गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

निंदक नियरे राखिये ....

कबीर ने कहा है, निंदक नियरेराखिए..।इसका अर्थ है कि हमें निंदक को अपने निकट रखना चाहिए। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा है कि हम दूसरों की निंदा में ही अपना समय व्यतीत करें। सच तो यह है कि हम स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने के लिए उनकी निंदा करते हैं।
वास्तव में, मानव मन निर्मल और पवित्र होता है। आप अपने मन में जैसी भावनाओं का संचार करते हैं, दूसरों के सम्मुख वैसे ही विचार प्रकट करते हैं। फिर मानव मन अपने संकल्प सागर में निंदा के कंकड-पत्थरकी सृष्टि क्यों करता है? हो सकता है कि इसके पीछे हमारा दूसरे व्यक्ति को सुधारने का विचार काम करता हो! पर क्या निंदा करने का उद्देश्य उस व्यक्ति की भूलें बताकर उसे सन्मार्ग पर लाना होता है? यदि यह सच है, तो पीठ पीछे दोष- चर्चा से कोई लाभ सिद्ध नहीं हो सकता है। प्रत्यक्ष में संबंधित व्यक्ति की भूलों की ओर संकेत करने से ही यह संभव हो सकता है। वास्तव में, निंदा का उद्देश्य सहज प्रयत्न से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना होता है। अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना मानवीय अहम की दुर्बलता है। जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं, तो उसके पीछे यह भाव छिपा होता है कि दूसरे व्यक्ति कितने अधूरे हैं और बुराइयों के पुतले हैं, लेकिन मैं जिन बुराइयों की ओर संकेत कर रहा हूं, इनसे अछूता हूं। जिस व्यक्ति से हम किसी और व्यक्ति की निंदा करते हैं, तो उस पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है। निंदा सुनने वाला व्यक्ति निंदा करने वाले को ऐसा कमजोर व्यक्ति मान लेता है, जो स्वयं अधूरा है। दूसरे व्यक्ति पर निंदा का कीचड फेंककर वह स्वयं उजला बनने की कोशिश कर रहा है। निंदा करने वाले व्यक्ति का यह तर्क हो सकता है कि वह बुराइयां बताकर संबंधित व्यक्ति को आगाह कर रहा है। यानी वह सामने वाले व्यक्ति को अपना मित्र मान रहा है। इसके ठीक उलट नीतिकारकहते हैं कि सच्चा मित्र वही है, जो मित्र की बुराइयों को छिपा लेता है और केवल गुणों को ही प्रकट करता है।
यहां पर यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि हमारा प्रिय व्यक्ति, अपने आचरण में परिवर्तन नहीं ला पा रहा है, तब उसके अनुचित व्यवहार को समाप्त कैसे किया जाए? नीतिकारकहते हैं कि ऐसी स्थिति में दो उपाय बचते हैं-उसके अवगुणों पर कोई ध्यान न दिया जाए या कोई टीका-टिप्पणी न की जाए। दूसरा उपाय यह है कि संबंधित व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से उसके अवगुणों की चर्चा की जाए और उसे समाप्त करने का निवेदन किया जाए। वहीं दूसरी ओर, निंदा का प्रयोग न केवल निष्फल, बल्कि प्रत्येक दशा में आत्मघाती ही है।
निंदा करने से मनुष्यों को स्वयं की क्षति होती है। वह न केवल हीन भावना का शिकार होता है, बल्कि उसका आत्मविश्वास भी प्रभावित होता है।
जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं, तो इसका मतलब यह है कि हमारी स्वयं की तलाश समाप्त हो चुकी है, इसीलिए हम बाहर की ओर देखने लगे हैं। इस प्रक्रिया में हम दूसरे व्यक्ति की बुराई करने लगते हैं। यदि हम दूसरों की निंदा करने के बजाय स्वयं के भीतर में झांके, यानी आत्मा की आवाज सुनें, तो यह हमारे लिए बेहतर होगा। आत्मा आनंद का अनंत भंडार है। आनंद के इस स्रोत पर नियंत्रण करना है, तो निंदा के हलाहल को फेंकना ही होगा। सचमुच यह एक ऐसी मदिरा है, जिसे छोडने के लिए तीव्र संकल्प और सजगता की आवश्यकता होती है।

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