उत्तरप्रदेश चुनाव में जातियों को लेकर सबसे पहले खुलकर सामने आईं मायावती। मंच से ही बताया कि किस जाति को कितने टिकट दिए। क्योंकि देश के इस सबसे बड़े प्रदेश की 90 फीसदी सीटों पर कुछ जातियां ही तय करती हैं जीत-हार।
प्रदेश में मुस्लिम वोटों की बहुलता को देखते हुए पीस पार्टी जैसे कई मुस्लिम दल मैदान में हैं। जिन जातियों का कुल आबादी में एक प्रतिशत हिस्सा भी नहीं है, उनकी भी अपनी पार्टियां उम्मीदवार लेकर उतर आई हैं। 1989 में मुस्लिम-यादव (माय) गठजोड़ से पहली बार सत्ता तक पहुंचे मुलायम सिंह। क्या है यहां का पूरा समीकरण, बता रहे हैं:
बेनीप्रसाद वर्मा (कांग्रेस), जाति: कुर्मी (पिछड़ा)
सपा से कांग्रेस में आए। केंद्र में मंत्री पद दिया गया ताकि वे यूपी में कुर्मी और मुस्लिम वोट खींचेंगे। उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो कुर्मी हैं, की तरह प्रोजेक्ट किया जा रहा है।
चुनौती: वर्मा के कई समर्थकों को टिकट मिले, जो पुराने सपा नेता थे। अब कांग्रेस के पुराने नेता बागी तेवर अपनाए हैं।
मुलायम सिंह (सपा), जाति: यादव (पिछड़ा)
यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और फिलहाल सांसद। चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन यादवों और मुस्लिमों के वोट आकर्षित करने का हर जतन कर रहे हैं। दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम से उनकी मुलाकात इसी कड़ी में एक प्रयास था।
चुनौती: पिछला कार्यकाल अपराध को रोकने में असफल रहा।
उमा भारती (भाजपा), जाति: लोधी (पिछड़ा)
यूपी में पहले प्रचार सौंपा। बुंदेलखंड में लोधी वोटों की बहुतायत और भाजपा की कमजोर स्थिति के चलते उन्हें चरखारी से टिकट दिया गया। पार्टी को उम्मीद, वे पिछड़े और सवर्ण वोट फिर भाजपा में ले आएंगी।
चुनौती: पार्टी के भीतर कलह से पार पाना मुश्किल।
मायावती (बसपा), जाति: जाटव (दलित)
राजनीति के शुरुआत में दलित वोटरों को एकजुट किया। पिछला चुनाव दलितों के साथ सवर्णों और मुस्लिमों के वोट साधकर जीता। वे खुद तो चुनाव नहीं लड़ रही हैं, लेकिन हर सीट पर जातियों के समीकरण पर उनकी पैनी नजर है।
चुनौती: सब को साधने में दलित आधार खिसक रहा है।
बसपा ने दलितों के अलावा सवर्णों और अन्य जातियों के लोगों को टिकट दिए। इस रणनीति ने भाजपा के ब्राह्मण और सपा के यादव-मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाई।
सोशल इंजीनियरिंग: 2007 विधानसभा चुनाव में मायावती को मिला हर जाति का साथ
राज्य में कई सीटों पर मुस्लिम वोट ही निर्णायक थे, जिन्होंने कांग्रेस का साथ दिया। ये बाबरी मस्जिद विध्वंस को आरोपी कल्याणसिंह को सपा में लिए जाने से नाराज थे। उत्तरप्रदेश में जातियों के संख्या बल के हिसाब से सभी पार्टियों ने टिकट बांटे।
यहां वोटर किसी नेता को नहीं, अपनी जाति को वोट देता है
अंबेडकरनगर, बहुजन समाज पार्टी का गढ़ है। पिछले पंद्रह सालों से इस जिले की पांचों विधानसभा सीटों पर बसपा के उम्मीदवार ही जीतते रहे हैं। तीन मंत्री बने। वजह साफ है। जिले में एक चौथाई आबादी दलितों की है। उत्तर प्रदेश की राजनीति की यही हकीकत है। राजनीति पर जाति हावी है। यहां दलित अपनी जाति को वोट देता है तो यादव अपनी ही जाति के उम्मीदवार को।
1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर मायावती ने सबसे पहला काम फैजाबाद के इस दलित बहुतायत वाले इलाके को अलग जिला बना कर उसे अपने वैचारिक गुरु का नाम देने का किया। अंबेडकरनगर वह कसौटी है जिसके आधार पर पूरे प्रदेश के चुनावों की हवा का रुख समझा जा सकता है।
इस बार मायावती के इस किले में सेंध लगती नजर आ रही है। पार्टी अगर तीन सीटें भी बचा ले तो बहुत। तीन मंत्रियों में से केवल एक ही यहां से लड़ रहा है। एक दूसरे जिले से और तीसरा बसपा ही छोड़ गया। ऐसा नहीं कि दलित यकायक मायावती से नाराज हो गए हैं। बल्कि इस जिले में अन्य जातियां बसपा के खिलाफ लामबंद हो गई हैं।
बीस साल पहले राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के चलते लोगों ने जाति की पहचान भुला दी थी। तब भी 1991 में भारतीय जनता पार्टी को केवल साधारण बहुमत मिला था। हिंदुओं की आबादी तो 80 फीसदी से भी ज्यादा है। बाबरी मस्जिद गिरने के बाद एक बार फिर जातियां राजनीति पर हावी हो गईं। 1993 में बहुमत पिछड़ों और मुसलमानों की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी और दलितों की बसपा के गठबंधन को मिला।
राजनीति अंकगणित नहीं है। न ही इसकी गुत्थियां सुलझाने के फार्मूले सरल हैं। एक बानगी देखिए। जून 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की 85 सीटों में से केवल छह (यानी 30 विधानसभा क्षेत्र) जीती। उसे 20.6 फीसदी वोट मिले। तीन महीने वाद हुए विधानसभा चुनाव में उसे 19.6 फीसदी वोट मिले। लेकिन वह 67 सीटें (यानी 13 लोकसभा क्षेत्र) पर विजयी हुई।
पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार फर्क इतना आया है कि प्रदेश की आबादी का एक फीसदी या उससे भी कम संख्या वाली जातियों ने अपनी खुद की पार्टी बना ली हैं। अपना दल कुर्मियों की पार्टी है। तो भारतीय समाज पार्टी पिछड़े राजभरों की।
मायावती दलितों की नेता हैं। लेकिन सभी दलितों की नहीं। दलितों में सबसे ज्यादा आबादी चर्मकारों की है। लगभग 60 फीसदी। बाकी में पासी और दूसरी 65 अनुसूचित जातियां हैं। मायावती खुद जाटव जाति की हैं।
इसीलिए उनका जाटव वोट तो पक्का है लेकिन दलितों में 15 फीसदी की आबादी वाले पासी (पासवान) अधिकतर उनके साथ नहीं होते। कभी मायावती का दाहिना हाथ रहे पासी नेता आरके चौधरी कहते हैं, अधिकतर जातियां उनके साथ नहीं हैं क्योंकि सोने के गहनों से लदी मायावती भले ही रंक से राजा बन गई हों, दलितों की हालत आज भी कोई सुधार नहीं हुआ है।
बसपा को चर्मकार वोटों का सहारा है। यानी प्रदेश में बारह फीसदी वोट। दूसरी जातियों के वो जोड़कर भी उन्हें कभी भी 20 फीसदी वोट से ज्यादा नहीं मिला। 2007 में उन्होंने बहुजन की जगह सर्वजन का नारा दिया। ब्राह्मण, मुसलमान साथ आए। वोट प्रतिशत बढ़कर 30.5 हो गया। चूंकि, प्रदेश में सवर्णों की तादाद 21 फीसदी है। नौ प्रतिशत ब्राह्मण, छह राजपूत और तीन-तीन फीसदी वैश्य और कायस्थ हैं। 206 सीटें जीत कर मायावती को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिला।
अब पिछड़ों की बात करें। पिछड़ों में सबसे ज्यादा तादाद यादवों की है। राज्य के 4३ फीसदी पिछड़ों में 20 फीसदी यादव हैं। उनके बाद ८ फीसद कुर्मी, 5 लोध, 4.5 गड़रिया और मल्लाह लगभग 4 फीसदी तेली, जाट, कोरी, कुहार, तीन फीसदी काछी, लगभग 2-2 फीसदी नाई, धोबी, मुराव बढ़ई, लोहार, कोइरी, लोनिया हैं। बाकी अन्य 46 पिछड़ी जातियां हैं।
मुलायम सिंह की सपा का मुख्य आधार यादव हैं। साथ में मुसलमान मिलाकर उन्होंने लालू यादव की तर्ज पर माई (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक पर कब्जा जमाया है। यानी राज्य की आबादी के 10 फीसदी और 17 फीसदी मुसलमान मिलाकर उनके पास एक बड़ा वोट बैंक हो जाता है। 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्हें 25.37 फीसदी वोट और 143 सीटें मिलीं। लेकिन सरकार बसपा-भाजपा ने मिलकर बनाई।
मायावती के इस्तीफे के बाद मुलायम ने कांग्रेस के साथ मिल जोड़तोड़ की सरकार बनाई। 2007 के चुनाव में उन्हें फिर 25.43 प्रतिशत वोट मिला। लेकिन इस बाद सीटें घटकर 97 रह गईं। यानी अंकगणित यहां काम नहीं करता।
सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं - लोग भले ही कहें कि हमें पिछलेचुनाव में लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ा। हकीकत यही है कि हमारा वोट बैंक कतई कम नहीं हुआ। हम इसलिए हारे क्योंकि भाजपा ने अपना वोट बसपा को दिलवा दिया।
लखनऊ स्थित गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के डायरेक्टर डा. एकेसिंह कहते हैं- यादव बाहुल्य इलाके में अगर तीन दलों ने यादव उम्मीदवार उतारे हैं तो चौथा दल ऐसी जाति का उमीदवार उतारता है जिसका वहां यादवों के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव हो।
हालांकि दलित और मुसलमान राज्य के हर हिस्से में फैले हैं लेकिन कई जातियों के अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट। इटावा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, बदायूं जैसे जिलों में यादवों का बर्चस्व है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रामपुर आर मुरादाबाद जिलों में मुसलमानों की आबादी लगभग आधी है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, गोंडा, बस्ती, बलरामपुर, गोंडा और श्रावस्ती जिलों में उनकी आबादी एक तिहाई है।
बुंदेलखंड में सबसे ज्यादा आबादी दलितों की है। लगभग एक चौथाई। वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, अंबेडकरनगर, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, इलाहाबाद, कौशांबी जैसे जिलों में भी वे कुल आबादी का एक चौथाई हैं। यही वजह है वे जिले बसपा का गढ़ हैं।
अंबेडकरनगर, बहुजन समाज पार्टी का गढ़ है। पिछले पंद्रह सालों से इस जिले की पांचों विधानसभा सीटों पर बसपा के उम्मीदवार ही जीतते रहे हैं। तीन मंत्री बने। वजह साफ है। जिले में एक चौथाई आबादी दलितों की है। उत्तर प्रदेश की राजनीति की यही हकीकत है। राजनीति पर जाति हावी है। यहां दलित अपनी जाति को वोट देता है तो यादव अपनी ही जाति के उम्मीदवार को।
1995 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने पर मायावती ने सबसे पहला काम फैजाबाद के इस दलित बहुतायत वाले इलाके को अलग जिला बना कर उसे अपने वैचारिक गुरु का नाम देने का किया। अंबेडकरनगर वह कसौटी है जिसके आधार पर पूरे प्रदेश के चुनावों की हवा का रुख समझा जा सकता है।
इस बार मायावती के इस किले में सेंध लगती नजर आ रही है। पार्टी अगर तीन सीटें भी बचा ले तो बहुत। तीन मंत्रियों में से केवल एक ही यहां से लड़ रहा है। एक दूसरे जिले से और तीसरा बसपा ही छोड़ गया। ऐसा नहीं कि दलित यकायक मायावती से नाराज हो गए हैं। बल्कि इस जिले में अन्य जातियां बसपा के खिलाफ लामबंद हो गई हैं।
बीस साल पहले राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के चलते लोगों ने जाति की पहचान भुला दी थी। तब भी 1991 में भारतीय जनता पार्टी को केवल साधारण बहुमत मिला था। हिंदुओं की आबादी तो 80 फीसदी से भी ज्यादा है।
बाबरी मस्जिद गिरने के बाद एक बार फिर जातियां राजनीति पर हावी हो गईं। 1993 में बहुमत पिछड़ों और मुसलमानों की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी और दलितों की बसपा के गठबंधन को मिला।
राजनीति अंकगणित नहीं है। न ही इसकी गुत्थियां सुलझाने के फार्मूले सरल हैं। एक बानगी देखिए। जून 1996 के लोकसभा चुनाव में बसपा प्रदेश की 85 सीटों में से केवल छह (यानी 30 विधानसभा क्षेत्र) जीती। उसे 20.6 फीसदी वोट मिले। तीन महीने वाद हुए विधानसभा चुनाव में उसे 19.6 फीसदी वोट मिले। लेकिन वह 67 सीटें (यानी 13 लोकसभा क्षेत्र) पर विजयी हुई।
पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार फर्क इतना आया है कि प्रदेश की आबादी का एक फीसदी या उससे भी कम संख्या वाली जातियों ने अपनी खुद की पार्टी बना ली हैं। अपना दल कुर्मियों की पार्टी है। तो भारतीय समाज पार्टी पिछड़े राजभरों की।
मायावती दलितों की नेता हैं। लेकिन सभी दलितों की नहीं। दलितों में सबसे ज्यादा आबादी चर्मकारों की है। लगभग 60 फीसदी। बाकी में पासी और दूसरी 65 अनुसूचित जातियां हैं। मायावती खुद जाटव जाति की हैं। इसीलिए उनका जाटव वोट तो पक्का है लेकिन दलितों में 15 फीसदी की आबादी वाले पासी (पासवान) अधिकतर उनके साथ नहीं होते।
कभी मायावती का दाहिना हाथ रहे पासी नेता आरके चौधरी कहते हैं, अधिकतर जातियां उनके साथ नहीं हैं क्योंकि सोने के गहनों से लदी मायावती भले ही रंक से राजा बन गई हों, दलितों की हालत आज भी कोई सुधार नहीं हुआ है। बसपा को चर्मकार वोटों का सहारा है। यानी प्रदेश में बारह फीसदी वोट।
दूसरी जातियों के वो जोड़कर भी उन्हें कभी भी 20 फीसदी वोट से ज्यादा नहीं मिला। 2007 में उन्होंने बहुजन की जगह सर्वजन का नारा दिया। ब्राह्मण, मुसलमान साथ आए। वोट प्रतिशत बढ़कर 30.5 हो गया। चूंकि, प्रदेश में सवर्णों की तादाद 21 फीसदी है। नौ प्रतिशत ब्राह्मण, छह राजपूत और तीन-तीन फीसदी वैश्य और कायस्थ हैं। 206 सीटें जीत कर मायावती को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिला।
अब पिछड़ों की बात करें। पिछड़ों में सबसे ज्यादा तादाद यादवों की है। राज्य के 4३ फीसदी पिछड़ों में 20 फीसदी यादव हैं। उनके बाद ८ फीसद कुर्मी, 5 लोध, 4.5 गड़रिया और मल्लाह लगभग 4 फीसदी तेली, जाट, कोरी, कुहार, तीन फीसदी काछी, लगभग 2-2 फीसदी नाई, धोबी, मुराव बढ़ई, लोहार, कोइरी, लोनिया हैं। बाकी अन्य 46 पिछड़ी जातियां हैं।
मुलायम सिंह की सपा का मुख्य आधार यादव हैं। साथ में मुसलमान मिलाकर उन्होंने लालू यादव की तर्ज पर माई (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक पर कब्जा जमाया है। यानी राज्य की आबादी के 10 फीसदी और 17 फीसदी मुसलमान मिलाकर उनके पास एक बड़ा वोट बैंक हो जाता है। 2002 के विधानसभा चुनाव में उन्हें 25.37 फीसदी वोट और 143 सीटें मिलीं।
लेकिन सरकार बसपा-भाजपा ने मिलकर बनाई। मायावती के इस्तीफे के बाद मुलायम ने कांग्रेस के साथ मिल जोड़तोड़ की सरकार बनाई। 2007 के चुनाव में उन्हें फिर 25.43 प्रतिशत वोट मिला। लेकिन इस बाद सीटें घटकर 97 रह गईं। यानी अंकगणित यहां काम नहीं करता।
सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव कहते हैं - लोग भले ही कहें कि हमें पिछले चुनाव में लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ा। हकीकत यही है कि हमारा वोट बैंक कतई कम नहीं हुआ। हम इसलिए हो क्योंकि भाजपा ने अपना वोट बसपा को दिलवा दिया।
लखनऊ स्थित गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के डायरेक्टर डा. एकेसिंह कहते हैं- यादव बाहुल्य इलाके में अगर तीन दलों ने यादव उम्मीदवार उतारे हैं तो चौथा दल ऐसी जाति का उमीदवार उतारता है जिसका वहां यादवों के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव हो।
हालांकि दलित और मुसलमान राज्य के हर हिस्से में फैले हैं लेकिन कई जातियों के अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट। इटावा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, बदायूं जैसे जिलों में यादवों का बर्चस्व है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रामपुर आर मुरादाबाद जिलों में मुसलमानों की आबादी लगभग आधी है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, गोंडा, बस्ती, बलरामपुर, गोंडा और श्रावस्ती जिलों में उनकी आबादी एक तिहाई है।
बुंदेलखंड में सबसे ज्यादा आबादी दलितों की है। लगभग एक चौथाई। वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, अंबेडकरनगर, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, इलाहाबाद, कौशांबी जैसे जिलों में भी वे कुल आबादी का एक चौथाई हैं। यही वजह है वे जिले बसपा का गढ़ हैं।
नोट---पूरा ब्लॉग कोपी पेस्ट है भास्कर .कॉम से ....
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