गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

!! फेसबुक में सेखी बघारते लोग !!

 मेरे जान - पहचान में एक मित्र है .(नाम नहीं लिखुगा नहीं तो काली मिर्ची का तडका लग जाएगा)..ओ हमेसा ही फेसबुक में सेखी बघारते रहते है ओ कभी  अपनी सोने की पालकी तो कभी 40 KM रोड का ठेका प्राप्त करने की पोस्ट करते है FB में तो ...कभी क्रिकेट का मैच करा रहे है  तो कभी बांग्लादेश-पकिस्तान  के बार्डर पर घूमते हुए पोस्ट कर रहे है ....तो कभी किसी को धमकी देते है निपटने की तो कभी किसी को असली -नकली का प्रमाण  पत्र बाटते रहते है  तो कभी किसी को कुछ भी उखाड़ने (अरे भाई क्या सुवर पाल राखी है जो सुवर के बाल उखाड़ने का धंधा करते हो) को ललकार देते है .मतलब कुल मिलाकर अपनी  सेखी बघारते है FB में .!
    .अरे भाई इस FB में तो हजारो किलोमीटर दूर बैठ कर कोई कुछ भी लिख दे ..क्या मह्त्व है उसके लिखने का ? .....

!! कौवे की तरह काव - काव करना मुर्खता भरी हरकत है !!
क्या इस तरह से सेखी बघारना ब्यक्ति के हलके पन का साबुत नहीं है ?                यह पोस्ट उन सभी के लिए है जो अपने ज्ञान और धन का ढिढोरा पीटते है , अपनी आर्थिक और राजनातिक हैसियत को दिन भर बखान करते है ! ज्ञानी कितनी गहरी बात कहते हैं। 'अधजल गगरी छलकत जाय' यह किसी ज्ञानी के कथन से ही प्रचलित हुई कहावत है। कितनी ठोस बात कही है कि घडा आधा भरा हुआ हो तो आवाज करता है, पानी छलक कर गिर जाता है और पूरा भरा हो तो बिल्कुल भी न आवाज करता है, न छलकता है। पूरे भरे घडे में गहनता आ जाती है। छिछलापन नहीं रहता। मतलब साफ है, छिछलापन आवाज करता है, गहराई में शांति होती है।
पहाडो  से, चट्टानों से गुजरती हुई नदी खूब आवाज करती है क्योंकि छिछली होती है, गहराई नहीं होती, कंकड-पत्थरों से टकराते हुए, रास्ता बनाते हुए चलती है, आवाज करते हुए चलती है। वही नदी जब मैदानी क्षेत्र में होती है, दूर-दूर तक समतल क्षेत्र होता है, पानी गहरा होता है तो नदी उदास मालूम पडती है, उसकी गति मंथर हो जाती है। आवाज नहीं होती। लहरों का पता नहीं चलता। लहरें उछल-कूद नहीं करतीं। नदी छिछली होती है तो शोरगुल करती है। शोरगुल हमेशा उथलेपन का सबूत है।
यही बात उस व्यक्ति पर भी लागू होती है। ज्ञानी व्यक्ति बडबोला नहीं होता। ज्यादा नहीं बोलता। व्यर्थ नहीं बोलता। तोल-तोल कर बोलता है। बार-बार कुरेद कर पूछने पर भी उतना ही बोलेगा जितने की आवश्यकता है। यह गहन अनुभूति के कारण होता है, उसकी विद्वता के कारण होता है। दिखने में वह उदास दिखाई देगा क्योंकि उसमें अनावश्यक चंचलता नहीं होती। नदी जैसी गहराई होती है। अंदर से गहरापन होता है। बाहरी छिछलापन नहीं होता। उसे यह बताने की जरूरत नहीं होती कि वह कितना विद्वान है, कितना गुणी है, कितना भला है, कितना परोपकारी है, कितना सदाचारी है। उसके गुण उसके व्यवहार में, उसके आचरण में, उसकी वाणी में स्पष्ट झलकते हैं। ऐसे व्यक्ति को किसी के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं होती, किसी के प्रचार की जरूरत नहीं होती। ऐसे लोगों के आचरण की सौरभ सर्वत्र बिना किसी विशेष प्रयास के स्वत: फैल जाती है।
जो लोग अंदर से खोखले होते हैं वे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं। उनके लिए यह जरूरी भी है। जिनका प्रचार दूसरे नहीं करते हों, जिनके लिए लोग कुछ नहीं कहते या कहते भी हैं तो अच्छा नहीं कहते, उनको अपना प्रचार खुद करना पडता है। अपने गुणगान भी खुद के श्रीमुख से करना उनके लिए जरूरी हो जाता है।FB में दो-चार लोग राजा साहब की जय हो ,पंडित जी आप तो महान है .आदि आदि सब्दो से उनकी च्प्लुशी करते हुए बहुत से मिल जायेगे ... ऐसे लोग छलकते ज्यादा हैं क्योंकि अंदर से अधूरे होते हैं। आधे भरे होते हैं, उथले होते हैं, छिछले होते हैं। छिछलापन ही आवाज करता है, शोरगुल करता है।
             मैं गहराई या छिछलेपन की बात केवल ज्ञान, धर्म या आध्यात्म के लिए नहीं कर रहा हूं, हर क्षेत्र में ऐसा होता है। आपको अनेक समाजसेवी मिलेंगे जो अपनी गतिविधियों का स्वयं ही बखान करेंगे। समाजसेवा के क्षेत्र में उन्होंने क्या-क्या किया, इसकी पूरी सूची आपके जेहन में पेल देंगे और साथ में मुस्कुराहट के साथ यह भी कहते जाएंगे कि वे करते तो बहुत से काम हैं, पूरा जीवन ही समाज की भलाई में लगा रखा है परंतु किसी को बताना नहीं चाहते। वे कहेंगे कि वे काम करने में विश्वास करते हैं, बात करने में नहीं, प्रचार करने में नहीं। यह कहते हुए वे आपको अपने जीवन के सारे 'समाजसेवी कार्यों' का आंखों देखा हाल सुना देंगे। अब तो ऐसे समाजसेवी भी उभर आए हैं जो 'दानदाता-कम-समाजसेवी' के रूप में अपनी छवि बनाने के प्रयासों में लगे हैं। यहां मेरा तात्पर्य अंग्रेजी के डोनर-कम-सोशलवर्कर' से है।
ऐसे समाजसेवी सज्जनों से आप बात करके देखिए, इतनी डींगें हांकते मिलेंगे कि आपका माथा चकरा जाए। राजनीति से लेकर धर्म तक को अपनी मुट्ठी में बताएंगे। क्षेत्र का पार्षद भी भले इन्हें नहीं जानता हो परंतु मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या किसी पार्टी विशेष के आलाकमान तक अपनी सीधी पहुंच का दावा करने में ऐसे लोगों को कोई झिझक नहीं होती। तथाकथित अतिविशिष्ट व्यक्तियों के साथ खिंचवाए गए अपने चित्रों का एलबम आपके हाथों में यह कहकर देखने के लिए थमाएंगे कि न चाहते हुए भी लोग इनको विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित करते हैं, इस कारण वे व्यस्त भी रहते हैं। वे किस-किस ट्रस्ट से जुडे हैं, किस-किस संस्था में पदाधिकारी हैं, किस-किस संगठन से पहले जुडे रहे हैं, सबका आपको पूरा विवरण बताएंगे।
           आजकल अपने धन से लेकर दान-पुण्य, समाजसेवा, आध्यात्मिक व धार्मिक रुचि एवं बौध्दिक क्षमता का बढ-चढक़र बखान करने वालों की कोई कमी नहीं है बल्कि देखा जाए तो ऐसे लोगों की संख्या में इतनी तेजी से बढाेतरी हो रही है कि कभी-कभी ऐसीर् ईष्या होने लगती है कि हमारे देश का विकास इस गति से क्यों नहीं हो पाता। परंतु फिर एक संतोष भी होता है कि देश का विकास इतना खोखला होने से तो धीमी गति से होना ज्यादा अच्छा है।
               इसी तरह से आजकल पत्रकार बिरादरी में भी ऐसे लोग घुस आए हैं। अधकचरा ज्ञान लिए, अपने आपको और अपने अखबार को 'बडा' बताने वाले ऐसे पत्रकार या तो मस्का लगाकर, जी हजूरी कर या फिर डरा-धमकाकर समाचारों के एवज में पैसा ऐंठने का काम करते हैं। ऊपर से 'ज्यादा होंसियारी' की बातें करते हैं। बुध्दिजीवियों की जमात में भी आधी भरी गगरियां प्रविष्ट कर गई हैं। ऐसे कवि-साहित्यकार अपना ढोल पीट रहे हैं कि जैसे उनके कद जितना कोई कैसे पहुंच पाएगा। छलक रहे हैं। आवाज कर रहे हैं। ओछी बातें करते हैं। उथलापन है उनमें। गहराई नहीं है। अंदर से खोखले, आधे भरे ऐसे समाजसेवी, ऐसे दानदाता, ऐसे पत्रकार, ऐसे बुध्दिजीवी, ऐसे धर्मप्रेमी छलकते ज्यादा हैं, बोलते ज्यादा हैं, प्रदर्शन ज्यादा करते हैं, दिखाते अधिक हैं क्योंकि यह सब अधजल गगरी छलकत जाय के समान होते हैं। जो सच्चे समाजसेवी हैं, परमार्थ के लिए सच्चे हृदय से दान करते हैं, परोपकार में अपना समय लगाते हैं उनको अपना बखान करने की जरूरत नहीं होती। लोग उनके पीछे-पीछे दौडते हैं, उनको अपने मन की आंखों पर सम्मानजनक स्थान देते हैं, उनके सत्कार्यों की भीनी-भीनी सुगन्ध अपने आप फैलती है। उनके पुण्य का प्रमाण उनके दान से लाभान्वित होने वाले जरूरतमंद अपनी दुआओं से देते हैं। वे गली-कूचों पर, प्रीतिभोज समारोहों में, धार्मिक कार्यक्रमों में अपने क्रियाकलापों का स्वयं बखान करते नहीं फिरते। उनमें गहराई होती है और गहराई में उथलापन नहीं होता। काश, यह गहराई सभी में विकसित होती। खास कर मेरे मित्र सज्जन पाल सिंह राठौर में यह गहराई आ जाए तो कितना अच्छा होता ,,भगवान् से प्रार्थना है की सभी देश वासियों में गहराई भर दो ,भगवान् से यही  बिनती करता हु !
दोस्तों कोयल की तरह कू-कू करना सीखिए और मधुर आवाज में बोलिए

          कभी किसी ने सोचा है कि सामने वाला अधजल गगरी है, हम कैसे फैसला कर सकते हैं? क्या पता की अधजल गगरी हों? मुझे तो अधजल गगरी में भी कोई बुराई नजर नहीं आती। कुछ लोगों की फिदरत होती है, हमेशा सिक्के के एक पहलू को देखने की। कभी किसी ने विचार किया ...है कि अधजल गगरी छलकती है तो सारा दोष उसका नहीं होता, कुछ दोष तो हमारे चलने में भी होगा। मुझे याद है, जब खेतों में पानी वाला घड़ा उठाते थे, तो वहाँ भरा हुआ भी छलकता था, और अध भरा भी छलकता था, क्योंकि खेतों में जमीं समतल नहीं होती, जब जमीं समतल नहीं होगी, तो हमारे पाँव भी सही से जमीं पर नहीं टिक पाएंगे।और इसी कारन गगरी छलक... जाती है ....इसमें उस  बेचारी  गगरी का क्या दोष हैं .....??
                                तो भाई मेरी बात मानो तो ये हल्कापन छोड़ कर अपने स्वभाव में गंभीरता लाये और चापलूसों से दुरी बनाए .....ok ...

मुझे जो लिखना था लिख दिया किसी को मिर्ची लगे तो लगे क्या करू ...?

1 टिप्पणी:

  1. कल दिनाक १८/१/२०१३ से आज १९/०१/२०१३ को सुबह ८.१५ AM तक इस ब्लॉग को करीब 175 ब्यक्तियो ने पढ़ा ....आप सभी पाठको को बहुत बहुत आभार ...पर जिसके लिए लिखा उसने इसे पढ़ा .ये बात नहीं पता है .....यदि ओ इस ब्लॉग को पढ़े तो अपनी रे जरुर रखे .......सुन रहे हो भिया ...

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