गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

क्या ईश्वर (इशु)पाप क्षमा करते हैं?

आज ईसाई समाज में एक फैशन सा चल पड़ा हैं वो हैं चर्च में जाईये , ईसा मसीह के समक्ष अपने द्वारा किये गए पापों को कबूल (confess) करिए आपके पाप सदा सदा के लिए क्षमा अर्थात माफ़ हो जाते हैं. हैं ना सबसे आसान तरीका, पाप करो और मांफी मांग लो, सजा तो कोई मिलेगी ही नहीं, अगली बार उससे भी बड़ा पाप करों और फिर माफ़ी मांग लो, कोई सजा नहीं, सजा किस बात की, आपने जो पाप किया उसके लिए आप माफ़ किये जा चुके हो इसलिए आपके खाते में तो सिर्फ पुण्य ही पुण्य बचे हैं, पाप तो सारे के सारे माफ़ ही हो चुके हैं. आप तो अब स्वर्ग में ईश्वर के सिंहासन के बगल में बैठने के भागी बन गए हैं क्यूंकि आपके पुण्य आपको उसके लिए उपर्युक्त बना देते हैं.जरा सोचिये बम्बई हमले के दोषी अजमल कसाब ने जज के सामने कोर्ट में बयान दिया की आप मुझे फाँसी की सजा नहीं दे सकते क्यूंकि मैंने चर्च जाकर आपने पापों की क्षमा मांग ली हैं. ईश्वर सभी गुनाहों को मांफ करने वाला हैं. उन्होंने मेरे सारे पाप माफ़ कर दिए हैं.अब जज क्या करेगे कसाब को तो सबसे बड़ी अदालत ने माफ़ कर दिया हैं. उसकी अदालत के आगे आदम की अदालत की क्या बिसात हैं? ऐसी ही दलील कुछ कुछ संसद पर हमला करने वाले आतंकवादी ने अदालत में दी और ओसामा बिन लादेन ने अमरीकी अदालत में भी दी.अब जज क्या करेंगे?
पढने वाले सोचेगे की इसी तरह सभी कैदियों को माफ़ कर दो फिर देखों समाज में कैसी अराजकता फैलती हैं. सभी असामाजिक तत्व लूट-पाट , चोरी ,क़त्ल  आदि करके हर शाम को चर्च जाकर माफ़ी मांग लेंगे. समाज में बहुत कम समय में ही ऐसी अशांति, ऐसी बर्बादी फैलेगी की तथाकथित मानव अधिकार वाले कहेंगे की इससे अच्छा तो यह जेल में ही अच्छे थे. कम से कम हम चैन से जी तो सकते थे.जब व्यावहारिक रूप से आज भी समाज में पाप क्षमा करना मतलब समूची मानव जाति की शांति को भंग कर मानव सभ्यता को खतरे में डालने के समान हैं तो फिर हम कैसे यह सोच सकते हैं ईसाई समाज में प्रचारित करी जा रही उक्ति की “केवल ईसा मसीह ही सच्ची शांति और स्वर्ग के मार्ग हैं क्यूंकि वे ही हैं जोकि पापों को क्षमा करे वाले हैं” में कितना दम हैं.वेद आदि शास्त्रों में ईश्वर को न्यायकारी बताया गया हैं अर्थात जैसे कर्म हैं वैसा फल देना. वेदों में ईश्वर को दयालु भी बताया गया हैं. अब कोई व्यक्ति यह आक्षेप करे की ईश्वर जब पाप कर्मों का दंड देते हैं तो वे दयालु कैसे हो सकते हैं? क्यूंकि दया का अर्थ हैं दंड दिए बिना क्षमा कर देना. इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमे कुछ पहलुओं पर विचार कर लेना चाहिए.
पहले तो  ईश्वर जो दंड दे रहे हैं इसका प्रयोजन क्या हैं ? क्या बदला लेना अथवा सुधार करना हैं ?
दुसरे दंड देने से ईश्वर का कोई निजी लाभ नहीं हैं अथवा नहीं?
तीसरे अगर कोई निजी लाभ नहीं हैं तो फिर ईनाम अथवा दंड किस प्रयोजन से दिया जाता हैं?
चौथा क्या दंड देने से ईश्वर अन्यायकारी कहलाते हैं?
परम सत्य हैं की ईश्वर के किसी भी दंड का प्रयोजन किसी से बदला लेना नहीं अपितु उसे सुधारना हैं.जब मनुष्य का मन दुष्कर्मों के करने में इतना प्रवित हो जाये की उसकी खरे- खोटे में विवेक करने की शक्ति शुन्य हो जाये तो ऐसी स्थिति में उसके समाज में रहने से सिवाय हानि के कोई और आशा नहीं करी जा सकती हैं. इसलिए उस मनुष्य को समाज की कुसंगति से पृथक कर सुधरने का मौका दिया जाये जिससे न केवल उसका भला हो अपितु दूसरों को भी उससे शिक्षा मिल सके. जब सुधरने की कोई आशा नहीं बचती तो उसे कठोर से कठोर दंड दिया जाता हैं. अब सभी पाठक इस बात से भी सहमत होंगे की ईश्वर का दंड देने में कोई निजी लाभ नहीं हैं तो ईश्वर के इस निस्स्वार्थ भाव से औरों को सुधारना महान दया नहीं तो और क्या हैं? यदि ईश्वर जीवो को कर्मों का फल देना छोड़ से तब तो यहीं कहाँ जायेगा की ईश्वर ने सुधार का कार्य बंद कर दिया हैं और यह ईश्वर की दयालुता के बिलकुल विपरीत हैं. किसी भी मत पंथ का व्यक्ति यह नहीं कह सकता की ईश्वर का कर्म-फल देने में कोई निजी स्वार्थ हैं तो फिर ईश्वर के इस न्याय को दया भाव कहना ही सही हैं. ईश्वर द्वारा कर्म-फल की व्यवस्था अपनी अनादी प्रजा यानि जीवों का सुधार करने के प्रयोजन से हैं परन्तु यह स्मरण रहे की जो सुख की इच्छा रखता हैं उसे ईश्वर के नियमों का पालन करना ही होगा.यह अत्यंत आवश्यक हैं. कुछ जिज्ञासु यह शंका भी कर सकते हैं की जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करेगा तो उस जीव को दंड क्यूँ दिया जायेगा? इसका उत्तर स्पष्ट हैं की ईश्वर हमारे कल्याण के लिए ही सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे रहे हैं और अगर कोई भी उस कल्याण मार्ग के विपरीत चलेगा तो उसमे दोष उत्पन्न होंगे और यदि दोष उत्पन्न होगा तो पाप भी उत्पन्न होगे और यदि पाप उत्पन्न होगे तो दुःख और कलेश ही उनका फल होगा. इसलिए ईश्वर को पापी को फल देना आवश्यक हैं. यही कर्म-फल व्यवस्था हैं. ईश्वर पापों की सजा देने से अन्यायकारी नहीं अपितु न्यायकारी कहे जायेगे. किसी को बेवजह ही सुखों का पत्र और किसी को बेवजह ही दुखों का पत्र ईश्वर नहीं बनाते. सब अपने इस जन्म अथवा पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों का फल हैं.
ईसाई समाज द्वारा जो प्रभु के न्याय व दया की सिद्धि के लिए ईसा का सूली पर चढ़ना और उसके बदले में लोगों के पापों को क्षमा किया जाना मानते हैं , यह भारी भूल हैं. क्यूंकि इससे ईश्वर पर बहुत से कलंक लगने के अलावा कोई और लाभ नहीं हैं. पहले तो किसी व्यक्ति को दुसरे के स्थान पर दण्डित करना अन्याय हैं अत्याचार हैं फिर किसी दुसरे के फाँसी पर चढ़ जाने से सबके पाप क्षमा होना असंभव हैं. मान लीजिये समाज में कोई चोरी कर रहा हैं , कोई हत्या कर रहा हैं उन दोषियों को दंड देने के स्थान पर समाज के एक श्रेष्ठ व्यक्ति को उसके बदले में दंड देना कहाँ का न्याय हैं. आज शिक्षित ईसाई समाज को पाप क्षमा होने के मिथक से बचना चाहिए क्यूंकि अगर पाप इसी प्रकार माफ़ होने लगे तो हर कोई अधिक से अधिक पाप करेगा और ईश्वर का कार्य पापों को बढ़ाना नहीं अपितु कम करना हैं.
आज कोई भी ईसाई मत को मानने वाला अगर यह कहे की केवल हमारे प्रभु ईसा मसीह पर विश्वास होने करने भर से पाप क्षमा होते हैं तो आप उनसे यह तर्क पूछ सकते हैं परमेश्वर का कार्य मनुष्य को और अधिक  पापों में सलंग्न होने से बचाना हैं नाकि प्रोत्साहन देना हैं.इसलिए ईश्वर द्वारा वेदों में वर्णित कर्म फल व्यस्था ही एक मात्र सत्य हैं और सुख प्राप्ति का आधार हैं.

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