धर्म के मुख्यतः दो आयाम हैं। एक है संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है। दूसरा है अध्यात्म, जिसका संबंध भीतर से है। धर्म का तत्व भीतर है, मत बाहर है। तत्व और मत दोनों का जोड़ धर्म है। तत्व के आधार पर मत का निर्धारण हो, तो धर्म की सही दिशा होती है। मत के आधार पर तत्व का निर्धारण हो, तो बात कुरूप हो जाती है। एक संत आता है। भीतर की गुफा में जाकर धर्म के तत्व अध्यात्म को जानता है। फिर वह चला जाता है। फिर मत बचा रहता है। उसके आधार पर एक संस्कृति विकसित होती है। संस्कृति के फूल खिलते हैं। काल क्रम में संस्कृति मुख्य हो जाती है। अध्यात्म गौण हो जाता है। और फिर एक संत को, एक जीवित संत को इस धरती पर आना पड़ता है। फिर से अंगारे जलाने होते हैं। फिर से दीप जलाना होता है। धर्म वास्तव में कुछ लोगों के विश्वासों और ईश्वर की ओर से मानव समाज के लिए संकलित शिक्षाओं को कहा जाता है और इसे एक दृष्टि से कई प्रकारों में बांटा जा सकता है। उदाहरण स्वरूप प्राचीन व विकसित धर्म। यदि इतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो धर्म व मत लाखों करोड़ों प्रकार के हैं किंतु हम धर्म के प्रकारों पर चर्चा नहीं करना चाहते बल्कि हम स्वयं धर्म पर संक्षिप्त सी चर्चा करेंगे।
धर्म या दीन का अर्थ आज्ञापालन, पारितोषिक आदि बताया गया है किंतु दीन अथवा धर्म की परिभाषा हैः संसार के रचयिता और उसके आदेशों पर विश्वास व आस्था रखना। अर्थात धर्म एक प्रक्रिया का नाम है जिसके अंतर्गत धर्म का मानने वाला इस सृष्टि के रचयिता के अस्तित्व को मानते हुए उसके आदेशों का पालन करता है। इस आधार पर जो लोग किसी रचयिता के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते और इस सृष्टि के अस्तित्व को संयोगवश घटने वाली किसी घटना का परिणाम मानते हैं। उनके विचार में कोई प्रलय और परलोक नहीं है बल्कि संसार एक दिन समाप्त हो जाएगा और उसी के साथ सारा अस्तित्व विलुप्त हो जाएगा। इस प्रकार के लोगों को नास्तिक कहा जाता है। जो लोग इस सृष्टि के रचयिता को मानते हैं उन्हें धर्मिक और आस्तिक कहा जाता है अब चाहे उनकी अन्य आस्थाओं में कुछ अनुचित बातें भी क्यों न शामिल हों। इस प्रकार संसार में पाए जाने वाले धर्मों को दो क़िस्मों में बांटा जा सकता है। सत्य व असत्य धर्म। सच्चा धर्म वह है जिसके सिद्धांत तार्किक और वास्तविकताओं से मेल खाते हों और जिन कार्यों का आदेश दिया गया है उसके लिए उचित व तार्किक प्रमाण मौजूद हों। अर्थात धर्म की जो परिभाषा यहां बताई गई उसके आधर पर हर वो प्रक्रिया जिसमें मनुष्य ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कुछ संस्कार करता है उसे धर्म कहा जाता है किंतु यह निश्चित नहीं है कि वो संस्कार सही हो क्योंकि धर्म के पालन का उद्देश्य इस सृष्टि के रचयिता को प्रसन्न करना होता है और यह नहीं हो सकता कि वो ईश्वर परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न हो। उदाहरणस्वरूप यह संभव नहीं है कि ईश्वर दूसरों को लूटने वाले से भी प्रसन्न हो और दूसरों की सहायता करने वाले से भी। झूठ से भी प्रसन्न हो और सत्य से भी। वो यह तो झूठ से प्रसन्न होगा या फिर सत्य से। इस लिए हम यह नहीं कह सकते कि इस संसार में जितने भी धर्म हैं सब ईश्वर तक पहुंचाते हैं और मनुष्य चाहे जिस धर्म का माने अंततः ईश्वर तक पहुंच ही जाएगा क्योंकि किसी भी गंतव्य तक पहुंचने के लिए कुछ निर्धारित मार्ग होते हैं इस लिए यदि कोई मनुष्य ईश्वर तक पहुंचना चाहता है तो उसके लिए आवश्यक है कि वो सही मार्ग की खोज करे। इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि कौन से संस्कार और कौन से कर्म ईश्वर को प्रसन्न करते हैं और कौन से कामों से वो अप्रसन्न होता है।
अब प्रश्न यह है कि हमें इस बात का पता कैसे चले कि ईश्वर कौन से कामों से प्रसन्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न होता है? धर्म हमें यही बताता है।
मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं पायी जाती हैं किंतु भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है। अर्थात कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें इस भौतिक संसार से परे भी किसी लोक व संसार के अस्तित्व को माना गया है जबकि कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें केवल इसी संसार को सब कुछ समझा गया है। इस प्रकार से विश्व की समस्त विचारधाराएं दो प्रकार की होती हैं। ईश्वरीय विचारधारा और सांसारिक या भौतिक विचारधारा। भौतिक विचारधारा रखने वालों को भौतिकतावादी, नास्तिक आदि जैसे नामों से याद किया जाता है जबकि आधुनिक युग में उन्हें मैटीरियालिस्ट भी कहा जाने लगा है।
भौतिकवाद में भी विभिन्न प्रकार के मत पाए जाते हैं किंतु हमारे युग में सबसे अधिक प्रसिद्ध मत है डायलेक्टिक मटीरियलिज़्म जो मार्क्सिस्ट विचारधारा का आधार है।
विभिन्न धर्मों के अस्तित्व में आने के बारे में बुद्धिजीवियों और धर्मों के इतिहास के जानकारों तथा समाज शास्त्रियों के मध्य मतभेद पाए जाते हैं किंतु इस्लामी दृष्टिकोण से जो बातें समझ में आती हैं वह यह हैं कि धर्म के अस्तित्व में आने का इतिहास, मनुष्य के अस्तित्व के साथ ही आरंभ हुआ है। पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मनुष्य हज़रत आदम ईश्वरीय दूत और एकेश्वरवाद के प्रचारक थे तथा अनेकेश्वरवाद सच्चे धर्म का बिगड़ा हुआ रूप है। अर्थात कुछ लोगों ने स्वार्थ और राजा-महाराजाओं को प्रसन्न करने के लिए ईश्वरीय धर्मों में कुछ बातें मिला दीं या कुछ बातों को कम कर दिया।
एकेश्वरवादी धर्म जो वास्तव में सच्चे धर्म हैं तीन आस्थाओं में समान दिखाई देते हैं।
१ एक ईश्वर में विश्वास
२ परलोक में मनुष्य के अनंत जीवन पर विश्वास
३ इस संसार में किए गए कर्मों के प्रतिफल तथा मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए ईश्वरीय दूतों के आगमन पर विश्वास
यह तीन सिद्धांत वास्तव में हर मनुष्य के इस प्रकार के प्रश्नों के आरंभिक उत्तर हैं, सृष्टि का आरंभ कब हुआ? जीवन का अंत क्या होगा? और किस मार्ग पर चलकर सही रूप से जीवन व्यतीत करना सीखा जा सकता है। इस प्रकार ईश्वरीय संदेश द्वारा मनुष्य को जीवनयापन का जो कार्यक्रम प्राप्त होता है। इसी को धर्म कहते हैं जिसका आधार ईश्वरीय विचारधारा होती है।
मुख्य सिद्धांत व आस्था के लिए बहुत सी चीज़ों की आवश्यकता होती है जो एक साथ मिलकर किसी मत अथवा विचारधारा को अस्तित्व प्रदान करती हैं और इन्हीं बातों में मतभेद के कारण ही विभिन्न प्रकार के धर्मों और मतों का जन्म होता है। उदाहरणस्वरूप कुछ ईश्वरीय दूतों के बारे में मतभेद और ईश्वरीय किताब के निर्धारण में अलग-अलग मत ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के मध्य मतभेद का मूल कारण है जिसके आधार पर शिक्षाओं की दृष्टि से इन तीनों धर्मों में बहुत अंतर हो गया है। उदाहरण स्वरूप ईसाई त्रीश्वर को मानते हैं जो उनकी एकेश्वरवादी विचारधारा से मेल नहीं खाता। यद्यपि ईसाई धर्म में विभिन्न प्रकार से इस विश्वास का औचित्य दर्शाने का प्रयास किया गया है। इसी प्रकार इस्लाम में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी के निर्धारण की शैली के बारे में मतभेद। अर्थात यह कि पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी का निर्धारण ईश्वर करता है या जनता। शीया व सुन्नी मुसलमानों के मध्य मतभेद का मुख्य व मूल कारण है। तो फिर निष्कर्ष यह निकलता है कि समस्त ईश्वरीय धर्मों में एकेश्वरवाद, ईश्वरीय दूत और प्रलय मूल सिद्धांत व मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है किंतु इन सिद्धांतों की व्याख्या के परिणाम में जो अन्य विश्वास व आस्थाएं सामने आई हैं उन्हें मुख्य शिक्षा व सिद्धांत का भाग मात्र कहा जा सकता है। ईश्वर को मानने वाले विभिन्न धर्मों में विविधता और मतभेद का कारण यही है।
इस चर्चा के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं,
ईश्वर तक पहुंचने के लिए सही मार्ग का चयन आवश्यक है क्योंकि ईश्वर दो परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न नहीं हो सकता। इस लिए इस बात का पता लगाना आवश्यक है कि ईश्वर कौन से कामों से प्रश्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न और यह बात हमें वही बता सकता है जो उसकी ओर से आया हो। ईश्वर तक पहुंचने का सही मार्ग वही होता है जो तर्क और बुद्धि पर खरा उतरे।
ईश्वर तक ले जाने वाले धर्मों में प्रायः मूल सिद्धांत एक समान होते हैं किंतु कुछ नियमों की व्याख्या के बारे में विभिन्न मत ईश्वरीय धर्मों की विभिन्नता कारण हैं। यह और बात है कि उसे पता है, या नहीं पता है। लेकिन धर्म का तत्व क्या है? धर्म का उद्गम क्या है? कहाँ पहुँचना है हमें? गंतव्य कहाँ है ? उस बात को बताने के लिए ही संत इस धरती पर आता है। स्वामी विवेकानंद जी भी आए। और ये याद दिलाने के लिए आता है संत कि तुम कौन हो? 'अमृतस्य पुत्राः।' तुम राम-कृष्ण की संतान हो। तुम कबीर और गुरुनानक की संतान हो। तुम बुद्ध और महावीर की संतान हो। तुम क्यों दीन-हीन और दरिद्र जैसा जीवन जी रहे हो? क्यों अशांत हो, क्यों दुःखी हो? अपना स्वरूप हम भूल गए हैं। करीब-करीब ऐसे ही हम जीवन जीते हैं अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर।
इस जीवन की कितनी गरिमा है। इस जीवन की कितनी क्षमता है। अनंत आनन्द का खजाना, जो हमारे भीतर है, उसकी ओर हम पीठ करके जीते हैं।
धर्म या दीन का अर्थ आज्ञापालन, पारितोषिक आदि बताया गया है किंतु दीन अथवा धर्म की परिभाषा हैः संसार के रचयिता और उसके आदेशों पर विश्वास व आस्था रखना। अर्थात धर्म एक प्रक्रिया का नाम है जिसके अंतर्गत धर्म का मानने वाला इस सृष्टि के रचयिता के अस्तित्व को मानते हुए उसके आदेशों का पालन करता है। इस आधार पर जो लोग किसी रचयिता के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते और इस सृष्टि के अस्तित्व को संयोगवश घटने वाली किसी घटना का परिणाम मानते हैं। उनके विचार में कोई प्रलय और परलोक नहीं है बल्कि संसार एक दिन समाप्त हो जाएगा और उसी के साथ सारा अस्तित्व विलुप्त हो जाएगा। इस प्रकार के लोगों को नास्तिक कहा जाता है। जो लोग इस सृष्टि के रचयिता को मानते हैं उन्हें धर्मिक और आस्तिक कहा जाता है अब चाहे उनकी अन्य आस्थाओं में कुछ अनुचित बातें भी क्यों न शामिल हों। इस प्रकार संसार में पाए जाने वाले धर्मों को दो क़िस्मों में बांटा जा सकता है। सत्य व असत्य धर्म। सच्चा धर्म वह है जिसके सिद्धांत तार्किक और वास्तविकताओं से मेल खाते हों और जिन कार्यों का आदेश दिया गया है उसके लिए उचित व तार्किक प्रमाण मौजूद हों। अर्थात धर्म की जो परिभाषा यहां बताई गई उसके आधर पर हर वो प्रक्रिया जिसमें मनुष्य ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए कुछ संस्कार करता है उसे धर्म कहा जाता है किंतु यह निश्चित नहीं है कि वो संस्कार सही हो क्योंकि धर्म के पालन का उद्देश्य इस सृष्टि के रचयिता को प्रसन्न करना होता है और यह नहीं हो सकता कि वो ईश्वर परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न हो। उदाहरणस्वरूप यह संभव नहीं है कि ईश्वर दूसरों को लूटने वाले से भी प्रसन्न हो और दूसरों की सहायता करने वाले से भी। झूठ से भी प्रसन्न हो और सत्य से भी। वो यह तो झूठ से प्रसन्न होगा या फिर सत्य से। इस लिए हम यह नहीं कह सकते कि इस संसार में जितने भी धर्म हैं सब ईश्वर तक पहुंचाते हैं और मनुष्य चाहे जिस धर्म का माने अंततः ईश्वर तक पहुंच ही जाएगा क्योंकि किसी भी गंतव्य तक पहुंचने के लिए कुछ निर्धारित मार्ग होते हैं इस लिए यदि कोई मनुष्य ईश्वर तक पहुंचना चाहता है तो उसके लिए आवश्यक है कि वो सही मार्ग की खोज करे। इस बात का पता लगाने का प्रयास करे कि कौन से संस्कार और कौन से कर्म ईश्वर को प्रसन्न करते हैं और कौन से कामों से वो अप्रसन्न होता है।
अब प्रश्न यह है कि हमें इस बात का पता कैसे चले कि ईश्वर कौन से कामों से प्रसन्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न होता है? धर्म हमें यही बताता है।
मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं पायी जाती हैं किंतु भौतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है। अर्थात कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें इस भौतिक संसार से परे भी किसी लोक व संसार के अस्तित्व को माना गया है जबकि कुछ विचारधाराएं ऐसी होती हैं जिनमें केवल इसी संसार को सब कुछ समझा गया है। इस प्रकार से विश्व की समस्त विचारधाराएं दो प्रकार की होती हैं। ईश्वरीय विचारधारा और सांसारिक या भौतिक विचारधारा। भौतिक विचारधारा रखने वालों को भौतिकतावादी, नास्तिक आदि जैसे नामों से याद किया जाता है जबकि आधुनिक युग में उन्हें मैटीरियालिस्ट भी कहा जाने लगा है।
भौतिकवाद में भी विभिन्न प्रकार के मत पाए जाते हैं किंतु हमारे युग में सबसे अधिक प्रसिद्ध मत है डायलेक्टिक मटीरियलिज़्म जो मार्क्सिस्ट विचारधारा का आधार है।
विभिन्न धर्मों के अस्तित्व में आने के बारे में बुद्धिजीवियों और धर्मों के इतिहास के जानकारों तथा समाज शास्त्रियों के मध्य मतभेद पाए जाते हैं किंतु इस्लामी दृष्टिकोण से जो बातें समझ में आती हैं वह यह हैं कि धर्म के अस्तित्व में आने का इतिहास, मनुष्य के अस्तित्व के साथ ही आरंभ हुआ है। पृथ्वी पर आने वाले सर्वप्रथम मनुष्य हज़रत आदम ईश्वरीय दूत और एकेश्वरवाद के प्रचारक थे तथा अनेकेश्वरवाद सच्चे धर्म का बिगड़ा हुआ रूप है। अर्थात कुछ लोगों ने स्वार्थ और राजा-महाराजाओं को प्रसन्न करने के लिए ईश्वरीय धर्मों में कुछ बातें मिला दीं या कुछ बातों को कम कर दिया।
एकेश्वरवादी धर्म जो वास्तव में सच्चे धर्म हैं तीन आस्थाओं में समान दिखाई देते हैं।
१ एक ईश्वर में विश्वास
२ परलोक में मनुष्य के अनंत जीवन पर विश्वास
३ इस संसार में किए गए कर्मों के प्रतिफल तथा मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए ईश्वरीय दूतों के आगमन पर विश्वास
यह तीन सिद्धांत वास्तव में हर मनुष्य के इस प्रकार के प्रश्नों के आरंभिक उत्तर हैं, सृष्टि का आरंभ कब हुआ? जीवन का अंत क्या होगा? और किस मार्ग पर चलकर सही रूप से जीवन व्यतीत करना सीखा जा सकता है। इस प्रकार ईश्वरीय संदेश द्वारा मनुष्य को जीवनयापन का जो कार्यक्रम प्राप्त होता है। इसी को धर्म कहते हैं जिसका आधार ईश्वरीय विचारधारा होती है।
मुख्य सिद्धांत व आस्था के लिए बहुत सी चीज़ों की आवश्यकता होती है जो एक साथ मिलकर किसी मत अथवा विचारधारा को अस्तित्व प्रदान करती हैं और इन्हीं बातों में मतभेद के कारण ही विभिन्न प्रकार के धर्मों और मतों का जन्म होता है। उदाहरणस्वरूप कुछ ईश्वरीय दूतों के बारे में मतभेद और ईश्वरीय किताब के निर्धारण में अलग-अलग मत ही यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के मध्य मतभेद का मूल कारण है जिसके आधार पर शिक्षाओं की दृष्टि से इन तीनों धर्मों में बहुत अंतर हो गया है। उदाहरण स्वरूप ईसाई त्रीश्वर को मानते हैं जो उनकी एकेश्वरवादी विचारधारा से मेल नहीं खाता। यद्यपि ईसाई धर्म में विभिन्न प्रकार से इस विश्वास का औचित्य दर्शाने का प्रयास किया गया है। इसी प्रकार इस्लाम में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के उत्तराधिकारी के निर्धारण की शैली के बारे में मतभेद। अर्थात यह कि पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी का निर्धारण ईश्वर करता है या जनता। शीया व सुन्नी मुसलमानों के मध्य मतभेद का मुख्य व मूल कारण है। तो फिर निष्कर्ष यह निकलता है कि समस्त ईश्वरीय धर्मों में एकेश्वरवाद, ईश्वरीय दूत और प्रलय मूल सिद्धांत व मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है किंतु इन सिद्धांतों की व्याख्या के परिणाम में जो अन्य विश्वास व आस्थाएं सामने आई हैं उन्हें मुख्य शिक्षा व सिद्धांत का भाग मात्र कहा जा सकता है। ईश्वर को मानने वाले विभिन्न धर्मों में विविधता और मतभेद का कारण यही है।
इस चर्चा के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं,
ईश्वर तक पहुंचने के लिए सही मार्ग का चयन आवश्यक है क्योंकि ईश्वर दो परस्पर विरोधी कामों से प्रसन्न नहीं हो सकता। इस लिए इस बात का पता लगाना आवश्यक है कि ईश्वर कौन से कामों से प्रश्न होता है और कौन से कामों से अप्रसन्न और यह बात हमें वही बता सकता है जो उसकी ओर से आया हो। ईश्वर तक पहुंचने का सही मार्ग वही होता है जो तर्क और बुद्धि पर खरा उतरे।
ईश्वर तक ले जाने वाले धर्मों में प्रायः मूल सिद्धांत एक समान होते हैं किंतु कुछ नियमों की व्याख्या के बारे में विभिन्न मत ईश्वरीय धर्मों की विभिन्नता कारण हैं। यह और बात है कि उसे पता है, या नहीं पता है। लेकिन धर्म का तत्व क्या है? धर्म का उद्गम क्या है? कहाँ पहुँचना है हमें? गंतव्य कहाँ है ? उस बात को बताने के लिए ही संत इस धरती पर आता है। स्वामी विवेकानंद जी भी आए। और ये याद दिलाने के लिए आता है संत कि तुम कौन हो? 'अमृतस्य पुत्राः।' तुम राम-कृष्ण की संतान हो। तुम कबीर और गुरुनानक की संतान हो। तुम बुद्ध और महावीर की संतान हो। तुम क्यों दीन-हीन और दरिद्र जैसा जीवन जी रहे हो? क्यों अशांत हो, क्यों दुःखी हो? अपना स्वरूप हम भूल गए हैं। करीब-करीब ऐसे ही हम जीवन जीते हैं अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर।
इस जीवन की कितनी गरिमा है। इस जीवन की कितनी क्षमता है। अनंत आनन्द का खजाना, जो हमारे भीतर है, उसकी ओर हम पीठ करके जीते हैं।
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