गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

!! राजपूतो के पतन के कारण...!!

          
लगभग चार हजार वर्षों तक हिन्दू संस्कृति निरन्तर विकसित होती रही। देश-देशान्तरों में भी उसका प्रचार हुआ। उसका सम्पर्क दूसरी संस्कृतियों से हुआ, उनका प्रभाव भी उस पर पड़ा, परन्तु उसका अपना रूप बिल्कुल स्थिर ही रहा। विदेशी विजेताओं तक ने उस संस्कृति के आगे सिर झुकाया और उसमें अपने को लीन कर लिया। यद्यपि ये विदेशी-शक, ग्रीक, हूण, सीथियन, सूची, कुशान आदि-हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था एवं विभिन्न जातीय समुदायों के कारण उनमें पूर्णतया नहीं मिल पाए, परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू भाषा, साहित्य, रीति-रिवाज, कला और विज्ञान को पूर्णतया अपनाकर हिन्दुओं की अनेक जातियों की भाँति अपनी एक जाति बना ली, और ये हिन्दू जाति का अविच्छिन्न अंग बन गए-  ---(यहाँ से विवादित अंश को हटा दिया गया है)-----
परन्तु मुसलमानों में एक ऐसा जुनून था कि वे ईरान, ग्रीस, स्पेन, चीन और भारत कहीं की भी संस्कृति से प्रभावित नहीं हुए। किसी भी देश की संस्कृति उन्हें अपने में नहीं मिला सकी। वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी विजयिनी संस्कृति का डंका बजाते ही गए। उनके सामने एकेश्वरवाद, मुहम्मद साहब की पैगंबरी, कुरान का महत्व, बहिश्त और दोज़ख के स्पष्ट कड़े सिद्धान्त ऐसे थे, कि किसी भी संस्कृति को उनसे स्पर्द्धा करना असम्भव हो गया। उनके धर्म में तर्क को स्थान न था, तलवार को था। तलवार लेकर अपनी अद्भुत संस्कृति की वर्षा करते हुए, वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी राजनैतिक सत्ता एवं सांस्कृतिक सत्ता स्थापितकर थोपते गए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतवर्ष अन्य देशों की अपेक्षा अपनी सांस्कृतिक सत्ता पर विशेषता रखता था, और भारत पर मुस्लिम संस्कृति की विजय, अन्य देशों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की ही थी। भारत की राजनैतिक सत्ता संयोजक और विभाजक द्वन्द्वों से परिपूर्ण थी। संयोजक सत्ता की प्रबलता होने पर मौर्य, गुप्त, वर्धन आदि साम्राज्य सुगठित हुए, परन्तु जब विभाजक सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ, तो केन्द्रीय शक्ति के खण्ड-खण्ड हो गए और देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया।
!! विभाजक सत्ता !!
जिस समय भारत में मुस्लिम आगमन हुआ; उस समय विभाजक सत्ता का बोलबाला था। भारत छोटे-छोटे अनियन्त्रित टुकड़ों में बँट गया था। एकदेशीयता की भावना उनमें न रही थी। ये अनियन्त्रित राज्य परस्पर राजनैतिक सम्बन्ध नहीं रखते थे। प्रत्येक खण्ड राज्य अपने ही में सीमित था। यदि किसी एक खण्ड राज्य पर कभी विदेशी आक्रमण होता, तो वह भारत पर आक्रमण नहीं समझा जाता था। यदि कुछ राजा मिलकर एक होते भी थे, तो वैयक्तिक सम्बन्धों से। यह नहीं समझते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। धार्मिक और सामाजिक भिन्नताएँ भी इसमें सहायक थीं। दिल्ली का पतन चौहानों का, और कन्नौज का पतन राठौरों का समझा जाता था। इसमें हिन्दुत्व के पतन का भी समावेश है, इस पर विचार ही नहीं किया जाता था। ये छोटी-छोटी रियासतें, साधारण कारणों से ही परस्पर ईर्ष्या-द्वेष और शत्रुभाव से ऐसी विरोधिनी शक्तियों के अधीन हो गई थीं, कि सहायता तो दूर रही, एक के पतन से दूसरी को हर्ष होता था। ऐसी हालत में एक शक्ति को श्रेष्ठ मानकर विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करना तो दूर की बात थी।
!!! भ्रातृत्व, एकता और अनुशासन !!!
मुसलमान एकदेशीयता और एकराष्ट्रीयता के भावों से ग्रथित थे। सब मुसलमान बन्धुत्व के भावों से बँधे थे। सामूहिक रोज़ा-नमाज़, खानपान ने उनमें ऐक्यवाद को जन्म दे दिया था। उनकी संस्कृति में एक का मरना सब का मरना, और एक का जीना सबका जीना था। राजपूतों में अनैक्य ही नहीं, घमण्ड भी बड़ा था। इससे कभी यदि वे एकत्र होकर लड़े भी, तो अनुशासन स्थिर न रख सके। मुसलमानों का अनुशासन अद्भुत था। उनके अनुशासन और धार्मिक कट्टरता ने ही उन्हें यह बल दिया, कि अपने से कई गुना अधिक हिन्दू सेना पर भी उन्होंने विजय पाई। युद्ध में जहाँ उन्हें लूट का लालच था, वहाँ धार्मिक पुण्य की भावना भी थी। धन और पुण्य दोनों को तलवार के बल पर वे लूटते थे। काफिरों को मौत के घाट उतारना या उन्हें मुसलमान बनाना, ये दोनों काम ऐसे थे, जिनसे उन्हें लोक-परलोक के वे सब सुख प्राप्त होने का विश्वास था, जिनके लुभावने वर्णन वे सुन चुके थे। और जिन पर बड़े-से-बड़े मुसलमान को भी अविश्वास न था। इसी ने उनमें स्फूर्ति और एकता एवं विजयोन्माद उत्पन्न कर दिया। हिन्दुओं में ऐसा कोई भाव न था। जात-पाँत के झगड़ों ने उनकी बन्धुत्व-भावना नष्ट कर दिया था, और विभाजक सत्ता ने उनकी राजनैतिक एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया था। तिस पर सत्ताधारियों की गुलामी ने उनमें निराशा, विरक्ति और खिन्नता के भाव भी भर दिए थे। ऐसी हालत में देश-प्रेम या राष्ट्र-प्रेम उनमें उत्पन्न ही कहाँ से होता? राजपूतों में राजपूतीपन का जरूर जुनून था, पर इस रत्ती-भर उत्तेजक शक्ति के बल पर वे सिर्फ पतंगे की भाँति जल ही मरे, पाया कुछ नहीं।
!! हिन्दू समाज व्यवस्था ही पराजय का कारण ?
जब कोई नया आक्रमणकारी आता, प्रजा राजा को सहयोग देने की जगह अपना माल-मत्ता लेकर भाग जाती थी। राजा के नष्ट होने पर वह दूसरे राजा की अधीनता बिना आपत्ति स्वीकार कर लेती थी। राजपूत अन्य जाति के किसी योद्धा या राजनीतिज्ञ को कुछ गिनते ही न थे। इसी से कड़े से कड़े समय में भी राजा और प्रजा में एकता के भाव नहीं उदय होते थे। परन्तु मुसलमानों में भंगी से लेकर सुलतान तक एक ही जाति थी। प्रत्येक मुसलमान तलवार चलाकर काफिरों को मारकर पुण्य कमाने का या मरकर गाज़ी होने का इच्छुक रहता था। इस प्रकार हिन्दू समाज-व्यवस्था ही हिन्दुओं की पराजय का एक कारण बनी।
!! दूषित युद्धनीति !!
राजपूतों की युद्धनीति भी दूषित थी। सबसे बड़ा दूषण हाथियों की परम्परा थी। सिकन्दर के आक्रमण तथा दूसरे अवसरों पर प्रत्यक्ष ही हाथी पराजय का कारण बने थे। मुस्लिम अश्वबल विद्युत-शक्ति से शत्रु को दलित करता था। परन्तु हिन्दू सेनानी तोपों का आविष्कार होने पर भी हाथी पर ही जमे बैठे रहकर स्थिर निशाना बनने में वीरता समझते थे।
दूसरी वस्तु स्थिर होकर लड़ना तथा पीछे न हटना, उनके नाश का कारण बने। अवसरवादिता को वहाँ स्थान ही न था। युद्ध-योजना दुस्साहस पर ही निर्भर थी। बौद्धिक प्रयोग तो वहाँ होता ही न था। पीठ दिखाना घोर अपमान समझा जाता था। युद्ध में जय-प्राप्ति की भावना न थी, किन्तु जूझ मरने की थी। यद्यपि राजपूत साधारण कारणों से आपस में तो आक्रमण करते थे, पर विदेशियों पर इन्होंने कभी आक्रमण नहीं किया।
तीसर दोष, सेनापतियों का आगे होकर उस समय तक युद्ध करना, जब तक कि वे मर न जावें, युद्ध न था, वरन् मृत्यु-वरण था। यह नीति महाभारत से लेकर राजपूतों के पतन तक भारत में देखी गई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारतीय युद्ध-कला का नेतृत्व योद्धाओं के हाथ में रहा, सेनापति के हाथ में नहीं। सेनापति का तो भारतीय युद्धों में अभाव ही रहा। भारतीय युद्धों के इतिहास में तो आगे चलकर केवल दो ही रणनीति-पण्डित हुए, एक मेवाड़ के महाराज राजसिंह, दूसरे छत्रपति शिवाजी। और दैव-विपाक से दोनों ही ने अपनी क्षुद्र शक्ति से आलमगीर औरंगजेब की प्रबल वाहिनी से टक्कर ली, तथा उसे सब तरह से नीचा दिखाया।
मुसलमानों का भर्ती क्षेत्र अद्वितीय था। अफगानिस्तान और उसके आस-पास की मुस्लिम जातियाँ, जो भूखी और खूँखार थीं, जिन्हें लूट-लालच और जिहाद का जुनून था, जो काफिरों से लड़कर मरना, शहीद होना और जीतना मालामाल होना समझते थे, भर्ती के समाप्त न होने वाले क्षेत्र थे। मुसलमानों को कभी भी सैनिकों की कमी न रही। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी की सेनाओं में अनगिनत मनुष्यों की मृत्यु होती थी, परन्तु टिड्डी दल की भाँति उन्हें अनगिनत और सैनिक मिल जाते थे। उन्हें इन अभियानों में तो धन-जन की क्षति होती थी, उससे उन्हें अधैर्य और निराशा नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें अटूट धन-रत्न, सुन्दर दास-दासी और ऐश्वर्य प्राप्त होते थे, साथ ही धार्मिक ख्याति और लाभ होने का भी विश्वास था। वे इन्हें धर्मयुद्ध समझते और सदा उत्साहित रहते थे।
हिन्दुओं का भर्ती क्षेत्र सदा संकुचित था, वह एक राज्य या एक जाति और एक वर्ग तक ही सीमित था। छोटी-छोटी रियासतें थीं। उनमें भी केवल क्षत्रिय लड़ते थे। अन्य वर्गों की उन्हें कोई सहायता ही नहीं प्राप्त होती थी। इसलिए वे युद्धोत्तर-काल में निरन्तर क्षीण होते जाते थे। उनकी युद्धकला ऐसी दूषित थी कि एक-दो दिन के युद्ध में ही उनके भाग्यों का समूल निपटारा हो जाता था। फिर कुछ करने-धरने-संभलने की तो कोई गुंजाइश ही न थी।
यदि आप कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित युद्ध-नीति पर गम्भीर दृष्टि डालें, तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा। उसमे ऐसी विकसित युद्ध-कला की व्याख्या है, कि जिसके आधार पर सब मानवीय और अमानवीय तत्वों तथा गुण-दोषों को युद्ध के उपयोग में लिया है। बड़े दुःख का विषय है कि राजपूतों को इस युद्ध-कला से वंचित रहना पड़ा; उनकी युद्ध-कला केवल मृत्यु-वरण कला थी।
सेनानायक की जब तक मृत्यु न हो जाए, तब तक युद्ध में आगे बढ़कर वैयक्तिक पराक्रम प्रकट करते रहना बड़ी भयानक बात थी। इसकी भयानकता तथा घातकता का यह एक अच्छा उदाहरण है कि पृथ्वीराज ने संयोगिता के वरण में अपने सौ वीर सामन्तों में से साठ को कटा डाला और फिर किसी भाँति वह उनकी पूर्ति न कर सका। जिससे तराइन के युद्धों में उसे पराजित होकर अपना और भारतीय हिन्दू राज्य का नाश देखना पड़ा। राणा साँगा, राणा प्रताप तथा पानीपत के तृतीय युद्ध के अवसरों पर सेनानायकों की इस प्रकार क्षति होने पर, उसकी पूर्ति न होने पर ही हिन्दुओं को पराजय का सामना करना पड़ा।
मुसलमानों की सेना में प्रत्येक महत्वाकांक्षी योद्धा को उन्नत होने, आगे बढ़ने तथा युद्ध-क्षेत्र में तलवार पकड़ने का अधिकार तथा सुअवसर प्राप्त था। यहाँ तक, कि क्रीत दासों को भी अपनी योग्यता के कारण, न केवल सेनापतियों के पद प्राप्त होने के सुअवसर मिले, प्रत्युत वे बादशाहों तक की श्रेणी में अपना तथा अपने वंश का नाम लिखा सके। कुतुबुद्दीन, इल्तमश, बलवन आदि ऐसे व्यक्ति थे जो दास होते हुए भी अद्वितीय पराक्रमी और शक्तिशाली थे। इस प्रकार आप देखते हैं कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने भारत में आकर यहाँ की जनता को अस्त-व्य्त, राज्यों को खण्ड-खण्ड, राजाओं को असंगठित और राजनीति तथा युद्ध-नीति में दुर्बल पाया। अलबत्ता उनमें शौर्य, साहस और धैर्य अटूट था। परन्तु केवल इन्हीं गुणों के कारण वे सब भाँति सुसंगठित मुसलमानों पर जय प्राप्त न कर सके – उन्हें राज्य और प्राण दोनों ही खोने पड़े।

पर आज सबसे अहम् सवाल है की राजपूत समाज को कैसे बचाया जाये? इस विषेले वातावरण जहाँ चंहु ओर विषाणु फैल रहे है,के दुष्प्रभाव से आज का क्षत्रिय स्वयं को कैसे बचाए ताकि वे समाज को विनाश से बचा स...के |क्योंकि क्षय से त्रान करना ही क्षत्रिय का धर्मं है |क्षत्रिय अपने आपको कमल की तरह इन किचड डड बुराइयों बचाएं |इस कार्य में क्षत्रियों से ज्यादा जिम्मेदारी हम क्षत्रानियो को लेनी होगी | हम क्षत्रानियो कोआज फिर उन्ही संस्कारो को अपने बच्चो में देना होगा जो हम आदि काल से देती आरही है |और उसके परिणामस्वरूप यह क्षत्रिय समाज प्रगति की चरम सीमा तक पहूँचा | आज तक विश्वामित्रजी ज्यादा तपस्या किसी ने नहीं की |श्री राम से अच्छा शासन किसी ने नहीं दिया |भीष्म से बड़ी किसी ने प्रतिज्ञा नहीं की |श्री कृष्ण से बड़ा ज्ञानी पैदा नहीं हुआ |युधिष्टर से बड़ा धर्मज्ञ नहीं हुआ |करना से बड़ा दानी नहीं हुआ |राजा हरिश्चंद्र से बड़ा सत्यवादी नहीं हुआ ,महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध से बड़ा अहिंसक वीर नहीं हुआ |पृथ्वी राज चौहान से बड़ा क्षमाशील (उदार) नहीं हुआ |राणा साँगा से ज्यादा किसी ने युद्ध में किसीने घाव नहीं खाये |राजकन्या मदालसा सी माता ही निर्माता नहीं हुई |गंगा,यमुना,सरस्वती,पार्वती,सावित्री,तारावती,माता सीता ,द्रौपदी से बड़ी तपस्वनी नहीं हुई ,जिन्होंने अपने आपको इतना तपाया की कोई नदी रूप में प्रवाहित हुई ,तो किसीने भगवान सदाशिव को ही पति रूप में प्राप्त कर लिया |किस किस के नाम गिनाये ,यदि क्षत्रिय पात्रो के आदर्शों का थोडा सा भी वर्णन किया जाये तो सारे विश्व का कागद एवं स्याही कम पद जाएगी |बस इतना जान लीजिये की इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास को निकाल दिया जाय तो शून्य शेष रह जायेगा |
आचार्य रजनीश कहा करता था की रोजाना १० हजार सैनिकों को युद्ध में मारने वाले पितामह भीष्म भी क्षत्रिय थे ,और चींटी आदि कीड़ों को भी न मारने का उपदेश देने वाले जीतेन्द्र महावीर स्वामी भी क्षत्रिय ही थे |पति के साथ चिता में कूदकर सटी होने का अनुपम उदहारण पेश करने वाली भी अनेको सतियाँ क्षत्रानियाँ हुई है,और यमराज को अपने नियम बदलने के लिए विवश कर पति को पुन:जीवित कराने में सफल रही सावित्री भी तो क्षत्राणी ही थी |इसके अलावा बालपन में विधवा होकर जीवन भर पति को समर्पित रह कर तपकर ४३ वर्षो अन्न-जल के बगेर जीवित रहने का अनुपम उदहारण आधुनिक काल में पेश करने वाली बाला सतीजी भी तो क्षत्राणी ही थी |विधवा होने पर अपने पति के अधूरे कार्य एवं जिम्मेदारियों को निभाने वाली भी आदि काल सेसे लेकर आजतक क्षत्रिय परिवारों में घर घर में रही है |विश्व इतिहास में भारत जसे और क्षत्रिय योद्धाओं जैसे और भी उदहारण शायद मिलसकते है किन्तु मध्य काल में सर कट जाने के बाद ५-५ घंटे और ५-५ कोस तक युद्ध लड़ने वाला राजपूतो के अतिरिक्त कोई नहीं मिलेगा |
राजपूतो के अतिरिक्त कोई नहीं मिलेगा |ऐसा गौरव शाली अतीत जिस जाति या वागा का रहा है,आज उसकी क्या हालत है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है |जिस वर्ग ने विकास की सारी सीमाये पार की आज उसी समा...ज का चहुँ ओर पतन होरहा है |संस्कारो से लेकर संस्कृति तक ,तपश्या से लेकर ऐश्रव्य तक,शारीरिक शक्ति से लेकर आर्थिक एवं बौधिक बल तक चारो ओर से पतन की रह पर आखिर यह समाज क्यों चल निकला ?और इसको इस रह से कैसे बचाया जाये ,आज का यही यक्ष प्रश्न हर क्षत्रिय एवं समाजवेत्ता के सामने मुहं बाये खड़ा है |
राष्ट एवं जनता राज्यविहीन एवं दिशाहीन होकर पतन के गहरे भंवर में फँस चुके है |राज्य का प्रथम एवं अत्यावश्यक कर्त्तव्य है जनता के धन एवं सम्मान की सुरक्षा |आज राज्य सुरक्षा के अपने दायित्व से पल्ला झड चूका है |हर जगह ,हर पल ,हरेक अपने आपको आतंकवादियों के निशाने पर खड़ा पा रहा है |असुरक्षा की भावना सभी के मन में गहरी गाँठ बना चुकी है|आतंकवादियों के हौसले बुलंद है |जनता अपने आपको असुरक्षित पारही है |धन एवं सम्मान तो दूर की बात है,अब लोगो की जान भी सुरक्षित नहीं रही |ऐसे में राज्य अपनी कौनसी जिम्मेदारी निभारहा समझ से परे है |
क्षत्रिय समाज का पतन और जनता का सर्वांगीन पतन,कहीं इन दोनों बातो का आपस में कोई संबंध तो नहीं !कहीं ऐसा तो नहीं जनता एवं राष्ट के पतन का संबंध हम क्षत्रियों के पतन से हो!और यदि ऐसा है तब तो इस राष्ट्र एवं जनता पतन की उत्तरदायी हम क्षत्रानिया ही होंगी |क्योंकि क्षत्रियों के निर्माण का उत्तरदायित्व तो हम क्षत्राणियों पर ही है |
पुराणी कहावत है की "चोर नहीं चोर की माँ को मारना चाहिए "|अर्थात संतान के हर अच्छे बुरे कार्य के लिए उसकी माँ ही जिम्मेदार है|तो फिर क्षत्रियों की हालत के लिए भी क्षत्रियों की माताएं हम क्षत्राणियों की ही जिम्मेदारी है |अत:आशा है हर क्षत्राणी अपने इस कर्तव्य को समझे एवं इमानदारी से अपने उत्तरदायित्व को मान कर आज और अभी से क्षत्रियों के निर्माण में सम्मिलित होकर अपनी मत्वपूर्ण भूमिका अदा करे |

8 टिप्‍पणियां:

  1. nageshwar sa hukum aapke us doc mein bahot sari kamiya h...

    pehli baat hathi k karan rajput jeette aaye they....

    sikander ki har or uske lautne ka sabse bada karan hind k hathi hi they

    seleucus nicator k rajtantra ki tabahi ka karan bhi hathi hi they

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  2. or rahi baat toop ki to wo mughal nhi angrej laye they or sabse pehle tipu sultan ne rocket ka use kar k unki toopo ki dhajiya uda di thi

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  3. dusra hukum ki kitabo mein padhaya gaya h ki raja k marte hi praja aadhinta swikar karti h.. jo ki galata h, aapne shayad bharatpur, mewar etc ka dhyan nhi diya jha janta tak akt mari thi unke raja k yudh se chale jane k baad

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  4. or agar rajput h to ye kabhi peeth nhi dikhayenge.... yaad rekhiyega.... or ye dosh nhi mahan karya tha veerta se bhara hua.... ka kayarta poorn

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  5. or nageshwar sa hukum aapne kha h ki yudh mein anya ajti sahyog nhi karti thi jo ki galat h agar aap yudh neeti padhe to wha aapko pata chalega ki bhamashah jaise baniye etc bhi bahot se they jo khana rasad etc sena ko pahochate rehte they

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  6. or aakhir mein aapne sara dosh khstraniyo pe mand diya jo galat h...

    usnhe diwaro or gharo mein to kaid khstriyo ne kiya tha... jab wo khud yudh neti bhool beithi h or unhe sikhane wala koi nhi h to aap kaise soch sakte h ki aapka putr ek abhimanyu sa janam lega... kadpi nhi nhi .....

    wo shakti ka roop h agar aap chahte ho ki aapka putra abhimanyu sa yudhneeti seekh k aaye uske liye jaroori h ki uski maa ko bhi wo aaye.... or aap unhe chardiwari mein badn kar k sochte h ki aapka putra abhimanyu ho bilkul nhi ho sakta.....

    hukum... neem bone se neem hota h na ki aam....

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  7. यसवंत जी ब्लॉग में सुझाव ,जानकारी और कमेंट्स के लिए आभार ।

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  8. Aapne bilkul sahi kaha nageshwarji.rajputo ki kai galat nitiya thi jinki wajah se videsh se aaye muglo ne hme apne hi ghar me hraya.aur hm aaj bhi jhuthi shaan me jee rhe hain.hakikat to ye hai ki kuch mahan rajao ko chhodkr adhiktar rajput raja aiyash aur ghamandi the.jo apne akawa kisi aur ka astitv nhi samajhte the

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