इतिहास के जानकारों ने मूर्ति पूजा की बुनियाद का आरंभ किया है, वह है कि
संसार भर में पहले सात मंदिर बनाये गये थे। वह मंदिर सितारों(तारे) के थे,
उनकी पूजा नहीं की जाती थी। अपितु प्राकृतिक प्रभावों का उपयोग लिया जाता
था। इन सात मंदिरों में एक आदित्य का मंदिर भारत के मुल्तान के अंदर था।
दूसरा मंदिर मक्का में था।, जो शनि का था। अल्साना मसऊदी बड़ा लेखक और
यात्री था, उसने लिखा है कि-
इन्नवैतुल्हरामा वैते जुहेलुन (यरुजुज्जहव वा मुआदीन उलजौहर)
कि मक्का का मंदिर शनि का मंदिर है,
तीसरा मंदिर इस्फान पहाड़ पर है, चौथा मंदिर नौ बिहार में था, जिसे मनु चहरे ने बलख में बनवाया था, जो बहुत दूर जाता था। पाँचमा मंदिर गमदान यमन देश में था और जुहाक ने उसको शुक्र के नाम से बनवाया था। छठा मंदिर भी सूर्य का था जो खुरासान फरगाना में था। सातवाँ मंदिर चीन में था, यह बड़ा ही विचित्र मंदिर था, इसमें अपने आप कपड़ा बुना जाता था और लकड़ी की खड्डियाँ बनी होती थीं। जो वायु के प्रभाव से चलती थीं।
इन सब मंदिरों के सामने एक बड़ा हवन कुण्ड था। ये सभी मंदिर गृहों तारों के थे। इनकी पूजा नहीं होती थी। इनके प्रकृतिक उपयोग लिये जाते थे। जैसा चीन के मंदिर के विषय में लिखा गया दुनियाँ के इन सात मंदिरों के सामने हवन कुण्ड का होना इस बात का प्रभाण है कि इऩ मंदिरों को मानने वाले लोग वेद को मानते थे। इन मंदिरों का ईश्वर और ईश्वर की पूजा से कोई संबंध नहीं था। इनका भौतिक कार्यों में उपयोग होता था। फिर मंदिर तो गिरा दिये गये। एक मुल्तान और दूसरा मक्का का शेष रह गया। समय बदला और लोग प्राकृतिक उपयोग लेना भूल गये तथा पूजा आरंभ कर दी। साथ में बलिदान भी आरंभ कर दिया।………(मुरु जुज्जहब वा मुआदिनिल जौहर….भाग ४ पृष्ठ ४२ से ५४ तक)
मूर्ति पूजा का दूसरा और अल्लामामसऊदी ने इस प्रकार लिखा है-
जो लोग परमात्मा को नहीं मानते थे, जब उनके पूर्वज मर गये तो उन्होंने उनकी मूर्तियाँ बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया।
इसके पश्चात मूर्ति पूजा का तीसरा दौर हजरत नूर के समय का मालुम होता है। उस समय के लोग विभिन्न पशु पक्षियों की मूर्तियाँ पूजने लगे। वह लोग जिन्होंने अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ बनाई, जैन और बौद्ध लोग ही थे, क्योंकि वही भगवान को नहीं मानते थे। तब हिन्दु भी उनके मंदिरों में पूजा के लिये जाने लगे। इस बात को देखकर हिन्दुओं ने भी अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ बनाई और उन्हें मंदिरों में रख दिया और कहा कि न गच्छेत जैन मंदिरम् हस्तिना नाडयमानोपिन न गच्छे जैन मंदिरम्।। अर्थात् हाथी से कुचले जाने पर भी कोई भी जैन मंदिर में न जाय। उन लोगों ने अपने तीर्थकरों ही मूर्तियाँ बनाई, मगर हिन्दुओं ने अपने तारों, देवताओं, देवियों, नदियों तथा पूर्वजों आदि की मूर्तियाँ बनाकर लोगों को मूर्ति पूजा में फंसा दिया और जैन बौद्ध मूर्तियों की तरफ उन्हें हटा दिया। इन सबमें शिवलिंग की पूजा लज्जाजनक होने पर भी शीघ्र फैल गई। इस अनात्य पूजा के कारण ही अधर्म ने अपना अड्डा जमा लिया और इसी ने भारत का विनाश कर दिया, और लाखों लोग विधर्मी होकर दूसरे धर्म में पलायन कर गये। और भारत की बहुमूल्य सम्पत्ति विदेशियों ने लूट ली।
उपरोक्त प्रसंग आचार्य देव प्रकाश / मौलवी अरबी फाजिल द्वारा लिखि पुस्तक मंदिरों की लूट / हिन्दुओं की बरबादी से पेज नंबर १० से १३ तक से लिया गया हैं।
इन्नवैतुल्हरामा वैते जुहेलुन (यरुजुज्जहव वा मुआदीन उलजौहर)
कि मक्का का मंदिर शनि का मंदिर है,
तीसरा मंदिर इस्फान पहाड़ पर है, चौथा मंदिर नौ बिहार में था, जिसे मनु चहरे ने बलख में बनवाया था, जो बहुत दूर जाता था। पाँचमा मंदिर गमदान यमन देश में था और जुहाक ने उसको शुक्र के नाम से बनवाया था। छठा मंदिर भी सूर्य का था जो खुरासान फरगाना में था। सातवाँ मंदिर चीन में था, यह बड़ा ही विचित्र मंदिर था, इसमें अपने आप कपड़ा बुना जाता था और लकड़ी की खड्डियाँ बनी होती थीं। जो वायु के प्रभाव से चलती थीं।
इन सब मंदिरों के सामने एक बड़ा हवन कुण्ड था। ये सभी मंदिर गृहों तारों के थे। इनकी पूजा नहीं होती थी। इनके प्रकृतिक उपयोग लिये जाते थे। जैसा चीन के मंदिर के विषय में लिखा गया दुनियाँ के इन सात मंदिरों के सामने हवन कुण्ड का होना इस बात का प्रभाण है कि इऩ मंदिरों को मानने वाले लोग वेद को मानते थे। इन मंदिरों का ईश्वर और ईश्वर की पूजा से कोई संबंध नहीं था। इनका भौतिक कार्यों में उपयोग होता था। फिर मंदिर तो गिरा दिये गये। एक मुल्तान और दूसरा मक्का का शेष रह गया। समय बदला और लोग प्राकृतिक उपयोग लेना भूल गये तथा पूजा आरंभ कर दी। साथ में बलिदान भी आरंभ कर दिया।………(मुरु जुज्जहब वा मुआदिनिल जौहर….भाग ४ पृष्ठ ४२ से ५४ तक)
मूर्ति पूजा का दूसरा और अल्लामामसऊदी ने इस प्रकार लिखा है-
जो लोग परमात्मा को नहीं मानते थे, जब उनके पूर्वज मर गये तो उन्होंने उनकी मूर्तियाँ बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया।
इसके पश्चात मूर्ति पूजा का तीसरा दौर हजरत नूर के समय का मालुम होता है। उस समय के लोग विभिन्न पशु पक्षियों की मूर्तियाँ पूजने लगे। वह लोग जिन्होंने अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ बनाई, जैन और बौद्ध लोग ही थे, क्योंकि वही भगवान को नहीं मानते थे। तब हिन्दु भी उनके मंदिरों में पूजा के लिये जाने लगे। इस बात को देखकर हिन्दुओं ने भी अपने पूर्वजों की मूर्तियाँ बनाई और उन्हें मंदिरों में रख दिया और कहा कि न गच्छेत जैन मंदिरम् हस्तिना नाडयमानोपिन न गच्छे जैन मंदिरम्।। अर्थात् हाथी से कुचले जाने पर भी कोई भी जैन मंदिर में न जाय। उन लोगों ने अपने तीर्थकरों ही मूर्तियाँ बनाई, मगर हिन्दुओं ने अपने तारों, देवताओं, देवियों, नदियों तथा पूर्वजों आदि की मूर्तियाँ बनाकर लोगों को मूर्ति पूजा में फंसा दिया और जैन बौद्ध मूर्तियों की तरफ उन्हें हटा दिया। इन सबमें शिवलिंग की पूजा लज्जाजनक होने पर भी शीघ्र फैल गई। इस अनात्य पूजा के कारण ही अधर्म ने अपना अड्डा जमा लिया और इसी ने भारत का विनाश कर दिया, और लाखों लोग विधर्मी होकर दूसरे धर्म में पलायन कर गये। और भारत की बहुमूल्य सम्पत्ति विदेशियों ने लूट ली।
उपरोक्त प्रसंग आचार्य देव प्रकाश / मौलवी अरबी फाजिल द्वारा लिखि पुस्तक मंदिरों की लूट / हिन्दुओं की बरबादी से पेज नंबर १० से १३ तक से लिया गया हैं।
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