धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा क्या है ? यह प्रश्न इस तरह से भी पूछा जा
सकता है कि धर्मनिरपेक्षता की कोई भारतीय अवधारणा हो सकती है क्या? बहुत से
शब्द समय के साथ न सिर्फ अपना प्रचलित अर्थ खो देतें हैं उनकी हैसियत भी घट
बढ ज़ाती है.! धर्मनिरपेक्षता कुछ दशकों पहले तक नास्तिकों और लादीनों का
दर्शन था और एक छोटे शिक्षित समुदाय के बीच ही उसे सम्मान हासिल था. आज की
तरह बडी संख्या में हिन्दू और मुसलमान इसकी कसमें नहीं खाते थे.! आज जब बडा
समुदाय इस बात को स्वीकार करने लगा है कि धर्मनिरपेक्षता एक श्रेष्ठ
सामाजिक मूल्य है और उसका कोई विकल्प नहीं है तब यह इच्छा स्वाभाविक ही है
कि अपने अतीत में ऐसी जडें तलाशीं जायें जिनसे यह साबित किया जा सके कि
धर्मनिरपेक्षता पश्चिम से आयातित अवधारणा नहीं है और हमारी परम्परा में भी
ऐसे तत्व मौजूद हैं जो हमें धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा तक पहुंचने
में मदद करतें हैं.!
आधुनिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म का अर्थ राज्य एवं धर्म के सम्बन्धों को इस तरह से पारिभाषित करना है जिसमें राज्य के रोजमर्रा के कामकाज से धर्म और पुरोहितों का सीधा सम्बन्ध नहीं रहता !. यह एक इसाई अवधारणा है जो राज्य और चर्च के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर चली एक लम्बी टकराहट और योरोप के कुछ हिस्सों में फली फूली एक अद्भुत बौध्दिक क्रांति , जिसे पुनर्जागरण कहतें हैं, की परिणति थी.1886 में जार्ज जेकब होल्योके ने यह सुझाव दिया कि 'राज्य और राज्य व्यवस्था को धार्मिक मान्यताओं के नियंत्रण से मुक्त रखा जाय.' 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में भी चर्च और राज्य को अलग करने का मसला एक महत्वपूर्ण मुद्दे की तरह था. मध्य युग में योरोप पूरी तरह से चर्च के अधीन था. चर्च न सिर्फ लोगों के नर्क और स्वर्ग का फैसला करता था बल्कि राज्य की हर गतिविधि उसकी मर्जी से संचालित होती थी. पोप की हैसियत किसी भी रोमन कैथेलिक राज्य के राष्ट्राध्यक्ष से कम नहीं थी.चर्च की तानाशाही के खिलाफ चला प्रोटेस्टेंट आन्दोलन धार्मिक से अधिक सामाजिक और राजनैतिक विद्रोह था. फ्रांसीसी क्रांति तक कमोबेश यह तय हो गया था कि अब चर्च और राज्य दो अलग अलग संस्थाओं के रूप में कार्य करेंगे. राज्य कर लगाने से लेकर युद्ध करने तक के फैसले बिना चर्च की मर्जी से कर सकता है और चर्च अपनी अनुयायियों के धार्मिक क्रिया कलापों तक ही सीमित रहेगा.चर्च और राज्य के सम्बन्धों का यह विकास आसानी से संभव नहीं हुआ था.! योरोपीय समाजों में आद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पैदा होने वाले सरप्लस माल को खपाने के लिये बाजारों की तलाश, राष्ट्र राज्य के जन्म और औद्योगीकरण के फलस्वरूप उदय होने वाले मध्यवर्ग , शिक्षा के सार्वभौमीकरण तथा संचार माध्यमों के अभूतपूर्व विस्तार ने ऐसी स्थितियां पैदा कीं जिनके कारण राज्य और चर्च का घालमेल अधिक दूर तक नहीं चल सकता था. पुनर्जागरण योरोपीय समाज के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया का परिणाम था. यह कहना बहुत मुश्किल है कि चर्च की जकड ढ़ीली होने से लोकतांत्रीकरण तेज हुआ या समाज के सामंती ढांचे के नष्ट होने से चर्च कमजोर हुआ. दरअसल यह कहना अधिक उचित होगा कि दोनों प्रक्रियायों ने एक दूसरे की मदद की और पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त किया. ऐसा नहीं था कि चर्च ने अपनी हार आसानी से मान ली थी. उसने अपने तरकश के क्रूरतम तीरों का इस्तेमाल विरोधी स्वरों को दबाने में किया. धर्म के वर्चस्व को बनाये रखने में उन भौतिक तथ्यों को अबूझ और रहस्य के आवरण में लपेटे रखना जरूरी होता है जिनसे हमारी सृष्टि संचालित होती है. पृथ्वी और तारामण्डल की गतिविधियां , जीवन की उत्पत्ति और मृत्यु के बाद का संसार, मौसम, रोग, भाग्य- बहुत सारे क्षेत्र हैं जिन्हें धर्म विवेक से परे आस्था का विषय बना कर रखता है . जैसे जैसे मनुष्य इनके बारे में जानकारियां हासिल करता जाता है और इनके इर्द गिर्द बुने आस्था के आवरण में तर्क से छेद करने लगता है , धर्म का शिकंजा ढीला पडने लगता है. मध्ययुग के योरोप में भी ऐसा ही हुआ. चर्च ने आसानी से हार नहीं मानी और उन लोगों को आग में जलाने या सूली पर चढाने जैसी सजायें दीं जिन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति या सौरमण्डलों की गतिविधियों पर बाइबिल की निष्पत्तियों से इतर स्थापनायें देने की कोशिश की !. इन सबके बावजूद चर्च को हारना पडा क्योंकि औद्योगिक क्रांति के साथ योरोपीय समाज का सामंती चोला छूट रहा था और एक ऐसा नागर औद्योगिक समाज निर्मित हो रहा था जो धीरे धीरे आस्था पर तर्क को तरजीह देना सीख गया था. जैसे जैसे मनुष्य के ज्ञान का दायरा बढता गया चर्च का प्रभामंडल फीका पडता गया. चर्च की जकडबंदी ढीली पडते ही वे सारे मूल्य प्रतिष्ठित होने लगे जिनसे आज के अर्थों में धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म को परिभाषित किया जाता है.
आज सेकुलरिज्म की आम स्वीकृत परिभाषा एक ऐसे राष्ट्र राज्य की कल्पना करती है जिसमें राज्य का दिन प्रतिदिन का व्यापार धर्माधारित मूल्यों से संचालित नहीं होता. इसके अनुसार राज्य अपने सभी नागरिकों के साथ, उनकी धार्मिक आस्थाओं में भिन्नता के बावजूद , समानता का व्यवहार करेगा. सभी धर्मावलम्बियों का राज्य के संसाधनों पर समान अधिकार होगा और नौकरियों, व्यापार या कानून के मामले में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा. राज्य अपने सभी नागरिकों की जान माल की हिफाजत का जिम्मेदार होगा. राज्य की यह जिम्मेदारी इस्लाम में निहित जिम्मी की स्थिति से भिन्न होगी. जिम्मी में अल्पसंख्यक मुस्लिम राज्य को एक निश्चित कर अदा कर अपने लिये सुरक्षा की गारंटी हासिल कर सकतें हैं. यह गारण्टी इस बात का द्योतक होती है कि अल्पसंख्यकों की स्थिति मुसलमानों से भिन्न और कमतर है. बहुत से मुस्लिम विचारक जिम्मी को इस्लामी राज्य के अल्पसंख्यकों को बराबरी का दर्जा दिये जाने के प्रयास के रूप में मनवाना चाहतें हैं पर धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा की कसौटी पर यह खरा नहीं उतरेगा. आज राज्य द्वारा विभिन्न धर्मावलंबी नागरिकों को सही अर्थों में बराबरी का हक दिये जाने से कम को धर्मनिरपेक्षता की परिधि में नहीं रखा जा सकता.
धर्मनिरपेक्षता की इस सामान्य समझ से परे क्या कोई दूसरी समझ हो सकती है? हिन्दुत्व वादी धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथ निरपेक्षता शब्द का प्रयोग करतें हं. उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता से कहीं धर्म विमुखता की ध्वनि निकलती है. भारतीय मेधा और उससे निर्मित राज्य धर्म से विलग नहीं हो सकता क्योंकि धर्म उसके रोम रोम में समाया हुआ है. उनके अनुसार हिन्दू एक जीवन पद्धति है. उसके विपरीत अन्य सभी धर्म, खास तौर से एक आसमानी किताब और पैगम्बर वाले, पंथ. उनके अनुसार एक धर्ममय राज्य इस अर्थ में पंथ निरपेक्ष हो सकता है कि धर्म (यहाँ हिन्दू धर्म पढा जा सकता है ) के मार्ग पर चलते हुये वह सभी पंथों के प्रति समान व्यवहार ब्करें. हिन्दुत्व वादियों की पंथ निरपेक्षता की यह यात्रा काफी घुमावदार मोडों से गुजरी है और उसमें इतनी सहिष्णुता भी सिर्फ इस लिये आयी है कि अब बदली हुयी परिस्थितियों में सावरकर, हेडगवार और गोलवरकर का कट्टर हिन्दुत्व उनके लिये असुविधाजनक हो गया है. इस बदलाव को देखना भी दिलचस्प होगा और इस लेख में आगे हम उसे समझने का प्रयास करेंगे.
कट्टर हिन्दुत्व से परे एक उदार हिन्दू दृष्टि है जो गांधी से खाद ग्रहण करती है और यह धर्म निरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव तक ले जाती है इसके अनुसार भी धर्म से मुक्त राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती . धर्म राज्य को चलाने की मुख्य परिचालक शक्ति है. गांधी ने राम राज्य की परिकल्पना की. यह राम राज्य एक अमूर्र्त शासन व्यवस्था है जिस तरह राम कथायें बहुत सी हैं उसी के अनुरूप उनमें कल्पित राम राज्य की अवधारणायें भी भिन्न भिन्न हैं .यदि इन सबमें सामान्य सूत्र तलाशें जायें तो जिस राम राज्य की तस्वीर उभरेगी वह वर्णाश्रमी , कर्मकाण्डी और भाग्यवादी राज्य होगा. गांधी अपनी मृत्यु के दो एक वर्ष पहले तक जन्माधारित वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते थे . वे जब भविष्य के भारत राष्ट्र की बात करते थे तब उनकी वाणी और व्यवहार में हिन्दू प्रतीक उभरते थे . अपनी सारी सदाशयता के बावजूद गांधी का वाह्य दूसरे धर्मावलम्बियों खास तौर से मुसलमानों के मन में संशय पैदा करता था. इस हिन्दू प्रतीकों वाले राज्य में मुसलमान द्वितीय श्रेणी के नागरिक होकर ही रह पायेंगे , मुस्लिम मध्य वर्ग का यह विश्वास देश के विभाजन के पीछे के बहुत से कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण है.
कट्टर हिन्दुत्व एक ओर तो हिन्दू को एक ऐसे धर्म के रूप में पारिभाषित करने की कोशिश करता है जिसमें शैव , वैश्णव , जैन , बौद्ध , सिक्ख , आर्य समाजी, सनातनी बहुत सारे पंथ सम्मिलित हैं और यदि उनकी माने तो भारत राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में रहने वाले सभी हिन्दू हैं किन्तु दूसरी तरफ वे मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू मानने से इन्कार करतें हैं.हिन्दुत्व के सबसे बडे व्याख्याकार सावरकर के अनुसार , ''वही व्यक्ति हिन्दू है जो सिन्धु स्थान हिन्दुस्थान को केवल पितृभूमि ही नहीं अपितु पुण्य भूमि भी स्वीकार करता है . मुसलमानों और ईसाइयों की पुण्यभूमि भी यह भारत वसुन्धरा नहीं हो सकती और इस कारण उन्हें हिन्दू के नाम से संबोधित नहीं किया जा सकता.'' लगभग उन्हीं शब्दों में गोलवरकर ने भी मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू के दायरे से अलग रखने के तर्क दियें हैं. इसके विपरीत ये दोनों दुनियां के दूसरे हिस्सों में रहने वाले हिन्दुओं को भारत से भौगोलिक दूरी के बावजूद इसलिये हिन्दू मानने के लिये तैयार हैं क्योंकि उनके आराध्य देवताओं की भूमि भारत है.गोलवरकर ने बिना किसी लागलपेट के अपनी पुस्तक विचार नवनीत में हिन्दुओं को इस बात का स्मरण कराने का प्रयत्न किया है कि , '' वास्तव में वे ही एक राष्ट्र है.'' गोलवरकर ने कई जगह यह लिखा है कि मुसलमानों को भारत में पूर्ण नागरिक अधिकार नहीं मिलना चाहिये और यदि उन्हें इस देश में रहना है तो उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनकर रहना पडेग़ा. इस तरह के पंथनिरपेक्ष नेतृत्व से समकालीन अर्थों वाली धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा.
धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा में विश्वास रखने वाले अक्सर इतिहास में उसकी जडें तलाशने की कोशिश करतें हैं पर मुझे नहीं लगता कि हमारे इतिहास का कोई कालखण्ड ऐसा है जिसमें राज्य और धर्म को उस तरह से अलग किया जा सकता है जैसा धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा में वांछित है. योरोप के सामंती समाज की तरह हमारा राजा भी ईश्वरीय विधान था और पुरोहित उसे वैधता प्रदान करते थे . वर्ण व्यवस्था वैसे भी क्षत्रिय और ब्राह्यण को अन्योन्याश्रित रखती थी और जहाँ राजा क्षत्रिय नहीं था वहाँ उसे वैधता के लिये ब्राह्यण पुरोहित की अधिक आवश्यकता पडती थी. शिवाजी के एक वंशज के बारे में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार वर्णाश्रम के निचले पायदान से आने के कारण जब काशी के पण्डितों ने हाथ के अँगूठे से उसका तिलक करने से इन्कार कर दिया तो उसे पण्डित के पा/व के अँगूठे से तिलक कराकर ही संतोष करना पडा . रामायण और महाभारत जैसे आख्यानों के अनुसार राजा का प्रमुख कर्तव्य ही धर्म की रक्षा करना था और हम अपनी कल्पनाशीलता के जितने भी घोडे दौडा लें धर्म की रक्षा करने वाला राज्य आज का सेकुलर राज्य नहीं हो सकता.
भारतीय परम्परा में कई मौके ऐसे आयें हैं जब धर्म की जकडबन्दी कमजोर हुयी है . चारवाकों ने वेदों के अपौरूषेय होने की मान्यता को चुनौती दी पर वे राज्य के बुनियादी ढाँचे में बहुत खरोंचे नहीं लगा पाये . ब्राह्यणों ने राज्य से मिलकर उन्हें शारीरिक रूप से तो नष्ट किया ही उनका रचित सब कुछ भ्रष्ट कर उन्हें आत्मिक रूप से भी मार दिया.लोकायत की ही परम्परा में गौतम बुद्ध भी आयेंगे जिनके आंदोलन ने पाँच सौ वर्षों तक ब्राह्यण दर्शन को गंभीर चुनौती दी और उसके फलस्वरूप अपेक्षाकृत उदार राज्य संभव हो सका .अशोक के एक शिलालेख में उल्लिखित है कि राज्य सभी धर्मावलम्बियों के साथ समानता का व्यवहार करेगा. पहली शताब्दी आते आते ब्राह्यणों ने फिर राज्य पर कब्जा जमा लिया और एक बार फिर उसी अनुदार और असहिष्णु राज्य के दशर्न हमें होतें हैं जो अपने विरोधी विचार को सहन करने के लिये तैयार नहीं था . मध्ययुग में भक्ति आंदोलन ने भी वर्णव्यवस्था और कर्मकाण्डों पर आधारित जकडबंदी को झकझोरा !. इस दौर के अधिकतर कवि शूद्र और अतिशूद्र जातियों से आते थे. लोकभाषाओं को रचना का माध्यम बनाकर इन कवियों ने संस्कृत और ब्राह्यण रहस्यवाद को तार तार कर दिया था. पर भक्ति आंदोलन का असर इतना नहीं पडा कि आधुनिक संदर्भों वाला राज्य अस्तित्व में आ सके.
इन सारे उदाहरणों के बावजूद भारतीय परम्परा में ऐसे बीज तलाशना लगभग असंभव है जिनपर आधुनिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का वट वृक्ष पनप सकता था.! पश्चिम से धर्मनिरपेक्षता की बयार आने के पहले लगभग पाँच सौ वर्षों तक भारत में मुस्लिम राज्य रहा है. क्या हम उस परम्परा में धर्मनिरपेक्षता के बीज तलाश सकतें हैं ? यह प्रयास और भी मुश्किल होगा.शाह वली उल्ला, जमाल-अल-दीन अफगानी, सैयद अहमद खान और इकबाल चार ऐसे बडे मुस्लिम स्वप्नदृष्टा हैं जिन्होंने आधुनिक भारतीय मुस्लिम मनोविज्ञान की निर्मित में सबसे बडा योगदान किया है. इन चारों का संकट यह है कि वे आस्था को विवेक से ऊपर रखतें हैं!. वस्तुतः यह संकट समूचे इस्लाम का बुनियादी संकट है. हिन्दू या इसाई परम्पराओं की तरह इसमें संशय की कोई गुजांयश नहीं है. इकबाल , शायर होने के कारण, विवेक के ऊपर आस्था की जीत को सबसे खूबसूरती से बयान करतें हैं. दर्शन के छात्र इकबाल लगातार पश्चिम के ऊपर इस्लामी परम्पराओं की श्रेष्ठता की बात करतें हैं और मनुष्य जाति की मुक्ति की एकमात्र संभावना इस्लाम में तलाशतें हैं. यह कहना बहुत स्वाभाविक होगा कि अपनी परम्परा को श्रष्ठ मानने वाला कोई भी दर्शन दूसरी परम्पराओं को बराबरी का हक देने के लिये तैयार नहीं हो सकता और न ही श्रेष्ठता के अहंकार में चूर यह दर्शन किसी ऐसे राज्य की कल्पना कर सकता है जिसका संचालन उसके द्वारा प्रतिपादित नियमों और मान्यताओं से न होता हो.
यही कारण है कि दुनियां भर के मुसलमानों की यह सबसे बडी त्रासदी है कि वे जब अल्पसंख्यक होतें हैं तो धर्मनिरपेक्षता के सबसे बडे अलंबरदार के तौर पर सामने आतें हैं किन्तु जैसे ही किसी भू भाग में वे बहुसंख्यक बन जातें हैं धर्मनिरपेक्ष राज्य उनकी चिन्ता का विषय नहीं रहता और वे एक इस्लामी राज्य बनाने की बात करने लगतें हैं. अल्पसंख्यक के रूप में खुद जिन अधिकारों को वे अपने लिये जरूरी समझतें हैं ,उन्हीं अधिकारों को मुस्लिम राज्यों में अल्पसंख्यकों को देने के लिये तैयार नहीं होते. इस द्वैध को प्रो. मुशीरूल हसन ने अपनी पुस्तक 'इस्लाम इन सेकुलर इन्डिया' में बडी बेबाकी से व्यक्त किया है.उनके अनुसार ''भारतीय मुसलमानों में एक छोटे से वर्ग को छोडक़र बहुसंख्यक समाज किसी भी प्रकार से सेक्यूलर नहीं है.''(पृष्ठ-1) '' उनमें से अधिकांश उलेमाओं का विश्वास है कि राज्य तो सेक्यूलर रहे परन्तु मुसलमानो को सेक्यूलरिज्म से बचाया जाय.'' (पृष्ठ-12) भारतीय मुसलमान अपने जीवन और सामुदायिक गतिविधियों में सेकुलर नहीं होना चाहते पर भारतीय राज्य सेक्यूलर देखना चाहतें हैं इसका उत्तर भी प्रो. हसन के यहां है _ ''भारत के मुस्लिम समुदायों ने भी सेक्यूलर राज्य का स्वागत किया है क्योंकि उन्हें डर है कि इसका विकल्प हिन्दू राज्य ही होगा.'' (पृष्ठ-8) .इसलिये किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसने एक धर्मांधारित राज्य बनवाया , सेकुलर कहना न सिर्फ सेकुलररिज्म शब्द का गलत इस्तेमाल है बल्कि शायद उसके साथ भी ज्यादती है. तुर्की , अल्जीरिया या मिश्र जैसे कुछ अपवाद जरूर हैं जहाँ बहुसंख्यक मुस्लिम राज्य में ऐसे निजाम कायम करने की समय समय पर कोशिश की गयी है जिनमें अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक मुसलमानों के बराबर हक दियें जायें लेकिन वहाँ भी उदारवादियों को इलामी कट्टरपंथियों से लगातार जूझना पडता है.
धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक समझ आस्था पर विवेक की जीत से जुडी हुयी है. एक औद्योगिक समाज में जब तर्क और विवेक को प्रोत्साहित किया जा रहा था तभी यह संभव हो पाया कि चर्च की राज्य पर जकडबन्दी कमजोर हुयी. धर्मनिरपेक्ष राज्य के अस्तित्व के लिये यह नितांत आवश्यक है कि धर्म उसके दैनिन्दिन कार्य की धूरी न बन जाय, धर्म का दखल नागरिकों के व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहे , राज्य लौकिक समस्याओं का हल धर्म में न तलाशें और अपने सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करे. यह तभी संभव होगा जब राज्य आस्था के मुकाबले विवेक को तरजीह देगा. हमें भारतीय परम्पराओं में धर्म निरपेक्षता की जडें तलाशने की जगह अपने संविधान की तरफ देखना चाहिये जो विश्व भर में प्रचलित धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं का निचोड है और जिसके माध्यम से एक प्रगतिशील, वैज्ञानिक और बराबरी का समाज बनाया जा सकता है..............
जब
कभी कही धार्मिक उन्माद होता है तो स्वयंभू धर्मनिर्पेक्ष रोना चालू कर
देते हैं और बोलते हैं की अगर ये सब नहीं रोका गया तो बहुत जल्द भारत में
एक आतंरिक लड़ाई चालू हो जाएगी जैसी आज तक भारत में नहीं हुई| अब इतना
देखने के बाद मैंने धर्मनिर्पेक्षता को नजदीक से जानना चाहा पर मुझे केवल
यही मिला की आज हम जिसे भी देखते हैं चाहे वो जिस पद पर भी बैठा है या जहाँ
भी है वो धर्मनिर्पेक्षता की बात करता हुआ दिख जाता है पर धर्मनिर्पेक्षता
का मतलब नहीं बता पता है| धर्मनिर्पेक्षता एक बहुत अच्छी बात है| सारे
धर्म के लोगो को जोड़ कर एक करने की बात है, एक पथ पर लाने की बात है जैसा
धर्मनिर्पेक्ष बताते हैं| पर असल में क्या है ये धर्मनिर्पेक्षता? आइये हम सबसे पहले इस धर्मनिर्पेक्षता का मतलब समझाने की कोशिस करते हैं भारत के सन्दर्भ में|
नोट --यह लेख कई दिनों से मेरे पास पडा था पर पब्लिश नहीं किया था ! आज सचिन सिंह गौर की पोस्ट को देखकर पब्लिश किया ,....
आधुनिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म का अर्थ राज्य एवं धर्म के सम्बन्धों को इस तरह से पारिभाषित करना है जिसमें राज्य के रोजमर्रा के कामकाज से धर्म और पुरोहितों का सीधा सम्बन्ध नहीं रहता !. यह एक इसाई अवधारणा है जो राज्य और चर्च के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर चली एक लम्बी टकराहट और योरोप के कुछ हिस्सों में फली फूली एक अद्भुत बौध्दिक क्रांति , जिसे पुनर्जागरण कहतें हैं, की परिणति थी.1886 में जार्ज जेकब होल्योके ने यह सुझाव दिया कि 'राज्य और राज्य व्यवस्था को धार्मिक मान्यताओं के नियंत्रण से मुक्त रखा जाय.' 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में भी चर्च और राज्य को अलग करने का मसला एक महत्वपूर्ण मुद्दे की तरह था. मध्य युग में योरोप पूरी तरह से चर्च के अधीन था. चर्च न सिर्फ लोगों के नर्क और स्वर्ग का फैसला करता था बल्कि राज्य की हर गतिविधि उसकी मर्जी से संचालित होती थी. पोप की हैसियत किसी भी रोमन कैथेलिक राज्य के राष्ट्राध्यक्ष से कम नहीं थी.चर्च की तानाशाही के खिलाफ चला प्रोटेस्टेंट आन्दोलन धार्मिक से अधिक सामाजिक और राजनैतिक विद्रोह था. फ्रांसीसी क्रांति तक कमोबेश यह तय हो गया था कि अब चर्च और राज्य दो अलग अलग संस्थाओं के रूप में कार्य करेंगे. राज्य कर लगाने से लेकर युद्ध करने तक के फैसले बिना चर्च की मर्जी से कर सकता है और चर्च अपनी अनुयायियों के धार्मिक क्रिया कलापों तक ही सीमित रहेगा.चर्च और राज्य के सम्बन्धों का यह विकास आसानी से संभव नहीं हुआ था.! योरोपीय समाजों में आद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पैदा होने वाले सरप्लस माल को खपाने के लिये बाजारों की तलाश, राष्ट्र राज्य के जन्म और औद्योगीकरण के फलस्वरूप उदय होने वाले मध्यवर्ग , शिक्षा के सार्वभौमीकरण तथा संचार माध्यमों के अभूतपूर्व विस्तार ने ऐसी स्थितियां पैदा कीं जिनके कारण राज्य और चर्च का घालमेल अधिक दूर तक नहीं चल सकता था. पुनर्जागरण योरोपीय समाज के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया का परिणाम था. यह कहना बहुत मुश्किल है कि चर्च की जकड ढ़ीली होने से लोकतांत्रीकरण तेज हुआ या समाज के सामंती ढांचे के नष्ट होने से चर्च कमजोर हुआ. दरअसल यह कहना अधिक उचित होगा कि दोनों प्रक्रियायों ने एक दूसरे की मदद की और पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त किया. ऐसा नहीं था कि चर्च ने अपनी हार आसानी से मान ली थी. उसने अपने तरकश के क्रूरतम तीरों का इस्तेमाल विरोधी स्वरों को दबाने में किया. धर्म के वर्चस्व को बनाये रखने में उन भौतिक तथ्यों को अबूझ और रहस्य के आवरण में लपेटे रखना जरूरी होता है जिनसे हमारी सृष्टि संचालित होती है. पृथ्वी और तारामण्डल की गतिविधियां , जीवन की उत्पत्ति और मृत्यु के बाद का संसार, मौसम, रोग, भाग्य- बहुत सारे क्षेत्र हैं जिन्हें धर्म विवेक से परे आस्था का विषय बना कर रखता है . जैसे जैसे मनुष्य इनके बारे में जानकारियां हासिल करता जाता है और इनके इर्द गिर्द बुने आस्था के आवरण में तर्क से छेद करने लगता है , धर्म का शिकंजा ढीला पडने लगता है. मध्ययुग के योरोप में भी ऐसा ही हुआ. चर्च ने आसानी से हार नहीं मानी और उन लोगों को आग में जलाने या सूली पर चढाने जैसी सजायें दीं जिन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति या सौरमण्डलों की गतिविधियों पर बाइबिल की निष्पत्तियों से इतर स्थापनायें देने की कोशिश की !. इन सबके बावजूद चर्च को हारना पडा क्योंकि औद्योगिक क्रांति के साथ योरोपीय समाज का सामंती चोला छूट रहा था और एक ऐसा नागर औद्योगिक समाज निर्मित हो रहा था जो धीरे धीरे आस्था पर तर्क को तरजीह देना सीख गया था. जैसे जैसे मनुष्य के ज्ञान का दायरा बढता गया चर्च का प्रभामंडल फीका पडता गया. चर्च की जकडबंदी ढीली पडते ही वे सारे मूल्य प्रतिष्ठित होने लगे जिनसे आज के अर्थों में धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म को परिभाषित किया जाता है.
आज सेकुलरिज्म की आम स्वीकृत परिभाषा एक ऐसे राष्ट्र राज्य की कल्पना करती है जिसमें राज्य का दिन प्रतिदिन का व्यापार धर्माधारित मूल्यों से संचालित नहीं होता. इसके अनुसार राज्य अपने सभी नागरिकों के साथ, उनकी धार्मिक आस्थाओं में भिन्नता के बावजूद , समानता का व्यवहार करेगा. सभी धर्मावलम्बियों का राज्य के संसाधनों पर समान अधिकार होगा और नौकरियों, व्यापार या कानून के मामले में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा. राज्य अपने सभी नागरिकों की जान माल की हिफाजत का जिम्मेदार होगा. राज्य की यह जिम्मेदारी इस्लाम में निहित जिम्मी की स्थिति से भिन्न होगी. जिम्मी में अल्पसंख्यक मुस्लिम राज्य को एक निश्चित कर अदा कर अपने लिये सुरक्षा की गारंटी हासिल कर सकतें हैं. यह गारण्टी इस बात का द्योतक होती है कि अल्पसंख्यकों की स्थिति मुसलमानों से भिन्न और कमतर है. बहुत से मुस्लिम विचारक जिम्मी को इस्लामी राज्य के अल्पसंख्यकों को बराबरी का दर्जा दिये जाने के प्रयास के रूप में मनवाना चाहतें हैं पर धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा की कसौटी पर यह खरा नहीं उतरेगा. आज राज्य द्वारा विभिन्न धर्मावलंबी नागरिकों को सही अर्थों में बराबरी का हक दिये जाने से कम को धर्मनिरपेक्षता की परिधि में नहीं रखा जा सकता.
धर्मनिरपेक्षता की इस सामान्य समझ से परे क्या कोई दूसरी समझ हो सकती है? हिन्दुत्व वादी धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर पंथ निरपेक्षता शब्द का प्रयोग करतें हं. उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता से कहीं धर्म विमुखता की ध्वनि निकलती है. भारतीय मेधा और उससे निर्मित राज्य धर्म से विलग नहीं हो सकता क्योंकि धर्म उसके रोम रोम में समाया हुआ है. उनके अनुसार हिन्दू एक जीवन पद्धति है. उसके विपरीत अन्य सभी धर्म, खास तौर से एक आसमानी किताब और पैगम्बर वाले, पंथ. उनके अनुसार एक धर्ममय राज्य इस अर्थ में पंथ निरपेक्ष हो सकता है कि धर्म (यहाँ हिन्दू धर्म पढा जा सकता है ) के मार्ग पर चलते हुये वह सभी पंथों के प्रति समान व्यवहार ब्करें. हिन्दुत्व वादियों की पंथ निरपेक्षता की यह यात्रा काफी घुमावदार मोडों से गुजरी है और उसमें इतनी सहिष्णुता भी सिर्फ इस लिये आयी है कि अब बदली हुयी परिस्थितियों में सावरकर, हेडगवार और गोलवरकर का कट्टर हिन्दुत्व उनके लिये असुविधाजनक हो गया है. इस बदलाव को देखना भी दिलचस्प होगा और इस लेख में आगे हम उसे समझने का प्रयास करेंगे.
कट्टर हिन्दुत्व से परे एक उदार हिन्दू दृष्टि है जो गांधी से खाद ग्रहण करती है और यह धर्म निरपेक्षता को सर्वधर्म समभाव तक ले जाती है इसके अनुसार भी धर्म से मुक्त राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती . धर्म राज्य को चलाने की मुख्य परिचालक शक्ति है. गांधी ने राम राज्य की परिकल्पना की. यह राम राज्य एक अमूर्र्त शासन व्यवस्था है जिस तरह राम कथायें बहुत सी हैं उसी के अनुरूप उनमें कल्पित राम राज्य की अवधारणायें भी भिन्न भिन्न हैं .यदि इन सबमें सामान्य सूत्र तलाशें जायें तो जिस राम राज्य की तस्वीर उभरेगी वह वर्णाश्रमी , कर्मकाण्डी और भाग्यवादी राज्य होगा. गांधी अपनी मृत्यु के दो एक वर्ष पहले तक जन्माधारित वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते थे . वे जब भविष्य के भारत राष्ट्र की बात करते थे तब उनकी वाणी और व्यवहार में हिन्दू प्रतीक उभरते थे . अपनी सारी सदाशयता के बावजूद गांधी का वाह्य दूसरे धर्मावलम्बियों खास तौर से मुसलमानों के मन में संशय पैदा करता था. इस हिन्दू प्रतीकों वाले राज्य में मुसलमान द्वितीय श्रेणी के नागरिक होकर ही रह पायेंगे , मुस्लिम मध्य वर्ग का यह विश्वास देश के विभाजन के पीछे के बहुत से कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण है.
कट्टर हिन्दुत्व एक ओर तो हिन्दू को एक ऐसे धर्म के रूप में पारिभाषित करने की कोशिश करता है जिसमें शैव , वैश्णव , जैन , बौद्ध , सिक्ख , आर्य समाजी, सनातनी बहुत सारे पंथ सम्मिलित हैं और यदि उनकी माने तो भारत राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में रहने वाले सभी हिन्दू हैं किन्तु दूसरी तरफ वे मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू मानने से इन्कार करतें हैं.हिन्दुत्व के सबसे बडे व्याख्याकार सावरकर के अनुसार , ''वही व्यक्ति हिन्दू है जो सिन्धु स्थान हिन्दुस्थान को केवल पितृभूमि ही नहीं अपितु पुण्य भूमि भी स्वीकार करता है . मुसलमानों और ईसाइयों की पुण्यभूमि भी यह भारत वसुन्धरा नहीं हो सकती और इस कारण उन्हें हिन्दू के नाम से संबोधित नहीं किया जा सकता.'' लगभग उन्हीं शब्दों में गोलवरकर ने भी मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू के दायरे से अलग रखने के तर्क दियें हैं. इसके विपरीत ये दोनों दुनियां के दूसरे हिस्सों में रहने वाले हिन्दुओं को भारत से भौगोलिक दूरी के बावजूद इसलिये हिन्दू मानने के लिये तैयार हैं क्योंकि उनके आराध्य देवताओं की भूमि भारत है.गोलवरकर ने बिना किसी लागलपेट के अपनी पुस्तक विचार नवनीत में हिन्दुओं को इस बात का स्मरण कराने का प्रयत्न किया है कि , '' वास्तव में वे ही एक राष्ट्र है.'' गोलवरकर ने कई जगह यह लिखा है कि मुसलमानों को भारत में पूर्ण नागरिक अधिकार नहीं मिलना चाहिये और यदि उन्हें इस देश में रहना है तो उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनकर रहना पडेग़ा. इस तरह के पंथनिरपेक्ष नेतृत्व से समकालीन अर्थों वाली धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा.
धर्मनिरपेक्षता की भारतीय अवधारणा में विश्वास रखने वाले अक्सर इतिहास में उसकी जडें तलाशने की कोशिश करतें हैं पर मुझे नहीं लगता कि हमारे इतिहास का कोई कालखण्ड ऐसा है जिसमें राज्य और धर्म को उस तरह से अलग किया जा सकता है जैसा धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा में वांछित है. योरोप के सामंती समाज की तरह हमारा राजा भी ईश्वरीय विधान था और पुरोहित उसे वैधता प्रदान करते थे . वर्ण व्यवस्था वैसे भी क्षत्रिय और ब्राह्यण को अन्योन्याश्रित रखती थी और जहाँ राजा क्षत्रिय नहीं था वहाँ उसे वैधता के लिये ब्राह्यण पुरोहित की अधिक आवश्यकता पडती थी. शिवाजी के एक वंशज के बारे में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार वर्णाश्रम के निचले पायदान से आने के कारण जब काशी के पण्डितों ने हाथ के अँगूठे से उसका तिलक करने से इन्कार कर दिया तो उसे पण्डित के पा/व के अँगूठे से तिलक कराकर ही संतोष करना पडा . रामायण और महाभारत जैसे आख्यानों के अनुसार राजा का प्रमुख कर्तव्य ही धर्म की रक्षा करना था और हम अपनी कल्पनाशीलता के जितने भी घोडे दौडा लें धर्म की रक्षा करने वाला राज्य आज का सेकुलर राज्य नहीं हो सकता.
भारतीय परम्परा में कई मौके ऐसे आयें हैं जब धर्म की जकडबन्दी कमजोर हुयी है . चारवाकों ने वेदों के अपौरूषेय होने की मान्यता को चुनौती दी पर वे राज्य के बुनियादी ढाँचे में बहुत खरोंचे नहीं लगा पाये . ब्राह्यणों ने राज्य से मिलकर उन्हें शारीरिक रूप से तो नष्ट किया ही उनका रचित सब कुछ भ्रष्ट कर उन्हें आत्मिक रूप से भी मार दिया.लोकायत की ही परम्परा में गौतम बुद्ध भी आयेंगे जिनके आंदोलन ने पाँच सौ वर्षों तक ब्राह्यण दर्शन को गंभीर चुनौती दी और उसके फलस्वरूप अपेक्षाकृत उदार राज्य संभव हो सका .अशोक के एक शिलालेख में उल्लिखित है कि राज्य सभी धर्मावलम्बियों के साथ समानता का व्यवहार करेगा. पहली शताब्दी आते आते ब्राह्यणों ने फिर राज्य पर कब्जा जमा लिया और एक बार फिर उसी अनुदार और असहिष्णु राज्य के दशर्न हमें होतें हैं जो अपने विरोधी विचार को सहन करने के लिये तैयार नहीं था . मध्ययुग में भक्ति आंदोलन ने भी वर्णव्यवस्था और कर्मकाण्डों पर आधारित जकडबंदी को झकझोरा !. इस दौर के अधिकतर कवि शूद्र और अतिशूद्र जातियों से आते थे. लोकभाषाओं को रचना का माध्यम बनाकर इन कवियों ने संस्कृत और ब्राह्यण रहस्यवाद को तार तार कर दिया था. पर भक्ति आंदोलन का असर इतना नहीं पडा कि आधुनिक संदर्भों वाला राज्य अस्तित्व में आ सके.
इन सारे उदाहरणों के बावजूद भारतीय परम्परा में ऐसे बीज तलाशना लगभग असंभव है जिनपर आधुनिक अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का वट वृक्ष पनप सकता था.! पश्चिम से धर्मनिरपेक्षता की बयार आने के पहले लगभग पाँच सौ वर्षों तक भारत में मुस्लिम राज्य रहा है. क्या हम उस परम्परा में धर्मनिरपेक्षता के बीज तलाश सकतें हैं ? यह प्रयास और भी मुश्किल होगा.शाह वली उल्ला, जमाल-अल-दीन अफगानी, सैयद अहमद खान और इकबाल चार ऐसे बडे मुस्लिम स्वप्नदृष्टा हैं जिन्होंने आधुनिक भारतीय मुस्लिम मनोविज्ञान की निर्मित में सबसे बडा योगदान किया है. इन चारों का संकट यह है कि वे आस्था को विवेक से ऊपर रखतें हैं!. वस्तुतः यह संकट समूचे इस्लाम का बुनियादी संकट है. हिन्दू या इसाई परम्पराओं की तरह इसमें संशय की कोई गुजांयश नहीं है. इकबाल , शायर होने के कारण, विवेक के ऊपर आस्था की जीत को सबसे खूबसूरती से बयान करतें हैं. दर्शन के छात्र इकबाल लगातार पश्चिम के ऊपर इस्लामी परम्पराओं की श्रेष्ठता की बात करतें हैं और मनुष्य जाति की मुक्ति की एकमात्र संभावना इस्लाम में तलाशतें हैं. यह कहना बहुत स्वाभाविक होगा कि अपनी परम्परा को श्रष्ठ मानने वाला कोई भी दर्शन दूसरी परम्पराओं को बराबरी का हक देने के लिये तैयार नहीं हो सकता और न ही श्रेष्ठता के अहंकार में चूर यह दर्शन किसी ऐसे राज्य की कल्पना कर सकता है जिसका संचालन उसके द्वारा प्रतिपादित नियमों और मान्यताओं से न होता हो.
यही कारण है कि दुनियां भर के मुसलमानों की यह सबसे बडी त्रासदी है कि वे जब अल्पसंख्यक होतें हैं तो धर्मनिरपेक्षता के सबसे बडे अलंबरदार के तौर पर सामने आतें हैं किन्तु जैसे ही किसी भू भाग में वे बहुसंख्यक बन जातें हैं धर्मनिरपेक्ष राज्य उनकी चिन्ता का विषय नहीं रहता और वे एक इस्लामी राज्य बनाने की बात करने लगतें हैं. अल्पसंख्यक के रूप में खुद जिन अधिकारों को वे अपने लिये जरूरी समझतें हैं ,उन्हीं अधिकारों को मुस्लिम राज्यों में अल्पसंख्यकों को देने के लिये तैयार नहीं होते. इस द्वैध को प्रो. मुशीरूल हसन ने अपनी पुस्तक 'इस्लाम इन सेकुलर इन्डिया' में बडी बेबाकी से व्यक्त किया है.उनके अनुसार ''भारतीय मुसलमानों में एक छोटे से वर्ग को छोडक़र बहुसंख्यक समाज किसी भी प्रकार से सेक्यूलर नहीं है.''(पृष्ठ-1) '' उनमें से अधिकांश उलेमाओं का विश्वास है कि राज्य तो सेक्यूलर रहे परन्तु मुसलमानो को सेक्यूलरिज्म से बचाया जाय.'' (पृष्ठ-12) भारतीय मुसलमान अपने जीवन और सामुदायिक गतिविधियों में सेकुलर नहीं होना चाहते पर भारतीय राज्य सेक्यूलर देखना चाहतें हैं इसका उत्तर भी प्रो. हसन के यहां है _ ''भारत के मुस्लिम समुदायों ने भी सेक्यूलर राज्य का स्वागत किया है क्योंकि उन्हें डर है कि इसका विकल्प हिन्दू राज्य ही होगा.'' (पृष्ठ-8) .इसलिये किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसने एक धर्मांधारित राज्य बनवाया , सेकुलर कहना न सिर्फ सेकुलररिज्म शब्द का गलत इस्तेमाल है बल्कि शायद उसके साथ भी ज्यादती है. तुर्की , अल्जीरिया या मिश्र जैसे कुछ अपवाद जरूर हैं जहाँ बहुसंख्यक मुस्लिम राज्य में ऐसे निजाम कायम करने की समय समय पर कोशिश की गयी है जिनमें अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक मुसलमानों के बराबर हक दियें जायें लेकिन वहाँ भी उदारवादियों को इलामी कट्टरपंथियों से लगातार जूझना पडता है.
धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक समझ आस्था पर विवेक की जीत से जुडी हुयी है. एक औद्योगिक समाज में जब तर्क और विवेक को प्रोत्साहित किया जा रहा था तभी यह संभव हो पाया कि चर्च की राज्य पर जकडबन्दी कमजोर हुयी. धर्मनिरपेक्ष राज्य के अस्तित्व के लिये यह नितांत आवश्यक है कि धर्म उसके दैनिन्दिन कार्य की धूरी न बन जाय, धर्म का दखल नागरिकों के व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रहे , राज्य लौकिक समस्याओं का हल धर्म में न तलाशें और अपने सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करे. यह तभी संभव होगा जब राज्य आस्था के मुकाबले विवेक को तरजीह देगा. हमें भारतीय परम्पराओं में धर्म निरपेक्षता की जडें तलाशने की जगह अपने संविधान की तरफ देखना चाहिये जो विश्व भर में प्रचलित धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं का निचोड है और जिसके माध्यम से एक प्रगतिशील, वैज्ञानिक और बराबरी का समाज बनाया जा सकता है..............
!! धर्मनिर्पेक्षता और हमारा भारत: पर क्या है सच्चाई ?
जहाँ
तक भारत में धर्मनिर्पेक्षता का सवाल है, भारत सरकार के तरफ से ही
धर्मनिर्पेक्षता की कोई परिभाषा नहीं दिया गया है तो क्या ये
धर्मनिर्पेक्षता केवल इस लिए है की जो हमारी सरकार चाहे या धर्मनिर्पेक्षता
को लेकर जो भी सोच हो हम पर जबरदस्ती थोप दिया जाये| धर्मनिर्पेक्षता नामक
इस गूढ़ प्रश्न का सर्वविदित उत्तर देखें तो वो होता है की देश में सभी
धर्मों का दर्जा बराबर रहे कहीं से कोई अंतर ना रहे किन्ही भी धर्मो के बिच
में चाहे धर्म के नाम पर चाहे उस धर्म को मानने वालों के संख्या के आधार
पर| देश में उपस्थित सारे धर्मों को अपने धर्मानुसार आगे बढ़ने की आज़ादी
हो और वो बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के| देश की सरकार का धर्म से कोई लेना
देना नहीं होना चाहिए| धर्म देश में रहने वाले लोगो का व्यक्तिगत सोच हो
और राह हो|
पर
भारत में धर्मनिर्पेक्षता को पूरी तरह से गलत तरीके से समझाया या बताया
जाता है कुछ लोगों की अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए| पिछले ६५ सालो में हमने
बहुत से राजनेता देखे जो दिल्ली की संसद में बैठ कर हमर देश पर राज कर रहे
हैं या किये पर सभी ने धर्मनिर्पेक्षता की परिभाषा अपने स्वार्थ अनुसार
दिया ताकि इनकी बनी बनाई दुकान हमेसा फलती फूलती रहे चाहे भारतीय जनता भांड
में जाये|
अब
अगर हम हमारे संविधान को देखें तो सबसे पहले संविधान संसोधन के ४२ चरण में
धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया और उसके कालम २५-१ में साफ-साफ लिखा है,
"धार्मिक अंतःकरण का अधिकार सभी को है, जो चाहे अपने धर्म को खुलेआम व्यक्त
कर सकता है, अपने धर्म की बात कर सकता है, अपने धर्म को फैला सकता है|" पर
इसके साथ एक और बात संविधान में जोड़ी गई की देश धर्म से जुडी बातो पर
ध्यान दे सकता है की इससे दुसरो को आर्थिक और शारीरिक रूप से कोई कष्ट ना
हो| इतना ही नहीं लिखा है हमारे संविधान में बल्कि इसके आगे भी लिखा गया है
जो की बहुत ही महत्वपूर्ण है|
संविधान के कालम २८ में लिखा गया है की, "कोई भी धार्मिक संस्थान को सरकारी फंड से मदद नहीं मिलनी चाहिए|"
पर हमारे देश की ६५ सालो की सरकारों ने संविधान के इन सिद्धांतों को इतना तोड़-मरोड़ दिया की ये धर्मनिर्पेक्ष शब्द मात्र एक मखौल बन कर रह गया हमारे देश में| अब जब हमारे संविधान में सीधे-सीधे
धर्मनिरपेक्ष की परिभाषा दे दी गई है की कोई भी भारतीय सरकार से जुड़ा
किसी धर्म के बारे में नहीं सोचेगा और न ही व्यक्तिगत रूप से उस धर्म से
जुड़े लोगो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने से जोड़ने की कोशिस करेगा तब
हमारे राष्ट्रपति भवन में कभी ईद के मौके पर तो कभी दिवाली के मौके पर
क्यों लोगो को आमंत्रित किया जाता है| हमारे नेता फिर चाहे वो जो कोई भी हो
वो अधिकांश तौर पर इदी बांटते दिख जाते हैं दुहाई दी जाती है
धर्मनिरपेक्षता की| हद तो तब हो जाती है जब चुनाव के मौके पर किसी धर्म
विशेष के लिए आरक्षण की मांग कर दी जाती है| चलिए छोडिये हम आरक्षण के बारे
में यहाँ क्या बताये हमारा मुद्दा तो धर्मनिरपेक्षता है उसके बारे में आगे
बताते हैं|
जब
संविधान के कालम २८ में ये साफ़-साफ़ लिखा है की किसी भी धार्मिक संसथान
को सरकारी फंड से मदद नहीं मिलनी चाहिए तब कुछ चर्चों और मदरसों को कैसे
मदद दी जा रही है क्या हमारे देश की संविधान का सीधा-सीधा उलंघन नहीं है?
असलियत
ये है की जो भी धर्मनिरपेक्षता की बात करते दीखते हैं वो ही सबसे ज्यादा
साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं फिर चाहे वो हमारे धर्मनिरपेक्ष नेता
हों या हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार| इसके पीछे और कोई कारण नहीं होता बल्कि
उन नेताओ और सरकारों का व्यक्तिगत लाभ होता है जो धर्म के नाम पर
अल्पसंख्यक दिखा राजनीती चाल चलते दिख जाते हैं| जबकि संविधान में एक दम
सरल भाषा में कहा गया है की कोई भी सरकार धर्म के नाम पर राजनीती नहीं कर
सकती है पर ६५ सालों से धर्म के नाम पर राजनीती करती आ रही हैं सारी
धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ| सारी धर्मनिरपेक्ष पार्टियाँ केवल धार्मिक
अल्प्संख्यकता को ढाल बना कर उक्त धर्म से जुड़े लोगों को बहलाती फुसलाती
हैं जिसका उल्टा असर दुसरे धर्म के लोगो पर पड़ता है जोकि पूरी तरह लाजमी
है और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है|
आज
तक धर्मनिरपेक्ष भारत में धर्मनिरपेक्ष सरकारों ने धार्मिक अल्प्संख्यकता
का कोई माप दंड नहीं दिया की देश की कुल जनसँख्या का कितना प्रतिशत होने पर
उक्त धर्म विशेष को अल्पसंख्यक घोषित किया जायेगा|
अब
इन धर्मनिरपेक्षों के सामने मै कुछ सवाल रखना चाहूँगा और आशा करूँगा की
धर्मनिरपेक्ष इन सवालो का सीधा और सरल भाषा में जवाब देंगे:-
१.
जम्मू-कश्मीर में १९४६ से साम्प्रदायिकता कैंसर की तरह फैली हुई है और
खुलेआम वहाँ के तत्कालीन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने
पहले तो १९४६ में विद्रोह किया जम्मू-कश्मीर को मुस्लिम राष्ट्र बनाने और
वहाँ के तत्कालीन राजा, महाराज हरी सिंह तक को जम्मू-कश्मीर छोड़ने की धमकी
दी और फिर आजाद भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय के बाद खुलेआम भाषण देते
देखे और सुने गए की जम्मू-कश्मीर केवल मुसलमानों का है यहाँ के हिन्दुवों
को यहाँ से भगा दिया जाये| और परिणाम आज सबके सामने है की कश्मीर से एक तरह
से सारे हिन्दू परिवारों को अपना बसा-बसाया घर छोड़ना पड़ा और दर-दर की
ठोकर खाने को मजबूर होना पड़ा| वहाँ के हिन्दू मंदिरों को तोड़ कर मस्जिद
बना दिया गया और ये सब हुआ आजाद भारत में| तब कोई धर्मनिरपेक्ष क्यों नहीं
आया सामने?
२.
गुजरात दंगे की बात करते हैं आज लोग, शुरुवाती दौर में १९९५ तक में २९५
दंगे हुए गुजरात में और तब शासन में हमारी अभी की धर्मनिरपेक्ष सरकार ही
थी और साथ ही अधिकतर दंगाई पाकिस्तान भाग गए उदहारण के तौर पर मै गोधरा के
सदवा रिज़वी और चुडिघर का नाम लेना चाहूँगा|
३. गोधरा में साबरमती ट्रेन के साथ ५८ मासूम जानें जलीं तब कहाँ थे ये धर्मनिरपेक्षी|
४.
१९८४ में कहाँ थी ये धर्मनिरपेक्षता जब सिखों को खुलेआम सड़कों पर काटा जा
रहा था और हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री और भारत रत्न धारी राजीव गाँधी जी
ने कहा था की जब बड़ा पेंड गिरता है तब उसके आस पास की धरती हिलती है तो
इसमें परेसान होने वाली बात नहीं है| क्या ये धर्मनिरपेक्षता का उदहारण
दिया था तब तत्कालीन भारत रत्न विजेता प्रधानमंत्री जी ने?
५. भोजसाला का सरस्वती मंदिर जो की आज भोजशाला
कमाल मौला मस्जिद बन चूका है और अभी कुछ समय पहले तक हिंदुवो को साल में
एक बार बसंत पंचमी के दिन उस मंदिर के प्रान्गड़ में जाने की इजाजत थी और
मुस्लमान हर शुक्रवार को वहाँ नमाज अदा करते थे पर कुछ लोगों के प्रयास और
जान गंवाने के बाद हर मंगलवार को मंदिर को हिंदुवो के लिय खोला गया जबकि उस
मंदिर में खुदाई करके भी जांचने की जरुरत नहीं है बल्कि वहाँ उस मंदिर की
दीवारों और चबूतरों पर आज भी श्लोक खुदे हुए मिले हैं जो एक मस्जिद में
नहीं होते| ये क्या है धर्मनिरपेक्षता या कुछ और?
६.
अभी हाल में ही हैदराबाद में मंदिर में घंटा बजने पर और राम नवमी मानाने
पर प्रतिबन्ध लगाने वाली वहाँ की सरकार ही थी साथ ही हनुमान जयंती मानाने
पर भी प्रतिबन्ध लगाने की मांग थी पर जनाक्रोश के कारण उसे पारित नहीं किया
गया और कमोबेश इससे भी बदतर स्थिति जम्मू-कश्मीर और बंगाल में है|
७.
बंगाल में मुसलमानों को अलग से १०% का आरक्षण देने के साथ-साथ वहाँ
मस्जिदों में काम करने वालों को मासिक वेतन के साथ-साथ मुफ्त का इलाज और घर
भी| ये कौन सी धर्मनिरपेक्षता है?
उपरोक्त
पंक्तियाँ केवल उदहारण मात्र हैं हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष होने के
मुखौटे की| ऐसी घटनाएँ लिखने बैठ जाएँ तो पता नहीं कितने ही पन्ने भर
जायेंगे|
अब सवाल ये है की क्या सच में हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है या हमारे नेता और लोग जो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते नहीं थकते हैं?
क्या अनेक कारणों में से कुछ कारण जो ऊपर उल्लेखित हैं वो आपको धर्मनिरपेक्ष दिख रहे हैं?
या
यहाँ भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल, जो आज अल्पसंख्यक नहीं रहे
उनके वोट को पाने के लिए, दुसरे धर्म विशेष के लोगों के हितों को तक पर रख
कर और उन्हें धर्मनिरपेक्ष होने का लबादा ओढा कर नपुंसक बनाया जा रहा है?
ताकि उस धर्म विशेष के लोग इतने निचे गिर जाएँ की इन नेताओं की आँखों में
बसे इन अल्पसंख्यकों के टुकडो पर पालें और उनके कदमो में पड़े रहें जैसा आज
से १००० साल पहले हुआ था जब मोहम्मद गोरी नाम का आतताई आया और उसके बाद कई
मुग़ल आते गए और उनमे से कुछ यहाँ बस गए| ये मुग़ल भी भारत की धरती पर
वैसे ही घुसपैठिये की तरह आए जैसे की अंगरेज| गए केवल अंगरेज| मुग़ल नहीं
गए| तो भारत तो १००० साल से गुलाम था आजाद कब होगा ये नहीं पता और ना ही ये पता है की आजाद होगा भी की नहीं ऐसी स्थिति के चलते?
क्या हम सब आज भी धर्मनिरपेक्षता के आड़ में गुलाम बने रहना चाहते हैं जैसे १००० सालों से गुलाम बने हैं?
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