अभी कई दिनों से मई एक समाचार सुन रहा हु राधे माँ को लेकर जो की अपने आप को माँ दुर्गा का अवतार कहती है और हजारो लोगो की भीड़ को आकर्षित करने की क्षमता रखती है बस वही से ऐसा लगा की आखिर इस स्त्री में ऐसा क्या है जो राजर्षि विश्वामित्र जी लेकर आम हागारिक को विचलित कर रहे है ,आकर्षित कर रही है !
स्त्री
हमेशा से पुरुष के लिए एक पहेली रही है.वह कभी किसी रहस्य-सी लगती है,कभी
लगता है कि उसके आर-पार सब कुछ दिखता है.पुरुष स्वभावतः उसकी ओर खिंचा
चला जाता है.यह आकर्षण आखिर किन वजहों से होता है ? क्या इसके लिए केवल
विपरीतलिंगी होना ही महत्वपूर्ण कारण है ? पुरुष की स्त्री-मुग्धता केवल
उसकी दैहिक सुन्दरता पर ही क्यों निर्भर होती है ? क्या हर जगह स्त्री के
दिखने भर से वह मुख्य-धारा में आ गई है ?कुछ ऐसे ही प्रश्न हैं ,जिन पर
हमें गंभीरता से विवेचन करने की ज़रुरत है.
अमूमन सुन्दर नाक-नक्श वाली स्त्री को देखकर पुरुष सहजता से उसकी ओर
आकृष्ट हो जाते हैं.प्रथम-द्रष्टया यह कारक इतना प्रभावी होता है कि
स्त्री की बाकी खूबियाँ या तो गौण हो जाती हैं या उन्हें दिखाई नहीं देतीं
! स्त्री की इस 'उपयोगिता' को खुद स्त्री ने और आधुनिक बाज़ार ने बखूबी
पहचाना है.यही वज़ह है कि वह बकायदा एक उत्पाद के तौर पर देखी और परखी जा
रही है.ऐसा नहीं है कि इस धारा के अलावा स्त्री की और कोई धारा या दिशा
नहीं है पर जिस वज़ह से समाज का पूरा मनोविज्ञान और अर्थ शास्त्र बन-बिगड़
रहा है ,उसकी ही बात यहाँ पर हो रही है.
विपरीत-लिंग होने से स्त्री की ओर पुरुष का झुकाव सहज है और होना भी
चाहिए,पर यहाँ गौर-तलब बात यह है कि इस प्रक्रिया में उसका मूल्यांकन गलत
हो रहा है.कई बार दैहिक-सुन्दरता के मोह में हम बहुत गलत चुनाव कर लेते
हैं.पहले भी सुदर्शन स्त्रियों का 'उपयोग' करके व्यक्तिगत हित साधे गए हैं
और आज भी इसमें ज़्यादा अंतर नहीं आया है.इस सबके पीछे आख़िर कौन-सा
मनोविज्ञान काम करता है ? यही कि कोई भी इससे आसक्त होकर मुख्य बात या काम
को भूल जाये ,स्त्री के वास्तविक गुण गौण हो जाएँ ? उसे क्या एक
मार्केट-टूल नहीं समझा गया है ?
एक स्त्री के लिए इससे अधिक पीड़ादायक बात क्या होगी जब उसे उसकी सीरत
नहीं सूरत के आधार पर पहचान मिले,जाना जाये !कई स्त्रियाँ जिनमें औरों से
कहीं अधिक कौशल(स्किल) और बुद्धिमत्ता है,पर वे आधुनिक 'पहचान' से अनभिज्ञ
या रहित हैं तो इस नकली और बाजारू दुनिया में उनकी जगह आखिरी पंक्ति में
होती है. जिस स्वाभिमानी स्त्री को इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ता,उसके
लिए सारे दरवाजे बंद हों,ऐसा भी नहीं है. वह जीवन के हर क्षेत्र में अपनी
निपुणता प्रमाणित कर चुकी है ! प्राचीन काल में 'कालिदास' और 'तुलसीदास' के
बनने के पीछे विदुषी महिलाओं का ही हाथ रहा है और आज यह काम कहीं ज़्यादा
हो रहा है ! एक सफल आदमी के पीछे औरत का हाथ होना यूँ ही नहीं स्वीकार किया
गया है पर ऐसी स्त्रियों की चर्चा आज नहीं के बराबर है !
आख़िर, स्त्री आज बाज़ार की क्यों हर उस चीज़ को विज्ञापित करने पर अपना
मौलिक और चिर-स्थाई गुण भुला दे रही है ?वह बाज़ार और समाज की माँग के आगे
नत-मस्तक-सी हो गई है. इसमें केवल स्त्री भर का दोष नहीं है.हमने इतने सपने
पाल लिए हैं,जिनको पूरा करने के लिए उनके पीछे आँख मूँदकर भागे जा रहे हैं
. कारपोरेट सेक्टर स्त्री का भरपूर इस्तेमाल कर रहा है.औरत की देह हमेशा
से आदमी की कमजोरी रही है और तात्कालिक लाभ के लिए इसे भुनाने पर कुछ को
ज़रा भी हिचक नहीं होती. यह बात हमारा समाज,बाज़ार और यहाँ तक कि स्त्री भी
समझती है !स्त्री का 'वह' तत्व जब चुक जाता है या ढल जाता है तो वह पुरुष
और बाज़ार दोनों ले लिए बेकार हो जाती है.
स्त्री के दैहिक-रूप से इतर उसके पास बहुत कुछ है.अगर इस बिना पर उसका साथ
किसी पुरुष से होता है,तो स्त्री को उस रिश्ते पर गर्व होता है,उसका
आत्मबल मज़बूत होता है.यह प्रक्रिया या रास्ता थोडा कठिन ज़रूर है पर
चिर-स्थायी होता है.बाज़ार में वह देह के बजाय अपने आतंरिक गुणों के बल पर
भी छा सकती है.स्त्री जिस दिन पुरुष या बाज़ार की ज़रुरत के मुताबिक अपने
को ढालना बंद कर देगी,वह उसका असली मुक्ति-दिवस होगा ! वह खिलौना या उत्पाद
बनना पसंद करेगी अथवा एक अलहदा किरदार ?
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