सोमवार, 28 मई 2012

!! लड़कियां क्यूं देती हैं धोखा ?

यह एक ऐसा सवाल है जो शायद हर वह आशिक अपने दिल और भगवान से पूछता होगा जिसका गर्लफ्रेंड उसे छोड़ देती है. अक्सर देखने में आता है कि लड़कियां एक लड़के को छोड़ दूसरे के साथ प्रेमे के ढींगे कसने शुरू कर देती हैं.

कल तक जो लोग सोचते थे कि सिर्फ लड़के ही प्यार में धोखा देते हैं वह अब गलत साबित हो रहे हैं. आजकल लड़कियां भी फ्री हो गई हैं. जीवन के हर राह पर उन्हें कई ऐसे मिल जाते हैं जो उन्हें खुशियां देते हैं और मोड़ के साथ उनकी जरूरतें बदलने लगती है. बदलती जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें सबसे अच्छा लगता है पार्टनर ही बदल लेना.

दूसरी सबसे बड़ी वजह है उनके पास ऑपशन का होना. स्कूल में अलग बॉयफ्रेंड मिल जाता है. कॉलेज में कोई और और ऑफिस में कोई अओर इस तरह उन्हें अपना पार्टनर बदलने की आदत पड़ जाती है. इस तरह वह जब चाहे अपने आसपास लवर्स की फौज खड़ा कर पाती है.

पैसा एक ऐसी वजह है जिसके कारण लड़कियां अपने आप को भी बदल लेती हैं फिर पार्टनर बदलने में क्या दिक्कत. यही वह वजह है जिसकी वजह से लड़कियां सबसे ज्यादा धोखे करती हैं.

एक और वजह जिसकी वजह से लड़कियां धोखा देती हैं वह है उनका चंचल व्यवहार. कई लड़कियां दूसरों पर बहुत जल्दी भरोसा कर लेती हैं और किसी को भी अपनी जिंदगी मॆं आने का मौका देती हैं. ऐसी लडकियों के बहुत सारे दोस्त और प्रेमी बन जाते हैं.

साथ ही ऐसी लड़कियों के दिल में जो सबसे ज्यादा बसा होता है वह उसे ही प्यार करती हैं. बेशक उन्हें कोई नया प्रेमी मिल जाए जो उनसे बहुत प्यार करे पर वह उसकी कद्र नहीं करेंगी और उसी के पास जाएंगी जिसके पास उनका दिल करता है. लड़कियों को वही लड़के पसंद होते हैं जो उन्हें हर तरफ से खुश रख सके. उन्हें तन, मन और धन से पूरी तर संतुष्ट कर सके. लड़कियों के दिल को कोई नही समझ सकता............

शनिवार, 26 मई 2012

!! स्त्री की स्वतन्त्रता में बाधक -दहेज़ प्रथा !!

भगवान् ने स्त्री-पुरुष के रूप में संसार को एक ऐसी सौगात दी है जिसके नियमों का पालन कर वह समाज को विशिस्ट बना सकता है ! स्त्री वैदिक सभ्यता में पुज्यनीया थी जिसपर किसी प्रकार का भेद-भाव (चाहे वह लैंगिक हो या सामाजिक, जाति मूलक हो या समाज मूलक) नहीं था !समाज में उसे सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी !स्वयं के विवाह हेतु उसे योग्यतम वर को वरन करने का अधिकार था! वह तब भी घर परिवार तथा समाज में ऐश्वर्य एवं इज्जत की प्रति मूर्ति मानी जाती थी !स्त्रियों के वजह से हुए यूद्धों में स्त्री को पाने की लालसा न होकर उसकी इज्जत -आबरू बचाने की जद्दोजहद ज्यादा थी ! महाभारत का  युद्ध द्रौपदी के कारण नहीं अपितु उसकी इज्जत की खातिर लड़ा गया था !भगवान् कृष्ण का उद्देश्य यही था कि "अगर कोई तुम्हारी बहु बेटी कि इज्जत से खिलवाड़ करे तो तुम्हे उसका प्रतिकार करना चाहिए! उसका विनाश भी कर दो तो अच्छा होगा.............
                                       सीता जी के वनवास और उनकी अग्नि परिच्छा को लोग भगवान् राम कि हठधर्मिता  ही मानते हैं जबकि वास्तविक सत्य यह था कि " यदि कोई स्त्री अपने पति पर विश्वाश न करे और उसकी आज्ञा का पालन न करे तो समाज में उसे कस्ट उठाना ही होगा !  और यह कस्ट जीते जी अग्नि में जलने के सामान होगा ! " अपनी पत्नी कि रक्चा के लिए युद्ध तो क्या पुरुष को समंदर से भी लड़ना पड़े तो उसे हार नहीं माननी चाहिए ।
                              स्त्री कि नैतिकता पुरुषों के सामान ही होती है! शारीरिक बनावट के आधार पर ही हम उसे इज्जत कि दुहाई देकर चाहदिवारी में कैद करने का वक्त बीत चुका है! अब उन्हें फिरसे वही स्वतन्त्रता चाहिए जो वैदिक सभ्यता में उन्हें प्राप्त थी ! ये स्वतन्त्रता उन्हें तभी प्राप्त हो सकती है जब उनको दहेज़ जैसे दानव से बचा लिया जाए!आज दहेज़ कि वजह से लोग लड़कियों को पैदा करने और पालने से घबराने लगे हैं ! पहले ऐसा नहीं था, किसी पिता को उसकी पुत्री कि शादी (कन्यादान) के लिए वर का चुनाव करना होता था किन्तु दहेज़ नहीं देना होता था ! वर पक्छ भी कभी दहेज़ के लिए अपने पुत्र का विवाह नहीं करते थे ! वह एक अति उन्नत समाज कि सामाजिक  परम्परा थी ! कई बार तो किन्ही विषिस्थ परिस्थितियों के अधीन होकर अन्य योग्य परुष से संसर्ग करके वीर पराक्रमी पुत्र अथवा योग्य पुत्री को जन्म देती और लालन पालन करती थी ।जैसे भगवान् शिव और गंगा के संसर्ग के फलस्वरूप कार्तिकेय का जन्म हुया और उन्होंने असुरों का संहार किया था । 
                                        वैसे भी समाज को आज योग्य और मानसिक रूप से समृद्ध लोगों कि आवश्यकता है जो समाज को नयी दिशा और गति प्रदान कर सकें !समाज को दहेज़ प्रथा से मुक्त करने में हम लोगों कि भागीदारी बेहद जरूरी है ! अपनी बेटियों और बहनों को घर आँगन में ख़ुशी से चहकते देखना है तो हमें दहेज़ को मिटाना ही होगा !आज समाज से स्त्रियों कि संख्या बेहद तेजी से घटती जा रही है, जिसका वास्तविक कारन दहेज़ है !पुत्री कि पैदाइश के साथ ही परिवार को उसकी शाति और दहेज़ कि चिंता सताने लगती है! यदि समानता लागो हो जाये और दहेज़ जैसी बीमारी समाज से समाप्त हो जाए तो कोई भी पुरुष ये नहीं चाहेगा कि उसके घर में बेटी न पैदा हो!हमें आज फिर से उसी वैदिक सभ्यता को लाना होगा जहाँ किसी से कोई दुराव छिपाव न हो और अब कोई भी लड़की पैदा होने से पहले ही ना मार दी जाए..............

शुक्रवार, 25 मई 2012

!! दिल्ली का लालकिला का सत्य नाम है लाल कोट !!

पृथ्वीराज चौहान द्वारा निर्मित लाल कोट (लालकिला )
दिल्ली का लाल किला शाहजहाँ से भी कई शताब्दी पहले पृथ्वीराज चौहान द्वारा बनवाया हुवा लाल कोट है !  क्या कभी किसी ने सोचा है की इतिहास के नाम पर हम झूठ क्यों पढ़ रहे है ?? सारे प्रमाण होते हुए भी झूठ को सच क्यों बनाया जा रहा है ?? हम हिंदुओं की बुधि की आज ऐसी दशा हो गयी है की अगर एक आदमी की पीठ मे खंजर मार कर हत्या कर दी गयी हो और उसको आत्महत्या घोषित कर दिया जाए तो कोई भी ये भी सोचने का प्रयास नही करेगा की कोई आदमी खुद की पीठ मे खंजर कैसे मार सकता है....यही हाल है हम सब का की सच देख कर भी झूठ को सच माना फ़ितरत बना ली है हमने..... **दिल्ली का लाल किला शाहजहाँ से भी कई शताब्दी पहले प्रथवीराज चौहान द्वारा बनवाया हुवा लाल कोट है** जिसको शाहजहाँ ने बहुत तोड़ -फोड़ करके कई बदलाव किये है   ताकि वो उसके द्वारा बनाया साबित हो सके..लेकिन सच सामने आ ही जाता है. * इसके पूरे साक्ष्या प्रथवीराज रासो से मिलते है *शाहजहाँ से २५० वर्ष पहले १३९८ मे तैमूर लंग ने पुरानी दिल्ली का उल्लेख करा है (जो की शाहजहाँ द्वारा बसाई बताई जाती है) *सुवर  (वराह) के मूह वेल चार नल अभी भी लाल किले के एक खास महल मे लगे है. क्या ये शाहजहाँ के इस्लाम का प्रतीक चिन्ह है या हमारे हिंदुत्व  के प्रमाण ?? * किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है राजपूत राजा लोग गजो( हाथियों ) के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे ( इस्लाम मूर्ति का विरोध करता है) * दीवाने खास मे केसर कुंड नाम से कुंड बना है जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है, केसर कुंड हिंदू शब्दावली है जो की हमारे राजाओ द्वारा केसर जल से भरे स्नान कुंड के लिए प्रयुक्त होती रही है * मुस्लिमों के प्रिय गुंबद या मीनार का कोई भी अस्तित्वा नही है दीवानेकहास और दीवाने आम मे. *दीवानेकहास के ही निकट राज की न्याय तुला अंकित है , अपनी प्रजा मे से ९९% भाग को नीच समझने वाला मुगल कभी भी न्याय तुला की कल्पना भी नही कर सकता, ब्राह्मानो द्वारा उपदेषित राजपूत राजाओ की न्याय तुला चित्र से प्रेरणा लेकर न्याय करना हमारे इतिहास मे प्रसीध है *दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 के अंबर के भीतरी महल (आमेर--पुराना जयपुर) से मिलती है जो की राजपूताना शैली मे बना हुवा है *लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने देवालय  जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकार मंदिर दोनो ही गैर मुस्लिम है जो की शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं ने बनवाए हुए है. *लाल किले का मुख्या बाजार चाँदनी चौक केवल हिंदुओं से घिरा हुवा है, समस्त पुरानी दिल्ली मे अधिकतर आबादी हिंदुओं की ही है, सनलिष्ट और घूमाओदार शैली के मकान भी हिंदू शैली के ही है ..क्या शाहजहा  जैसा मुस्लिम  व्यक्ति अपने किले के आसपास अरबी, फ़ारसी, तुर्क, अफ़गानी के बजाय  हम हिंदुओं के लिए मकान बनवा कर हमको अपने पास बसाता ??? *एक भी इस्लामी शिलालेख मे लाल किले का वर्णन नही है *""गर फ़िरदौस बरुरुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्ता, हमीं अस्ता, हमीं अस्ता""--अर्थात इस धरती पे अगर कहीं स्वर्ग है तो यही है, यही है, यही है....इस अनाम शिलालेख को कभी भी किसी भवन का निर्मांकर्ता नही लिखवा सकता .. और ना ही ये किसी के निर्मांकर्ता होने का सबूत देता है इसके अलावा अनेकों ऐसे प्रमाण है जो की इसके लाल कोट होने का प्रमाण देते है, और ऐसे ही हिंदू राजाओ के सारे प्रमाण नष्ट करके हिंदुओं का नाम ही इतिहास से हटा दिया गया है, अगर हिंदू नाम आता है तो केवल नष्ट होने वाले शिकार के रूप मे......ताकि हम हमेशा ही अहिंसा और शांति का पाठ पढ़ कर इस झूठे इतिहास से प्रेरणा ले सके...सही है ना???..लेकिन कब तक अपने धर्म को ख़तम करने वालो की पूजा करते रहोगे और खुद के सम्मान को बचाने वाले महान हिंदू शासकों के नाम भुलाते रहोगे..ऐसे ही....? जागो जागो और इतिहास की सच्चाई को जानो ...मुस्लिम शाशको ने ज्यादातर  लुट - पाट,तोड़ फोड़ करके हमारे मंदिरों और महलों को परिवर्तित किया है ,बाबरी मस्जिद  ( जिसे देश भक्त हिन्दू वीरो ने गुलामी के प्रतीक को नेस्तनाबूद कर दिया) धार की भोजशाला जैसे कितने प्रमाण आज भी मौजूद है जो चिल्ला -चिल्ला कर हमसे कह रहे है की देखो इतिहास की सच्चाई . ..............
नोट -- मेरे इस ब्लॉग का मकसद सिर्फ इतिहास का सच्चा ज्ञान बताना है ......

गुरुवार, 24 मई 2012

!! 42 का पेट्रोल हमें 74 में बेच रही सरकार ?

मनमोहन जी आम जनता को जला रहे है
आज जब कच्चे तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमत अगस्त 2008 की कीमत से भी कम है, फिर किस तर्क पर सरकार ने इसके मूल्य में साढ़े सात रुपए की बढ़ोतरी कर दी, यह समझ से परे है। कैलकुलेशन के अनुसार, फिलहाल पेट्रोल का बेसिक प्राइस 42 रुपए निकलता है जिसके ब...ाद केंद्र और राज्य सरकारें उसमें अपने 35-40 रुपए टैक्स और ड्यूटीज जोड़ती हैं, जिसके कारण दाम 77-81 रुपए हो जाता है.......

आज कच्‍चा तेल ...100 डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से मिल रहा है... एक डॉलर 56 रुपए के बराबर ...है तो एक बैरल का दाम हुआ 5600 रुपए हुआ..! यह अगस्त 2008 की तुलना में 6 प्रतिशत सस्ता है!उस समय यह 5900 रुपए प्रति बैरल मिल रहा था! इसके बावजूद सरकार ने तेल कंपनियों को 7.5 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी करने से रोका नहीं...
.........
एक बैरल में लगभग 150 लीटर कच्चा तेल आता है। इस एक बैरल तेल को रिफाइन कर पेट्रोल में बदलने का कुल खर्च 672 रुपए निकलता है., इस तरह से पेट्रोल का दाम 42 रुपए प्रति लीटर से भी कम हुआ,,(5600+672/150= 41.81).....

इसका दाम बढ़कर 77-81 रुपए हो जाता है क्योंकि इसमें बेसिक एक्साइज ड्यूटीज सहित अन्य ड्यूटीज और सेस के साथ स्टेट सेल्स टैक्स भी जोड़ा जाता है ! इससे 42 रुपए में 35-40 रुपए और जुड़कर इसका दाम उतना हो जाता है। इस तरह से केंद्र और राज्य दोनों मिलकर आम जनता की भलाई के नाम पर पैसा उगाहने के लिए उन्हीं के जेब पर बोझ बढ़ाते हैं.....
पेट्रोल का दाम बढ़ाने के जो तर्क दिए जाते रहे हैं, उसकी हकीकत भी समझिए...

!!मृत्यु चिंतन-विन्दु है!!


मृत्यु क्या है?
जन्म से मृतु तक का
समय है - 'जीवन यात्रा'.
परन्तु मृत्यु तक सीमित
नहीं है - यह जीवन.

मृत्यु है -
जीवन का विश्राम स्थल;
कुछ क्षण रुक कर...,
भूत को टटोलने और,
भविष्यत् के गंतव्य को,
कृतकर्म के मंतव्य को,
पुनर्जन्म के माध्यम से,
निर्दिष्ट लक्ष्य संधान का,
पुनीत द्वार है - यह.

मृत्यु; विनाश नहीं, सृजन है.
मृत्यु; अवकाश नहीं, दायित्व है.
मृत्यु; नवजीवन का द्वार है.
मृत्यु; अमरत्व का अवसर है.

मृत्यु; विलाप का नहीं,
समीक्षा का विन्दु है.
जिसके आगे अमरत्व का
लहराता हुआ सिन्धु है.
लक्ष्य का स्वागत द्वार है और,
पारलौकिक जीवन का प्रारम्भ विन्दु है.
मृतु डरने की नहीं, चिंतन की विन्दु है.

सोमवार, 21 मई 2012

!!जातिवाद बनाम वर्ण व्यवस्था !!


अभाग्यवश दलित कहे जाने वाले लोग खुद को समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करते हैं, फलतः हम समृद्ध और सुरक्षित सामाजिक संगठन में नाकाम रहे हैं | इस का केवल मात्र समाधान यही है कि हमें अपने मूल, वेदों की ओर लौटना होगा और हमारी पारस्परिक (एक-दूसरे के प्रति) समझ को पुनः स्थापित करना होगा |
वेदों में मूलतः ब्राहमण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र पुरुष या स्त्री के लिए कहीं कोई बैरभाव या भेद … भाव का स्थान नहीं है |
जाति (caste) की अवधारणा यदि देखा जाए तो काफ़ी नई है | जाति (caste) के पर्याय के रूप में स्वीकार किया जा सके या अपनाया जा सके ऐसा एक भी शब्द वेदों में नहीं है | जाति (caste) के नाम पर साधारणतया स्वीकृत दो शब्द हैं — जाति और वर्ण | किन्तु सच यह है कि दोनों ही पूर्णतया भिन्न अर्थ रखते हैं |
1)…..जाति – जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण | न्याय सूत्र यही कहता है “समानप्रसवात्मिका जाति:” अथवा जिनके जन्म का मूल स्त्रोत सामान हो (उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो) वह एक जाति बनाते हैं | ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है – उद्भिज(धरती में से उगने वाले जैसे पेड़, पौधे,लता आदि), अंडज(अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी, सरीसृप आदि), पिंडज (स्तनधारी- मनुष्य और पशु आदि), उष्मज (तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से उत्त्पन्न होने वाले – जैसे सूक्ष्म जिवाणू वायरस, बैक्टेरिया आदि) |
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है | एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं | अतः जाति ईश्वर निर्मित है |
जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं | इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है | ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है |
बहुत समय बाद जाति शब्द का प्रयोग किसी भी प्रकार के वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त होने लगा | और इसीलिए हम सामान्यतया विभिन्न समुदायों को ही अलग जाति कहने लगे | जबकि यह मात्र व्यवहार में सहूलियत के लिए हो सकता है | सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति के हैं |
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया सही शब्द – वर्ण है – जाति नहीं | सिर्फ यह चारों ही नहीं बल्कि आर्य और दस्यु भी वर्ण कहे गए हैं | वर्ण का मतलब है जिसे वरण किया जाए (चुना जाए) | अतः जाति ईश्वर प्रदत्त है जबकि वर्ण अपनी रूचि से अपनाया जाता है | जिन्होंने आर्यत्व को अपनाया वे आर्य वर्ण कहलाए और जिन लोगों ने दस्यु कर्म को स्वीकारा वे दस्यु वर्ण कहलाए | इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कहे जाते हैं | इसी कारण वैदिक धर्म ’वर्णाश्रम धर्म’ कहलाता है | वर्ण शब्द का तात्पर्य ही यह है कि वह चयन की पूर्ण स्वतंत्रता व गुणवत्ता पर आधारित है |
३. बौद्धिक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों ने ब्राहमण वर्ण को अपनाया है | समाज में रक्षा कार्य व युद्धशास्त्र में रूचि योग्यता रखने वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं | व्यापार-वाणिज्य और पशु-पालन आदि का कार्य करने वाले वैश्य तथा जिन्होंने इतर सहयोगात्मक कार्यों का चयन किया है वे शूद्र वर्ण कहलाते हैं | ये मात्र आजीविका के लिए अपनाये जाने वाले व्यवसायों को दर्शाते हैं, इनका जाति या जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है |
४. वर्णों को जन्म आधारित बताने के लिए ब्राह्मण का जन्म ईश्वर के मुख से हुआ, क्षत्रिय ईश्वर की भुजाओं से जन्में, वैश्य जंघा से तथा शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए यह सिद्ध करने के लिए पुरुष सूक्त के मंत्र प्रस्तुत किये जाते हैं | इस से बड़ा छल नहीं हो सकता, क्योंकि -
(a) वेद ईश्वर को निराकार और अपरिवर्तनीय वर्णित करते हैं | जब परमात्मा निराकार है तो इतने महाकाय व्यक्ति का आकार कैसे ले सकता है ? (देखें यजुर्वेद ४०.८)
(b) यदि इसे सच मान भी लें तो इससे वेदों के कर्म सिद्धांत की अवमानना होती है | जिसके अनुसार शूद्र परिवार का व्यक्ति भी अपने कर्मों से अगला जन्म किसी राजपरिवार में पा सकता है | परन्तु यदि शूद्रों को पैरों से जन्मा माना जाए तो वही शूद्र पुनः ईश्वर के हाथों से कैसे उत्त्पन्न होगा?
(c) आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता | यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है | तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है? आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया? किन्तु वेदों की साक्षी से प्रकृति भी शाश्वत है और कुछ अणु पुनः विभिन्न मानव शरीरों में प्रवाहित होते हैं | अतः यदि परमात्मा सशरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले |
(d) जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है | यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है | इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
उदाहरणतः यह पूछा जाए, “दशरथ कौन हैं?” और जवाब मिले “राम ने दशरथ से जन्म लिया”, तो यह निरर्थक जवाब है |
इसका सत्य अर्थ है – समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी लोग समाज का मस्तिष्क, सिर या मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे | बाहुओं के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय हैं, वैश्य या उत्पादक और व्यापारीगण जंघा के सामान हैं जो समाज में सहयोग और पोषण प्रदान करते हैं (ध्यान दें ऊरू अस्थि या फिमर हड्डी शरीर में रक्तकोशिकाओं का निर्माण करती हैं और सबसे सुदृढ़ हड्डी होती है ) | अथर्ववेद में ऊरू या जंघा के स्थान पर ‘मध्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है | जो शरीर के मध्य भाग और उदर का द्योतक है | जिस तरह पैर शरीर के आधार हैं जिन पर शरीर टिक सके और दौड़ सके उसी तरह शूद्र या श्रमिक बल समाज को आधार देकर गति प्रदान करते हैं |
इससे अगले मंत्र इस शरीर के अन्य भागों जैसे मन, आंखें इत्यादि का वर्णन करते हैं | पुरुष सूक्त में मानव समाज की उत्पत्ति और संतुलित समाज के लिए आवश्यक मूल तत्वों का वर्णन है |
यह अत्यंत खेदजनक है कि सामाजिक रचना के इतने अप्रतिम अलंकारिक वर्णन का गलत अर्थ लगाकर वैदिक परिपाटी से सर्वथा विरुद्ध विकृत स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है |
ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति, महाभारत, रामायण और भागवत में भी कहीं परमात्मा ने ब्राह्मणों को अपने मुख से मांस नोंचकर पैदा किया और क्षत्रियों को हाथ के मांस से इत्यादि ऊलजूलूल कल्पना नहीं पाई जाती है |
५. जैसा कि आधुनिक युग में विद्वान और विशेषज्ञ सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक होने के कारण हम से सम्मान पाते हैं इसीलिए यह सीधी सी बात है कि क्यों ब्राह्मणों को वेदों में उच्च सम्मान दिया गया है | अपने पूर्व लेखों में हम देख चुके हैं कि वेदों में श्रम का भी समान रूप से महत्वपूर्ण स्थान है | अतः किसी प्रकार के (वर्ण व्यवस्था में) भेदभाव के तत्वों की गुंजाइश नहीं है |
६. वैदिक संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः शूद्र ही माना जाता है | उसके द्वारा प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण निर्धारित किया जाता है | शिक्षा पूर्ण करके योग्य बनने को दूसरा जन्म माना जाता है | ये तीनों वर्ण ‘द्विज’ कहलाते हैं क्योंकि इनका दूसरा जन्म (विद्या जन्म) होता है | किसी भी कारणवश अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों के सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं |
७. यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है | इसी तरह शूद्र या दस्यु का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है |यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है | जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती हैं उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था | प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था
ब्राह्मण शब्द में प्रयुक्त हुए शब्द ब्रह्म का अर्थ यदि हम जाने तो इसका मतलब होता है जो बढे या विकास करे | आज का एटम बम पहले ब्रह्मास्त्र इसीलिए कहलाता था क्योंकि वो ऐसा अस्त्र था जो सिर्फ एक ही जगह पर असर नहीं डालता था बल्कि उसके द्वारा किया गया विनाश का असर व्यापक होता था | ऐसे ही ब्रह्मा को भी सृष्टि का रचयिता इसीलिए बुलाया जाता है क्योंकि ब्रह्मा का अर्थ ही है जो बढाए या रचनाओं के द्वारा वृद्धि करे | इसी प्रकार से ब्राह्मण वो व्यक्ति होता था जो समाज को विकास की दिशा देने में सहायता करे | चूंकि सही शिक्षा से ही समाज का विकास होता है इसीलिए गुरु या शिक्षक जो की वेदों की सही शिक्षा दे उसे ही ब्राह्मण माना गया | आज के समय में जो लोग खुद को ब्राह्मण वर्ण का मानते है और अपने आगे पुरोहित या पंडित शब्द का प्रयोग करते है वो ऐसा अज्ञानता वश करते है | पंडित वो जो किसी विषयमे पांडित्य हासिल करे और पुरोहित वो जो कर्मकांड से समाज के लोगो को धर्म की और अग्रसर करे | कर्मकांड और धर्म में भी अंतर है | धर्म सभी मनुष्यों के लिए एक ही है और धर्म के दस लक्षण है जैसे चोरी न करना, असत्य न बोलना , दीन दुखियों की सहायता करना, जीवो पर दया करना, क्रोध न करना , हिंसा न करना आदि | कर्मकांड की रचना हमारे ऋषि मुनियों द्वारा हमें धर्म से जोड़े रखने के लिए की गयी | वेद तो यही कहते है की इस ब्रह्माण्ड या फिर और भी किसी दूसरे ब्रह्मांडो में कोई भी जीव जंतु यदि है तो सबका भगवान एक ही है | वेद शब्द का अर्थ ही है ज्ञान | जिस दिन हमें सही ज्ञान हो जाएगा उस दिन से हम सही वर्ण व्यवस्था की और लौट जायेंगे और हमारा भारतीय समाज सही दिशा पायेगा और सारी दुनिया को सही दिशा देगा क्योंकि भारत का अर्थ ही है ज्ञान में रत और भारतीय का अर्थ है विद्वान |
शूद्र का अर्थ होता है सेवा करने वाला | कोई भी व्यक्ति जो दूसरो की सेवा करे वो कभी निरादर का पात्र हो ही नहीं सकता | हम जब तक संस्कृत भाषा और अपने वेदों से दूर है तभी तक हमारे समाज में कुरीतियाँ है | जिस दिन हमें अपना संपर्क संस्कृत और वेदों से बिठा लिया उसी दिन से भारतवर्ष प्रगति की राह पकड़ लेगा...........
 !!!!!सुमित त्रिपाठी (अग्निवीर जी के ब्लॉग से लिया है )!!!!!

!! आप जीवन जीने की कला जानते है ?

मैं देखता हु की सुबह से लेकर साम तक बल्कि देर रात तक हमारे मित्र अनर्गल वार्तालाप ,अनर्गल सोच विचार,करते रहते है ,ऑफिस में सहकर्मियों से .दोस्तों से ,बाजार में दुकानदार ,घर में परिवार के सदस्यों से मनभेद करते है  क्यों ?क्या आपको पता है की आपका जन्म किस लिए हुआ है ?आपने कभी सोचा है कि जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या है यह जीवन ? इस तरह के प्रश्न बहुत कीमती हैं !जब इस तरह के प्रश्न मन में जाग उठते हैं तभी सही मायने में जीवन शुरू होता है ! ये प्रश्न आपकी  जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं!  ये प्रश्न वे साधन हैं जिनसे आप अंत:करण में और गहरी डुबकी लगा सकते है  और जवाब आपके  अंदर अपने आप उभर आएंगे ! जब एक बार ये प्रश्न आपके  जीवन में उठने लगते हैं, तब आप  सही मायने में जीवन जीने लग जाते है ........

अगर आप जानना चाहते हैं  कि इस धरती पर आप  किसलिए आए है  तो पहले यह पता लगाए  कि यहां किसलिए नहीं आए हो! आप  यहां शिकायत करने नहीं आए हो, अपने दुखड़े रोने नहीं आए है  या किसी पर दोष लगाने के लिए नहीं आए है  ! ना ही आप  नफरत करने के लिए आए है ,ये बातें आपके  जीवन में हर हाल में खुश रहना सिखाती हैं ! उत्साह जीवन का स्वभाव है ! दूसरों की प्रशंसा करने का और उनके उत्साह को प्रोत्साहन देने का मौका कभी मत छोडिये   इससे जीवन रसीला हो जाता हैआपका , जो कुछ आप  पकड़ कर बैठे हो उसे जब छोड़ देते है , और स्वकेंद्र में स्थित शांत हो कर बैठ जाते हो तो समझ लीजिये आपके  जीवन में जो भी आनंद आता है, वह अंदर की गहराइयों से आएगा........


सारा दिन यदि आप  सिर्फ जानकारी इकट्ठा करने में लगे रहते है , अपने बारे में सोचने और चिंतन के लिए समय नहीं निकालते तो आप जड़ता और थकान महसूस करने लगेगे ! इससे जीवन की गुणवत्ता बदतर होती चली जाएगी ! तो दिन में कुछ पल अपने लिए निकाल लिया करे  कुछ मिनटों के लिए आंखें बंद कर बैठो और दिल की गहराइयों में उतर जाए ! जबआप  खुद अंदर से शांत और आनंदित होंगे, तभी आप  इनको बाहरी दुनिया के साथ बांट सकेगे ! ज्यादा मुस्कुराना सीखिए  हर रोज सुबह आईने में देखो और अपने आप को एक अच्छी-सी मुस्कान दीजिये ! जब आप  मुस्कुराते हो तो आपके चेहरे की सभी मांस पेशियों को आराम मिलता है!  दिमाग के तंतुओं को आराम मिलता है और इससे आपके  जीवन में आगे बढ़ते रहने का आत्मविश्वास, हिम्मत और शक्ति मिलती है.........


जीवन में हमेशा बांटने, सीखने और सिखाने के लिए कुछ न कुछ होता ही है,आपके पास क्या है ? सीखने के लिए हमेशा तैयार रहे ,अपने आप को सीमित मत करे  दूसरों के साथ बातचीत करे , अपने विचार, अपनी बातें आप उन्हें बताये और उनसे कुछ जानने की कोशिस करे , हम सब यहां कुछ अद्भुत और विशष्टि करने के लिए पैदा हुए हैं !  यह मौका मत गवाए !आपके  अपने कम और लंबे समय के लक्ष्य तय कर लेने चाहिए ! ऐसा करने से जीवन को बहने के लिए दिशा मिल जाती है!अपने आपको आजादी दीजिये - सपने देखने और सचमुच कुछ बड़ा सोचने की !  और वो सपने जो आपके  दिल के करीब हैं, उन्हें साकार करने की हिम्मत और संकल्पकरिए ! बिना उद्देश्य के जीवित रहने के बजाए जीवन को सही मायने में जीना शुरू करिए ! तब आपका  जीवन मधुर सपने की तरह हो जाएगा...........

शनिवार, 19 मई 2012

!! मंदिर,मस्जिद ,गुरुद्वारे ,गिरिजा घर जाओ या नहीं जाओ पर बुजुर्गो की सेवा जरुर करे !!


यह बात सन १९७९ की है जब मैं कक्षा ९वी में  रीवा मद्यप्रदेश के मार्तंड हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ता था ! उस समय एक दिन लंच की अवकास में सभी बच्चे ग्राउंड में खेल रहे थे ,और ग्राउंड में ही एक पुराना  कुआ था उस कुए की जगत (कुए का ओटला)के पास बहुत से बच्चो की भीड़ लगी थी ,,उत्सुकता बस मैं भी उस भीड़ के पास गया वहा जाकर देखा की एक बूढी अम्मा जो मेरी दादी सा की उम्र की थी उनको शहर  के बच्चे चिढा रहे थे और पत्थर मार रहे थे और ओ बूढी अम्मा रो रही थी और अपनी पोटली से पत्थर की मार से बचने की कोशिस कर रही थी मैं जब यह सब देखा तो मुझे मेरी दादी सा याद आ गई और बहुत गुस्सा आ गया मुझे तो मैं पतःर मारने वाले दो तीन बच्चो से भीड़ गया और उनकी जम कर धुनाई कर दिया (मैं गाव का हट्टा -कट्टा था जबकि सहर के डालडा क्षाप थे) और धुनाई के बाद बहुत से बच्चे भाग गए हम कुछ बच्चे बचे तो दादी सा से पूचने लगा की आप कहा जायेगी तो उन्होंने "मनगवा" का नाम लिया जो की रीवा से करीब 65 KM दूर है , मैं उनको बोला की चलिए आपको बस स्टैंड छोड़ देता हु (बस स्टैंड पास ही आधा KM पर है ) तो दादी सा ने कहा की हमारे पास पैसे नहीं है किराए के लिए ..तो मैंने अपनी जेब टटोला  तो देखा की सिर्फ १ रुपये पचास पैसे ही है ,जबकि किराया 7 रुपये था रीवा से मनगवा का ,तो हम दो तीन गाव के बच्चो ने आपस में चन्दा किया फिर भी 7 रूपये इकठा नहीं हुए तो अपने द्विवेदी सर जी के पास गए और उनकी सहायता मागे तो उन्होंने सहर्ष ५ रुपये दे दिया और प्रिंसपल सर के पास ले गए तो वहा से भी ५ रुपये  मिल गए ! अब हम लोगो ,के पास करीब  १४ रुपये हो गए ,,तो प्रिंसपल सर से अनुमति लेकर दादी सा को बस स्टैंड ले जाकर उस बस में बैठा दिया जो मनगवा को जाती थी ! दादी सा के चरण स्पर्श किया तो दादी सा ने बहुत खुसी हो कर हम दोस्तों को आशीर्वाद दिया होगा हमने  कंडेक्टर को समझा दिया की इन्हें मनगवा में उतार दीजिएगा ..और दादी सा को कुछ फल खरीद कर दे दिया और अपने स्कूल आ गया ....तो प्रिंसपल साब और स्कूल का पूरा स्टाफ हम दोस्तों की पीठ थपथपाया ...ओ दिन आज भी याद है क्योकि ओ मेरा मेरे जीवन का पहला नेक कार्य था जो आज भी याद है ..और दादी सा का चेहरा आज भी याद है ..! मानव सेवा से बढ़कर इस संसार में कोई सेवा नहीं है ....मैंने यही निष्कर्ष निकला ....

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!! ब्रह्मज्ञान क्या है !!

प्राचीन भारतीय दर्शनों में ‘ब्रह्म’ शब्द लंबी चर्चा का विषय रहा है। अलग-अलग काल खंडों में उस समय के सम्प्रदायों ने ‘ब्रह्म’ शब्द के साथ नये-नये विशेषण जोड़े। जैसे शब्द-ब्रह्म, अन्न-ब्रह्म, सगुण-ब्रह्म, निर्गुण ब्रह्म इत्यादि।
व्यापक ब्रह्म को वर्णन की सीमा से बाहर मानते हुए इस प्रकार भी उसकी विशेषता कही गयी, जैसे ब्रह्म जो अद्वैत है, अर्थात् जो दो में विभाजित नहीं है, जो अल्प नहीं है, जो नाशवान नहीं है इत्यादि।
इन सब चर्चाओं में ब्रह्म के जिस स्वरूप को अधिकतर पक्षों द्वारा स्वाकीर किया गया, वह है, कि ब्रह्म अनंत है, वह सबसे बड़ा है, वह सबसे महान है, उसमें सृष्टि (जन्म) स्थिति (निरंतरता) और प्रलय (मृत्यु) की सभी संभावनाएं समायी हुई हैं।
भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो विराट रूप दिखाया था, वह ब्रह्म की विशालता का प्रतीक था। दिखाने से तात्पर्य भली-भांति समझाना है कि व्यापक ब्रह्म में मनोरम और भयंकर सभी कुछ समाविष्ट है। ग्यारहें अध्याय को इसलिए ‘विश्व रूप दर्शन’ नाम दिया गया था।

प्राचीन समय में व्यापाक ब्रह्म के अलग-अलग पक्षों पर विचार करने वाले मनीषियों को सामान्य जन ब्रह्मज्ञानी कहते थे। बाद में ‘ब्रह्मज्ञान’ को धार्मिक विषयों तक सीमित कर लिया गया जो कि असीम की चर्चा को सीमित करने का प्रयास था। इस स्थिति को देखते हुए हम आगे ब्रह्मज्ञानी शब्द की बजाय ‘ब्रह्म वेत्ता’ शब्द का प्रयोग करेंगे।

ब्रह्म से आशय है संपूर्ण ब्रह्मांड। हमारी पृथ्वी सहित हमारा सौर मंडल इस विशाल ब्रह्मांड का एक छोटा सा भाग है। इस पृथ्वी पर विचरण करने वाला मनुष्य इस ब्रह्मांड का एक अंश है। यह इसलिए कि मानव में सभी खनिज द्रव्य और पदार्थ न्यून या अधिक मात्रा में विद्यमान हैं। इन सभी द्रव्यों की आवश्यकता से कम या आवश्यकता से अधिक मात्रा मनुष्य के दोनों रोगों का कारण बनती है। इस असंतुलन को संतुलित करने की दिशा में किये जाने वाले प्रयत्नों के फलस्वरूप आयुर्वेद का जन्म हुआ है।

हमारे सौर मंडल के ग्रह नक्षत्रों की गति का मानव के मन, मस्तिस्क और शरीर पर प्रभाव होता है, इस खोज के आधार पर ज्योतिष के फलित पक्ष का जन्म हुआ है।

ब्रह्मांड के विषय में आधुनिक वैज्ञानिकों का कहना है कि यह निरंतर फैलता है। एक सीमा तक फैलने के बाद इसके सिकुड़ने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। सिकुड़ने के उपरांत ब्रह्मांड पुनः फैलने लगता है। ब्रह्मांड के विस्तार और संकोचन के मध्य का समय हमारे कैलेंडर के अनुसार खरबों वर्ष से अधिक का होता है।
ब्रह्मांड के संकोच से विस्तार और विस्तार से संकोच की प्रक्रिया रुकती नहीं है। मानव क्योंकि ब्रह्मांड का एक अंश है, इसलिए मानव द्वारा निर्मित सामाजिक नियमों में एक अति से दूसरी अति तक जाने की यात्रा भी ब्रह्मांड की गतिशीलता जैसी होती है। मानव तथा मानव निर्मित समाज की इस प्रकृति को समझने वाला व्यक्ति ही वास्तव में ब्रह्मवेत्ता कहलाने के योग्य होता है।

ब्रह्मवेत्ता अपने अनुभव और अध्ययन के बल पर यह भी जानता है कि अलग-अलग भूखंडों में बसने वाले मानव समाज और अलग-अलग प्रकार के जलवायु को झेलने वाले मानव समाज के सभी सदस्यों का स्वभाव और आवश्यकताएं एक जैसी नहीं होतीं। हर व्यक्ति का वातावरण और हर व्यक्ति की मानसिकता और शारीरिक अवस्था अलग-अलग प्रकार की होती है। इसलिए उसके जीवन व्यतीत करने के नियम भी अलग-अलग होते हैं। ऐसे विविधता-मय समाज को किसी एक नियम किसी एक धार्मिक पुस्तक के माध्यम से रोकने का यत्न करना मानो क्लाक के पेंडुलम को बलपूर्वक रोकने का प्रयत्न किया है। इसलिए ब्रह्मवेत्ता किसी एक नियम या एक पुस्तक द्वारा समाज को चलाने का आग्रह नहीं करता।


ब्रह्मवेत्ता के सामने भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के मध्य कोई सीमा नहीं रेखा नहीं होती। इसलिए वह त्रिकालदर्शी कहलाने का पात्र होता है। वह यों भी कि वर्तमान की घटनाओं को तटस्थ भाव से देखने से वह भूतकाल की घटनाओं का आकलन कर सकता है और भविष्य में होने वाली घटनाओं का आभास पा सकता है। वह जानता है कि वह आज जो फल खा रहा है, उसका बीज भूतकाल में बोया गया था और जो बीज आज बोया जा रहा है, उसका फल भविष्य में उपजेगा।

तटस्थ भाव का उदाहरण हम टेस्ट ट्यूब (Test Tube) के उदाहरण से देना चाहते हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों के प्रयोग में काम आने वाले टेस्ट ट्यूबों में पड़े द्रव्यों को ताप या शीत पहुंचाने से द्रव्यों में परिवर्तन होता है, टेस्ट ट्यूबों में पड़े दृव्यों को ताप या शीत पहुंचाने से द्रव्यों में परवर्तन होता है, टेस्ट ट्यूब निरपेक्ष रहता है। ब्रह्मवेत्ता का मन, मस्तिष्क भी उस टेस्ट ट्यूब जैसा होता है। वह अपने आस पास होने वाली क्रियाओं और घटनाओं से उद्वेलित नहीं होता बल्कि अपने भीतर उठने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मित्रता, शत्रुता आदि भावों और विचारों में वह डूबता नहीं है, बल्कि जोश में होश बनाए रखता है।

दूसरों के मन में भावों और विचारों को ब्रह्मवेत्ता अपने मन रूपी तराजू में तोलता है जैसे वे उसके मन मस्तिष्क में उठ रहे हों। इसके विपरीत स्थिति में वह अपने मन मस्तिष्क में उठने वाले भाव और विचारों को इस प्रकार देखता है जैसे वे दूसरे के मन मस्तिष्क में उठ रहे हैं। ऐसा ब्रह्मवेत्ता अतंर्यामी हो जाता है।

अपने मन मस्तिष्क से तराजू जैसा कार्य निरंतर लेते रहने से ब्रह्मवेत्ता, मानव की मुख्य इच्छाएं जानने समझने में समर्थ हो जाता है। इन इच्छाओं को आधुनिक मनोविज्ञान में मूल प्रवृत्तियों (Instincts) कहा गया है।
मानव-प्रकृति का सूक्ष्म अध्ययन व्यापक ब्रह्म के एक पक्ष का दर्शन है। ब्रह्म के अनेक पक्ष हैं। इन पक्षों को जानना भी ब्रह्मज्ञान के अंतर्गत है। इन पक्षों में से कुछेक का विवरण प्रस्तुत है।
वृक्षों और पौधों को उगते, पकते और मरते देखकर पुराने समय में जैन-तीर्थकारों और मुनियों ने उनमें प्राण का दर्शन किया और वृक्षों लताओं से फल-फूलों को तोड़ने को हिंसा का रूप माना। वे तीर्थकार ब्रह्म के विशेष पक्ष के द्रष्टा होने के कारण ब्रह्मवेत्ता थे।

इस युग के भारतीय विज्ञानी जगदीशचंद्र बसु ने वैज्ञानिक परीक्षणों से तीर्थकारों के निष्कर्षों को सिद्ध किया है कि वे पौधे अनुकूल परिस्थिति में प्रसन्न होते हैं और प्रतिकूल स्थिति में दुःखी होते हैं। बसु महोदय भी ब्रह्मवेत्ता कहलाने के पात्र थे।

आकाश का विचरण करने वाले सूरज चांद सितारों की गति को सभी लोग देखते हैं किंतु इन लोगों में आर्य भट्ट का नाम हम आदर से लेते हैं। छठी शताब्दी में आर्य-भट्ट ने ग्रह नक्षत्रों की गति का सूक्ष्म अध्ययन करके बीज गणित (Algebra) द्वारा खगोल विद्या (Astronomy) के सिद्धांत स्थापित किए। आर्य भट्ट के समकालीन वराह मिहिर ने उन ग्रह नक्षत्रों द्वारा मनुष्य पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया और फलित ज्योतिष के सिद्धांत स्थापित किए। वे सब अपने-अपने कार्यक्षेत्र के ब्रह्मवेत्ता थे।
भारत के बाहर नज़र डालते हैं तो ब्रह्म के अन्य पक्षों के अध्येता के रूप में आईन्स्टाइन का नाम सामने आता है। उन्होंने सूक्ष्मतम अणु (एटम) के विस्फोट से अपार शक्ति उपजने की कल्पना की और इस कल्पना को अपने आविष्कारों से साकार भी किया।

चार्ल्स डारविन ने प्राणी विज्ञान के क्षेत्र में सूक्ष्म अध्ययन करके आदि-जीव से मानव के विकास की प्रक्रिया सिद्ध की।

आज के मशीनी मानव ‘रोबोट’ का नाम हम सब जानते हैं। इस रोबोट की कल्पना चैकोस्लोवाकिया के नाटककार कैरेल चैपक (1890-1938) ने अपने नाटक ‘रोसुमज यूनिवर्सल रोबोज’ में प्रस्तुत की थी। ‘रोबो’ या ‘रोबोट’ शब्द उसी ‘रोबोज’ का रूपान्तर है।
ये सब विचारक व्यापक ब्रह्म के अलग-अलग पक्षों के द्रष्टा होने के कारण ‘ब्रह्मवेत्ता’ कहे जाने के पात्र हैं।

यहां दर्शक और द्रष्टा का अंतर समझना आवश्यक है। दर्शक प्रकट को देखता है जबकि द्रष्टा प्रकट की पृष्ठभूमि में छिपे अप्रकट को अपनी कल्पना शक्ति द्वारा देख लेता है यही कारण है कि हमारे मनीषियों ने वेद की ऋचाओं और वेद मंत्रों के रचयिताओं को द्रष्टा कहा है। इन मंत्रों और ऋचाओं में आध्यात्मिक ज्ञान के साथ भौतिक ज्ञान भी है। अतः ब्रह्मज्ञान को केवल आध्यात्मिक ज्ञान तक सीमित रखना असीम को सीमित बनाना है।

शुक्रवार, 18 मई 2012

!! हिन्दुओ का बार बार अपमान क्यों ?

हिन्दुओ को लगातार अपमानित करने क़ा फैसन चल पड़ा है जब कोई प्रसिद्धि प्राप्त करता है तो उसके निशाने पर हिन्दू ही होता है.एम्.ऍफ़.हुसेन को भी भारत माता क़ा नंगा चित्र बनाया हिन्दुओ को और अपमानित करने हेतु सरस्वती माता जो बिद्य की देवी है उनका भी नंगा चित्र बनाया .इतना ही नहीं प्रधान मंत्री की बेटी जो इतिहासकार भी है ,ने लिखा की सीता जी के लक्ष्मण जी नाजायज सम्बन्ध थे ,हनुमान एक बन्दर था जो बहुत ही कामुक था .इसमें परेसान होने की कोई बात नहीं है क्यों की सेकुलर क़ा अर्थ हिन्दू धर्म क़ा बिरोध.बामपंथी सरकार से अलग होने पर भी उच्चतम शैक्षिक शंस्थानो से उन्हें हटाया नहीं गया है हिन्दू बिरोध करना ही उनका प्रथम कर्तब्य है , बामपंथियो को कोई भी भारतीय ,राष्ट्रीयता परक सामग्री अच्छी नहीं लगती .अभी हाल में सर्बोच्च न्यायालय ने एक फैसला दिया है ,कहा है की शादी से पहले लड़की, लड़का एक साथ रह सकते है ,नजीर के तौर पर जज महोदय ने भगवान कृष्ण और राधा क़ा उदहारण दिया है,यह क्या है न्यायलय से लेकर नेता ,बिधर्मी सभी अपमान करने में जुटे है .हिन्दुओ के धर्य की कबतक परीक्षा ली जाएगी .हुसेन ने मुहम्मद क़ा तो कोई नंगा चित्र बनाकर कला क़ा प्रदर्सन नहीं किया.सभी जानते है की अयोध्यामे भगवान श्री राम पैदा हुए थे ,प्रमाण भी मिल गया,लेकिन किसी जज की हिम्मत नहीं हुई की जन्मभूमि के पक्ष में फैसला दे सके,लकिन जज महोदय ने बड़ी ही आसानी यह कह दिया की राधा ,कृष्ण एक साथ रहते थे,कोई भी ब्यक्ति कितना बड़ा क्यों न हो जाय वह सर्बग्य नहीं होता प्रधान मंत्री,उच्चन्यायालय क़ा जज,कलाकार अथवा उच्चा डिग्री प्राप्त करने से कोई बड़ा विद्वान नहीं हो जाता ,हमको लगता है की जज महोदय को धार्मिक ग्रन्थ पढने की आवस्यकता है ,कृष्ण के बारे में जाने,उनके मुकुट में मोर क़ा पंख लगा है क्यों ,क्यों की वे योगेश्वर थे उनपर आरोप लगाना समस्त हिन्दू समाज क़ा अपमान है.क्या वे मुहम्मद या इशु के बारे में ऐसा बोल सकते है .उन्हें हिन्दू समाज से माफ़ी मगनी चाहिए .और सबसे निबेदन है की हिन्दू समाज की धर्य की परीक्षा न ले..............

!!ताजमहल एक हिन्दू शिव मंदिर तेजो महालय था!!


ताजमहल एक हिन्दू शिव मंदिर तेजो महालय था. उसका निर्माण शाहजहा ने नहीं कराया था. बल्कि शाहजह ये महल राजा जय सिंह से लेने के बाद उसमे कुछ इस्लाम अनुकूल परिवर्तन कराया था. लेकिन भारत में मुस्लिम वोटो के तुस्टीकरण के कारण तथा स्वाभिमानी न होने के कारन, आज तक ताजमहल पर इतिहास के दृष्टकोड से सरकारी अनुसन्धान नहीं हुआ. लेकिन महान इतिहासकार श्री पी एन ओक ने ताजमहल पर अनुसन्धान किया और अपने अनुसन्धान पर ए...क पुस्तक लिखे "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY". लेकिन मुस्लिम वोटो के खोने के डर से इंदिरा गाँधी ने पुस्तक को तुरंत प्रतिबंधित कर दिया. हम श्री पी एन ओक जी को धन्यवाद देते है।

कृपया इसे पढ़े. पढ़ने लायक है!

निचे के लेख का लिंक ये है(http://mamta.mywebdunia.com/2008/05/27/1211907360000.html)

श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक के तर्कों और प्रमाणों के समर्थन करने वाले छायाचित्रों का संकलन भी है (देखने के लिये क्लिक करें)।


श्री ओक ने कई वर्ष पहले ही अपने इन तथ्यों और प्रमाणों को प्रकाशित कर दिया था पर दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई। यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है।

क्या कभी सच्चाई सामने आ पायेगी?

श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये तर्कों का हिंदी रूपांतरण (भावार्थ) इस प्रकार हैं -


नाम

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये 'महल' मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है - पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से "मुम" को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख 'ताज-ए-महल' के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।


6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। 'ताज' और 'महल' दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।



मंदिर परंपरा

9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।

10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।

11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।

14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।

15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में 'तेज-लिंग' का वर्णन आता है। ताजमहल में 'तेज-लिंग' प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।

16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।

प्रामाणिक दस्तावेज

18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।

19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।

20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकब़राबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।

21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।

22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।

23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।

24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।

यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख

25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को 'ताज-ए-मकान', जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।

26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।

27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।

28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।

29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies' जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।

संस्कृत शिलालेख

30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, "एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।" शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को 'बटेश्वर शिलालेख' नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम 'तेजोमहालय शिलालेख' होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।

शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar....now in the grounds of Agra,...it is well known, once stood in the garden of Tajmahal".

अनुपस्थित गजप्रतिमाएँ

31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक "Travels in India A Hundred Years ago" के पृष्ठ 191 में) लिखता है, "सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और..... बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार ('COURT OF ELEPHANTS') कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।"

कुरान की आयतों के पैबन्द

32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।

33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।

कार्बन 14 जाँच

34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

वास्तुशास्त्रीय तथ्य

35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।

36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है।

37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।

38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।

39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद 'अल्लाह' शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में 'अल्लाह' शब्द कहीं भी नहीं है।

असंगतियाँ

40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।

41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।

42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।

44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।

45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।

46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।

47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।

48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।

खजाने वाल कुआँ

49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी मंजिलों में हुआ करता था। सीढ़ियों के वृतीय संरचना के कारण घुसपैठिये या आक्रमणकारी न तो आसानी के साथ खजाने तक पहुँच सकते थे और न ही एक बार अंदर आने के बाद आसानी के साथ भाग सकते थे, और वे पहचान लिये जाते थे। यदि कभी घेरा डाले हुये शक्तिशाली शत्रु के सामने समर्पण की स्थिति आ भी जाती थी तो खजाने के संदूकों को पानी में धकेल दिया जाता था जिससे कि वह पुनर्विजय तक सुरक्षित रूप से छुपा रहे। एक मकब़रे में इतना परिश्रम करके बहुमंजिला कुआँ बनाना बेमानी है। इतना विशाल दीर्घाकार कुआँ किसी कब्र के लिये अनावश्यक भी है।

दफ़न की तारीख अविदित

50. यदि शाहज़हां ने सचमुच ही ताजमहल जैसा आश्चर्यजनक मकब़रा होता तो उसके तामझाम का विवरण और मुमताज़ के दफ़न की तारीख इतिहास में अवश्य ही दर्ज हुई होती। परंतु दफ़न की तारीख कभी भी दर्ज नहीं की गई। इतिहास में इस तरह का ब्यौरा न होना ही ताजमहल की झूठी कहानी का पोल खोल देती है।

51. यहाँ तक कि मुमताज़ की मृत्यु किस वर्ष हुई यह भी अज्ञात है। विभिन्न लोगों ने सन् 1629,1630, 1631 या 1632 में मुमताज़ की मौत होने का अनुमान लगाया है। यदि मुमताज़ का इतना उत्कृष्ट दफ़न हुआ होता, जितना कि दावा किया जाता है, तो उसके मौत की तारीख अनुमान का विषय कदापि न होता। 5000 औरतों वाली हरम में किस औरत की मौत कब हुई इसका हिसाब रखना एक कठिन कार्य है। स्पष्टतः मुमताज़ की मौत की तारीख़ महत्वहीन थी इसीलिये उस पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर उसके दफ़न के लिये ताज किसने बनवाया?

आधारहीन प्रेमकथाएँ

52. शाहज़हां और मुमताज़ के प्रेम की कहानियाँ मूर्खतापूर्ण तथा कपटजाल हैं। न तो इन कहानियों का कोई ऐतिहासिक आधार है न ही उनके कल्पित प्रेम प्रसंग पर कोई पुस्तक ही लिखी गई है। ताज के शाहज़हां के द्वारा अधिग्रहण के बाद उसके आधिपत्य दर्शाने के लिये ही इन कहानियों को गढ़ लिया गया।

कीमत

53. शाहज़हां के शाही और दरबारी दस्तावेज़ों में ताज की कीमत का कहीं उल्लेख नहीं है क्योंकि शाहज़हां ने कभी ताजमहल को बनवाया ही नहीं। इसी कारण से नादान लेखकों के द्वारा ताज की कीमत 40 लाख से 9 करोड़ 17 लाख तक होने का काल्पनिक अनुमान लगाया जाता है।

निर्माणकाल

54. इसी प्रकार से ताज का निर्माणकाल 10 से 22 वर्ष तक के होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि शाहज़हां ने ताजमहल को बनवाया होता तो उसके निर्माणकाल के विषय में अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि उसकी प्रविष्टि शाही दस्तावेज़ों में अवश्य ही की गई होती।

भवननिर्माणशास्त्री

55. ताज भवन के भवननिर्माणशास्त्री (designer, architect) के विषय में भी अनेक नाम लिये जाते हैं जैसे कि ईसा इफेंडी जो कि एक तुर्क था, अहमद़ मेंहदी या एक फ्रांसीसी, आस्टीन डी बोरडीक्स या गेरोनिमो वेरेनियो जो कि एक इटालियन था, या शाहज़हां स्वयं।

दस्तावेज़ नदारद

56. ऐसा समझा जाता है कि शाहज़हां के काल में ताजमहल को बनाने के लिये 20 हजार लोगों ने 22 साल तक काम किया। यदि यह सच है तो ताजमहल का नक्शा (design drawings), मजदूरों की हाजिरी रजिस्टर (labour muster rolls), दैनिक खर्च (daily expenditure sheets), भवन निर्माण सामग्रियों के खरीदी के बिल और रसीद (bills and receipts of material ordered) आदि दस्तावेज़ शाही अभिलेखागार में उपलब्ध होते। वहाँ पर इस प्रकार के कागज का एक टुकड़ा भी नहीं है।

57. अतः ताजमहल को शाहज़हाँ ने बनवाया और उस पर उसका व्यक्तिगत तथा सांप्रदायिक अधिकार था जैसे ढोंग को समूचे संसार को मानने के लिये मजबूर करने की जिम्मेदारी चापलूस दरबारी, भयंकर भूल करने वाले इतिहासकार, अंधे भवननिर्माणशस्त्री, कल्पित कथा लेखक, मूर्ख कवि, लापरवाह पर्यटन अधिकारी और भटके हुये पथप्रदर्शकों (guides) पर है।

58. शाहज़हां के समय में ताज के वाटिकाओं के विषय में किये गये वर्णनों में केतकी, जै, जूही, चम्पा, मौलश्री, हारश्रिंगार और बेल का जिक्र आता है। ये वे ही पौधे हैं जिनके फूलों या पत्तियों का उपयोग हिंदू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में होता है। भगवान शिव की पूजा में बेल पत्तियों का विशेष प्रयोग होता है। किसी कब्रगाह में केवल छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं क्योंकि श्मशान के पेड़ पौधों के फूल और फल का प्रयोग को वीभत्स मानते हुये मानव अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती। ताज के वाटिकाओं में बेल तथा अन्य फूलों के पौधों की उपस्थिति सिद्ध करती है कि शाहज़हां के हथियाने के पहले ताज एक शिव मंदिर हुआ करता था।

59. हिंदू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाये जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है जो कि शिव मंदिर के लिये एक उपयुक्त स्थान है।

60. मोहम्मद पैगम्बर ने निर्देश दिये हैं कि कब्रगाह में केवल एक कब्र होना चाहिये और उसे कम से कम एक पत्थर से चिन्हित करना चाहिये। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर के मंज़िल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज़ का बताया जाता है, यह मोहम्मद पैगम्बर के निर्देश के निन्दनीय अवहेलना है। वास्तव में शाहज़हां को इन दोनों स्थानों के शिवलिंगों को दबाने के लिये दो कब्र बनवाने पड़े थे। शिव मंदिर में, एक मंजिल के ऊपर एक और मंजिल में, दो शिव लिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर, जो कि अहिल्याबाई के द्वारा बनवाये गये हैं, में देखा जा सकता है।

61. ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं जो कि हिंदू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है।

हिंदू गुम्बज

62. ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। ऐसा गुम्बज किसी कब्र के लिये होना एक विसंगति है क्योंकि कब्रगाह एक शांतिपूर्ण स्थान होता है। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों के लिये गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है क्योंकि वे देवी-देवता आरती के समय बजने वाले घंटियों, नगाड़ों आदि के ध्वनि के उल्लास और मधुरता को कई गुणा अधिक कर देते हैं।

63. ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। इस्लाम के गुम्बज अनालंकृत होते हैं, दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित पाकिस्तानी दूतावास और पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के गुम्बज उनके उदाहरण हैं।

64. ताजमहल दक्षिणमुखी भवन है। यदि ताज का सम्बंध इस्लाम से होता तो उसका मुख पश्चिम की ओर होता।

कब्र दफनस्थल होता है न कि भवन

65. महल को कब्र का रूप देने की गलती के परिणामस्वरूप एक व्यापक भ्रामक स्थिति उत्पन्न हुई है। इस्लाम के आक्रमण स्वरूप, जिस किसी देश में वे गये वहाँ के, विजित भवनों में लाश दफन करके उन्हें कब्र का रूप दे दिया गया। अतः दिमाग से इस भ्रम को निकाल देना चाहिये कि वे विजित भवन कब्र के ऊपर बनाये गये हैं जैसे कि लाश दफ़न करने के बाद मिट्टी का टीला बना दिया जाता है। ताजमहल का प्रकरण भी इसी सच्चाई का उदाहरण है। (भले ही केवल तर्क करने के लिये) इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज़ की लाश दफ़नाई गई न कि लाश दफ़नाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।

66. ताज एक सातमंजिला भवन है। शाहज़ादा औरंगज़ेब के शाहज़हां को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन के चार मंजिल संगमरमर पत्थरों से बने हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल  भवन है .....
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बुधवार, 16 मई 2012

!!गणेश परम चेतना के प्रतीक हैं!!

गणेश दिव्यता की निराकर शक्‍ति हैं, जिनको भक्‍तों के लाभ के लिए एक शानदार रूप में प्रकट किया गया है । गण यानी समूह । ब्रह्मांड परमाणुओं और विभिन्‍न ऊर्जाओं का एक समूह है । इन विभिन्‍न ऊर्जासमूहों के ऊपर यदि कोई सर्वोपरि नियम न बनकर रहे तो यह ब्रह्मांड अस्त-व्यस्त हो जाएगा । परमाणुओं और ऊर्जा के इन सभी समूहों के अधिपति गणेश हैं । वह परमतत्व चेतना हैं, जो सब में व्याप्त है और इस ब्रह्मांड में व्यवस्था लाती है । आदि शंकर ने गणेश के सार तत्व का बड़ा सुंदर वर्णन किया है । हालांकि गणेश भगवान को हाथी के सिर वाले रूप में पूजा जाता है, उनका यह स्वरूप हमें निराकर परब्रह्म रूप की ओर ले जाने के लिए हैं । वे अगम, निर्विकल्प, निराकार और एक ही हैं । अर्थात वे अजन्मे हैं गुणातीत हैं और उस परम चेतना के प्रतीक हैं जो सर्वव्यापी है । गणेश वही शक्‍ति है जिससे इस ब्रह्मांड का सृजन हुआ, जिससे सब कुछ प्रकट हुआ और जिसमें यह सब कुछ विलीन हो जाना है । हम सब इस कहानी से परिचित हैं कि गणेश जी कैसे हाथी के सिर वाले भगवान बने । शिव और पार्वती उत्सव मना रहे थे, जिसमें पार्वती जी मैली हो गईं । यह एहसास होने पर वे अपने शरीर पर लगी मिट्टी को हटाकर उससे एक लड़का बना देती हैं । वह स्नान करने जाती हैं और लड़के को पहरेदारी करने के लिए कहती हैं । जब शिव लौटते हैं, वह लड़का उन्हें पहचान नहीं पाता उनका रास्ता रोक देता है । तब शिव लड़के का सिर काट देते हैं और और अंदर प्रवेश कर जाते हैं । पार्वती चौंक जाती हैं । वे समझाती हैं कि वह उनका बेटा था उसे बचाने का निवेदन करती हैं । शिव अपने सहायकों को उत्तर दिशा की ओर इशारा करते हुए किसी सोते हुए का सिर लाने के लिए कहतें हैं । तब सहायक हाथी का सिर लेकर आते हैं, जिसे शिव जी लड़के के धड़ से जोड़ देते हैं और इस तरह गणेश की उत्पत्ति होती है ।

क्या यह सुनने में कुछ अजीब सा है ? पार्वती के शरीर पर मैल क्यों आया ? सब कुछ जानने वाले शिव अपने बेटे को क्यों नहीं पहचान सके? शिव जो शांति के प्रतीक हैं, उनमें क्या इतना गुस्सा था कि वे अपने ही बेटे का सिर काट दें? और गणेश का सिर हाथी का क्यों है? इसमें कुछ और गहरा रहस्य छिपा हुआ है । पार्वती उत्सव की ऊर्जा का प्रतीक है । उनका मैला होना इस बात का प्रतीक है कि उत्सव के दौरान हम आसानी से राजसिक हो सकते हैं । मैल अज्ञानता का प्रतीक है और शिव परमशांति और ज्ञान के प्रतीक हैं । गणेश द्वारा शिव का मार्ग रोकने का अर्थ है अज्ञानता (जो इस सिर का गुण है) जो ज्ञान को पहचान नहीं पाई । फिर ज्ञान को अज्ञानता मिटानी पड़ी । इसका प्रतीक यही है कि शिव ने गणेश के सिर को काटा । और हाथी का सिर क्यों? ज्ञान शक्‍ति और कर्म शक्‍ति दोनों का प्रतिनिधित्व हाथी करता है । हाथी का बड़ा सिर बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है । हाथी न तो किसी अवरोध से बचने के लिए घूमकर निकलता है और न ही कोई बाधा उसे रोक पाती है । वह सभी बाधाओं को हटाते हुए सीधे चलता रहता है । गणेश का बड़ा पेट उदारता और पूर्ण स्वीकृति का प्रतीक है । उनका अभय मुद्रा में उठा हाथ संरक्षण का प्रतीक है- घबराओ नहीं - मैं तुम्हारे साथ हूं । और उनका दूसरा हाथ नीचे की तरफ है और हथेली बाहर की ओर, जो कहती है कि वह निरंतर हमें दे रहे हैं । गणेश जी का एक ही दंत है जो कि एकाग्रचित होने की प्रतीक है । उनके हाथों में जो उपकरण हैं उनका भी प्रतीक हैं । वह अपने हाथों में अंकुश लिए हुए हैं जो कि सजगता का प्रतीक है और पाश है जो नियंत्रण का प्रतीक है । चेतना जागृत होने पर बहुत ऊर्जा निकलती है जो बिना किसी नियंत्रण के अस्त व्यस्त हो जायेगी । और हाथी के सिर वाले गणेश की सवारी इतने छोटे से चूहे पर क्यों होती है ? यह बात असंगत सी लगती है न ? यहां भी एक प्रतीक है । जो बंधन बांध कर रखते हैं उसे चूहा कुतर-कुतर कर समाप्त कर देता है । चूहा उस मंत्र की भांति है, जो धीरे-धीरे अज्ञान की एक-एक परत को काट कर भेद देता है, और उस परम ज्ञान की ओर ले जाता है जिसका प्रतिनिधित्व गणेश करते हैं ।

!! धर्म ग्रंथो पर अज्ञानियों द्वारा निरर्थक वर्तापाल !!

मैं कई दिनों नहीं बल्कि कई माहीनो से देख रहा हु की बहुत से अज्ञानी ब्यक्ति दिन भर धार्मिक बाते मो रस लेकर लेकर बाते करते है जिन्हें ज्ञान नहीं है ओ भी जिन्हें  ज्ञान है ओ भी इन मूर्खो के बीच में अपना कीमती समय नस्त करते है .जबकि वेदों की रिचाए और संस्कृत के श्लोको का सत्य ज्ञान नहीं है इन दुराग्रहियो को .अनर्गल वार्तालाप करते रहते है  ..   कई दिनों से कुछ एक स्वयम्भू विद्वानों द्वारा धर्म ग्रंथो के श्लोकों की मनमानी व्याख्या पढने को मिल रही है ये तथाकथित विद्वान हिन्दू धर्म के लिए किसी सिरफिरे मानसिक विकृत लेखकों की पुस्तको का हवाला देते रहते है पर ये ये क्यों नहीं समझते कि जिन मानसिक विकृत लेखको ने इस तरह का साहित्य लिखा है उसे स्वीकार किसने किया है ? क्या सलमान रुश्दी का लिखा हुआ किसी ने स्वीकार किया है ? क्या तसलीमा नसरीन द्वारा लिखी हुई पुस्तके उसके समाज व धर्म वालों ने स्वीकार की है ? तो ये लोग ये क्यों नहीं समझते कि कुछ घटिया मानसिक सोच रखने वाले लेखकों द्वारा हिन्दू धर्म के अपमान वाली पुस्तके कैसे स्वीकार की जा सकती है ?
जिन वेदों के एक एक श्लोक की व्याख्या के लिए पूरा लेख छोटा पड़ जाता है, जिन्हें समझने के लिए कई जन्म कम पड़ जाते है उन वेदों की ये तथाकथित विद्वान अपने हिसाब से विवेचना करने में लगे है | जिन लोगों को इंसानियत और मानव धर्म तक की समझ नहीं है उन्हें वेदों और धर्म के बारे में बड़ी बड़ी बाते लिखते देख आज मुझे एक किस्सा याद आ गया -
एक में चार अंधे रहते थे , एक दिन उस गांव में एक हाथी आ गया , हाथी आया , हाथी आया की आवाजें सुनकर अंधे भी वहां आ गए कि क्यों न हाथी देख लिया जाये पर बिना आँखे देखे कैसे ? सो एक बुजुर्ग ग्रामवासी के कहने पर महावत ने उन अंधों को हाथी को छूने दिया ताकि अंधे छू कर काठी को महसूस करने लगे | और अंधों ने हाथी को छू लिया , एक अंधे के हाथ में हाथी सूंड आई , दुसरे अंधे के हाथ पूंछ आई तो तीसरे अंधे के हाथ हाथी के पैर लगे | और चौथे के हाथी के दांत | इस तरह अंधों ने हाथी को छू कर महसूस कर देख लिया | दुसरे दिन चारो अंधे एक जगह इक्कठे होकर हाथी देखने छूने के अपने अपने अनुभव के आधार पर हाथी की आकृति का अनुमान लगा रहे थे | पहला कह रहा था - हाथी एक चिकनी सी रस्सी के सामान होता है , दूसरा कहने लगा - तुम्हे पूरी तरह मालूम नहीं रस्सी पर बाल भी थे अत: हाथी बालों वाली रस्सी के समान था , तीसरा कहने लगा - नहीं ! तुम दोनों बेवकूफ हो | अरे ! हाथी तो खम्बे के समान था | इतनी देर में चौथा बोल पड़ा - नहीं तुम तीनो बेवकूफ हो | अरे ! हाथी तो किसी हड्डी के समान था और बात यहाँ तक पहुँच गयी कि अपनी अपनी बात सच साबित करने के चक्कर में चारो आपस में लड़ने लगे |
चारों अन्धो में जूतम-पैजार होते देख पास ही गुजरते गांव के एक ताऊ ने आकर पहले तो उन्हें लड़ते झगड़ते छुड्वाया फिर किसी डाक्टर के पास ले जाकर उनकी आँखों का ओपरेशन करवाया | जब चारो अंधों को आँखों की रोशनी मिल गई तब ताऊ उनको एक हाथी के सामने ले गया और बोला - बावलीबुचौ ! ये देखो हाथी ऐसा होता है | तब अंधों को पता चला कि उनके हाथ में तो हाथी का अलग- अलग एक एक अंग हाथ आया था और वो उसे ही पूरा हाथी समझ रहे थे |
ठीक उसी तरह ये तथाकथित विद्वान भी कहीं से एक आध पुस्तक पढ़कर अपने आप को सम्पूर्ण ज्ञानी समझ रहे और ये तब तक समझते रहेंगे जब तक इन्हें कोई ताऊ नहीं मिल जाता जो इन्हें धर्म का मर्म समझा सके | जिस दिन इन्हें इंसानियत और मानव धर्म का मर्म समझ आ जायेगा इन्हें पता चल जायेगा कि धर्म क्या है ? और कौनसा धर्म श्रेष्ट है ?



BY Naveen Verma ji ----जातिवादी लोग अक्सर , पौराणिक ग्रंथों से प्रसंगो को ढूंड-ढूंड कर विवाद खड़ा करने के लिए, उनकी मन गढ़ंत व्याख्या करते रहते हैं. उस समय वो ये भी भुला देते हैं कि- उस भेदभाव करने वाले व्यक्ति को अपनी गलती का परिणाम भी भुगतना पद गया था . उदाहरण के लिए एकलव्य और द्रोणाचार्य का प्रसंग -

द्रोणाचार्य का गुरुकुल एक बड़ा और महंगा गुरुकुल था जिसमे केवल राजघराने के लोग ही शिक्षा ले सकते थे. ठीक बैसा ही जैसा आ...जकल के महंगे पब्लिक स्कुल जिनमे कोई गरीब पढने नहीं जा सकता है. एकलव्य का स्वयं धनुर्विद्या सीख लेना, उन्हें अपने गुरुकुल का अपमान दिखाई देता था. ये उनको किसी के अर्जुन से आगे निकलने से भी कहीं ज्यादा इसलिए दुःखदाई था. इसीलिए उन्होंने उसको बातों में उलझाकर उसका अंगूठा कटवा दिया था.

महाभारत में द्रोणाचार्य ने केवल यही एक अपराध नहीं किया था, राजाश्रय न छिन जाए इसलिए राज सभा में, पांडव कुलबधू द्रौपदी के अपमान को चुचाप देखते रहे. युद्ध में अपने द्वारा रचे हुए चक्रव्यूह को, अभिमन्यु द्वारा तोड़ने पर, सात महारथियों के द्वारा एकसाथ एक निहत्थे बालक की ह्त्या करने के भागी दार भी बने.

महाभारत में भी द्रोणाचार्य को उनकी योग्यता की बजह से आदरणीय तो माना गया है , लेकिन साथ ही उनके उपरोक्त अपराधों की बजह से पूज्यनीय नहीं माना है. उनके पापो की सजा भी मिली कि - जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र की हत्या का कारण भी बने थे. और उसी अर्जुन के साले के हाथों म्रत्यु को प्राप्त हुए .

महाभारत में एक से बढ़कर एक, अनेकों ब्राह्मण और क्षत्रीय पात्र होने के बाबजूद केवल एक ही व्यक्ति यदुवंशी 'श्री कृष्ण' को ही पूज्यनीय का दर्जा प्राप्त है और किसी को नहीं . महाभारत में जिसके पुत्रो की कहानी है वो सत्यवती निषाद कन्या थी और महाभारत लिखने वाले 'व्यास' भी निषाद जाति के थे और व्यास जी का संत समाज में किसी ब्राह्मण से भी ज्यादा सम्मान था .

सोमवार, 14 मई 2012

!! पाखंडी ब्राह्मण के बारह गुण !!

मित्रों में आप को सुभाषित माला का एक सुन्दर सुभाषित बता रहा हू जिसमे पाखंडी ब्राह्मण के बारह गुणों का वर्णन किया गया हे...


उच्चेरध्ययनं पुराणकथा स्त्रीभिः सहालापनं
तासामर्भकलालनं पतिनुतिस्तत्पाकमिथ्यास्तुति:|
आदेश्यस्य करावलम्बनविधि: पांडित्यलेखक्रिया
... होरागारुडमंत्रतंत्रकविधिपाखंडोब्राह्मणोंर्गुणा द्वादश || (सुभाषित रत्नावली - ३)

१. (सब को अपना संस्कृत ज्ञान दिखाने के लिए) बड़े बड़े आवाज़ से पाठ करना...
२. (केवल) पुराण की कथाओ का पारायण करना (क्युकी वह वेद ज्ञान में अज्ञानी हे)...
३. स्त्रियो के देख कर (उनके सामने अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करने) उनके साथ वार्तालाप करना...
४. स्त्रियों के पति की मिथ्या प्रशंसा करना (अर्थात किसी भी व्यक्ति के सामने लाचार हो जाना)
५. (एसी स्त्रियो को प्रभावित करने) उनके बालको को संभालना
६. वह स्त्रियों की रसोई की मिथ्या प्रशंसा करना...
७. (शास्त्रीय मान्यता हो या ना हो केवल यजमान की इच्छा से और उसके द्वारा पैसा कमाने के लिए) अनावश्यक विधियो का चयन करना (अर्थात यजमान को मुर्ख बनाना)...
८. (अनावश्यक) लेखनकार्य में पंडिताई का दर्शन करवाना,
९. गारुड़ीविद्या
१०. मंत्र
११. तंत्र
१२. कविता इत्यादि में ही रममाण होना(केवल उसमे ही विद्वत्ता हासिल करना)...
यह बारह पाखंडी ब्राह्मण के लक्षण हे.

मित्रों, ब्राह्मण एक वृत्ति का नाम हे, और वह वृत्ति हे "ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः" अर्थात जिसने ब्रह्म को जान लिया हे अथवा उसको जानने के लिए प्रवृत्त हे वह ब्राह्मण हे. जो वेद और उपनिषदों के विचारों को प्रचार प्रसार करने के लिए व आदर्श समाज निर्माण करने के लिए प्रवृत्त हे वह ब्राह्मण हे.
अब ऐसा ब्राह्मण कभी भी दिन, हिन्, लाचार नहीं हो सकता, उसके जीवन में तेजस्विता होती हे, अस्मिता होती हे. वह हर किसी के पैर नहीं पकड़ता.
अगर स्वार्थ के कारण वह किसी के भी पैर पकड़ लेता हे तो वह ब्राह्मण केसे
इससे उल्टा जो तेजस्वी हे, अस्मितावान हे, वेदवान हे जो वेद और ब्रह्म को जानने के लिए प्रवृत्त हुआ हे वह ब्राह्मण ही हे. चाहे वह किसी भी जाति विशेष का क्यों न हो. क्युकी हमारे शास्त्रों में कही भी जातिविषेशता के आधार पर ब्राह्मणत्व नहीं अपितु वृत्ति व कर्म के आधार पर ब्राह्मणत्व निश्चित किया गया हे...............


By-Samarpan Trivedi Facebook 

!! हिन्दू निशाने पर: एक नंगा सच!! अभी भी वक्त है सम्हल जाओ !!

हिंदुस्तान में हिन्दू सदियों से निशाने पर रहा है, पहले इस्लामी आतंकियों का जेहादी जुनून फिर अंग्रेजों द्वारा धार्मिक सांस्कृतिक हृदय बिन्दुओं पर कुटिल प्रहार और स्वतंत्रता के बाद से सेकुलरिज्म के डाहपूर्ण षड़यंत्र.! जम्मू कश्मीर में लाखों हिन्दू अपने ही घरों से बेघर कर दिया गया, मुसलमानों के लिए विशेष कानून देकर देश को कमजोर और शरीयती अवधारणा को मजबूत किया गया, हिन्दू बाहुल्य भारत में मुस्लिमों के पहले हक की दुस्साहसिक व निर्लज्ज घोषणाएं की गयीं, सरकारी शिक्षा पाठ्यक्रम में शिवाजी जैसे हिन्दू आदर्शों को लुटेरा भगोड़ा बताया गया, हिन्दू धर्म के प्राणबिंदु राम कृष्ण का उपहास बनाया गया, समूचे इतिहास की हत्या की गयी, धर्मांतरण को सह दी गयी, हिन्दू धर्मगुरुओं और संतों पर कीचड उछाला गया और आज  जारी है|266809_133334630081646_100002153292684_237010_3963753_oआज त्रावंकर पद्मनाभ स्वामी मंदिर की प्राचीन संपत्ति के प्रकाश में आने के बाद हिन्दू द्वेष की यह मानसिकता पुनः नंगी हो गयी है| मैकाले की संतानों और सत्ता के पिशाचों के षड्यंत्रों का ही शायद परिणाम है कि जिस पद्मनाभ स्वामी मंदिर की संपत्ति की रक्षा हिन्दू राजवंश विगत ८०० बर्षो से त्यागपूर्वक कर रहे थे उसे कोर्ट का सहारा लेकर सार्वजनिक कर दिया गया| और अब केरल की नवोदित सेकुलर सरकार राजनैतिक लुटेरों और देशी-विदेशी गिद्धों की नजरें उस अमूल्य संपत्ति पर गड़ चुकीं हैं| इसे तस्करों का षड़यंत्र नहीं तो और क्या कहें कि देश की विरासत का मूल्य फ्रांस के जानकारों द्वारा निकलवाया जायेगा.!
सेकुलर मीडिया अपनी लफ्बाजिओं पर उतर आया, केरल की “मलयालय मनोरमा” जोकि सेकुलरिज्म की ठेकेदार है और इसके लिए उसके executive एडिटर “जैकब मैथ्यू” को WAN-IFRA के प्रेसिडेंट का पद देकर शाबासी भी दी गयी, ने संपत्ति की सुरक्षा चिंताओं को ताक पर रखते हुए तहखानो के नक्से तक छाप डाले| आधुनिकता का डींग हांक-हांक के हिंदी और हिन्दू संस्कृति की गर्दन पे सवार रहने बाले “टाइम्स ग्रुप” के “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” ने तो मंदिर संपत्ति के विवेचन और १ लाख करोड़ की इस सम्पत्ति से देश का कैसे-कैसे भला(?) हो सकता है और मनरेगा और खाद्य सुरक्षा बिल के लिए कितने दिन तक पैसा मिल सकता है, यह बताने के लिए पूरा एक पेज ही भर डाला| दैनिक जागरण जैसे अखबार जोकि भारत की संस्कृति और आत्मा के संवाहक रहे है और जिनका आधार भी धार्मिक जनता ही है शर्मनाक तरीके से सेकुलरिज्म की बेशर्म दौड़ में शामिल होने के लिए सत्य और तथ्य को ताक पर रखकर आम जनमानस की भावनाओं को कुचलते हुए इन अखबारों का अनुसरण करते दिख रहे हैं| मुझे आश्चर्य है कि इन अखबारों ने यह क्यों नहीं बताया कि इस धनराशि से कितने दिनों तक हज सब्सिडी दी जा सकती है.?
हिन्दुओं की आस्थाओं को मजाक समझने वाले ये विश्लेषक आखिर क्या कहना चाहते हैं.? क्या इस देश में अब मंदिरों की संपत्ति जिसमे पुरातत्विक महत्व के अमूल्य रत्न और भगवान् विष्णु की स्वर्णमयी प्रतिमा व आभूषण शामिल हैं को बेचकर मनरेगा चलाई जाएगी.? क्या हिन्दुओ के भगवान् की प्रतिमा गलाकर अब राज्य सरकारें अपना कर्ज उतारेंगी.? क्या अब भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत बेंचकर औद्योगिक विकास किया जाएगा.?
हमारे पर्वत जंगल और नदियाँ और विदेशी कूड़े के लिए (जिसमे नाभिकीय अवशिष्ट भी हैं) जमीन सब बेंच दिए गए, प्रश्न यह है कि उनसे हमे कितना विकास दिया गया.?
भामाशाह की परंपरा का हिन्दू आवश्यकता पड़ने पर आज भी राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने की तत्परता रखता है किन्तु उनकी आस्था की बाजारू कीमत लगाने वाले क्या चर्च और मस्जिदों की संपत्तियों से सरकारी खर्च चलाने की बात कहने का साहस रखते हैं.?
भारतबर्ष में वक्फ बोर्ड नाम की संस्था भारत की अकूत अचल संपत्ति को इस्लामिक संपत्ति घोषित कर उस पर कुंडली मारे बैठी है, यह संपत्ति मंदिरों की संपत्ति की भांति श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित दान नहीं वरन वह संपत्ति है जो किसी भी रूप में मुसलामानों से सम्बद्ध रही है|
आज वक्फ के पास ८,००,००० से अधिक रजिस्टर्ड संपत्तियां हैं| ६,००,००० एकड़ से अधिक जमीन वक्फ के कब्जे में है, जोकि अपने विश्व की सबसे बड़ी संपत्ति है, भारतीय रेलवे और रक्षा विभाग की भूमि के बाद देश का यह तीसरा सबसे बड़ा भू स्वामित्त्व है| किन्तु क्या आपको कभी बताया गया कि इस संपत्ति का मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के लिए कैसे प्रयोग किया जा सकता है.?
वक्फ की जमीन को यदि किराये पर उठा दिया जाये तो इससे प्रतिबर्ष १०,००० करोड़ रु. की आय होगी जोकि पद्मनाभ स्वामी मंदिर की ८०० बर्षों की संपत्ति को मात्र १० बर्षो में पार कर देगी|
यदि अन्य संपत्ति को छोड़ कर सिर्फ जमीन की बार्षिक आय को ही लें तो यह प्रतिबर्ष उत्तराखंड के कुल बजट (७,८०० करोड़ रु.) से २,८०० करोड़ रु. अधिक होगा, इस आय से प्रति २.५ बर्ष में दिल्ली का बजट, प्रति ३ बर्ष में झारखण्ड का बजट, प्रति ४ बर्ष में मनरेगा का बजट, और प्रति ७ बर्ष में खाद्य सुरक्षा बजट निकल आयेगा| यदि हम १ लाख रु. प्रति व्यक्ति को देकर स्वरोजगार के अवसर उत्पन्न करें तो तो प्रतिबर्ष १,००,००० व्यक्तियों को रोजगार मिल जायेगा| इमारतों को छोड़कर वक्फ के कब्जे की जमीन कोई सांस्कृतिक ऐतिहासिक विरासत भी नहीं जिसका व्यवसायिक उपयोग संभव न हो, किन्तु क्या आपने सेकुलरिस्ट चिंतकों अथवा मीडिया के मुख से ऐसे आंकड़े और तर्क सुने जैसा कि मंदिरों की संपत्ति के बारे में राग अलापा जाता है.?
मंदिरों की संपत्ति श्रद्धालुओं द्वारा समर्पित धन होता है जिसका उद्देश्य धर्मसेवा व प्रसार ही है किन्तु फिर भी देश की वर्तमान आवश्यकताओं को समझते हुए अनेकानेक हिन्दू मंदिर व संस्थाएं उन जिम्मेदारियों को उठा रहीं हैं जिनका नैतिक दायित्व सरकार का है| सत्य साईं ट्रस्ट जिसकी संपत्ति पर मीडिया ने जमकर हंगामा किया ७५० गाँव में पेयजल आपूर्ति के साथ साथ चिकित्सा महाविद्यालय व उच्चस्तरीय शिक्षण संस्थानों के माध्यम से शिक्षा चिकित्सा प्रदान कर रहा है, इसी तरह शिर्डी साईं ट्रस्ट, तिरुपति बालाजी ट्रस्ट, अक्षरधाम ट्रस्ट, संत आशाराम आश्रम जैसे अनेकानेक हिन्दू आस्था के केंद्र अपने अपने स्तर से बिजली, चिकित्सा, शिक्षा, रोजगार, व गरीबों को सीधे आर्थिक सहायता प्रदान कर रहे हैं| इसके बाद भी इन दुराग्रही तथाकथित राष्ट्रचिन्तकों को मंदिर और संत लुटेरे नजर आते हैं और इनकी संपत्तियों के अधिग्रहण से ही देश की समस्याओं का निदान दिखाई देता है| बेशर्मी के सभी बांध तब टूट जाते हैं जब नेताओं, थानेदारों और ठेकेदारों की जूठन के टुकड़ों पर पलने वाले मीडिया के कर्णधार अपने लेखो और टेलीकास्ट में शब्दों की कलाबाजियां करते हुए धर्म की मनमानी परिभाषाएं गढ़ते और संतों धर्मगुरुओं को त्याग का उपदेश देते नजर आते हैं.!
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वक्फ हिन्दुस्तान के तंत्र को धता बताते हुए ७७% दिल्ली को अपनी संपत्ति बता डालता है और ताजमहल जैसी राष्ट्रीय संपत्ति को इस्लामिक संपत्ति घोषित कर देता है (जुलाई २००५) तब भी इन तथाकथित तर्कविदों और चिंतकों की जीभ केंचुली उतारकर सो जाती है और इनकी आर्थिक गणनाएं दिखाई नहीं देतीं| क्या आप जानते हैं इस बोर्ड की सालाना अरबों की सालाना आय से कितने देशवासियों(या केवल मुसलामानों का ही जैसा कि बोर्ड का उद्देश्य है) का भला होता है अथवा दारुल-इस्लाम की स्थापना के लिए लगातार चलने बाले अभियानों यात्राओं (जिसमे कि विदेशी मौलवियों का आना जाना शामिल है) के खर्चे कहाँ से निकलते हैं.?
राजा महमूदाबाद जोकि शत्रुसंपत्ति घोषित कर अधिग्रहित की जा चुकी संपत्ति पर अपना दावा ठोंकते हैं (यह संपत्ति इनके पूर्वजों की थी जोकि १९४७ में देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए थे और संपत्ति राजा के नाम भी नहीं की गयी थी अतः यह संपत्ति शत्रु संपत्ति अधिनियम १९६८ के अंतर्गत शत्रुसंपत्ति घोषित कर दी गयी थी) तब यही तर्कशास्त्री उस संपत्ति का देश के किये आर्थिक मूल्य भूलकर उसे उनका हक बताते फिरते हैं और हमारी सरकार शत्रुसंपत्ति को वापस करने के लिए संशोधन विधयेक २०१० तक ले आती है| अकेले सीतापुर लखनऊ में यह संपत्ति लगभग ३०,००० करोड़ रु. है, इसी तरह उ.प्र. व उत्तराखंड के कई जिलों में उनका संपत्ति पर दावा है| इसके बाद सभी शत्रुसम्पत्तियों पर दावे मुखर होने लगें हैं और देश को लाखों करोड़ की चपत लगने की तैयारी है|
हज सब्सिडी के नाम पर प्रतिव्यक्ति लगभग ४५००० रु. हवाईयात्रा का खर्च देश पर डाला जाता है, अन्य सुविधाएँ देने में खर्च होने वाली राशि अलग है| २०१० में १७,००,००० से अधिक मुस्लिमों ने यात्रा की, अर्थात हम १,००,००० रु. प्रतिव्यक्ति के हिसाब से ८०,००० से ८५,००० गरीबों को एक बर्ष में स्वरोजगार दे सकते थे| किन्तु क्या इस तथ्य की वकालत करने की जहमत किसी बुद्धिजीवी ने उठाई.?imagesCA666ROVइसाई मिशनरियों द्वारा देश में अवैध स्रोतों से से आने वाले हजारों करोड़ रुपयों से गरीब कमजोर लोगों का ईमान ख़रीदा जाता है, क्या देश धन के उन रहस्यमई स्रोतों पर प्रश्न उठाने का अधिकार नहीं रखता.? किन्तु न तो मीडिया और सत्ता के सेकुलरिस्टों की आवाज अथाह धन के स्रोतों पर ही उठती है और न ही धर्मांतरण के षड्यंत्रों के विरुद्ध.!
मायावती, लालू, करूणानिधि, और मधु कोड़ा जैसे नेताओं की संपत्ति से कितने गरीबों का भला हो सकता है, क्या इनसे कोई आंकड़े नहीं बनते.?
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राजीव गाँधी की स्विस बैंक में जमा संपत्ति, जिसका खुलासा अमेरिका के दबाब में स्विस बैंक के माद्ध्यम से एक डच मैगज़ीन में हुआ था यदि सोनिया गाँधी देश को सौंप दे तो उससे कितने दिन मनरेगा चलेगी क्या यह हिसाब आपको दिया गया.? सरकार में बिना किसी पद के सोनिया गाँधी ने देश के लगभग १८०० करोड़ रु. पिछले १बर्ष में अपनी विदेश यात्राओं पर बर्बाद किये| ऐसा किस आधार पर किया गया और इन १८०० करोड़ रु. से कितने बेरोजगारों के जीवन को साँसे मिल सकती थीं, मंदिर की संपत्ति को सरकारी कब्जे में लेने की वकालत वालों ने क्या आपको यह बताया.?
यदि नहीं तो हर नाले के कीचड़ से अपने दामन को सजाये इन तथाकथित बुद्धिजीवियों, तर्कशास्त्रियों व चिंतकों के प्रहार देश के हिन्दुओं, देश की संस्कृति व सांस्कृतिक मूल्यों पर ही क्यों होते हैं.? उत्तर एक ही है, बच सको तो बचो……. बचा सको तो बचाओ…… …हिन्दू निशाने पर है..!

BY- वासुदेव त्रिपाठी