मैंने अभी तक यही पढ़ा था की "ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती " की दरगाह एक मुस्लिम सेना नायक की है जो मुहमद गोरी के सेना का सिपाही था,पर आज मुझे एक नई जानकारी मिली है जिसे आप सभी को प्रेषित कर रहा हु ......
शाहन के शाह : मशहूर दार्शनिक और शायर डॉक्टर अल्लामा इकबाल का यह शेर भारत में सूफी-संतों के मामले में तो कम से कम पूरी तरह खरा ही उतरता है। और जब सूफी संतों का जिक्र आता है तो वे इंसानियत और रूहानियत के सर्वाधिक करीब, लेकिन ज्यादातर मुसलमान धर्म-गुरूओं के रूप में अवतरित होते दिखायी पड़ते हैं। वे ऐसी शख्सियतों के मालिक के तौर पर भारतीय परिदृश्य पर उभरे जिसने वक्त की नब्ज को हर बार बिगड़ने से रोका और हिन्दू-मुस्लिम समुदायों को गंगा-जमुनी संस्कृति अता फरमायी।
लेकिन बात जब उस शख्सनुमा देवता की हो, जिसने बादशाही स्वागत-सत्कार को ठोकर पर रखा, जिसने इस्लामी शब्दों का इस्तेमाल तो किया, लेकिन उन अल्फाजों की रूह दूसरे पलडे़ में बैठी भारतीय संस्कृति के ही इर्द-गिर्द ही घूमती रही। जिसने अपना आशियानानुमा घरौंदा बनाने के लिए भारतीयों के परम-पूज्य स्थलों में से एक, यानी पुष्कर भूमि को अपनाया। जिसने इस्लामी शासकों के कट्टरवाद के खिलाफ बाकायदा जंग छेड़ी और इंसान के तौर पर हर मजहब को बराबरी के तौर पर ही नहीं देखा, बल्कि ईश्वर की अनुपम कृति के तौर पर पूजना शुरू कर दिया। जिसने चाहा तो कभी कुछ नहीं, लेकिन वक्त के निजाम पर ऐसा असर डाला कि वह नंगे पैर दरगाह तक शुक्रिया अदा करने पहुंच गया।
जी हां, यहां हम बात कर रहे हैं मुइनुद्दीन की, जो चिश्तिया समझ और संस्कृति वाले मुइनुद्दीन चिश्ती के रूप में भारतीय जनमानस में अजीमुश्शान हैसियत रखते हैं और बाद के वक्त में तो वे बाकायदा ख्वाजा के तौर पर पूजनीय हो गये। लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें खासी मशक्कत भी करनी पड़ी। सबसे पहले तो उन्हें भारत के संदर्भ में इस्लामी शासन के तौर-तरीकों की सार्वजनिक व्याख्या तक कर डाली। ख्वाजा ने साफ कहा- हिंसा और तलवार की नोंक पर इस्लाम की बुनियाद ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रह सकती है।
12 सदी नौंवी रजब की 12वीं तारीख को ईरान में सीस्तान के संजर गांव में जन्मे मोइनुद्दीन औपचारिक शिक्षा के बाद 23 वें वसंत में गुरू ख्वाजा उस्मान हसन चिश्ती की सेवा में मक्का और आसपास के इलाकों में ही रहे। बाद में वे मोहम्मद गोरी के साथ भारत चले आये। इंसानियत का पैगाम पहले ही मिल चुका था और क्रूर इस्लामी शासन की हैवानियत उन्होंने खुद अपनी आंखों से देख ली। इस्लाम के नाम पर मंदिरों को ढहाने और मूर्तियों नेस्तनाबूत करने की खूंख्वार मुहिम छिड़ी थी। जबरिया धर्मपरिवर्तन कराया जा रहा था। हर ओर कत्ल-खून। त्राहि-त्राहि और आर्तनाद।
ख्वाजा का कलेजा फट गया और इसी के साथ बह निकली भक्ति और कर्म की एक अनोखी धारा, जिसने सर्वधर्म समभाव की अमिट लकीरें खींच दीं। ख्वाजा ने सुलतानी आवभगत ठुकराया और जा बसे हिन्दुओं के पवित्र तीर्थ कहे जाने वाले पुष्कर में। बोले:- ऐसी हुकूमत से कुछ नहीं चाहिए, जो इंसानों में भी फर्क करे। ख्वाजा ने उपनिषदों की चिचारधारा अपनाते हुए कहा:- प्रेम करो। बाहरी पहचानों को अगर हटा दिया जाए तो प्रेम, प्रेमिका और प्रियतम एक ही हैं। तो, हर इक से कर मोहब्बत। गरीब से खासतौर पर। ताकत, पैसा और दिखावे से ईश्वर नहीं मिलता। सच्ची मोहब्बत करो तो खुदा अपने आप आयेगा। हर चीज में खुदा को खोजना ही प्रेम है। और खुदा ही प्रेम है। कट्टरता तुम्हें ईश्वर से दूर कर देती है।
और यहीं से प्रबल होने लगी वह धारा जो प्रेम से सीधे जुड़ती है। जाहिर है त्रस्त अवाम इस राह पर चल निकला और ख्वाजा गरीब-नवाज हो गये। मोहब्बत का आलम यह फूटा कि सलीम के पैदा होने पर बादशाह अकबर इस दरगाह पर नंगे पांव जियारत करने पहुंच गया। यह ख्वाजा के 400 साल बाद की घटना है और उस विचारधारा की जीत दर्शाती है, जिसके मुताबिक इंसान में नदी जैसी दानशीलता, सूरज जैसी दयालुता और धरती जैसी खातिरदारी का जज्बा होना चाहिए। ख्वाजा का दर्शन उनके गद्य संकलन गंजुल-असरार और अनीसुल-अरवाह में साफ झलकता है। दीवान-ए-मोइन में 250 के करीब कविताएं भी मौजूद हैं, जिन्होंने अजमेर से दुनिया भर में प्रेम और मानवता का पैगाम पहुंचाया।
ख्वाजा की दरगाह में 21 दरवाजे और दो खिडकियां हैं। प्रवेश के लिए सदर दरवाजा है। दूसरे को नक्कारखाना शाही कहा जाता है। अकबर ने यहां लाल पत्थरों से एक मस्जिद बनवायी थी। बुलंद दरवाजे की ऊंचाई 85 फीट है। बेमिसाल नक्काशी और खूबसूरती दरगाह में चार चांद लगाती है। दरगाह में दो हैरतअंगेज देंगे भी हैं, जिन में से एक में 80 और दूसरी में 100 मन चावल पकाया जाता है। उर्स के दौरान तो यहां बेशुमार श्रद्धालु जुटते हैं।
21 मई 1238 को हिजरी की पहली तारीख को वे अपनी कोठरी में चले गये। छठे दिन शिष्यों ने जब दरवाजा खोला तो ख्वाजा अल्लाह को प्यारे हो चुके थे। गरीबनवाज तो न जाने कब खुदा के पास चला गया, लेकिन उनके देहांत की तारीख को शिष्यों ने तरीके से सुलझाया। तय हुआ कि गरीबनवाज का उर्स लगातार छह दिनों तक मनाया जाए। कहने की जरूरत नहीं कि एक समझदार शख्स के समझदार शिष्यों की डाली गयी इस परम्परा ने भी सूफीवाद को एक बड़ी ऊंचाई दी। ओ ख्वाजा, मेरे ख्वाजा। चारों ओर गूंजती यह पुकार, महज यूं ही नहीं है।
लेखक कुमार सौवीर सीनियर जर्नलिस्ट हैं. वे कई अखबारों तथा चैनलों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. उनका यह लेख लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स अखबार में छप चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है
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