बुधवार, 26 नवंबर 2014

दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुब मीनार का सच

क्या आप जानते हैं कि  आजकल दिल्ली में हम जिसे  कुतुबमीनार कहते हैं और  उसे लूले कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया समझते हैं  दरअसल वह  महाराजा विक्रमादित्य के राज्यकाल में राजा विक्रमादित्य द्वारा बनवाया गया "हिन्दू नक्षत्र निरीक्षण केंद्र"  है  जिसका असली नाम ''ध्रुव स्तम्भ" है परन्तु   प्राचीन इतिहासकारों द्वारा मूर्खतावश  और, आधुनिक काल में "मुस्लिम तुष्टिकरण हेतु"  कुतुबमीनार को  उस लूले कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया . कहा जाता है.  प्राचीन इतिहासकारों द्वारा . बिना तथ्यों की जानकारी जुटाए ही   कतिपय नामों की समानता के कारण  ऐसा मान लिया गया कि  कुतुबमीनार  कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाया गया है | 

यह बहुत कुछ इसी प्रकार की मूर्खता है  जैसे कि  कोई यह कहना शुरू कर दे कि .. आर्यभट्ट नामक उपग्रह आर्यभट्ट ने ही भेजा था अथवा   सभी शहरों में मौजूद  MG ROAD (महात्मा गाँधी रोड ).  महात्मा गाँधी ने बनवाया था 
जहाँ तक. . उस लूले गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक की बात है तो..... वो लुटेरा और जेहादी गोरी का गुलाम था.... और, वो गोरी के साथ ही भारत में जिहाद चलाने आया था  जिसे बाद में भारत का प्रभारी बना कर ...स्थायी तौर पर भारत में जिहाद चलाने की अनुमति दे दी गयी थी  जिस दौरान उसने  भारत में सिर्फ लूट-पाट मचाई और.. मंदिरों को तोडा हुआ दरअसल ये था कि  जब वो लूला कुतुबुद्दीन  . जिहाद करते करते दिल्ली पहुंचा तो  वहां इतना बड़ा और खुबसूरत स्तम्भ देखकर  उस लूले का मुंह खुला का खुला रह गया.  और, उसने अपने साथियों से पूछा कि  . ये क्या है. ?

इस पर  उस लूले को अरबी में बताया गया ( क्योंकि, उस लूले को निपट मूर्ख होने के कारण हिंदी नहीं आती थी ) कि  हुजुर  ये  "क़ुतुब मीनार"  अर्थात , उत्तरी धुव का निरीक्षण केंद्र है  बस यहीं से  वो लूला और उसके उज्जड साथी इसे   क़ुतुबमीनार- कुतुबमीनार कहने लगे उस पर भी उस लूले कुतुबुद्दीन ऐबक ने ये बात खुद से कहीं भी नहीं कहा है कि  कुतुबमीनार उसने बनवाया है  लेकिन  उसने ये जरुर कबूल किया है कि  उसने इस स्तम्भ के चारों और बनी 27 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया है !

लेकिन  बाद के इतिहासकारों ने नामों में समानता देख कर   बिना कुछ सोचे समझे ही ये नतीजा निकल लिया कि  इस कुतुबमीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक ने ही बनवाया होगा

अब अगर  इतिहासकारों की बातों को छीलना शुरू किया जाए तो . सबसे पहला प्रश्न यही है कि

अगर उस लूले कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई तो कब क्योंकि कुतुबुद्दीन तो मात्र 4 साल ही भारत में जिहाद कर पाया था और क्या कुतुबुद्दीन ने अपने निहायत ही छोटे राज्यकाल (1206 से 1210 ) मेंइतने बड़े मीनार का निर्माण करा सकता था जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करने में बिताये.और, 1210 में भी मरने के पहले भी वह लाहौर में था ?
फिर भी कुछ लोग अपनी थेथारोलोजी का इस्तेमाल करते हुए बोलते हैं कि लूले ने इसे 1193 AD में बनाना शुरू किया और कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं .. जबकि, उसके ऊपर के तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई और  उसके ऊपर की शेष मंजिलें बाद में बनी यदि उनकी ही बातों को माना जाए तो.अगर 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम "बादशाह गोरी " के नाम पर "गोरी मीनार", या "गजनी मीनार " ऐसा ही कुछ होता  या कि  एक "लूले गुलाम कुतुबुद्दीन" के नाम पर .क़ुतुब मीनार....????

अब कुछ लोगों ने ये भी कहना शुरू कर दिया है कि  ऐबक ने नमाज़ समय अजान देने केलिए यह मीनार बनवाई थी  तो क्या उतनी ऊंचाई से किसी की आवाज़ नीचे तक आ भी सकती है ?

असल में सच तो यह है कि  जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है .  उसे मेहरौली कहा जाता है  और यह मेहरौली  .वराहमिहिर के नाम पर बसाया गया था .जो सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक और  एक बहुत बड़े खगोलशास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ थे  उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों के अध्ययन के लिए 27 कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था . और .इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्मकारीगरी के साथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयीं थीं जो नष्ट किये जाने के बाद भी कहीं कहीं दिख ही जाती हैं... ( चित्र संलग्न )

इसका दूसरा सबसे बड़ा प्रमाण  उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ है .जिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख .जिसमे लिखा है कि  यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है  सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं ) द्वारा स्थापित किया गया था  और, यह लौहस्तम्भ आज भी विज्ञान के लिए आश्चर्य की बात है   क्योंकि.  आज तक इसमें जंग नहीं लगा उसी महान सम्राट के दरबार में महान गणितज्ञ आर्य भट्ट .खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ वराह मिहिर .वैद्य राजब्रम्हगुप्त आदि हुए
तो ये बहुत ही सामान्य ज्ञान कि बात है कि ऐसे प्रतापी राजा के राज्य काल  जिसमे लौह स्तम्भ स्थापित हुआ   तो क्या जंगल में बिना कारण के सिर्फ अकेला स्तम्भ बना दिया गया होगा.
सोचो हिन्दुओं आपके साथ क्या खेल खेला जा रहा है.?  कि  विध्वंसक को ही आपका निर्माता बना कर प्रस्तुत किया जा रहा है
क्या . तुष्टिकरण का इस से भी ज्यादा घिनौना खेल  दुनिया के किसी भाग में खेला जा सकता है  ??

जागो हिन्दुओं  और, पहचानो अपने आपको   अन्यथा अभी तक तुम्हारा तो सिर्फ ऐतिहासिक धरोहर ही लूटा गया है . कल तुम्हारे घर को लूटने की तैयारी है  !
विश्वप्रसिद्ध स्तंभ के पीछे भी गढ़ा गया है जिसे संसार में 'कुतुबमीनार' के नाम से जाना जाता है ।
जिस प्रकार तथाकथित 'ताजमहल' के साथ 'शाहजहाँ कि बेसिरपैरवाली झूठी प्रेमगाथा थोपी गयी उसी प्रकार तथाकथित कुतुबमीनार के पीछे भी एक अन्य मुगल शासक 'कुतुबुद्धीन ऐबक' का नाम थोप दिया गया है।

एक अंग्रेज पुरातत्त्व प्रमुख कनिंघम द्वारा फैलायी गयी सरकारी अफवाह को सच मानकर समस्त संसार को यह झूठ सुनाया जा रहा है कि इसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि जिन्होंने इस भारत की भूमि को अपने अथक परिश्रम से सजाया सँवारा है भारत के वे मूल निवासी आज भी विदेशी लुटेरों के मानसिक दबाव में जीवन बसर कर रहे हैं। उन्हें अपने देश में ही अपनी बात कहने का अधिकार नहीं है। इतना ही नहीं सारे प्रतिबंध, बड़े-बड़े नियम-कानून केवल और केवल उन्हीं के लिए बने हैं। तथाकथित कुतुबमीनार मुगल शासक कुतुबुद्दीन ने बनवायी इस बात का तो कोई ठोस प्रमाण नहीं है परन्तु कुतुबुद्दीन ने उस  स्थान पर 27 मंदिरों को नष्ट करने का पाप किया था इस बात का ठोस प्रमाण उपलब्ध है।
उसने एक शिलालेख पर स्वयं लिखवाया है कि तथाकथित कुतुबमीनार के चारों ओर बने 27 मंदिरों को उजाड़ने की दुष्टता उसने की। सच तो यह है कि तथाकथित कुतुबमीनार उस समय भी थी जब दुष्ट कुतुबुद्दीन का परदादा भी पैदा नहीं हुआ था। यह स्तम्भ एक प्राचीन हिन्दू कलाकृति है जिसका उपयोग नक्षत्र विज्ञान की प्रयोगशाला के रूप में किया जाता था।
इस स्तम्भ के पार्श्व में महरौली नगरी है। यह संस्कृत नाम मिहिरवाली का अपभ्रंश है। प्राचीन भारत के महान नक्षत्रविज्ञानी तथा महाराजा विक्रमादित्य के विश्वविख्यात दरबारी ज्योतिषी आचार्य मिहिर अपने सहायक विशेज्ञों के साथ यहाँ रहते थे। उन्हीं के नाम से इसका नाम मिहिरवाली (महरौली) पड़ा।
आचार्य वराह मिहिर इस तथाकथित कुतुबमीनार का उपयोग नक्षत्र विद्याध्ययन के लिए एक वेध स्तम्भ के रूप में किया करते थे। इस वेध स्तम्भ के चारों ओर राशियों के 27 मण्डल बने हुए थे जो कुतुबुद्दीन द्वारा तुड़वा दिये गये। इसकी निर्माणकला में ऐसे कई चिह्न है जिनसे इसके हिन्दू भवन होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। इस स्तम्भ का घेरा 27 मोड़ों, चापों तथा त्रिकोणों का है तथा ये सब क्रमश एक के बाद एक हैं। इनसे स्पष्ट होता है कि इसके निर्माण में 27 की संख्या का विशेष महत्त्व रहा है। यह संख्या भारतीय ज्योतिष एवं नक्षत्र विज्ञान से संबंधित है।
इसका मुख्य द्वार इस्लामी मान्यता के अनुसार पश्चिम की ओर न होकर उत्तर की ओर है। इसके अनेक खम्भों तथा दीवारों पर संस्कृत में उत्कीर्ण शब्दावली अभी भी देखी जा सकती है। यद्यपि इसे काफी विद्रूप कर दिया गया है तथापि सूक्ष्मतापूर्वक देखने से भित्ति में अनेक देवमूर्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इतना ही नहीं कुतुबमीनार का अर्थ जानकर भी दंग रह जायेंगे कि इस अरबी शब्द का अर्थ नक्षत्रीय स्तम्भ ही है। हिन्दी में जिसे वेध स्तम्भ कहते हैं उसे ही अरबी में कुतुबमीनार कहा जाता है। इस नाम का कुतुबुद्दीन से कोई भी संबंध नहीं है। फिर भी यह कहा जाना कि कुतुबुद्दीन ने इसे बनाया इसलिए इसका नाम कुतुबमीनार पड़ा, कितना बड़ा धोखा है।



नोट : इस्लामिक मान्यता के अनुसार किसी भी स्थान अथवा महल में   मनुष्यों का फोटो बनाना हराम है और उसे बुतपूजा माना जाता है  जबकि, कुतुबमीनार के संलग्न चित्र में . कुछ अप्सराओं की मूर्ति स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है | 

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