहीं। आपका वोट किसी और से डलवा लेंगे, किन्तु कष्ट के समय साथ देने के लिए उनके पास समय नहीं होता। फिर सरकार का अर्थ क्या? सरकारें तो आती-जाती रहेंगी पर करेंगी कुछ नहीं। गैस पीडित परिवारों को उनका हक देने की बजाय उनके साथ भिखारियों की तरह बर्ताव क्यों किया जाता है? ये परिवार सरकारी मदद के मोहताज क्यों रहें? क्यों नहीं समाज के लोग ही एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आएं। सक्षम लोग पीडित परिवारों के बच्चों को गोद लें और उनकी शिक्षा व स्वास्थ्य का खर्चा उठाएं। तब ही भोपालवासियों में आत्मसम्मान से जीने का भाव पैदा हो सकेगा। गैस त्रासदी के पीडितों को भी लगेगा कि उनकी मदद अपने ही कर रहे हैं।
कोई आए, लोगों को लूटकर ले जाए, जनता को मारकर चला जाए, संसद पर हमला कर जाए, सीमा में प्रवेश कर जाए, और सरकार? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी यदि सरकार फैसले को लागू नहीं करा पाए तो सरकार पंगु ही कही जाएगी। या सम्बंधित सरकारी प्रतिनिधि डाऊ के दलालों की तरह मौन बैठे हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम इन भागीदारों को पकड़वा नहीं सकते? उनकी गतिविधियों को देखें। सन् 2012 का ओलम्पिक आयोजन डाऊ के साçन्नध्य में हो रहा है। वही मुख्य प्रायोजक है। कितने अरबों डालर खर्च रहा है। भारत सरकार चुप बैठी है। यह सही समय है उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का।
उसके बारे में प्रचार भी ढंग से किया जाए। शर्म आती हो तो, इस बार भारत को ओलम्पिक खेलों के बहिष्कार करने की भी घोषणा कर देनी चाहिए। यह मुद्दा भी उतना ही भावनात्मक है, जितना कि खिलाडियों का भाग लेना। इण्टरपोल, अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय आदि के जरिए भी कार्रवाई होनी चाहिए।
इनके साथ-साथ राज्य तथा केन्द्र को मिलकर इनकी पूर्ण व्यवस्था करनी चाहिए। आज
लाखों-करोड़ के तो घपले हो ही जाते हैं। पीडितों के लिए कुछ सैकड़ों करोड़ भी हम मांगकर खर्चना चाहते हैं। भोपाल गैस हादसा हुआ तब से अब तक करीब सैंतीस सौ करोड़ रूपए मुआवजे के नाम बांटे गए। लेकिन पीडितों की हालत जस की तस है। यही मेरा भोपाल है, जहां के भूखे बालगोपाल हैं।

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