शनिवार, 30 जून 2012

हिन्दू धर्म में जाति व्यवस्था वरदान या अभिशाप ?


आज हिन्दू समाज में जाति या वर्ण व्यवस्था .... निस्संदेह एक अभिशाप की तरह है..... और, एक कलंक है ....!

परन्तु..... क्या सचमुच में ...... वर्ण व्यवस्था का यही उद्देश्य था.....?????

दरअसल .... जब कोई विशाल और भव्य भवन का निर्माण होता है... तो, उसकी विशालता और भव्यता के लिए जो परिश्रम और रचनात्मकता लगती है.... वो ही कार्य दक्षता, इतिहास में विरासत के रूप में लिखी जाती है ..!
परन्तु... जब उस विशाल और भव्य भवन की आवश्यकता पूर्ण हो जाती है ...... तथा वो बाहरी प्रभाव के कारण जर्जर हो जाती है और ढहने लगती है.... तो, उस समय के समाज के लिए वह भवन विशालता और भव्यता का कारण न बनकर दुर्घटना का कारण बन जाती है.... तथा भयावह हो जाती है ...!कमोबेश ... आज यही स्थिति भारत में हिन्दू समाज के वर्ण व्यवस्था की है ....!
कभी इसी वर्ण व्यवस्था ने भारत को शिखर पर पहुँचाया था.... परन्तु आज 1400 सालों की सामाजिक संकरण और बाहरी धर्मों की गन्दगी ने आज इसकी प्रासंगिकता को ख़त्म कर दिया है...... और, और जो जातीय प्रबंधन रुपी जंजीर कभी हमारे हिन्दू समाज के लिए कभी सुरक्षा प्रदान करती थी........ आज वही जातिवाद की जंजीरें हमारी बेड़ियाँ बन चुकी हैं ....!
क्या आपने कभी जाति व्यवस्था के स्वर्णिम पहलुओं पर निष्पक्ष रूप से विचार किया है...??????
क्या आपने कभी सोचा है कि..... आखिर समाज में रहने और समाज के सर्वांगीण विकास के लिए जाति व्यवस्था क्यों आवश्यक थी..........????
इस बात को समझाने के लिए .... आज के सामाजिक परिदृश्य पर थोडा नजर दौडाएँ........!
आज के समाज में रेडियो 15 रुपये में मिल रहा है...... और, अरहर की दाल 80 रुपये में..... !!!!!!!!
पिज्जा की होम डेलिवरी है...... और, चिकित्सा सुविधा नहीं है........!
भारत में आज लगभग 70 लाख लोग इंजीनियरिंग की पढाई कर रहे है ..... वहीँ दूसरी ओर .... सेना और रक्षा सेवाएँ प्रतिभा की तलाश में है..........!
आज हर लोग .... और समाजशास्त्री परेशांन हैं ....ऐसी सामाजिक अव्यवस्था से.....!
ऐसा इसीलिए है कि.........भारत के हिन्दू सामाजिक सिद्धांतों के आधार पर जो जाति व्यवस्था बनी थी उसका मूल उद्देश्य समाज का चहुँमुखी विकास था ....!
समाज में हर किसी का विकास हो ...... यही जाति व्यवस्था का लक्ष्य था..!
और.... यही कारण है कि ..... हिन्दुओं ने कला, विज्ञान ,कृषि, रक्षा, सौंदर्य, खगोल, ज्योतिष, गणित ,साहित्य ....आदि सभी क्षेत्रों में सभी क्षेत्रों में सामान रूप से विकास किया.... हर क्षेत्रों में एक नया कीर्तिमान स्थापित करते हुए दुनिया में अपनी विजय पताका फहराई....!!
जरा सोचिये.............. जिस विकृत जाति व्यवस्था को हिन्दू समाज की बुराई के रूप में हमें परिभाषित किया गया और हमने मान लिया ....!
यदि... भारत में आज भी जाति व्यवस्था के हिसाब से ही आज कार्य होता तो ..........बाटा, लिबर्टी जैसी कंपनियों में किसका अधिपत्य होता... और, उनमे काम कौन करता .....????
लुहार जाति के लोगों का ही अस्तित्व होता भारत की समस्त लौह सम्पदा पर ....ऐसे में इस्पात संयंत्रों में काम करने वाला अधिकारी, अभियंता, प्रबंधक कौन होता ....???
पूरे भारत में काम करने वाली समस्त दुग्ध उत्पादों , अमूल, पराग और मदर डेरी में हिन्दू यादवों का ही अधिपत्य होता ...... डेयरी तकनीक और अनुसन्धान हो या कोई भी शिक्षण समाज सब कुछ संरक्षित होता यादव समाज के लिए ....!
आज पूंजी के आधार पर टाटा तनिष्क .. और डी-डमास जैसी कम्पनियाँ ....सुनार समाज का रोजगार लील रही हैं ....परन्तु, यदि सुनार समाज भारत के सभी आभूषण कारोबार की देखरेख करते तो......... आप आसानी से समझ सकते हैं कि सुनार समाज कहाँ होता ...????
भारत के केवट समाज भी आधुनिक होकर भारतीय नेवी की रीढ़ बन गया होता ...!
ब्राह्मण समाज को आज समाज में पान की दुकान या राजनीति नहीं करनी होती ....अपितु कला साहित्य और विज्ञान क्षेत्र इनके अधीन होते ...!
क्षत्रिय समाज सेना और राजनीति के माध्यम से पूरे समाज में......... सबकी सुरक्षा कर रहे होते.....!
राजनीति के प्रबंधक ,सेना के अधिकारी, अभियंता कृषि कार्य से सम्बंधित सभी कार्यों पर शुद्र समाज का अस्तित्व होता और समस्त भारत में सभी कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसन्धान संस्थानों के वैज्ञानिक और प्रोफ़ेसर भी इसी समाज से होते ...........!
यदि ऐसी संकल्पना होती तो पूरा हिन्दू भारतीय समाज सभी दिशाओं में विकास करता और कहीं कोई ... किसी भी प्रकार के आरक्षण का झगडा नहीं होता...!
भारतीय हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था आधारित संकल्पना बड़ी ही अनुपम और अद्वितीय थी ....!
पीढ़ी दर पीढ़ी शोध और विकास चलता रहता था ... और हर समाज एक दुसरे से लाभान्वित होता था ...!
परन्तु.... दुर्भाग्य से समय की धार और.... मुस्लिमों आक्रान्ताओं के लगातार हमलों ने हमारे हिन्दू समाज के इस अनुपम ताना-बाना को छिन्न-भिन्न कर दिया..... और .... हमारी ये अद्वितीय जाति व्यवस्था.... वरदान के बदले एक अभिशाप और कलंक बन गयी ...!
जय महाकाल...!!!
Disclaimer : इस लेख का उद्देश्य जाति व्यवस्था को बढ़ावा देना कतई नहीं है...... बल्कि , सभी जातियों को समाज के लिए महत्वपूर्ण और एकरूप बताना है...!

साथ ही लेख का उद्देश्य ये साबित करना है कि..... जाति व्यवस्था... किसी को बड़ा या छोटा बनाने के लिए नहीं बल्कि....... समाज के सर्वांगीण विकास के लिए बनायीं गयी थी...

by Satish Kumar Ji

गुरुवार, 28 जून 2012

!!33 करोड़ देवी देवताओं का रहस्य !!

कुछ मूर्ख लोग कहते हँ की हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता हँ
ये दुष्प्रचार हिन्दू विरोधियो का किया हुआ हँ
वह 33 करोड़ नहीं बल्कि 33 कोटि ( प्रकार ) हँ
8 वसु, 11 रूद्र , 12 आदित्य , इंद्र , प्रजापति , ये 33 प्रकार के देवता हँ!!
 
नोट ----ब्लॉग अभी पूर्र्ण नही हुआ है ....
 
 

मंगलवार, 26 जून 2012

!! क्या यही है भारतीय लोकतंत्र ?

 राजतंत्र से भी बदतर भारतीय लोकतंत्र हो रहा है ,,क्योकि आज लोकतंत्र के नाम पर राजतन्त्र बनाम परिवार तंत्र हो गया है ..एक ही खानदान से बहुत से नुमाइंदे निकल रहे है जिनका पेसा ही राजनीत बन गई है ...किसी पार्टी का नाम नहीं लुगा नहीं तो मिर्ची लग जायेगी इन पार्टियों के नेताओं को ..खासकर क्षेत्रीय पार्टिया तो हद कर रही है ..
             लोकतंत्र के इतिहास को अगर खंगाला जाय तो समझ में आएगा कि भारतवर्ष को अन्य लोकतान्त्रिक देशों की तुलना में लोकतंत्र काफी आसानी से या यूं कहिये लगभग घलुआ में हाशिल हो गया .....लोकतंत्र ! अमेरिका में लोकतंत्र की खातिर सैकड़ों वर्ष जंग हुई,अब्राहम लिंकन से लेकर बी.टी.वाशिंगटन तक की कहानी दुनिया चाह के भी भुला नहीं सकती ! हम तो गुलामी के दौर से गुजर रहे थे और हमारी राजतांत्रिक व्यवस्था को छिन्न -भिन्न करने का काम अंग्रेजों ने पहले ही कर दिया था। यानि कि गुलाम हुआ था राजतांत्रिक भारत और आजाद हुआ सूद-मूल लेकर लोकतान्त्रिक भारत के रूप में ! और उसी अपनी गलती का अंग्रेजों को भोग भोगना पड़ा भारत को मुक्त करने के रूप में ! लाख हम चिल्ला लें लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का गलतिय नारा अंग्रेजों का ही दिया हुआ था........

लेकिन आज आजादी के तिरसठ सालों बाद भी हम ऐसे मानसिक दिवालियेपन कि स्थिति से गुजर रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं तक में नेताओं को उठा के मार्शल से फेक्वाया जाता है,इतना ही नहीं महिला विधायिकाओं तक को ! ये क्या है ,कहाँ चली गयी सत्तासीन नेताओं को ऊचीं मानसिकता ,जहाँ दो विरोधी ध्रुव के लोग भी एक दुसरे का सम्मान करते थे ! ये तो राजतन्त्र से भी बदतर है ! अतः ,इसके विरोध में व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर सारे दलों के नेताओं को आगे आना चाहिए जिससे देश कि संसद,विधायिका का तो कम से कम मटियामेट होने से बच जाय.........

!!कुंठित मानसकिता के लोग और बलात्कार !!



आज सुबह सुबह ही फेसबुक में एक नागा साधू की फोटो दो लडकियों के साथ पोस्ट किया था ,,संघर्ष क्रांती नाम के किसी ब्यक्ति ने ...क्योकि इनकी मानसकिता कुंठित है ..ये क्या जाने दिगम्बर जैन सद्गुओ और नागा साधुओ की परम्परा ..बस वही से इस लेख का जन्म हुआ ...कुंठित और विकृत मानसिकता तो इस सामाजिक कलंक के मूल में प्रधान होती ही है,अन्यथा अबोध बच्चियां,प्रौढ़ महिलाएं ,मानसिक रूप से विक्षिप्त महिलाएं,खेतों ,खलिहानों और अन्य कार्यस्थलों पर काम करती हमारी बहिनें इस जघन्य जुर्म का शिकार क्यों बनती ?
यदि बलात्कार के कारकों पर हम विचार करें तो अशोभनीय वस्त्र विन्यास इस अपराध में वृद्धि करने वाला एक कारक अवश्य है,परन्तु केवल वस्त्र विन्यास को ही उत्तरदायी नहीं माना जा सकता. शराब और नशे से सम्बन्धित पदार्थ का अत्यधिक सेवन करने वाले लोग इस संदर्भ में संभवतः सर्वाधिक दोषी माने जाते हैं..क्योंकि ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपना विवेक खो बैठते हैं और उनको बच्ची ,प्रौढा या फिर युवती में अंतर नहीं दिखता.........

कुंठित मानसिकता का जहाँ तक प्रश्न है इस मानसिकता से ग्रस्त होने के पीछे भी कुछ कारण हो सकते हैं जिनमें ,………..

व्यक्ति के घर का वातावरण ,उसके संस्कार,मित्रमंडली ,दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली , निठल्ला होना आदि अन्य कारक भी व्यक्ति की मानसिकता को कुंठित करते हैं.अत्यधिक पैतृक सम्पत्ति आदि होने पर प्राय धनिक परिवारों के लड़के ऐसे ही अपराधों में प्रवृत्त हो जाते हैं.ऐसी मानसिकता से सम्पन्न लोगों पर अश्लील सिनेमा तथा अन्य भद्दे कार्यक्रम सदा नकारात्मक प्रभाव ही डालते हैं........

इतना मैं अवश्य कहना चाहुगा  कि नारी विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति है,जो पुत्री,,बहिन, प्रेमिका ,पत्नी ,माँ तथा अपने विविध रचनात्मक रूपों में समाज को नवीन दिशा प्रदान करती है,सृजन करती है,परन्तु आज पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के कारण (जिसमें चकाचौंध से प्रभावित होकर उस संस्कृति के दोषों को अपनाया जा रहा है) दूषित होते परिवेश के कारण नारी भी अपनी गरिमा खो रही है.आज तथाकथित आधुनिका बनने के प्रयासों में उसके अश्लील वस्त्र विन्यास,सिगरेट, शराब तथा अन्य नशीले पदार्थों के सेवन का आदि होना उसको पतन के गर्त में धकेल रहा है(महानगरों में ये स्थिति असाध्य रोग का रूप धारण करती जा रही है).हमारी ये तथाकथित आधुनिकाएँ इन दुष्प्रभावों से अभी आँखें मूंदे भले ही अपने हितैषियों को पिछडा मानती हों परन्तु कभी न कभी उनको पश्चाताप अवश्य होगा परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और ना जाने हमारी कितनी पीढ़ियों को ले डूबेंगी.क्योंकि नारी रचियता है.जैसी रचना होगी वही समाज का स्वरूप होगा.(इस समस्त विश्लेषण का अर्थ ये कदापि नहीं कि नारी मुक्ति आंदोलन के समर्थकों की भांति मैं भद्दे वस्त्रविन्यास की समर्थक हूँ .शालीन और सुसंस्कृत व्यक्तित्व नारी के सम्मान में सदा चार चाँद लगाता है.)
आज हमारा दायित्व है कि हम अपनी बहिनों,बेटियों को उत्तम संस्कार दें ,उनके सद्गुणों के विकास पर ध्यान केंद्रित कर उनके रचनात्मक गुणों के विकास में सहयोगी बनें .बाल्यावस्था से ही उनको उनके हित -अनहित के विषय में बताया जाए.इसी प्रकार लड़कों का भी संस्कारित वातावरण में पालन-पोषण उनको कुंठित होने से बचाया जा सकता है,साथ ही उनकी रूचि के अनुरूप उनके रचनात्मक कार्यों को प्रोत्साहन देते हुए उनको व्यस्त रखने का प्रयास किया जाय और अवांछित संरक्षण न दिया जाय.
अंत में पुनः एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर भी ध्यान आकृष्ट करना चाहता हु ...........

 ,,आज ऐसे केसेस भी सामने आ रहे हैं,जिनमें प्राय महिलाएं भी किसी भी कारण से अपने अधिकारी ,सहकर्मी या अन्य किसी भी व्यक्ति से बदला लेने के लिए भी बलात्कार का आरोप उनपर लगाती हैं.ऐसी परिस्थिति में सम्बन्धित महिला को भी दण्डित किया जाना चाहिए ! ये कोई मनगढंत या कपोलकल्पित घटना नहीं वास्त्विकता है. .

शुक्रवार, 22 जून 2012

!!मूर्ति भंजक महमूद गजनवी को किस तरह मार कर भगाया !!

कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ‘कक्रोटा वंश’ का 245 वर्ष का राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। इस वंश के राजाओं ने अरब हमलावरों को अपनी तलवार की नोक पर कई वर्षों तक रोके रखा था। कक्रोटा की माताएं अपने बच्चों को रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाकर राष्ट्रवाद की प्रचंड आग से उद्भासित करती थीं। यज्ञोपवीत धारण के साथ शस्त्र धारण के समारोह भी होते थे, जिनमें माताएं अपने पुत्रों के मस्तक पर खून का तिलक लगाकर मातृभूमि और धर्म की रक्षा की सौगंध दिलाती थीं। अपराजेय राज्य कश्मीर इसी कक्रोटा वंश में चन्द्रापीड़ नामक राजा ने सन् 711 से 719 ई.तक कश्मीर में एक आदर्श एवं शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह राजा इतना शक्तिशाली था कि चीन का राजा भी इसकी महत्ता को स्वीकार करता था। इससे कश्मीरियों की दिग्विजयी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। अरब देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने की दृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कूटनीतिज्ञता का आभास भी दृष्टिगोचर होता है। अरबों के आक्रमणों को रोकने के लिए चीन के सम्राट के साथ सैनिक संधि के परिणामस्वरूप, चीन से सैनिक टुकड़ियां कश्मीर के राजा चन्द्रापीड़ की सहायतार्थ पहुंची थीं। इसका प्रमाण चीन के एक राज्य वंश ‘ता-आंग’ के सरकारी उल्लेखों में मिलता है। साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसकी सर्वधर्मसमभाव पर आधारित जीवन प्रणाली, उसके अद्भुत कला कौशल और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा। कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। इसी प्रकार उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी। शौर्य का इतिहास ईरान, तुर्किस्तान तथा भारत के कुछ हिस्सों को अपने पांवों तले रौंदने वाला सुल्तान महमूद गजनवी भी दो बार कश्मीर की धरती से पराजित होकर लौटा था। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कश्मीरी सैनिकों की तलवार के वार वह सह न सका और जिंदगी भर कश्मीर की वादियों को जीतने की तमन्ना पूरी न कर सका। कश्मीर के इस शौर्य को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया महाराजा संग्रामराज के शासनकाल में। इस शूरवीर राजा ने कश्मीर प्रदेश पर 1003 ई.से लेकर 1028 ई.तक राज्य किया। महमूद गजनवी का अंतिम आक्रमण भारत पर 1030 ई. में हुआ था। संग्रामराज महमूद की आक्रमण शैली को समझता था। धोखा, फरेब, देवस्थानों को तोड़ने, बलात्कार इत्यादि महाजघन्य कुकृत्य करने वाले महमूद गजनवी के आक्रमण की गंभीरता को समझते हुए उसने पूरे कश्मीर की सीमाओं पर पूरी चौकसी रखने के आदेश दिए। सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया ताकि पूरी सतर्कता से प्रत्येक परिस्थिति का सामना कर सकें। प्रसिद्ध इतिहासकार अल्बरूनी ने कश्मीर की सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था में लोगों के योगदान की चर्चा की है, ‘कश्मीर के लोग अपने राज्य की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर में प्रवेश द्वार और इसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप, उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना, बहुत कठिन है।…इस समय तो वे किसी अनजाने हिन्दू को भी प्रवेश नहीं करने देते, दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’ भाग खड़ा हुआ महमूद भारत की सीमाओं पर महमूद गजनवी ने कई आक्रमण किए उसने भारत के अनेक नगर रौंदे। कांगड़ा के नगरकोट किले को फतह करने के बाद उसकी गिद्ध दृष्टि पास लगते स्वतंत्र कश्मीर राज्य पर पड़ी। उसने इस राज्य को भी फतह करने के इरादे से सन् 1015 ई.में कश्मीर पर आक्रमण किया। कश्मीर की सीमा पर स्थित लोहकोट नामक किले के पास तौसी नामक मैदान में उसने सैनिक पड़ाव डाला। तौसी छोटी नदी को कहते हैं। इस स्थान पर यह नदी झेलम नदी में मिलती है अत: इसका नाम तौसी मैदान पड़ा। महमूद के आक्रमण की सूचना सीमा क्षेत्रों पर बढ़ाई गई चौकसी और गुप्तचरों की सक्रियता के कारण तुरंत राजा तक पहुंची। कश्मीर की सेना ने एक दक्ष सेनापति तुंग के नेतृत्व में कूच कर दिया। कश्मीर प्रदेश के साथ लगे काबुल राज्य पर त्रिलोचनपाल का राज्य था। राजा त्रिलोचनपाल स्वयं भी सेना के साथ तौसी के मैदान में आ डटा। गजनवी की सेना को चारों ओर से घेर लिया गया। महमूद की सेना को मैदानी युद्धों का अभ्यास था। वह पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ थी। महमूद की षड्यंत्र-युक्त युद्धशैली कश्मीरी सेना की चातुर्यपूर्ण पहाड़ी व्यूहरचना के आगे पिट गई। तौसी का युद्ध स्थल महमूद के सैनिकों के शवों से भर गया। प्रारंभिक अवस्था में लोहकोट के किले पर महमूद का कब्जा था। कश्मीर से संग्रामराज के द्वारा भेजी गई एक और सैनिक टुकड़ी, जो किले की व्यूहरचना को तोड़ने में सिद्ध हस्त थी, ने किले को घेरकर भेदकर अंदर प्रवेश किया तो महमूद, जो किले के भीतर एक सुरक्षित स्थान पर दुबका पड़ा था, अपने इने-गिने सैनिकों के साथ भागने में सफल हो गया। मिट्टी में मिला गुरूरभारत में महमूद की यह पहली बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गई और उनका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात् महमूद की सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्तव्यस्त हालत में गजनवी तक पहुंच सकी। कश्मीरी सेना के हाथों इतनी मार खाने के बाद महमूद ने संग्रामराज की सैनिक क्षमता का लोहा तो माना परंतु उसके मन में कश्मीर विजय का स्वप्न पलता रहा। वह अपनी पाशविक आकांक्षा पर नियंत्रण न कर सका। अत: महमूद 1021 ई.में पुन: कश्मीर पर आक्रमण करने आ पहुंचा। इस बार भी उसने लोहकोट किले पर ही पड़ाव डाला। काबुल के हिन्दू राजा त्रिलोचनपाल ने फिर उसे खदेड़ना शुरू किया। परंतु इस बार महमूद अधिक शक्ति के साथ आक्रमण की तैयारी करके आया था। पिछले घावों का दर्द अभी बाकी था। नई मार से वह पागल जानवर की तरह हताश हो गया। त्रिलोचनपाल की सहायता के लिए कश्मीर के राजा संग्रामराज ने भी तुरंत सेना भेज दी। महमूद की सेना चारों खाने चित पिटने लगी। महमूद गजनवी की पुन: पराजय हुई और वह दूसरी बार कश्मीरियों के हाथों पिट कर गजनी भाग गया। इसके बाद उसकी मरते दम तक न केवल कश्मीर अपितु पूरे भारत की ओर देखने की हिम्मत नहीं हुई। पुनर्जीवित हो राष्ट्रनिष्ठा महमूद की इस दूसरी अपमानजनक पराजय के संबंध में एक मुस्लिम इतिहासकार मजीम के अनुसार ‘महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का बदला लेने और अपनी इज्जत पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने रास्ते से ही आक्रमण किया परंतु फिर लोहकोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किले बंदी के बाद, बर्बादी की संभावना से डरकर महमूद ने दुम दबाकर भाग जाने की सोची और बचे हुए चंद सैनिकों के साथ भाग गया। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का इरादा उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।’ उपरोक्त वर्णन के मद्देनजर वर्तमान संदर्भ में ये समझना जरूरी है कि हमलावर विदेशी लुटेरों की आक्रामक तहजीब को आधार बनाकर कश्मीर घाटी में भारत विरोधी हिंसक जिहाद का संचालन कर रहे इन्हीं कश्मीरी नेताओं के हिन्दू पूर्वजों ने अनेक शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों को धूल चटाई है। परंतु लम्बे समय तक बलात् मतान्तरण के परिणामस्वरूप इनकी राष्ट्रनिष्ठा लुप्त हो गई। अत: इस समाप्त हो चुकी राष्ट्रनिष्ठा को पुनर्जीवित किए बिना कश्मीर की वर्तमान समस्या नहीं सुलझाई जा सकती।
साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से

!! बौध्धो की कायरता और धोखेबाजी !!


मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पोत्र महान अशोक (?) ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक अगर राजपाठ छोड़कर बौद्ध भिक्षु बनकर धर्म प्रचार में लगता तब वह वास्तव में महान होता । परन्तु अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया। अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी। उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट व्रहद्रथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था । जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत
से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस
दिखा दिया। सम्राट व्रहद्रथ के शासनकाल में ग्रीक शासक मिनिंदर जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर
आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा। बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया। सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ  हथियार भी छुपा दिए गए। दूसरी तरफ़ सम्राट व्रहद्रथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध
कि सेना का सेनापति बन चुका था । बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट वृहद्रथ ने मना कर दिया।
किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत शुंग , सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया। मठों में स्थित
सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी ग्रिफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी। पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर ही सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहासुनी हो गई।सम्राट वृहद्रथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वध कर दिया। वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया।
सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली। मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये। सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से
ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया। बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ,पुन:ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ। डर से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया .किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी ,जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे। पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्र्मद्वित्य व आगे चलकर गुप्त साम्रराज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया.............

!!इसे कहते है भारतीय संस्कृति !!


मोदी जी ने कच्छ मे नखतराना मे एशिया का संबसे बड़ा स्टील प्लांट का उदघाट्न किया .. फिर उन्हें जब बताया गया कि यहाँ से कुछ दुरी पर महिलाओ द्वारा संचालित एक कच्छी हस्तकला केन्द्र है तो उन्होंने उसे देखने की इच्छा जताई .. फिर उन्होंने केन्द्र मे जाने के पहले अपने जूते उतार दिये . .. जब केन्द्र की संचालिका ने उन्हें मना किया तो उन्होंने कहा की कोई भी कार्य स्थल किसी मंदिर की तरह पवित्र होता है..........
यही है भारतीय संस्कृत ..जन कोई सेकुलर कहता है की नरेन्द्र मोदी जी PM नहीं बन सकते तो ऐसी गुस्सा लगती नही की...................?

बुधवार, 20 जून 2012

!!धर्मनिरपेक्षता ?

धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा क्या है ? यह प्रश्न इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्षता की कोई भारतीय अवधारणा हो सकती है क्या? बहुत से शब्द समय के साथ न सिर्फ अपना प्रचलित अर्थ खो देतें हैं उनकी हैसियत भी घट बढ ज़ाती है.! धर्मनिरपेक्षता कुछ दशकों पहले तक नास्तिकों और लादीनों का दर्शन था और एक छोटे शिक्षित समुदाय के बीच ही उसे सम्मान हासिल था. आज की तरह बडी संख्या में हिन्दू और मुसलमान इसकी कसमें नहीं खाते थे.! आज जब बडा समुदाय इस बात को स्वीकार करने लगा है कि धर्मनिरपेक्षता एक श्रेष्ठ सामाजिक मूल्य है और उसका कोई विकल्प नहीं है तब यह इच्छा स्वाभाविक ही है कि अपने अतीत में ऐसी जडें तलाशीं जायें जिनसे यह साबित किया जा सके कि धर्मनिरपेक्षता पश्चिम से आयातित अवधारणा नहीं है और हमारी परम्परा में भी ऐसे तत्व मौजूद हैं जो हमें धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा तक पहुंचने में मदद करतें हैं.!
आधुनिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म का अर्थ राज्य एवं धर्म के सम्बन्धों को इस तरह से पारिभाषित करना है जिसमें राज्य के रोजमर्रा के कामकाज से धर्म और पुरोहितों का सीधा सम्बन्ध नहीं रहता !. यह एक इसाई अवधारणा है जो राज्य और चर्च के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर चली एक लम्बी टकराहट और योरोप के कुछ हिस्सों में फली फूली एक अद्भुत बौध्दिक क्रांति , जिसे पुनर्जागरण कहतें हैं, की परिणति थी.1886 में जार्ज जेकब होल्योके ने यह सुझाव दिया कि 'राज्य और राज्य व्यवस्था को धार्मिक मान्यताओं के नियंत्रण से मुक्त रखा जाय.' 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में भी चर्च और राज्य को अलग करने का मसला एक महत्वपूर्ण मुद्दे की तरह था. मध्य युग में योरोप पूरी तरह से चर्च के अधीन था. चर्च न सिर्फ लोगों के नर्क और स्वर्ग का फैसला करता था बल्कि राज्य की हर गतिविधि उसकी मर्जी से संचालित होती थी. पोप की हैसियत किसी भी रोमन कैथेलिक राज्य के राष्ट्राध्यक्ष से कम नहीं थी.चर्च की तानाशाही के खिलाफ चला प्रोटेस्टेंट आन्दोलन धार्मिक से अधिक सामाजिक और राजनैतिक विद्रोह था. फ्रांसीसी क्रांति तक कमोबेश यह तय हो गया था कि अब चर्च और राज्य दो अलग अलग संस्थाओं के रूप में कार्य करेंगे. राज्य कर लगाने से लेकर युद्ध करने तक के फैसले बिना चर्च की मर्जी से कर सकता है और चर्च अपनी अनुयायियों के धार्मिक क्रिया कलापों तक ही सीमित रहेगा.चर्च और राज्य के सम्बन्धों का यह विकास आसानी से संभव नहीं हुआ था.! योरोपीय समाजों में आद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पैदा होने वाले सरप्लस माल को खपाने के लिये बाजारों की तलाश, राष्ट्र राज्य के जन्म और औद्योगीकरण के फलस्वरूप उदय होने वाले मध्यवर्ग , शिक्षा के सार्वभौमीकरण तथा संचार माध्यमों के अभूतपूर्व विस्तार ने ऐसी स्थितियां पैदा कीं जिनके कारण राज्य और चर्च का घालमेल अधिक दूर तक नहीं चल सकता था. पुनर्जागरण योरोपीय समाज के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया का परिणाम था. यह कहना बहुत मुश्किल है कि चर्च की जकड ढ़ीली होने से लोकतांत्रीकरण तेज हुआ या समाज के सामंती ढांचे के नष्ट होने से चर्च कमजोर हुआ. दरअसल यह कहना अधिक उचित होगा कि दोनों प्रक्रियायों ने एक दूसरे की मदद की और पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त किया. ऐसा नहीं था कि चर्च ने अपनी हार आसानी से मान ली थी. उसने अपने तरकश के क्रूरतम तीरों का इस्तेमाल विरोधी स्वरों को दबाने में किया. धर्म के वर्चस्व को बनाये रखने में उन भौतिक तथ्यों को अबूझ और रहस्य के आवरण में लपेटे रखना जरूरी होता है जिनसे हमारी सृष्टि संचालित होती है. पृथ्वी और तारामण्डल की गतिविधियां , जीवन की उत्पत्ति और मृत्यु के बाद का संसार, मौसम, रोग, भाग्य- बहुत सारे क्षेत्र हैं जिन्हें धर्म विवेक से परे आस्था का विषय बना कर रखता है . जैसे जैसे मनुष्य इनके बारे में जानकारियां हासिल करता जाता है और इनके इर्द गिर्द बुने आस्था के आवरण में तर्क से छेद करने लगता है , धर्म का शिकंजा ढीला पडने लगता है. मध्ययुग के योरोप में भी ऐसा ही हुआ. चर्च ने आसानी से हार नहीं मानी और उन लोगों को आग में जलाने या सूली पर चढाने जैसी सजायें दीं जिन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति या सौरमण्डलों की गतिविधियों पर बाइबिल की निष्पत्तियों से इतर स्थापनायें देने की कोशिश की !. इन सबके बावजूद चर्च को हारना पडा क्योंकि औद्योगिक क्रांति के साथ योरोपीय समाज का सामंती चोला छूट रहा था और एक ऐसा नागर औद्योगिक समाज निर्मित हो रहा था जो धीरे धीरे आस्था पर तर्क को तरजीह देना सीख गया था. जैसे जैसे मनुष्य के ज्ञान का दायरा बढता गया चर्च का प्रभामंडल फीका पडता गया. चर्च की जकडबंदी ढीली पडते ही वे सारे मूल्य प्रतिष्ठित होने लगे जिनसे आज के अर्थों में धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म को परिभाषित किया जाता है.
आज सेकुलरिज्म की आम स्वीकृत परिभाषा एक ऐसे राष्ट्र राज्य की कल्पना करती है जिसमें राज्य का दिन प्रतिदिन का व्यापार धर्माधारित मूल्यों से संचालित नहीं होता. इसके अनुसार राज्य अपने सभी नागरिकों के साथ, उनकी धार्मिक आस्थाओं में भिन्नता के बावजूद , समानता का व्यवहार करेगा. सभी धर्मावलम्बियों का राज्य के संसाधनों पर समान अधिकार होगा और नौकरियों, व्यापार या कानून के मामले में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा. राज्य अपने सभी नागरिकों की जान माल की हिफाजत का जिम्मेदार होगा. राज्य की यह जिम्मेदारी इस्लाम में निहित जिम्मी की स्थिति से भिन्न होगी. जिम्मी में अल्पसंख्यक मुस्लिम राज्य को एक निश्चित कर अदा कर अपने लिये सुरक्षा की गारंटी हासिल कर सकतें हैं. यह गारण्टी इस बात का द्योतक होती है कि अल्पसंख्यकों की स्थिति मुसलमानों से भिन्न और कमतर है. बहुत से मुस्लिम विचारक जिम्मी को इस्लामी राज्य के अल्पसंख्यकों को बराबरी का दर्जा दिये जाने के प्रयास के रूप में मनवाना चाहतें हैं पर धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा की कसौटी पर यह खरा नहीं उतरेगा. आज राज्य द्वारा विभिन्न धर्मावलंबी नागरिकों को सही अर्थों में बराबरी का हक दिये जाने से कम को धर्मनिरपेक्षता की परिधि में नहीं रखा जा सकता.
धर्मनिरपेक्षता की इस सामान्य समझ से परे क्या कोई दूसरी समझ हो सकती है? हिन्दुत्व वादी धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथ निरपेक्षता शब्द का प्रयोग करतें हं. उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता से कहीं धर्म विमुखता की ध्वनि निकलती है. भारतीय मेधा और उससे निर्मित राज्य धर्म से विलग नहीं हो सकता क्योंकि धर्म उसके रोम रोम में समाया हुआ है. उनके अनुसार हिन्दू एक जीवन पद्धति है. उसके विपरीत अन्य सभी धर्म, खास तौर से एक आसमानी किताब और पैगम्बर वाले, पंथ. उनके अनुसार एक धर्ममय राज्य इस अर्थ में पंथ निरपेक्ष हो सकता है कि धर्म (यहाँ हिन्दू धर्म पढा जा सकता है ) के मार्ग पर चलते हुये वह सभी पंथों के प्रति समान व्यवहार ब्करें. हिन्दुत्व वादियों की पंथ निरपेक्षता की यह यात्रा काफी घुमावदार मोडों से गुजरी है और उसमें इतनी सहिष्णुता भी सिर्फ इस लिये आयी है कि अब बदली हुयी परिस्थितियों में सावरकर, हेडगवार और गोलवरकर का कट्टर हिन्दुत्व उनके लिये असुविधाजनक हो गया है. इस बदलाव को देखना भी दिलचस्प होगा और इस लेख में आगे हम उसे समझने का प्रयास करेंगे.
कट्टर हिन्दुत्व से परे एक उदार हिन्दू दृष्टि है जो गांधी से खाद ग्रहण करती है और यह धर्म निरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव तक ले जाती है इसके अनुसार भी धर्म से मुक्त राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती . धर्म राज्य को चलाने की मुख्य परिचालक शक्ति है. गांधी ने राम राज्य की परिकल्पना की. यह राम राज्य एक अमूर्र्त शासन व्यवस्था है जिस तरह राम कथायें बहुत सी हैं उसी के अनुरूप उनमें कल्पित राम राज्य की अवधारणायें भी भिन्न भिन्न हैं .यदि इन सबमें सामान्य सूत्र तलाशें जायें तो जिस राम राज्य की तस्वीर उभरेगी वह वर्णाश्रमी , कर्मकाण्डी और भाग्यवादी राज्य होगा. गांधी अपनी मृत्यु के दो एक वर्ष पहले तक जन्माधारित वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते थे . वे जब भविष्य के भारत राष्ट्र की बात करते थे तब उनकी वाणी और व्यवहार में हिन्दू प्रतीक उभरते थे . अपनी सारी सदाशयता के बावजूद गांधी का वाह्य दूसरे धर्मावलम्बियों खास तौर से मुसलमानों के मन में संशय पैदा करता था. इस हिन्दू प्रतीकों वाले राज्य में मुसलमान द्वितीय श्रेणी के नागरिक होकर ही रह पायेंगे , मुस्लिम मध्य वर्ग का यह विश्वास देश के विभाजन के पीछे के बहुत से कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण है.
कट्टर हिन्दुत्व एक ओर तो हिन्दू को एक ऐसे धर्म के रूप में पारिभाषित करने की कोशिश करता है जिसमें शैव , वैश्णव , जैन , बौद्ध , सिक्ख , आर्य समाजी, सनातनी बहुत सारे पंथ सम्मिलित हैं और यदि उनकी माने तो भारत राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में रहने वाले सभी हिन्दू हैं किन्तु दूसरी तरफ वे मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू मानने से इन्कार करतें हैं.हिन्दुत्व के सबसे बडे व्याख्याकार सावरकर के अनुसार , ''वही व्यक्ति हिन्दू है जो सिन्धु स्थान हिन्दुस्थान को केवल पितृभूमि ही नहीं अपितु पुण्य भूमि भी स्वीकार करता है . मुसलमानों और ईसाइयों की पुण्यभूमि भी यह भारत वसुन्धरा नहीं हो सकती और इस कारण उन्हें हिन्दू के नाम से संबोधित नहीं किया जा सकता.'' लगभग उन्हीं शब्दों में गोलवरकर ने भी मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू के दायरे से अलग रखने के तर्क दियें हैं. इसके विपरीत ये दोनों दुनियां के दूसरे हिस्सों में रहने वाले हिन्दुओं को भारत से भौगोलिक दूरी के बावजूद इसलिये हिन्दू मानने के लिये तैयार हैं क्योंकि उनके आराध्य देवताओं की भूमि भारत है.गोलवरकर ने बिना किसी लागलपेट के अपनी पुस्तक विचार नवनीत में हिन्दुओं को इस बात का स्मरण कराने का प्रयत्न किया है कि , '' वास्तव में वे ही एक राष्ट्र है.'' गोलवरकर ने कई जगह यह लिखा है कि मुसलमानों को भारत में पूर्ण नागरिक अधिकार नहीं मिलना चाहिये और यदि उन्हें इस देश में रहना है तो उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनकर रहना पडेग़ा. इस तरह के पंथनिरपेक्ष नेतृत्व से समकालीन अर्थों वाली धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा.
धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा में विश्वास रखने वाले अक्सर इतिहास में उसकी जडें तलाशने की कोशिश करतें हैं पर मुझे नहीं लगता कि हमारे इतिहास का कोई कालखण्ड ऐसा है जिसमें राज्य और धर्म को उस तरह से अलग किया जा सकता है जैसा धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा में वांछित है. योरोप के सामंती समाज की तरह हमारा राजा भी ईश्वरीय विधान था और पुरोहित उसे वैधता प्रदान करते थे . वर्ण व्यवस्था वैसे भी क्षत्रिय और ब्राह्यण को अन्योन्याश्रित रखती थी और जहाँ राजा क्षत्रिय नहीं था वहाँ उसे वैधता के लिये ब्राह्यण पुरोहित की अधिक आवश्यकता पडती थी. शिवाजी के एक वंशज के बारे में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार वर्णाश्रम के निचले पायदान से आने के कारण जब काशी के पण्डितों ने हाथ के अँगूठे से उसका तिलक करने से इन्कार कर दिया तो उसे पण्डित के पा/व के अँगूठे से तिलक कराकर ही संतोष करना पडा . रामायण और महाभारत जैसे आख्यानों के अनुसार राजा का प्रमुख कर्तव्य ही धर्म की रक्षा करना था और हम अपनी कल्पनाशीलता के जितने भी घोडे दौडा लें धर्म की रक्षा करने वाला राज्य आज का सेकुलर राज्य नहीं हो सकता.
भारतीय परम्परा में कई मौके ऐसे आयें हैं जब धर्म की जकडबन्दी कमजोर हुयी है . चारवाकों ने वेदों के अपौरूषेय होने की मान्यता को चुनौती दी पर वे राज्य के बुनियादी ढाँचे में बहुत खरोंचे नहीं लगा पाये . ब्राह्यणों ने राज्य से मिलकर उन्हें शारीरिक रूप से तो नष्ट किया ही उनका रचित सब कुछ भ्रष्ट कर उन्हें आत्मिक रूप से भी मार दिया.लोकायत की ही परम्परा में गौतम बुद्ध भी आयेंगे जिनके आंदोलन ने पाँच सौ वर्षों तक ब्राह्यण दर्शन को गंभीर चुनौती दी और उसके फलस्वरूप अपेक्षाकृत उदार राज्य संभव हो सका .अशोक के एक शिलालेख में उल्लिखित है कि राज्य सभी धर्मावलम्बियों के साथ समानता का व्यवहार करेगा. पहली शताब्दी आते आते ब्राह्यणों ने फिर राज्य पर कब्जा जमा लिया और एक बार फिर उसी अनुदार और असहिष्णु राज्य के दशर्न हमें होतें हैं जो अपने विरोधी विचार को सहन करने के लिये तैयार नहीं था . मध्ययुग में भक्ति आंदोलन ने भी वर्णव्यवस्था और कर्मकाण्डों पर आधारित जकडबंदी को झकझोरा !. इस दौर के अधिकतर कवि शूद्र और अतिशूद्र जातियों से आते थे. लोकभाषाओं को रचना का माध्यम बनाकर इन कवियों ने संस्कृत और ब्राह्यण रहस्यवाद को तार तार कर दिया था. पर भक्ति आंदोलन का असर इतना नहीं पडा कि आधुनिक संदर्भों वाला राज्य अस्तित्व में आ सके.
इन सारे उदाहरणों के बावजूद भारतीय परम्परा में ऐसे बीज तलाशना लगभग असंभव है जिनपर आधुनिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का वट वृक्ष पनप सकता था.! पश्चिम से धर्मनिरपेक्षता की बयार आने के पहले लगभग पाँच सौ वर्षों तक भारत में मुस्लिम राज्य रहा है. क्या हम उस परम्परा में धर्मनिरपेक्षता के बीज तलाश सकतें हैं ? यह प्रयास और भी मुश्किल होगा.शाह वली उल्ला, जमाल-अल-दीन अफगानी, सैयद अहमद खान और इकबाल चार ऐसे बडे मुस्लिम स्वप्नदृष्टा हैं जिन्होंने आधुनिक भारतीय मुस्लिम मनोविज्ञान की निर्मित में सबसे बडा योगदान किया है. इन चारों का संकट यह है कि वे आस्था को विवेक से ऊपर रखतें हैं!. वस्तुतः यह संकट समूचे इस्लाम का बुनियादी संकट है. हिन्दू या इसाई परम्पराओं की तरह इसमें संशय की कोई गुजांयश नहीं है. इकबाल , शायर होने के कारण, विवेक के ऊपर आस्था की जीत को सबसे खूबसूरती से बयान करतें हैं. दर्शन के छात्र इकबाल लगातार पश्चिम के ऊपर इस्लामी परम्पराओं की श्रेष्ठता की बात करतें हैं और मनुष्य जाति की मुक्ति की एकमात्र संभावना इस्लाम में तलाशतें हैं. यह कहना बहुत स्वाभाविक होगा कि अपनी परम्परा को श्रष्ठ मानने वाला कोई भी दर्शन दूसरी परम्पराओं को बराबरी का हक देने के लिये तैयार नहीं हो सकता और न ही श्रेष्ठता के अहंकार में चूर यह दर्शन किसी ऐसे राज्य की कल्पना कर सकता है जिसका संचालन उसके द्वारा प्रतिपादित नियमों और मान्यताओं से न होता हो.
यही कारण है कि दुनियां भर के मुसलमानों की यह सबसे बडी त्रासदी है कि वे जब अल्पसंख्यक होतें हैं तो धर्मनिरपेक्षता के सबसे बडे अलंबरदार के तौर पर सामने आतें हैं किन्तु जैसे ही किसी भू भाग में वे बहुसंख्यक बन जातें हैं धर्मनिरपेक्ष राज्य उनकी चिन्ता का विषय नहीं रहता और वे एक इस्लामी राज्य बनाने की बात करने लगतें हैं. अल्पसंख्यक के रूप में खुद जिन अधिकारों को वे अपने लिये जरूरी समझतें हैं ,उन्हीं अधिकारों को मुस्लिम राज्यों में अल्पसंख्यकों को देने के लिये तैयार नहीं होते. इस द्वैध को प्रो. मुशीरूल हसन ने अपनी पुस्तक 'इस्लाम इन सेकुलर इन्डिया' में बडी बेबाकी से व्यक्त किया है.उनके अनुसार ''भारतीय मुसलमानों में एक छोटे से वर्ग को छोडक़र बहुसंख्यक समाज किसी भी प्रकार से सेक्यूलर नहीं है.''(पृष्ठ-1) '' उनमें से अधिकांश उलेमाओं का विश्वास है कि राज्य तो सेक्यूलर रहे परन्तु मुसलमानो को सेक्यूलरिज्म से बचाया जाय.'' (पृष्ठ-12) भारतीय मुसलमान अपने जीवन और सामुदायिक गतिविधियों में सेकुलर नहीं होना चाहते पर भारतीय राज्य सेक्यूलर देखना चाहतें हैं इसका उत्तर भी प्रो. हसन के यहां है _ ''भारत के मुस्लिम समुदायों ने भी सेक्यूलर राज्य का स्वागत किया है क्योंकि उन्हें डर है कि इसका विकल्प हिन्दू राज्य ही होगा.'' (पृष्ठ-8) .इसलिये किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसने एक धर्मांधारित राज्य बनवाया , सेकुलर कहना न सिर्फ सेकुलररिज्म शब्द का गलत इस्तेमाल है बल्कि शायद उसके साथ भी ज्यादती है. तुर्की , अल्जीरिया या मिश्र जैसे कुछ अपवाद जरूर हैं जहाँ बहुसंख्यक मुस्लिम राज्य में ऐसे निजाम कायम करने की समय समय पर कोशिश की गयी है जिनमें अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक मुसलमानों के बराबर हक दियें जायें लेकिन वहाँ भी उदारवादियों को इलामी कट्टरपंथियों से लगातार जूझना पडता है.
धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक समझ आस्था पर विवेक की जीत से जुडी हुयी है. एक औद्योगिक समाज में जब तर्क और विवेक को प्रोत्साहित किया जा रहा था तभी यह संभव हो पाया कि चर्च की राज्य पर जकडबन्दी कमजोर हुयी. धर्मनिरपेक्ष राज्य के अस्तित्व के लिये यह नितांत आवश्यक है कि धर्म उसके दैनिन्दिन कार्य की धूरी न बन जाय, धर्म का दखल नागरिकों के व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहे , राज्य लौकिक समस्याओं का हल धर्म में न तलाशें और अपने सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करे. यह तभी संभव होगा जब राज्य आस्था के मुकाबले विवेक को तरजीह देगा. हमें भारतीय परम्पराओं में धर्म निरपेक्षता की जडें तलाशने की जगह अपने संविधान की तरफ देखना चाहिये जो विश्व भर में प्रचलित धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं का निचोड है और जिसके माध्यम से एक प्रगतिशील, वैज्ञानिक और बराबरी का समाज बनाया जा सकता है..............


!! धर्मनिर्पेक्षता और हमारा भारत: पर क्या है सच्चाई ?

जब कभी कही धार्मिक उन्माद होता है तो स्वयंभू धर्मनिर्पेक्ष रोना चालू कर देते हैं और बोलते हैं की अगर ये सब नहीं रोका गया तो बहुत जल्द भारत में एक आतंरिक लड़ाई चालू हो जाएगी जैसी आज तक भारत में नहीं हुई| अब इतना देखने के बाद मैंने धर्मनिर्पेक्षता को नजदीक से जानना चाहा पर मुझे केवल यही मिला की आज हम जिसे भी देखते हैं चाहे वो जिस पद पर भी बैठा है या जहाँ भी है वो धर्मनिर्पेक्षता की बात करता हुआ दिख जाता है पर धर्मनिर्पेक्षता का मतलब नहीं बता पता है| धर्मनिर्पेक्षता एक बहुत अच्छी बात है| सारे धर्म के लोगो को जोड़ कर एक करने की बात है, एक पथ पर लाने की बात है जैसा धर्मनिर्पेक्ष बताते हैं| पर असल में क्या है ये धर्मनिर्पेक्षता? आइये हम सबसे पहले इस धर्मनिर्पेक्षता का मतलब समझाने की कोशिस करते हैं भारत के सन्दर्भ में|

जहाँ तक भारत में धर्मनिर्पेक्षता का सवाल है, भारत सरकार के तरफ से ही धर्मनिर्पेक्षता की कोई परिभाषा नहीं दिया गया है तो क्या ये धर्मनिर्पेक्षता केवल इस लिए है की जो हमारी सरकार चाहे या धर्मनिर्पेक्षता को लेकर जो भी सोच हो हम पर जबरदस्ती थोप दिया जाये| धर्मनिर्पेक्षता नामक इस गूढ़ प्रश्न का सर्वविदित उत्तर देखें तो वो होता है की देश में सभी धर्मों का दर्जा बराबर रहे कहीं से कोई अंतर ना रहे किन्ही भी धर्मो के बिच में चाहे धर्म के नाम पर चाहे उस धर्म को मानने वालों के संख्या के आधार पर| देश में उपस्थित सारे धर्मों को अपने धर्मानुसार आगे बढ़ने की आज़ादी हो और वो बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के| देश की सरकार का धर्म से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए| धर्म देश में रहने वाले लोगो का व्यक्तिगत सोच हो और राह हो|

पर भारत में धर्मनिर्पेक्षता को पूरी तरह से गलत तरीके से समझाया या बताया जाता है कुछ लोगों की अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए| पिछले ६५ सालो में हमने बहुत से राजनेता देखे जो दिल्ली की संसद में बैठ कर हमर देश पर राज कर रहे हैं या किये पर सभी ने धर्मनिर्पेक्षता की परिभाषा अपने स्वार्थ अनुसार दिया ताकि इनकी बनी बनाई दुकान हमेसा फलती फूलती रहे चाहे भारतीय जनता भांड में जाये|

अब अगर हम हमारे संविधान को देखें तो सबसे पहले संविधान संसोधन के ४२ चरण में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया और उसके कालम २५-१ में साफ-साफ लिखा है, "धार्मिक अंतःकरण का अधिकार सभी को है, जो चाहे अपने धर्म को खुलेआम व्यक्त कर सकता है, अपने धर्म की बात कर सकता है, अपने धर्म को फैला सकता है|" पर इसके साथ एक और बात संविधान में जोड़ी गई की देश धर्म से जुडी बातो पर ध्यान दे सकता है की इससे दुसरो को आर्थिक और शारीरिक रूप से कोई कष्ट ना हो| इतना ही नहीं लिखा है हमारे संविधान में बल्कि इसके आगे भी लिखा गया है जो की बहुत ही महत्वपूर्ण है|

संविधान के कालम २८ में लिखा गया है की, "कोई भी धार्मिक संस्थान को सरकारी फंड से मदद नहीं मिलनी चाहिए|"

पर हमारे देश की ६५ सालो की सरकारों ने संविधान के इन सिद्धांतों को इतना तोड़-मरोड़ दिया की ये धर्मनिर्पेक्ष शब्द मात्र एक मखौल बन कर रह गया हमारे देश में| अब जब हमारे संविधान में सीधे-सीधे धर्मनिरपेक्ष की परिभाषा दे दी गई है की कोई भी भारतीय सरकार से जुड़ा किसी धर्म के बारे में नहीं सोचेगा और न ही व्यक्तिगत रूप से उस धर्म से जुड़े लोगो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने से जोड़ने की कोशिस करेगा तब हमारे राष्ट्रपति भवन में कभी ईद के मौके पर तो कभी दिवाली के मौके पर क्यों लोगो को आमंत्रित किया जाता है| हमारे नेता फिर चाहे वो जो कोई भी हो वो अधिकांश तौर पर इदी बांटते दिख जाते हैं दुहाई दी जाती है धर्मनिरपेक्षता की| हद तो तब हो जाती है जब चुनाव के मौके पर किसी धर्म विशेष के लिए आरक्षण की मांग कर दी जाती है| चलिए छोडिये हम आरक्षण के बारे में यहाँ क्या बताये हमारा मुद्दा तो धर्मनिरपेक्षता है उसके बारे में आगे बताते हैं|

जब संविधान के कालम २८ में ये साफ़-साफ़ लिखा है की किसी भी धार्मिक संसथान को सरकारी फंड से मदद नहीं मिलनी चाहिए तब कुछ चर्चों और मदरसों को कैसे मदद दी जा रही है क्या हमारे देश की संविधान का सीधा-सीधा उलंघन नहीं है?

असलियत ये है की जो भी धर्मनिरपेक्षता की बात करते दीखते हैं वो ही सबसे ज्यादा साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं फिर चाहे वो हमारे धर्मनिरपेक्ष नेता हों या हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार| इसके पीछे और कोई कारण नहीं होता बल्कि उन नेताओ और सरकारों का व्यक्तिगत लाभ होता है जो धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक दिखा राजनीती चाल चलते दिख जाते हैं| जबकि संविधान में एक दम सरल भाषा में कहा गया है की कोई भी सरकार धर्म के नाम पर राजनीती नहीं कर सकती है पर ६५ सालों से धर्म के नाम पर राजनीती करती आ रही हैं सारी धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ| सारी धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ केवल धार्मिक अल्प्संख्यकता को ढाल बना कर उक्त धर्म से जुड़े लोगों को बहलाती फुसलाती हैं जिसका उल्टा असर दुसरे धर्म के लोगो पर पड़ता है जोकि पूरी तरह लाजमी है और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है|

आज तक धर्मनिरपेक्ष भारत में धर्मनिरपेक्ष सरकारों ने धार्मिक अल्प्संख्यकता का कोई माप दंड नहीं दिया की देश की कुल जनसँख्या का कितना प्रतिशत होने पर उक्त धर्म विशेष को अल्पसंख्यक घोषित किया जायेगा|

अब इन धर्मनिरपेक्षों के सामने मै कुछ सवाल रखना चाहूँगा और आशा करूँगा की धर्मनिरपेक्ष इन सवालो का सीधा और सरल भाषा में जवाब देंगे:-

१. जम्मू-कश्मीर में १९४६ से साम्प्रदायिकता कैंसर की तरह फैली हुई है और खुलेआम वहाँ के तत्कालीन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने पहले तो १९४६ में विद्रोह किया जम्मू-कश्मीर को मुस्लिम राष्ट्र बनाने और वहाँ के तत्कालीन राजा, महाराज हरी सिंह तक को जम्मू-कश्मीर छोड़ने की धमकी दी और फिर आजाद भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय के बाद खुलेआम भाषण देते देखे और सुने गए की जम्मू-कश्मीर केवल मुसलमानों का है यहाँ के हिन्दुवों को यहाँ से भगा दिया जाये| और परिणाम आज सबके सामने है की कश्मीर से एक तरह से सारे हिन्दू परिवारों को अपना बसा-बसाया घर छोड़ना पड़ा और दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर होना पड़ा| वहाँ के हिन्दू मंदिरों को तोड़ कर मस्जिद बना दिया गया और ये सब हुआ आजाद भारत में| तब कोई धर्मनिरपेक्ष क्यों नहीं आया सामने?

२. गुजरात दंगे की बात करते हैं आज लोग, शुरुवाती दौर में १९९५ तक में २९५ दंगे हुए गुजरात में और तब शासन में हमारी अभी की धर्मनिरपेक्ष सरकार ही थी और साथ ही अधिकतर दंगाई पाकिस्तान भाग गए उदहारण के तौर पर मै गोधरा के सदवा रिज़वी और चुडिघर का नाम लेना चाहूँगा|

३. गोधरा में साबरमती ट्रेन के साथ ५८ मासूम जानें जलीं तब कहाँ थे ये धर्मनिरपेक्षी|

४. १९८४ में कहाँ थी ये धर्मनिरपेक्षता जब सिखों को खुलेआम सड़कों पर काटा जा रहा था और हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री और भारत रत्न धारी राजीव गाँधी जी ने कहा था की जब बड़ा पेंड गिरता है तब उसके आस पास की धरती हिलती है तो इसमें परेसान होने वाली बात नहीं है| क्या ये धर्मनिरपेक्षता का उदहारण दिया था तब तत्कालीन भारत रत्न विजेता प्रधानमंत्री जी ने?

५. भोजसाला का सरस्वती मंदिर जो की आज भोजशाला कमाल मौला मस्जिद बन चूका है और अभी कुछ समय पहले तक हिंदुवो को साल में एक बार बसंत पंचमी के दिन उस मंदिर के प्रान्गड़ में जाने की इजाजत थी और मुस्लमान हर शुक्रवार को वहाँ नमाज अदा करते थे पर कुछ लोगों के प्रयास और जान गंवाने के बाद हर मंगलवार को मंदिर को हिंदुवो के लिय खोला गया जबकि उस मंदिर में खुदाई करके भी जांचने की जरुरत नहीं है बल्कि वहाँ उस मंदिर की दीवारों और चबूतरों पर आज भी श्लोक खुदे हुए मिले हैं जो एक मस्जिद में नहीं होते| ये क्या है धर्मनिरपेक्षता या कुछ और?

६. अभी हाल में ही हैदराबाद में मंदिर में घंटा बजने पर और राम नवमी मानाने पर प्रतिबन्ध लगाने वाली वहाँ की सरकार ही थी साथ ही हनुमान जयंती मानाने पर भी प्रतिबन्ध लगाने की मांग थी पर जनाक्रोश के कारण उसे पारित नहीं किया गया और कमोबेश इससे भी बदतर स्थिति जम्मू-कश्मीर और बंगाल में है|

७. बंगाल में मुसलमानों को अलग से १०% का आरक्षण देने के साथ-साथ वहाँ मस्जिदों में काम करने वालों को मासिक वेतन के साथ-साथ मुफ्त का इलाज और घर भी| ये कौन सी धर्मनिरपेक्षता है?

उपरोक्त पंक्तियाँ केवल उदहारण मात्र हैं हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष होने के मुखौटे की| ऐसी घटनाएँ लिखने बैठ जाएँ तो पता नहीं कितने ही पन्ने भर जायेंगे|

अब सवाल ये है की क्या सच में हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है या हमारे नेता और लोग जो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते नहीं थकते हैं?

क्या अनेक कारणों में से कुछ कारण जो ऊपर उल्लेखित हैं वो आपको धर्मनिरपेक्ष दिख रहे हैं?

या यहाँ भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल, जो आज अल्पसंख्यक नहीं रहे उनके वोट को पाने के लिए, दुसरे धर्म विशेष के लोगों के हितों को तक पर रख कर और उन्हें धर्मनिरपेक्ष होने का लबादा ओढा कर नपुंसक बनाया जा रहा है? ताकि उस धर्म विशेष के लोग इतने निचे गिर जाएँ की इन नेताओं की आँखों में बसे इन अल्पसंख्यकों के टुकडो पर पालें और उनके कदमो में पड़े रहें जैसा आज से १००० साल पहले हुआ था जब मोहम्मद गोरी नाम का आतताई आया और उसके बाद कई मुग़ल आते गए और उनमे से कुछ यहाँ बस गए| ये मुग़ल भी भारत की धरती पर वैसे ही घुसपैठिये की तरह आए जैसे की अंगरेज| गए केवल अंगरेज| मुग़ल नहीं गए| तो भारत तो १००० साल से गुलाम था आजाद कब होगा ये नहीं पता और ना ही ये पता है की आजाद होगा भी की नहीं ऐसी स्थिति के चलते?


क्या हम सब आज भी धर्मनिरपेक्षता के आड़ में गुलाम बने रहना चाहते हैं जैसे १००० सालों से गुलाम बने हैं?


नोट --यह लेख कई दिनों से मेरे पास पडा था पर पब्लिश नहीं किया था ! आज सचिन सिंह गौर की पोस्ट को देखकर पब्लिश किया ,....

शुक्रवार, 15 जून 2012

!! स्त्री और बाजार !!

अभी कई दिनों से मई एक समाचार सुन रहा हु  राधे माँ को लेकर जो की अपने आप को माँ दुर्गा का अवतार कहती है और हजारो लोगो की भीड़ को आकर्षित करने की क्षमता रखती है बस वही से ऐसा  लगा की आखिर इस स्त्री में ऐसा क्या है जो राजर्षि विश्वामित्र जी लेकर आम हागारिक को विचलित कर रहे है ,आकर्षित कर रही है !
स्त्री हमेशा से पुरुष के लिए एक पहेली रही  है.वह कभी किसी रहस्य-सी लगती है,कभी लगता है कि उसके आर-पार सब कुछ दिखता  है.पुरुष स्वभावतः उसकी ओर खिंचा चला जाता है.यह आकर्षण आखिर किन वजहों से होता है ? क्या इसके लिए केवल विपरीतलिंगी होना ही महत्वपूर्ण कारण है ? पुरुष की स्त्री-मुग्धता केवल उसकी दैहिक सुन्दरता पर ही क्यों निर्भर होती है ? क्या हर जगह स्त्री के दिखने भर से वह मुख्य-धारा में आ गई है ?कुछ ऐसे ही प्रश्न हैं ,जिन पर हमें गंभीरता से विवेचन करने की ज़रुरत है.

अमूमन सुन्दर नाक-नक्श वाली स्त्री को देखकर पुरुष  सहजता से  उसकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं.प्रथम-द्रष्टया  यह कारक इतना प्रभावी होता है कि स्त्री की बाकी खूबियाँ या तो गौण हो जाती हैं या उन्हें  दिखाई नहीं देतीं ! स्त्री की इस 'उपयोगिता' को खुद स्त्री ने और आधुनिक बाज़ार ने बखूबी पहचाना है.यही वज़ह है कि वह  बकायदा एक उत्पाद के तौर पर देखी और परखी जा रही है.ऐसा नहीं है कि इस धारा के अलावा स्त्री की और कोई धारा या दिशा नहीं है पर जिस वज़ह से समाज का पूरा मनोविज्ञान और अर्थ शास्त्र बन-बिगड़ रहा है ,उसकी ही बात यहाँ पर हो रही है.


विपरीत-लिंग होने से स्त्री की ओर पुरुष का झुकाव सहज है और होना भी चाहिए,पर यहाँ गौर-तलब बात यह है कि इस प्रक्रिया में उसका मूल्यांकन गलत हो रहा है.कई बार दैहिक-सुन्दरता के मोह में हम बहुत गलत चुनाव कर लेते हैं.पहले भी सुदर्शन स्त्रियों का 'उपयोग' करके व्यक्तिगत हित साधे गए हैं और आज भी इसमें ज़्यादा अंतर नहीं आया है.इस सबके पीछे आख़िर कौन-सा मनोविज्ञान काम करता है ? यही कि कोई भी इससे आसक्त होकर मुख्य बात या काम को भूल जाये ,स्त्री के वास्तविक गुण गौण हो जाएँ ? उसे क्या एक मार्केट-टूल नहीं समझा गया है ?

एक स्त्री के लिए इससे अधिक पीड़ादायक बात क्या होगी जब  उसे उसकी सीरत नहीं सूरत के आधार पर पहचान मिले,जाना जाये !कई स्त्रियाँ जिनमें औरों से कहीं अधिक कौशल(स्किल) और बुद्धिमत्ता है,पर वे आधुनिक 'पहचान' से अनभिज्ञ या रहित हैं तो  इस नकली और बाजारू दुनिया में उनकी जगह आखिरी पंक्ति  में होती है. जिस स्वाभिमानी स्त्री को  इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ता,उसके लिए  सारे दरवाजे बंद हों,ऐसा भी नहीं है. वह जीवन के हर क्षेत्र में अपनी निपुणता प्रमाणित कर चुकी है ! प्राचीन काल में 'कालिदास' और 'तुलसीदास' के बनने के पीछे विदुषी महिलाओं का ही हाथ रहा है और आज यह काम कहीं ज़्यादा हो रहा है ! एक सफल आदमी के पीछे औरत का हाथ होना यूँ ही नहीं स्वीकार किया गया है पर ऐसी स्त्रियों की चर्चा आज नहीं के बराबर है !

आख़िर, स्त्री आज बाज़ार की क्यों हर उस चीज़ को विज्ञापित करने पर अपना मौलिक और चिर-स्थाई गुण भुला दे रही है ?वह बाज़ार और समाज की माँग के आगे नत-मस्तक-सी हो गई है. इसमें केवल स्त्री भर का दोष नहीं है.हमने इतने सपने पाल लिए हैं,जिनको पूरा करने के लिए उनके पीछे आँख मूँदकर भागे जा रहे हैं . कारपोरेट सेक्टर  स्त्री का भरपूर इस्तेमाल  कर रहा है.औरत की देह हमेशा से आदमी की कमजोरी रही है और तात्कालिक लाभ के लिए इसे भुनाने पर कुछ को ज़रा भी हिचक नहीं होती. यह बात हमारा समाज,बाज़ार और यहाँ तक कि स्त्री भी समझती है !स्त्री का 'वह' तत्व जब चुक जाता है या ढल जाता है तो वह पुरुष और बाज़ार दोनों ले लिए बेकार हो जाती है.

स्त्री के दैहिक-रूप  से इतर उसके पास बहुत कुछ है.अगर इस बिना पर उसका साथ किसी पुरुष से होता है,तो स्त्री को उस रिश्ते पर गर्व होता है,उसका आत्मबल मज़बूत होता है.यह प्रक्रिया या रास्ता थोडा कठिन ज़रूर है पर चिर-स्थायी होता है.बाज़ार में वह देह के बजाय अपने आतंरिक गुणों के बल पर भी  छा सकती है.स्त्री जिस दिन पुरुष या बाज़ार की ज़रुरत के मुताबिक अपने को ढालना बंद कर देगी,वह उसका असली मुक्ति-दिवस होगा ! वह खिलौना या उत्पाद बनना पसंद करेगी अथवा एक अलहदा किरदार ?

गुरुवार, 14 जून 2012

!!हम अच्छे इंसानों को जानते है क्या ? पहचानते है क्या ?

हर गली में है दुर्योधन और दुशासन
 "क्या है इंसान की पहचान शारीरिक सुंदरता या मन की सुंदरता उसके स्वभाव और गुण " आपको क्या लगता है ?? एक बार जुलाई सन 1983 की बात बताता  हूँ मै अपने दोस्तों के साथ  के साथ बस में सफ़र कर रहा अथा...सफ़र क्या हम सभी लोग कॉलेज में दाखिले के लिए जा रहे थे मुझे भी मदद के लिए बुला लिया....तो मै भी उनके साथ चलने को तैयार हो गया  तमाशा तब शुरू हुआ जब मै उनके साथ बस में खिड़कीवाले शीट पर बैठा .बस में एक मोटी सी काली कलूटी लडकी भी खडी थी बस शुरू  - जानेवाले सभी  कमेंट करना चालू हो गया....पहला कमेंट्स  ....वो देख कितनी काली है एक तो काली है ऊपर से काला ड्रेस भी पहनी है......
दुसरा कमेंट्स ...देख कितनी काली और कितनी मोटी है ....तीसरा कमेंट्स ...कौन सी चक्की की आता खाती है जो इतनी मोटी है ? आदि आदि कई कमेंट्स आने लगी और ओ लडकी कुछ देर तक तो सूना फिर ओ जोर जोर से रोने लगी मैं ये सब नजारा देख रहा था ..मेरे से रहा नहीं गया और मैं पिल पडा उन लडको की तरफ ..पहले तो उन लडको को समझाया   नहीं समझे तो फिर हम कई दोस्त मिलकर धुनाई करने लगे ...ड्राइवर ने डर कर बस रोक दिया और ओ लड़के उतर कर भागे और हम भी उनके पीछे पीछे भागे और उनकी धुनाई करते रहे उस धुनाई में हमें भी कई लात घुसे पड़े बस वही बात आज याद आ गई और इस ब्लॉग का जन्म हुआ ......
“अच्छे इंसान की पहचान” बहुत मुश्किल है. यह पहचान हमेशा मुश्किल रही है, हर युग में, पर चुकी यह कलियुग है तो ये कठिनाई अपने चरम की कठिनाई है. कोई अगर यह पूछे की पहले तो सतयुग था फिर त्रेता, जिस युग में अवतार हुए हो वहां भला अच्छे इंसान क्यों नही मिलेंगे , पर उनके प्रश्नों का उत्तर उन्ही क उत्तरों में है. भगवान तब ही तो अवतार लेते है जबकि अच्छे लोग कम और बुरे जयादा हो जाते है!आज के युग में कुछ भी अच्छा ढूंढना मुश्किल होता है, ना शुद्ध वायु मिलती है, ना शुद्ध पानी, ना तो शुद्ध सब्जी मिलती है और ना ही शुद्ध फल सब में मिलावट. इतनी हेरा-फेरी देखकर इंसान के मन ने सोचा जब सबमै मैं ही मिलावट करता हूँ तो मैं शुद्ध रहकर क्यों इसी नयी दुनिया में शामिल ना होऊं … बस इसीलिए अब इंसान भी ‘मिलावटी’ हो गये है..............

मनुष्य एक ‘सामाजिक पशु’ है. पशु शब्द जुड़ने से ही उसकी ऐसी संकीर्ण सोच का कारण स्पष्ट होता है. पशुओ का मन भी ऐसी ही संकुचित व विकृत सोच रखता है. लेकिन सामाजिक शब्द जुड़ने से उसके मनुष्य होने का प्रमाण भी मिलता है. मनुष्य….. जिसके पास आत्मा है व चेतना है.

यही आत्मा और चेतना ही उसे यह एहसास दिलाती है की क्या सही है, क्या गलत है. आत्मा एक चीज़ है या गुण है या यूँ कहे की आत्मा, आत्मा ही है किसी से कोई सम्बन्ध नही है, यह मुक्त है. कहा जाता है कि आज का इंसान ज्यादा आस्थिर मन का है. इसका कारण यह है कि आज के आधुनिकतम परिवेश में कथित रूप से आधुनिक बनने या समय के आनुसार चलने कि जो शर्ते है, तरीके है व नियम है, वह हमारे मूल मनुष्य के स्वभाव को बहुत पीछे छोड़ने को कहते है.

आज झूट बोलना गलत नही वरन जरुरी समझा जाता है, सीधे व सरल लोगो को लोग अच्छा नही वरन बुद्धू मानते है, अपने हित को प्रमुखता व दूसरे कि चिंता ना करने वाले को लोग Smart मानते है, बनावटीपन ना दिखने वाले को पिछली व पुरानी पीढ़ी वाले कि नज़र से देखते है, झूटी कसीदे गढ़ने वालो को आधुनिक माना जाता है…

……जहाँ अच्छे इंसान कि परिभाषा में ऐसे लोग आते है, वहां वास्तव में अच्छे इंसान दूंढ़े तो कैसे ढूंढें.??

किसी दोस्त ने यह कविता कहा है ......कि....

बन बैठा इंसान दरिंदा, तौबा इसकी बुरी नज़र ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
नर्क बना रहे जीवन इनका, इज्जत को इनकी छीन कर ।
ये भी माँ, बहन, किसी कि बेटी है, खुद अपने घर में डाल नज़र ।।
ना भरोसा आस पड़ोस का, ना बचा यकीन किसी रिश्तेदार पर ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
औरत के बदन मैं बस, उसकी इज्जत ही सांसे लेती है ।
दो मुक्ति भय से इसको भी, क्यों डरी डरी ये रहती है ।।
भय भरा है मन में दरिंदो का, स्वछंद भ्रमण अधिकार दो ।
ये विश्व सृजन की भागी है, इसे इज्जत दो सत्कार दो ।।
कोलेज , बस्ती में जीना मुश्किल, छेडी जाती है हर गाँव शहर ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।
उन्नति की ये पहचान है, इसे पढ़ना आगे बड़ना है ।
पापी इसके प्रतिकार से डर, बिन मौत तुझे क्यों मरना है ।।
ना इसका सीना छलनी कर, ऐसी ओछी दुराचारी कर ।
इसने ही रचा है तुझको भी, ना खुद ईश्वर से गद्दारी कर ।।
हर देश सदा आगे बड़ पाया, एक शुद्ध समाज की नीव पर ।
कहाँ कहाँ बच पाएगीं लड़कियां, हर जगह इन्हें लुटेरों का डर ।।



नोट ----आप किसी को कोई अच्छा इंसान मिले तो मुझे इस नंबर पर जरुर बताना ....09826656698  मैं उस अच्छे इंसान से मिलना  चाहुगा ..

बुधवार, 13 जून 2012

!! सोसल नेट्वर्किंग साइटों में ओकात देखते लोग !!

मेरे परम आदरणीय,सम्मानीय ,पूज्यनीय  मित्र सतपाल कासवान जी
यही फोटो FB के खाते में लगा हुआ है
कल एक बंधू "श्री मान सतपाल कासवान जी " ने मेरी ओकात देखा बस वही से यह प्रश्न  मन में उठा की आखिर ये "ओकात " का मतलब क्या होता है ? मैंने इस ओकात सब्द पर मनन किया तो पाया की औकात {aukat} <===> STATUS होता है ! औरत के दिल को पढ़ना भले मुश्किल हो गया हो, आदमी की औकात को पढ़ना हमेशा से आसान काम रहा  है ! यहाँ बात केवल आदमी की औकात की होगी ! हम आदमी को देखते-समझते हैं तो उसकी वेशभूषा से बोलचाल से  और सोसल नेटवर्किग साइटों में उसकी लेखनी से पर यही काम औरत के मामले में प्रारंभिक रूप उसकी सूरत देखकर किया जाता है, जिसमें अक्सर हम मात खा जाते हैं !आदमी की शक्ल या सूरत या तो देखने-समझने लायक होती ही नहीं या हम उसको बिलकुल नज़र-अंदाज़ करते हैं............
कुछ समय  पहले तक आदमी की औकात को समझने और जानने का सही माध्यम जूता रहा है !  हमारे बुज़ुर्ग भी कहते आये हैं कि कि आदमी की औकात उसके जूते से जानी जाती है ! पहले जूता देखकर ही अगले के बारे में यह अनुमान लग जाता था कि वह कितना कुलीन है या उसके जूते में कितना दम है ? भाई लोग अपने जूते की ठसक से समाज को खुले-आम बता देते थे कि अगर उनका जूता चल गया तो भलेमानुसों की सेहत ख़राब हो जाएगी जैसे मेर खराब हो जाती है लोगो के जूते देखते ही  और सोसल नेटवर्किग साइटों में उसकी लेखनी देखते ही पढ़ते ही ! मगर यह सब बातें काफी-पुरानी हो चली हैं और जूते की कुलीनता की पहचान ने अपनी जगह खो दिया और अब जूते की जगह परअब किसी की ओकात उसके वाहन और मोबाइल ने ले लिया है ! जैसे सब्जी मंडी में यदि आप साइकल,बाइक.कार  से जाते है तो आपको सब्जी वाला आपकी साइकल,बाइक.कारको  देखकर सब्जी का रेट बताएगा और आपको आपकी ओकात के हिसाब  से आपकी  सेवा करेगा ! 
                       पर बात करे अपने दोस्तों के बीच  की समाज के बीच की तो अब ओकात पहचानने का माध्यम हो गया है आपका मोबाईल सीधी-सी बात है,अब वही आदमी स्मार्ट  और रुतबेवाला है जिसके पास तगड़ा ,मघा मोबाइल फोन हो हम अब जूते पर नज़र नहीं रखते !किसी को देखते ही हमारी निगाह उसके आधुनिक फोन पर जाती ह ! अगला भी उचक-उचककर अपना फ़ोन दिखाने की फ़िराक में होता है,यदि उसके पास महंगा वाला है ! अगर उसके पास दो-इंची ,बिना टच वाला ,घटिया कैमरा वाला मोबाइल हुआ तो फट से उसकी पहचान एक चिरकुट-टाइप आदमी की हो जाती है ! यदि उसके पास चार-इंची फावड़े-सी स्क्रीन वाला,टच और बढ़िया कैमरे का मोबाइल हुआ तो वह तुरत ही एलीट-क्लास का लगने लगता हैं,भले ही उसने दसवीं कक्षा घिसट-घिसटकर पास करी हो !

फोन ,बाइक,  कार जितना ज्यादा महंगा दिखता है,आदमी की कीमत और इज्ज़त ,औकात उतनी ही ज्यादा होती ह ! आजकल औकात नापने का सबसे आसान तरीका मोबाइल है क्योकि मोबाइल की पहुच और आवश्यकता तो एक कचरा बीनने वाले से लेकर तो PM व CM और मुकेश अम्बानी तक को है ! इसके लिए कुछ पूछने की नहीं बस दिखने की ज़रूरत है ! कुछ अंदाज़ यूँ लगते हैं;यदि किसी के पास ब्लैकबेरी फोन है तो वह किसी कंपनी में एक्जीक्यूटिव हैं और एप्पल का फोन है तो किसी रईसजादे या नेता की औलाद है ,निश्चय ही अच्छी ओकात होगी ! किसी और कंपनी के महंगे फोन से सामने वाला यह ज़रूर अंदाज़ लगा लेता है कि यह कोई आम आदमी नहीं ,बहुत पढ़ा-लिखा है भले ही ग्रेजुअट नहीं किया हो इस प्रकार के लोगो से तो  पुलिस वाले तमीज से बात करते हैं और ऑटो-टैक्सी वाले जमकर किराया मांगते हैं ! इस बीच कार वालों की रेटिंग लगातार गिर रही थी,जबसे हर ऐरे-गैरे नाथू खैरे {मेरे जैसे } ने ईएमआई पर गाड़ी लेनी शुरू कर दी थी ! सो उस स्तर पर क्षति-पूर्ति की जा रही है! पेट्रोल के दाम बढ़ाकर उन कार-धारकों की औकात को भी अपग्रेड किया जा रहा है !अगर पेट्रोल का दाम  पांच सौ रूपये प्रति लिटर हो जाए तो वह दिन दूर नहीं जब गाड़ीवाला भी ठसक से कह सकेगा कि उसके पास पेट्रोल की गाड़ी है !
                   
            एक बात और है  किसी को उसकी ओकात से ज्यादा मिल जाए तो वह पचा नहीं पाता जैसे की कुत्तो को घी पिला दो तो कुत्ते हग देते है और उस घी को पचा नहीं पायेगे ..आज इसी प्रकार से बहुत से कुत्ते टाइप लोग सोसल नेट्वर्किंग साइटों में घूम रहे है जिनकी ओकात जूता पहनने के नहीं थी जिनकी ओकात मेरे घर के सामने खड़े होने की नहीं थी ओ आज मेरे घर में पत्थर फेक रहे है और ओ आज FB में लोगो को ओकात बताते घूम रहे है अच्छा है देश की स्वतन्त्रता ,देश का विकास ,देश का समाजवाद कही तो दिखाई दे रहा  है .!

चलिए बहुत हो गया अब धन की औकात ...अब बाते करते है ब्यक्ति के चरित्र की ओकात की ??...सोचता हु नहीं  लिखू कही लोगो को उनके चरित्र पर उगली उठाऊ तो कही नाराज नहीं पड़ जाए वैसे FB में हम सभी का चरित्र सिर्फ और सिर्फ हमारे लेखनी ही पता चलता है .! और यही लेखनी हमारी एक अलग पहचान बनाती है तो मित्रो आप अपनी लेखनी में सुधार करे और अपनी ओकात को बनाये रखे ! 

                श्री मान सतपाल कासवान जी आपको बहुत बहुत धन्यवाद की आपके कारण आज यह लिखा ..क्योकि आप मेरी औकात नहीं देखते तो सायद यह विचार भी मन में नहीं उठता .....आपको एक बार पुनह बहुत बहुत धन्यवाद और आशा करता हु की आप मेरी औकात इसी तरह से आगे भी देखते रहे और आपसे प्रेरणा लेकर कुछ लिखता रहू ......

यह लेख पूर्णत श्री मान सतपाल जी कासवान को सादर समर्पित है .............

नोट ---अभी यह लेख पूर्ण नहीं हुआ है ..............क्योकि अभी मेरी ओकात का मात्र .००१ % ही यह लेख है ........
 

मंगलवार, 12 जून 2012

!! गुरुत्वाकर्षण का नियम और महर्षि भाष्कराचार्य !!

हम सभी आज भी विदेसियो को बहुत बड़ा ग्यानी -बिग्यानी समझते है ..जबकि हिन्दू सनातन धर्म में वेदों और अन्य ग्रंथो में बिज्ञान भरा पडा है पर हम लोग आज भी इन ग्रंथो को पढ़ना तो दूर अपने घर में भी नहीं रखते है ! क्या हमें अपनी बिरासत से प्रेम नहीं है ? अब आप इस गुरुत्वाकर्षण  की खोज का श्रेय न्यूटन  को देते है जबकि सच्चाई कुछ और ही है ...गुलामे के दौर में हमारे बहुत से ग्रंथो से चुराया हुआ ज्ञान ही हमें परोशा जा रहा है यहाँ तक की नीम और हल्दी को भी पेटेंट में भी अमेरिकी गिध्द दृष्टि लगी है और हमारी सरकार मूक दर्शक बनी है  !

 गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये हमारे लिए शर्म की बात है.

जिस समय... न्यूटन के पुर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था. किन्तु आज हमें कितना बड़ा झूंठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोंज न्यूटन ने की ,ये हमारे लिए शर्म की बात है.

भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-

आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।

ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं ! आवश्यकता स्वभाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है !
 

नोट --लेख अभी पूर्ण नहीं हुआ है !

शनिवार, 9 जून 2012

!!सत्य को जानने का भ्रम हमें सत्य से दूर कर देता है !!

तीसरी कक्षा की एक छात्रा ने घर आकर मां को बताया, मां! आज मुझे स्कूल में प्राइज मिला है। एक प्रतियोगिता थी। मैम ने सवाल पूछा, मैंने जवाब दे दिया।

मां ने कहा, तुम्हारा जवाब सही था, इसलिए प्राइज मिला। कितनी अच्छी बात है।

बच्ची ने कहा, नहीं मां! मेरा जवाब पूरी तरह से सही नहीं था, लकिन काफी सही था, इसीलिए प्राइज मिला। मेरे साथियों के जवाब तो बिल्कुल ही गलत थे। कुछ बच्चों ने तो जवाब ही नहीं दिए।

मां ने पूछा, मैम ने तुमसे क्या पूछा था? बच्ची ने बताया, मैम ने पूछा कि गाय के कितने पैर होते हैं? मेरे सब साथियों ने कहा कि गाय के दो पैर होते हैं, लेकिन मैंने तीन बताए। उसके बाद मैम हमें गाय दिखाने ले गईं और उसके पैर गिनवाए। मेरे साथियों के जवाब तो बिल्कुल ही गलत थे, लेकिन मैंने एक ही कम बताया था, इसलिए मुझे प्राइज मिल गया।

पूरा सच जानना और सच के निकट होना -दोनों दो अलग-अलग बातें हैं। कई बार सत्य के निकट होने की स्थिति असत्य से भी बुरी या उसके बराबर की हो सकती है। लेकिन 'स्यात' शब्द हमें सत्य के निकट ले जाता है। उसके द्वारा पूरे सत्य की उपलब्धि तो नहीं होती, लेकिन यह सत्य के साथ हमें जोड़ देता है। मोटे तौर पर 'स्यात' को आप 'शायद' समझ लें।

जैसे किसी ने सफेद गाय देखी। उसने कहा कि गाय सफेद होती है। यह उसका सत्य है , लेकिन यह पूरा सत्य नहीं है। यदि वह कहता है कि सिर्फ यही सत्य है , तो वह सत्य से हट जाता है। लेकिन यदि कहता है कि गाय सफेद होती है , पर शायद दूसरे रंगों की भी होती हो। तुम कहते हो कि गाय काली होती है , तो शायद ( स्यात ) यह भी सत्य है। स्यात की यही भावना उसको बड़े सत्य के नजदीक पहुंचा देती है।

पूरा सत्य भाषा के माध्यम से उपलब्ध होता ही नहीं। ' स्यात ' शब्द सत्य के परिसर में ले जाता है , सत्य को साक्षात करने की इससे सुंदर युक्ति अन्यत्र नहीं मिलती। यदि ' स्यात ' का भाव मन में हो , तो कभी आग्रह नहीं होगा , जिद या दावा नहीं होगा। इधर आग्रह बहुत पनपा है। जिसने जो जाना , देखा , आग्रह हो गया कि बस यही सत्य है। मैं ने जो देखा है , मैं ने जो सुना है , मैं जो समझ रहा हूं , मैं जो कहता हूं - बस वही सत्य है।

राजा की सभा में एक पंडित था - बहुत विद्वान , तार्किक और अपनी बात पर अड़ने वाला। कोई भी आता और कहता कि यह सच बात है , पंडित उसका खंडन कर देता। एक बार राजा ने कहा , पंडित , तुम बड़े नटखट हो। सबका खंडन कर देते हो। अच्छा , मेरा यह विचार है , बोलो यह कैसा है ? पंडित ने कहा , यह बिल्कुल गलत है क्योंकि यह आपका विचार है , मेरा नहीं। जो मेरा विचार नहीं है , वह सच नहीं हो सकता , गलत ही होगा।

सभी लोग ऐसा ही मानते हैं। सभी लोगों ने सीमा बना कर घोषणा कर दी , मेरे विचार में आओ , तुम्हारा कल्याण होगा , स्वर्ग मिलेगा। अन्यथा नरक में जाओगे। बड़ी दुनिया है। मैं कुछ सोचता हूं , बोलता हूं , तो दूसरा कहने में नहीं हिचकता कि यह सब मेरी नकल है। स्वतंत्र विचार जैसा कुछ भी नहीं है। अरे , सत्य का ठेका क्या किसी एक व्यक्ति ने ले रखा है ?

व्यक्ति में इतना प्रबल अहंकार और इतना बड़ा आग्रह हो जाता है कि सत्य नीचे दब जाता है और उस व्यक्ति का विचार मात्र ऊपर तैरता है। विचार के बंधन से , चिंतन की कारा से तथा स्मृति , कल्पना और बुद्धि की सीमा से परे जाने का एकमात्र उपाय है - स्यात शब्द का सहारा।

स्यात शब्द अपेक्षा की ओर इंगित करता है। वह कहता है - जो कुछ कहा गया है , कहा जा रहा है उसे अपेक्षा से समझो। अपेक्षा से समझे बिना अर्थ का अनर्थ हो सकता है। आग्रह मत करो। अपेक्षा को समझो कि यह कथन किस अपेक्षा से , किस संदर्भ में किया गया है। शब्द की पकड़ खतरा पैदा कर देती है। वह सत्य से दूर ले जाती है।

कोई महान या ज्ञानी व्यक्ति , दस - बीस - पचास पर्यायों की अभिव्यक्ति कर सकता है। पूरे सत्य को वह कभी नहीं कह सकता। उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य के कुछेक पर्यायों को पूर्ण सत्य मानकर बाकी को हम नकार देते हैं। तब सत्य से हटकर असत्य की ओर चले जाते हैं। इसीलिए अनेकांत ने एक युक्ति प्रस्तुत की। उसने कहा , ' तुम असत्य से बच सकते हो यदि तुम ' स्यात ' शब्द का सहारा लेकर चलो। जो कुछ कहा , उसके साथ ' स्यात ' शब्द लगा लो। वह तुम्हें असत्य से बचा लेगा। इसका मतलब होगा , मैं पूर्ण सत्य कहने में असमर्थ हूं। सत्य का मात्र एक पक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं ............. 

शुक्रवार, 8 जून 2012

हिन्दू सनातन धर्र्म में मांसाहार बरजित है ?

हिन्दू सनातन धर्र्म में मांसाहार बरजित है ----- ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, रामायण तथा अन्य वैदिक ग्रंथो में मदिरा सेवन व् मांसाहार की घोर निंदा की गई हे.और इसके कई सारे प्रमाण ग्रंथो में मिलते हे. दीर्घ द्रष्टा ऋषियो ने इसको दुर्व्यसन व् अधःपतन का प्रमुख कारण माना हे. मनुस्मृति, पराशर स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति में भी इसका निषेध किया गया हे. आर्य संस्कृति और सनातन धर्म ऐसे दुर्व्यसनो का हमेसा विरोधी रहा हे. यह बात का ध्यान रखा जाए. अगर कोई हिंद...ू वैदिक काल का प्रमाण देकर मदिरापान और मांसाहार करता हे तो वह गलत होगा. और साथ ही आज वर्तमान में भी कुछ देवी-देवताओ को मदिरा व् पशु बलि अर्पण की जाती हे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हे की इसका सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से हे. यह एक अंधश्रद्धा मात्र हे. क्युकी देवी देवता को मांस और बलि अर्पण करना वैदिक संस्कृति में नहीं हे. जिसके कुछ प्रमाण यहाँ उपस्थित हे. - यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत: यजुर्वेद ४०। ७ जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं | - ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च अथर्ववेद ६।१४०।२ हे दांतों की दोनों पंक्तियों ! चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ | यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता – पिता बनने की योग्यता रखते हैं | - अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि - यजुर्वेद १।१ - हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो | धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा बंध की जाए... सनातन हिन्दू धर्म में हिंसा नहीं हे... म्लेच्छ एवं यवन जेसे अन्य जातिओ के लोगो ने वैदिक काल में हिंसा घुसाई हे... हिंसा करके अभक्ष्य खाने वाले लोग सनातनी नहीं हे. आर्य हिंसक नहीं थे. जिसका ज्वलंत उदहारण महाभारत में दर्शाया गया हे ..."सूरा- मत्स्या मधु -मांसमासवं क्रूसरौदनम धुर्तेह प्रवर्तितं ह्येत्न्नेताद वेदेषु कल्पितम" अर्थात - शराब, मछली आदि का यज्ञ में बलिदान धूर्तो द्वरा प्रवर्तित किया गया हे ! वेदों में मांस बलि का विधान निर्दिष्ट नहीं हे. (महा. शांति. २६४.९) "मांस पाक प्रतिशेधाश्च तद्वत" अर्थात वैदिक कर्मो में विहाराग्नी में मांस पकाने का निषेध हे, (मीमांसा. १२.२.२) और इसे कई प्रमाण भारतीय शास्त्र में हे... अगर इतने बड़े वैदिक शास्त्र बलि का विरोध करते हे तो आज के मंदिरों और खास कर माई मंदिरों और शाक्त उपासको द्वारा हो रहे बलि विधानों की प्रमाणिकता प्रश्नीय हे...में दावे के साथ उनको गलत, मुर्ख एवं ढोंगी कहता हु. वह धार्मिक न होकर पाखंडी हे. बलि निषेध हे. हमारा हिन्दू धर्म "सर्वं खल्विदं ब्रह्मं" मानने वाला हे... यह ध्यान रखा जाए... और एसे दुष्टों का विरोध किया जाए. सोमरस का नाम लेकर उसका प्रमाण दे कर वर्तमान में दारु का सेवन करने वाले और उसी तरह वैदिक काल में मांसाहार के प्रचलन का प्रमाण दे कर वर्तमान में मांसाहार करने वाले हिंदू समाज गलत रास्ते पर जा रहा हे और खास कर आज के हिंदू नव युवक "कभी-कभी" के नाद में जम कर दारु व् मांसाहार करते हे जो गलत हे. दुखद बात हे वर्तमान में समाज को सही रास्ता दिखने वाले ब्रह्मिन भी इससे अलिप्त नहीं रहे. हमारे वैदिक शास्त्र व् साहित्य हमेसा मदिरा-मांसाहार का निंदक रहा हे. और चूँकि सोमरस मदिरा नहीं थी सो उसके नाम पर मदिरा सेवन करना एक गलत बात हे.... हज़ार साल की ग़ुलामी किसी भी धर्म को मटियामेट कर देने के लिए काफ़ी होती है, लेकिन आज भी हम अस्सी प्रतिशत हैं तो सिर्फ़ इसलिए क्योंकि हिंदु धर्म प्रगतिशील है, लचीला है, समय-देश-काल के अनुसार ख़ुद को ढाल लेता है। सबसे बड़ी बात, इतिहास में ऐसा एक भी... उदाहरण नहीं मिलेगा जो साबित करे कि हिंदु धर्म को तलवार के दम पर फैलाया गया था। इस्लाम के साथ ठीक उलटा है क्योंकि उसका "शुभारंभ" ही ख़ून-ख़राबे से हुआ था। इसके बावजूद मोहम्मद साहब, हज़रत अली और उनके बाद हुसैन साहब के साथ जो कुछ हुआ उसकी तरफ़ से आंखें मूंद लेना यहां मौजूद "ज्ञानी" पुरूषों की मजबूरी है, जिनके हिंदु पूर्वजों को कायरता का परिचय देते हुए, औरंगज़ेब की तलवार के आगे झुकना पड़ा था। अफ़सोस, कि उन्हें एक ऐसे धर्म को क़ुबूलना पड़ा जो आज भी 1400 साल पीछे ही अटका हुआ है, जिसमें सातवीं सदी से आगे बढ़ने की चाह रखने वालों को "सलमान तासीर" और "तसलीमा नसरीन" बना दिया जाता है और जिसके मानने वालों ने अपने झूठे विश्वास के चलते पूरी दुनिया को तबाह करने की ठानी हुई है। अंधेरी सुरंग में बंद करके रखे गए ऐसे धर्म के विषय में की गयी उपरोक्त भविष्यवाणी अगर कभी सही हो जाए तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। उधर नास्त्रेदेमस के अनुसार भी ईसाईयत और इस्लाम के बीच युद्ध में इस्लाम का नामोनिशान मिट जाएगा जिसके बाद विश्व हिंदु दर्शन की पताका तले ही शांति की ओर अग्रसर होगा। ईसाईयत और इस्लाम के बीच युद्ध की शुरूआत अमेरिका पर हुए हमले के साथ हो ही चुकी है। अफगानिस्तान, इराक़ और लीबिया के बाद अब शायद इसका रूख़ ईरान की तरफ़ हो, और हो सकता है, ऐसे में जल्द ही तमाम भविष्यवाणियां हक़ीक़त का रूप ले लें!!! :):)तो हम सदियों से कायम है आज भी कायम रहेगे आगे भी कायम रहेगे ,,कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है हिन्दू सनातन धर्म का ,,चाहे कोई कितना भी चिला ले .....