बुधवार, 18 दिसंबर 2024

रसूल ऐसा ही होता है ?


इस्लामी मान्यता है कि अल्लाह सब कुछ कर सकता है .और बिना किसी योग्यता के और बिना कोई परीक्षा लिए ही किसी को भी अपना नबी और रसूल नियुक्त कर सकता है .और इसी शक्ति का प्रयोग करके अल्लाह ने आदम से लेकर मुहम्मद तक इस एक लाख चौबीस हजार लोगों को अपना नबी और रसूल नियुक्त करके इस दुनियां में भेजा था .चूँकि मुहम्मद साहब अल्लाह के सबसे प्यारे रसूल थे .इसलिए आचार , विचार , व्यवहार सभी नबियों से अलग और अनोखे थे .वैसे तो उनके वचनों और जीवनी के बारे में अधिकांश जानकारी प्रमाणिक हदीसों में उपलब्ध हैं .जिनको मुसलमान धार्मिक ग्रन्थ भी मानते हैं .और उन पर ईमान रखते हैं .
ऐसी ही एक हदीस की किताब है , जिसका नाम " समाइल मुहम्मदिया الشمائل المحمدية " है जिसमे इमाम " अबू ईसा अत तिरमिजी " ने मुहम्मद साहब के निजी जीवन के बारे में लिखा है .इमाम तिरमिजी हि ० 210 से 279 तक जीवित रहे .इन्होने अपनी हदीस की किताब में कुल 417 हदीसें जमा की थीं , जो 56 बाब ( अध्याय ) में विभक्त हैं .लेकिन इस हदीस की किताब में मुहम्मद साहब के बारे में ऐसी ऐसी चौंकाने वाली बातें दी गयी है कि जिनको पढ़कर मुहम्मद साहब को रसूल तो क्या इन्सान कहने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा .चूँकि कुछ हदीसें काफी लम्बी हैं , इसलिए सारांश में केवल मुख्य जरूरी बातें हि दी जा रही है .मुहम्मद साहब का असली रूप देखिये और पढ़कर समझिये कि रसूल कैसा होता है .
1-रसूल के पाशविक दांत
अबू हुरैरा ने कहा कि एक व्यक्ति ने रसूल को खाने के लिए एक बकरी भेजी ,लेकिन उस समय रसूल के पास जिबह करने के लिए चाकू नहीं था ." इसलिए रसूल ने अपने दांतों से ही उसे फाड़ डाला ,और खा गए .यानि उन्होंने चाकू का प्रयोग नहीं किया "
" صلى الله عليه وسلم بِلَحْمٍ، فَرُفِعَ إِلَيْهِ الذِّرَاعُ، وَكَانَتْ تُعْجِبُهُ، فَنَهَسَ مِنْهَا‏.‏ "

English reference: Book 25, Hadith 158
Arabic reference: Book 26, Hadith 167

2-पशुओं का पिछला भाग उत्तम है 
"अब्दुल्लाह बिन जाफर ने कहा कि रसूल ने उस बकरी को खाते हुए कहा कि " पिछले हिस्से का मांस उत्तम होता है "
"وسلم، يَقُولُ‏:‏ إِنَّ أَطْيَبَ اللَّحْمِ لَحْمُ الظَّهْرِ‏.‏ "
English reference: Book 25, Hadith 162

Arabic reference: Book 26, Hadith 171

3-रसूल उंगलियाँ चाटते थे 
"कअब बिन मालिक ने कहा कि रसूल खाने के बाद अपने हाथ नहीं धोते थे , बल्कि चाट चाट कर अपनी उंगलियाँ साफ कर देते थे "
" عليه وسلم كَانَ يَلْعَقُ أَصَابِعَهُ ثَلاثًا‏ "
English reference: Book 23, Hadith 130

Arabic reference: Book 24, Hadith 137
4-रसूल के तेल से चीकट बाल
" अनस ने कहा कि रसूल सिर पर खूब तेल लगाकर मलते थे , और कभी कंघी नहीं करते थे सिर पर एक कपड़ा डाल लेते थे . लेकिन दाढ़ी में कंघी करते थे .जिस से उनका पूरा सिर तेल का कपड़ा लगता था "
"يُكْثِرُ دَهْنَ رَأْسِهِ وَتَسْرِيحَ لِحْيَتِهِ، وَيُكْثِرُ الْقِنَاعَ حَتَّى كَأَنَّ ثَوْبَهُ، ثَوْبُ زَيَّاتٍ‏. "
English reference: Book 4, Hadith 32

Arabic reference: Book 4, Hadith 33

5-रसूल के सिर में जुओं की फ़ौज 
"अनस बिन मलिक ने कहा कि रसूल "उम्मे हारान बिन्त मिलहान" के घर गए , जो "उदबा बिन सामित " कि पत्नी थी .उसने जब रसूल को खाना खिलाया तो देखा कि उनके सिर में जुएँ भरे हुए है . फिर वह जुएँ निकालने लगी . जिस से रसूल को नींद आ गयी .
"انها قدمت له الطعام وبدأوا في البحث عن القمل في رأسه. ثم نام رسول الله "
Sahih Bukhari-Volume 4, Book 52, Number 47: 
6-रसूल के घर में लिंग पूजा 
" आयशा ने कहा कि मैं रसूल को एक बर्तन में बिठा लेती थी ,और उनके गुप्तांग ( private Part ) पानी डालकर इस तरह से साफ करती थी , जैसे नमाज के लिए वजू किया जाता है .
اعتاد كلما النبي تهدف الى النوم في حين أنه كان جنبا، ليغسل فرجه ويتوضأ من هذا القبيل للصلاة. "

नोट - इस हदीस में गुपतांग ( private Part ) के लिए अरबी में " फुर्ज فرجه " शब्द प्रयोग गया है . जो अश्लील शब्द है यही शब्द कुरान की सूरा-अहजाब 33 :35 में "फुरूजहुम- فُرُوجَهُمْ रूप में आया है हिंदी कुरान में इस का अर्थ " गुप्त इन्द्रियां , या शर्मगाह बताया है .इसी तरह बुखारी कि जिल्द 1 किताब 5 के अध्याय "ग़ुस्ल" में 7 बार " फुर्ज " शब्द आया है .इस से पता होता है कि रसूल अपनी पत्नियों के के साथ मिलकर इस शब्द का प्रयोग करते थे 

Sahih al Bukhari Volume 1, Book 5, Number 286
7-रसूल का लिंग वजू करता था 
"मैमूना ने बताया कि रसूल को वजू करवाते समय उनकी औरतें रसूल के पैर नहीं धोती थीं , और पैरों बजाय उनका वीर्य से सना हुआ गुप्तांग धोया करती थी .और उसी का वजू कर देती थी .

"رواه ميمونة:
(زوجة النبي) يؤديها رسول الله الوضوء من هذا القبيل للصلاة لكنها لم يغسل قدميه. انه يغسل قبالة إفرازات من أجزاء حياته الخاصة ومن ثم سكب الماء على جسده.  
"
Sahih al Bukhari Volume 1, Book 5, Number 249:

8-बुढियां जन्नत नहीं जा सकतीं 
" हसन बसरी ने कहा कि एक बार रसूल के पास एक बूढ़ी औरत आई और बोली कि अप अल्लाह से मेरे लिए दुआ करिए कि वह मुझे जन्नत में प्रवेश करने दे ." रसूल ने उस से कहा कि बूढ़ी औरत जन्नत में नहीं जा सकती , यह सुन कर वह औरत रोते हुए वापिस चली गयी "
" فَقَالَتْ‏:‏ يَا رَسُولَ للهِ، ادْعُ اللَّهَ أَنْ يُدْخِلَنِي الْجَنَّةَ، فَقَالَ‏:‏ يَا أُمَّ فُلانٍ، إِنَّ الْجَنَّةَ لا تَدْخُلُهَا عَجُوزٌ "

English reference: Book 35, Hadith 230

Arabic reference: Book 36, Hadith 240

9-लाश दफ़न करने की विधि 
"अनस ने कहा कि जब रसूल की लडकी उम्मे कुलसुम की मौत हुयी रसूल की आँखों से आंसू निकल गए .औए दफ़न की तय्यारी हो रही थी . तभी रसूल बोले केवल वही व्यक्ति कबर के अन्दर उतारे जिसने पिछली रात सम्भोग नहीं किया हो .अबू तल्हा बोले मैंने नहीं किया . तब रसूल ने कहा तुम अन्दर उतरो "
"، فَقَالَ‏:‏ أَفِيكُمْ رَجُلٌ لَمْ يُقَارِفِ اللَّيْلَةَ‏؟‏، قَالَ أَبُو طَلْحَةَ‏:‏ أَنَا، قَالَ‏:‏ انْزِلْ فَنَزَلَ فِي قَبْرِهَا‏.

English reference: Book 44, Hadith 310

Arabic reference: Book 45, Hadith 327

दी गयी इन सभी हदीसों का गंभीर रूप से अध्ययन करते से यह निष्कर्ष निकलते हैं .1 . यदि कोई सचमुच का समझदार अल्लाह होता तो , वह अपने दांतों से जानवरों को फाड़ कर खाने वाले ,गंदे मैले , जुओं से भरे सिर वाले ,व्यक्ति को अपना रसूल कभी नहीं बनाता. 2 . और अगर मुहम्मद वाकई नबी और रसूल होता तो ,लिंग का वजू नहीं कराता .या अपनी औरतों से अपने लिंग पर जल नहीं डलवाता.वास्तव में मुहम्मद एक सनकी और मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति था , वर्ना वह अपनी पुत्री को दफ़न से पहले ऐसी शर्त क्यों रखता ,और ऐसा क्यों कहता कि बूढ़ी औरतें जन्नत में नहीं जा सकती .इस से यह भी पता होता है कि मुहम्मद जवान औरतों का शौक़ीन था .बताइए क्या रसूल ऐसा ही होता है ?
(200/54)

शनिवार, 21 सितंबर 2024

भारतीय मंदिरों का अधिग्रहण


सदियों से, हिंदू धार्मिक पहचान मंदिरों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है। इन पवित्र स्थानों ने न केवल सीखने को बढ़ावा दिया बल्कि चर्चा और बहस के लिए मंच भी प्रदान किए। साथ ही भारतीय मंदिर अनंतकाल से संपदा के भंडार रहे है। वार्षिक मंदिर उत्सवों ने कई भक्तों को आकर्षित किया और सांस्कृतिकआदान-प्रदान और पारस्परिक संबंधों को सुविधाजनक बनाया।मंदिरों के आसपास व्यापारी संघों की उपस्थिति ने व्यापार केमाध्यम से समृद्धि में योगदान दिया। 

भारतीय मंदिर की इस परंपरा ने ना जाने कितने लुटेरों को भारत की ओर आकर्षित किया है- ना जाने कितने बर्बर डाकू आये और मंदिरों को ढा कर लूट कर चले गये। इस शृंखला में हालाँकि फोकस मंदिरों का सरकारी नियंत्रण रहेगा।

वर्ष ७११ में सबसे पहला पतन सिंध के मुलतान के मंदिरों का हुआ था जब प्राचीन सूर्य मंदिर जो श्रीकृष्ण पुत्र सांब द्वारा बनवाया गया था- उसे लूट क़ासिम ने भारतीय मंदिरों की इस अनचाही शृंखला का आग़ाज़ किया। पूर्व में इस विषय पर एक विस्तृत शृंखला पोस्ट हुई थी। मुलतान अर्थात् मूलस्थान का सूर्य मंदिर पहला उदाहरण था जब किसी मंदिर से स्वर्ण भंडार एवं मूर्ति आदि लूटी गई- फिर काष्ठ प्रतिमा स्थापित कर फिर से पूजा शुरू हुई हालाँकि शहर और मंदिर पर क़ब्ज़ा मज़हबियो के गैंग ने कर लिया था। 

मुलतान के इस मंदिर पर क़ब्ज़े से दो कारण सिद्ध हुए- पहला- मंदिर पर आये चढ़ावे आदि का पूर्ण नियंत्रण। दूसरा- हिंद से आने वाले प्रतिरोध को एक कवच मिलना। हालाँकि कालांतर में ये मंदिर भी पूर्ण रूप से ढाया गया। लेकिन इतिहास में मुलतान का ये मंदिर सर्वप्रथम सत्ता ने अपने क़ब्ज़े में लिया था। इस से पूर्व मंदिरों के पास ज़मीन, गाँव आदि का स्वामित्व रहता रहा था जो राजा महाराजा आदि प्रदान करते थे। तब टोटल कंट्रोल परंपरागत तरीक़े से पुजारी दल और उनके मुख्य महंत आदि के पास रहता था।

इस के तीन सौ साल बाद भारत पर मंदिरों पर हमले बढ़ने लगे- निरंतर हमले से पस्त हिंदू समाज संघर्ष करता रहा- पुजारी विग्रह की पवित्रता बनाये रखने हेतु भागते रहे, बलिदान देते रहे। सोमनाथ मंदिर भी कदाचित् ऐसा मंदिर रहा जो बारंबार हमले का शिकार बनता और पुनः उठ खड़ा होता। 

अनेक विदेशी यात्रियों ने इन वैभवशाली मंदिरों पर अनेक वृतांत लिखे है- अब्दुल रज़ाक़ , निकेतन, मानुची , टेवरनीयर, बर्नियर आदि आदि- लिस्ट अपार है। इस विषय पर भी अनेक पोस्ट आ चुकी है। तो ये बात तो साफ़ है- मध्यकाल में भारतीय मंदिरों का वैभव ग़ज़ब का था- सब अपने अपने तौरतरीक़ों से संचालन कर रहे थे- सत्ता का हस्तक्षेप ना के बराबर था।

बारहवीं शताब्दी में ऐबक से शुरू हुआ मंदिरों का विध्वंस औरंगज़ेब काल तक एक विकृत रूप ले चुका था- अनगिनत देवस्थान या विध्वंस किए गए , लूटे गये, क़ब्ज़ा किए गए या फिर दीनहीन अवस्था को प्राप्त हुए। यही कारण है कि भारत के अनेक देवस्थान और पौराणिक स्थानों पर अवैध इमारतों का आज भी जमावड़ा है।

ऐबक के आने के बाद भारत में एक मेजर चेंज आया- अब ये लुटेरे गजनवी आदि की भाँति लूट कर वापस जाने के लिए नहीं आए थे- अब ये देहली में लूट का अड्डा बना रहते- भारत के भिन्न भिन्न स्थानों में डकैती डालते। साथ साथ में जज़िया कर वसूलते। जज़िया कर के भी अलग अलग स्वरूप थे। मसलन सूर्यग्रहण पर होनी वाली मंदिरों और गंगा तट पर होनी वाली पूजा पर भी पहले ही एकमुश्त रक़म जज़िया के रूप में जमा करवानी होती ताकि जनमानस अपने आराध्याओ को पूज सकें। यही क़ानून मंदिरों पर भी लागू था।

एक उदाहरण के तौर पर तिरूपति मंदिर को ही लीजिए। ऐसा नहीं था कि यहाँ डकैती डालने की चेष्टा इन लुटेरों ने नहीं की। इस स्थान का वैभव तो हर किसी की विदित था। अलाउद्दीन ख़िलजी के नरभोगी यार काफ़ूर ने बाक़ायदा सैन्य अभियान चलाया किंतु यहाँ के वराह मंदिर के विषय में सुन टिड्डों का दल वापस चला गया। किंतु औरंगज़ेब के समधी गोलकोंडा का सुल्तान अब्दुल्ला क़ुतुब शाह ने वो कार्य भी कर डाला। तिरूपति पर किए हमले में उसने अकूत दौलत लूटी- मंदिर को हानि भी पहुँचाई। लेकिन उसके वज़ीरों ने उसे समझाया इस स्थान को नष्ट करने का मतलब होगा सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को हलाल कर देना। लिहाज़ा सुल्तान ने भारी भरकम वार्षिक कर लगा कर मंदिर को संचालित होने दिया। मंदिर सुचारू रूप से चलता रहा- कर भरते रहे। भक्त गण आकर पूजा कर अपार संपत्ति जमा करते रहे। 

मुग़ल काल के आते आते कहानी में अब ट्विस्ट आया। मथुरा काशी आदि में विखंडित देवस्थानों को पुनः स्थापित करने में अनेक राजा महाराजाओं ने योगदान दिया। मुग़ल बादशाहों से वायदा लिया कि अब इन मंदिरों के निर्माण में कोई विघ्न ना डाला जाएगा। औरंगज़ेब से पहले अनेक मंदिर काफ़ी अच्छी अवस्था में आ चुके थे। काशी के मंदिरों का दौरा करते अनेक विदेशी यात्रियों का लेखन बताता है इन मंदिरों को इन राजा आदि से भूमि गाँव आदि मिलते है जो इनके संचालन में वित्तपोषण आदि का कार्य करते है। जगन्नाथ मंदिर में तो विशाल गौशाला थी जो केवल मंदिर में बंटने वाले प्रसाद आदि हेतु संचालित होती थी।

लेकिन इस सब में मंदिरों को वार्षिक रूप से कर देना पड़ता रहा। जब जब किसी बादशाह या सुल्तान में मज़हबी हिलौरा मारा या उसे अधिक धन की ज़रूरत पड़ी- वो मंदिर की संपदा लूटने में गुरेज़ ना करता। इस संदर्भ में एक बात और नोट करिए- अनेक सुल्तान बादशाह कई मंदिरों को जागीर आदि भी देते- कारण साधारण था- यहाँ से होने वाली वार्षिक आय; जज़िया का स्रोत सूख ना जाएँ। औरंगज़ेब तक ने ऐसा किया। किंतु १६६९ में जब उस पर मज़हबी उन्माद सर चढ़ कर बोला तो सिरे से उसने विध्वंस मचाना शुरू किया।

कहानी की शुरुआत काफ़ी लंबी हो चली है। इस अंक में बस यही तक। 

नोट- इस शृंखला में कुछ क़ानून और बिल आदि का उल्लेख रहेगा। पोस्टकर्ता क़ानूनी एक्सपर्ट नहीं है महज़ एक किताबी कीड़ा है। तो यदि कोई कमी दिखाई पड़ें तो संदर्भ सहित पॉइंट आउट कर दें। सुधार कर लिया जाएगा।

आगे है- अंग्रेज़ी काल के क़ानून से । आज़ादी तक के क़ानून की कहानी ।
साभार....Maan ji FB

मंगलवार, 27 अगस्त 2024

मिश्र की पिरामिड किसने बनाया ??

1. पिरामिड कब्रें नहीं हैं; पिरामिड के अंदर अब तक कोई ममी नहीं मिली है। सभी ममियाँ किंग्स वैली में पाई गईं। 

2. आप कैसे अत्यधिक सटीकता के साथ ग्रेनाइट के 20 टन के ब्लॉक काटते हैं और उन्हें "राजा के कक्ष" में, लकड़ी के रैंप के साथ एक के ऊपर एक उठाते हैं !! 

3. मान लीजिए कि लकड़ी के रैंप का उपयोग किया गया था; विशाल पत्थरों के 2.3 मिलियन ब्लॉकों को हटाने के लिए लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए आपको पूरे जंगल को काटने की जरूरत है। आखिर उस लकड़ी का सबूत कहां है?

 4. ऐसा एक भी चित्रलिपि पाठ नहीं है जो कहता हो कि प्राचीन मिस्रवासियों ने पिरामिडों का निर्माण किया था। 

5. 2.3 मिलियन पत्थरों को खोदने, काटने और उठाने के लिए आपको कितने "गुलामों" या श्रमिकों की आवश्यकता है? आख़िर आपको ऐसे लोग कहां मिलेंगे जो लेजर से काट सकते हैं और इतने भारी कई कई टन ग्रेनाइट उठा सकते हैं? 

6. 4000 साल पहले, जब बिल्डरों को "पहिए के बारे में पता नहीं था" तो आप पूरे पिरामिड को सही उत्तर की ओर कैसे रखते हैं? (यह मुख्यधारा के मिस्र वैज्ञानिकों का पूर्वाग्रह है)। 

7. पिरामिड का शीर्ष केंद्र (पिरामिड का आधार) से एक चौथाई इंच दूर है; यह पत्थर के 2.3 मिलियन ब्लॉक रखने के बाद है। जब आप त्रुटि के उस छोटे से मार्जिन को 2.3 मिलियन पत्थरों से विभाजित करते हैं, तो जिस सटीकता से पत्थर रखे गए थे वह अद्वितीय है और सभी आधुनिक तकनीक वाले आधुनिक वास्तुकारों द्वारा कभी नहीं किया गया है। 

8. दुनिया भर में सभी मेगालिथ संरचनाओं के बारे में क्या? वे लगभग समान तकनीकों से समान ज्यामिति क्यों बना रहे थे? पानी के नीचे पाए गए जापान के पिरामिडों के बारे में क्या? 

निष्कर्ष: मानव इतिहास का 90% समय द्वारा दफन कर दिया गया, शेष 10% विजेताओं द्वारा लिखा गया है।

 नहीं, ये एलियंस नहीं हैं. बस उन्नत प्राचीन मानव तकनीक।

(एक अंग्रेजी लेख का गूगल हिंदी अनुवाद)

रविवार, 21 जुलाई 2024

अम्बेडकर के बारे में भ्रम और वास्तविक सत्य।

▪️1- भ्रम - अम्बेडकर बहुत गरीब थे !
सत्य - जिस समय फोटो लेना लोगों के लिए सपना था उस समय अम्बेडकर के बचपन की बहुत सारी फोटो है वो भी कोर्ट, पैंट और टाई में !
▪️2-भ्रम - अम्बेडकर ने सुद्रों को पढ़ने का अधिकार दिया था!
सत्य - अम्बेडकर के पिता स्वयं उस समय सेना में सूबेदार थे, बिना शिक्षा के क्या!
▪️3-भ्रम - आंबेडकर को शुद्ध होने के कारण पढ़ने नहीं दिया गया।
सत्य - उस समय अम्बेडकर को बड़ोदरा, गुजरात के क्षत्रिय राजा सियाजी गायकवाड़ा को छात्रवृत्ति देकर विदेश पढ़ने भेजा था। साथ ही ब्राह्मण गुरुजी ने अपना उपनाम अम्बेडकर दिया।
▪️4-भ्रम- महिलाओं को पढ़ने का अधिकार अम्बेडकर ने दिया था!
सत्य- अम्बेडकर के समय 20 उच्च शिक्षित महिलाओं का संविधान लिखने में महत्वपूर्ण योगदान था।
▪️5- भ्रम- अम्बेडकर ने आरक्षण दिया था!
सत्य - आरक्षण जिस संविधान में 389 सदस्य थे, अम्बेडकर का एक ही वोट था उसमें आरक्षण सबके वोट से मिला।
▪️6-भ्रम - संविधान के संस्थापक अम्बेडकर थे।
सत्य - अम्बेडकर संविधान की प्रोटोटाइप समिति के अध्यक्ष थे, स्थायी समिति के अध्यक्ष सर्वोच्च विद्वान डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे।
जय श्री राम...🚩🚩

शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

सिंध पराजय के प्रमुख सूत्रधार..

सिंध भारत का सीमावर्ती प्रदेश था। ६४४ में सिंध पर अरबो का प्रथम सागरी आक्रमण हुआ। हालांकि यह भारत पर प्रथम सागरी आक्रमण नही था। इससे पहले खलीफा उमर (६३४-६४४) के काल में आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। ६३६ में महाराष्ट्र के ठाणे नामक बंदरगाह पर अरबी नौ सेना पहुँची थी, इसके पश्चात बर्वास (भड़ूच प्राचीन भृगुकच्छ) पर दूसरा हमला हुआ, लेकिन दोनों ही आक्रमणों में अरबो को मुँह की खानी पड़ी। इस समय चचराय की सत्ता कश्मीर की सीमा से लेकर दक्षिण में अरब सागर तक थी। मकरान (बलूचिस्तान) भी चचराय के शासन में था। उत्तर में कुर्दन और किकान की पहाड़ियों तक चचराय का राज्य फैला हुआ था। देबल एक बंदरगाह था। अरब सेनानी अल मुंधेरा ने देबल पर आक्रमण कर दिया। चचराय का एक शूर सेनानी देवाजी पुत्र सामह (शाम) वँहा का शासक था। सामह देबल के दुर्ग से सेना लेकर बाहर निकला और अरब सेना पर टूट पड़ा। अल्पावधि में ही अरब सेना के पांव उखड़ गए, सेनापति मुंधेरा मारा गया।

उमर के बाद उस्मान खलीफा बना लेकिन सिंध की ओर किसी की आँख नही उठी। ६६० में खलीफा अली ने पूरी तैयारी के साथ सेनापति हारस के नेतृत्व में अरब सेना भेजी। स्थल मार्ग से भारत पर यह प्रथम आक्रमण था। किकान के मार्ग से सिंध में घुसना आसान था। बोलन घाटी का यह पहाड़ी राज्य चचराय के अधीन था। इस बार भी अरबो को मुँह की खानी पड़ी, हारस मारा गया। अगले खलीफा मुआविया के आदेश पर सेनापति अब्दुल और राशिद इब्न के नेतृत्व में ६६१ से ६७० तक मकरान पर लगातार छ: हमले किये। हर बार अरबो को पराजित होकर भागना पड़ा, अब्दुल और राशिद इब्न युद्धभूमि में फौत आये।

६८० में इराक का राज्यपाल जियाद था। उसने एक बड़ी विशाल सेना को अल बहिल्ली इब्न अल हर्रि के साथ भेजा। मकरान पर हुए लगातार हमलों के कारण पहाड़ी जनजातियां उनके संपर्क में आ गई थीं, कई कबीलों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया था। इस स्थिति का लाभ अल बहिल्ली को मिला और मकरान खलीफा के कब्जे में चला गया। फिर भी २८ वर्षो तक अरबो ने सिंध पर आक्रमण नही किया।

६९५ में जियाद के स्थान पर अल हज्जाज इराक का शासक बना। हज्जाज ने उबैदुल्लाह को भारी फौज के साथ रवाना किया, परंतु इस बार भी अरब हार गए, उबैदुल्लाह मारा गया। ओमान में इस समय खलीफा का नौ सेना का बेड़ा था, वँहा का शासक बुदैल था। हज्जाज ने तुरंत बुदैल को जलमार्ग से देबल पहुँचने को कहा । वँहा उसे मुहम्मद हारून अपनी सेना के साथ मिला। मकरान के सेनापति ने भी अपना एक सेनादल रवाना किया। अब जिहाद के नारे लगाती हुई अरब सेना देबल की दिशा में बढ़ी। दाहिर के आदेश पर उसका पुत्र जयसिंह (जैसिया) अपनी सेना लेकर देबल की ओर शीघ्रता से चल पड़ा। अरब सेना ने आजतक जिहाद के नाम पर मिस्र और सीरिया से लेकर ईरान तक के विशाल भूभाग में अनेक युद्ध जीते थे, उसी जोश में खड़ी अरब सेना पर भारतीय सेना टूट पड़ी। सूर्योदय से रणकंदन शुरू हुआ, दोपहर तक निरंतर भारतीय सेना ने ऐसी मारकाट मचाई कि अरब सेना के जिहाद के नारे ठंडे पड़ गए। सेनापति बुदैल मारा गया, हजारों अरबों के शव रणभूमि पर पड़े थे। जयसिंह के नेतृत्व में भारतीय योद्धाओं ने भारत के विजय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ लिखा।

इस हार से लज्जित होकर हज्जाज ने मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में ७११ में पहले से बड़ी सेना को देबल फतह के लिए रवाना किया। बिन कासिम ने देबल पर घेरा डाल दिया। सात दिन तक यह घेरा चलता रहा। नगरवासियों को विश्वास था कि जब तक नगर के भीतर मंदिर पर ध्वज पताका लहराती रहेगी, उनकी पराजय असंभव है। इसी बीच मंदिर के पुजारी ने इस रहस्य से बिन कासिम को अवगत करा दिया। मुस्लिम सेना ने पत्थर बरसाकर ध्वज पताका को नीचे गिरा दिया। सैनिको पर इसका मनोवैज्ञानिक असर हुआ। तीन दिन तक भयंकर नरसंहार चलता रहा। भारत ने पहली बार शत्रुओं द्वारा इस प्रकार निरपराध स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े सभी का नृशंसता से कत्ले आम होते देखा। बिन कासिम ने चार हजार मुस्लिमों को वँहा बसाकर मस्जिद का निर्माण किया। इतिहासकारों का मानना है कि यह भारतीय सैनिकों की कायरता नही बल्कि अरब सेना का सही मूल्यांकन न होना, यह प्रारम्भिक पराजय अन्ततः हिन्दुओं के लिए महंगी पड़ी। 

देबल के बाद बिन कासिम नेरून दुर्ग की ओर बढ़ा। भारत के दुर्भाग्य से वँहा का शासक समनी (बौद्ध अनुयायी) एवं बौद्ध भिक्षु मुस्लिमों के पक्षपाती थे। हज्जाज के साथ उनका पहले ही पत्र व्यवहार हो चुका था। बिन कासिम ने भी उन्हें सुरक्षा का आश्वासन दिया था, लेकिन हुआ इसके बिल्कुल विपरीत। हजारों बौद्ध भिक्षुओं का बलात धर्मांतरण व उनकी स्त्रियों का बलात्कार किया गया। अविचारी कल्पना से हुई उनकी भूल भारत के लिए घातक थी। भविष्यकाल में भी सैकड़ो वर्ष मुस्लिमों ने बौद्धों का भी इसी प्रकार संहार किया, बामियान व स्वात घाटी में बौद्ध प्रतिमाओं को ध्वस्त करने के रूप में यह अभियान अद्यतन जारी है। ऐसा नही है कि सभी बौद्ध धर्मियों ने सर्वकाल शत्रु का साथ दिया। वँहा से आगे सिविस्तान तक उसका कोई प्रतिरोध नही हुआ।

सिविस्तान के शासक ने प्रतिकर तो किया लेकिन पराजित होकर उसे पीछे हटना पड़ा। सिंधु के पश्चिमी तट बिन कासिम आगे बढ़ रहा था। दाहिर का शासक "मोका" भी देशद्रोही था। उसने नदी पार करने के लिए बिन कासिम को नौकाएँ उपलब्ध कराई। बिन कासिम नदी पार कर पूर्वी तट पर आया जँहा मोका का भाई भी उसके स्वागत के लिए खड़ा था। इसके बाद बिन कासिम ने बैत दुर्ग पर हमला बोला लेकिन दुर्ग के शासक रासिल ने कासिम से मित्रता कर ली। बिन कासिम तेजी से रावर दुर्ग (राओर) की ओर बढ़ता चला आ रहा था। मंत्री सियाकर एवं मोहम्मद वारिस अल्लाफी को रावर दुर्ग की रक्षा का भार सौंपकर दाहिर ने रावर दुर्ग से पहले जीतूर नामक जगह पर मोर्चा संभाला। बिन कासिम और राजा दाहिर के बीच युद्ध शुरू हो चुका था। संघर्ष प्रारंभ होने पर कभी एक पक्ष का पलड़ा भारी होता तो कभी दूसरे पक्ष का। युद्ध के पाँचवे और निर्णायक दिन दोपहर पश्चात ऐसा प्रतीत होने लगा था कि हिन्दू सेना की जीत होने वाली है और अरब सेना रणस्थल से पलायित होने लगी। युद्ध के अंतिम समय में नफथा की चोट से घायल होकर दाहिर का हाथी तालाब में घुस गया और अरबो ने वँहा पहुँच कर घातक बाण से दाहिर का अंत कर दिया। दाहिर का जीवन सूर्य भी अपनी अंतिम किरणे बिखेर कर अंधेरे में विलीन हो गया। हिन्दू सेना अरब सेना से पराजित हो चुकी थी। सूर्य के तेजोद्रपति प्रकाश के क्षय के बाद चंद्रमा आकाश पर उग आया था।

बिन कासिम रावर दुर्ग पर चढ़ आया। मोहम्मद वारिस अल्लाफी कौम की खातिर बिन कासिम से मिल गया, यह वही हज्जाज का विद्रोही शत्रु था, जिसे कभी राजा दाहिर ने धर्माचरण के चलते अपने संरक्षण में लिया था। मंत्री सियाकर भी दुर्ग छोड़ कर बिन कासिम से जा मिला जिसे बाद में बिन कासिम ने पुनः वजीर बना दिया था। दाहिर की रानी बाई ने मोर्चा संभाला, कोई उपाय न देखकर बाई ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर किया। शायद भारतवर्ष के इतिहास का यह पहला जौहर था। रावर में तबाही मचाकर बिन कासिम ब्रह्मनाबाद की ओर मुड़ा। जयसिंह ने कश्मीर के राजा व आलेर के राजा (भाई) से मदद के लिए गुहार लगाई, किंतु समय रहते ऐसा संभव न हो सका। उधर बिन कासिम को हज्जाज की ओर से लगातार सैन्य सहायता व भारत के गद्दारों का साथ मिल रहा था। छ: मास तक ब्रह्मनाबाद में युद्ध चलता रहा, लेकिन बिन कासिम को कोई सफलता नही मिली। दुर्ग में दाहिर की दूसरी रानी लाडी सैनिको को प्रेरणा दे रही थी। भारत का दुर्भाग्य दुर्ग का पतन हुआ और दाहिर की रानी लाडी अपनी दोनो पुत्रीयों सहित बंदी बना ली गईं। जयसिंह ने भागकर कश्मीर के राजा के यँहा शरण ली।

बहरूर और घलीला दोनो दुर्ग अरबो के प्रलोभनों के वशीभूत बिक गये थे। मुल्तान जीतने में बिन कासिम को दो माह लगे और अन्ततः आलेर को भी कब्जा लिया। सिंध में हिन्दू प्रमुखता से देशद्रोही तत्वों के कारण हारे, रणकौशल, योजना और वीरता में कमी होने के कारण नही। ७१४ में इराक के हज्जाज की मौत हो गई। नये बने खलीफा वालिद की भी मृत्यु जल्द ही हो गई। उसके पश्चात बने खलीफा सुलेमान जोकि हज्जाज के रिश्तेदारों से द्वेष रखता था, ने बिन कासिम को वापस बुला लिया और सिंध विजय के पारिश्रमिक के बदले मृत्युदंड सुना दिया। बिन कासिम के वापिस जाते ही दो वर्ष के भीतर भीतर जयसिंह ने ब्रह्मनाबाद, आलेर, रावर और देबल आदि स्थानों से अरब सेनाओं को भगा दिया। सागर तट से देबल तक की भूमि छोड़कर सारा सिंध स्वतंत्र हो गया था।

मेवाड़ की गाथाएँ बप्पा रावल को ईरान जीतने वाले प्रथम हिन्दू नरेश के रूप में वर्णित करती हैं। दाहिर सेन की दूसरी पत्नी अपने ५ वर्ष के पुत्र को लेकर चित्तौड़ में बप्पा रावल के पास आई। बप्पा रावल ने उन्हें सरंक्षण प्रदान किया तथा काबुल-कंधार तक आक्रमण कर गजनी के सुल्तान सलीम को हराकर उसकी पुत्री से विवाह किया।

संदर्भ श्रोत : चचनामा (हरीश कुमार तलरेजा)
                : मुस्लिम आक्रमण का हिन्दू प्रतिरोध 
                     (शरद हेबालकर)
                : सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध 
                      (अशोक कुमार सिंह)

मंगलवार, 21 मई 2024

मोदी का विकास रथ...

ट्रिलियन

2014 निर्यात - 200 बिलियन
2024 निर्यात - 759 बिलियन

2014 मेट्रो सिटी - 5
2024 मेट्रो सिटी - 20

2014 हवाई अड्डे - 74
2024 हवाई अड्डा - 152

2014 ग्रामीण विद्युतीकरण प्रवेश - 40%
2024 ग्रामीण विद्युतीकरण कवरेज - 95%

2014 एक्सप्रेस-वे की लंबाई - 680 किमी
2024 एक्सप्रेस-वे की लंबाई - 4067 किमी

2014 सड़क गुणवत्ता - 80वीं रैंक
2024 सड़क गुणवत्ता- 42वीं रैंक

2014 कुल यूनिकॉर्न - 1
2024 कुल यूनिकॉर्न - 114

2014 1GB डेटा - 200 रुपये
2024 1GB डेटा- 15 रुपये

2014 रेल नेटवर्क की लंबाई - 22048 किलोमीटर
2024 रेल नेटवर्क की लंबाई - 55198 किमी

2014 इंटरनेट कनेक्शन - 25%
2024 इंटरनेट कनेक्शन - 93%

2014 एमबीबीएस सीटें - 51,348
2024 एमबीबीएस सीटें - 101,148

2014 पीजी मेडिकल सीटें - 31,152
2024 पीजी मेडिकल सीटें - 65,335

अन्य विशेष योजना :
80 करोड़ के लिए गरीब कल्याण राशन,
सभी के लिए जल जीवन, साफ पानी, जन औषधि पीएम आवास योजना...
कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं,

विदेशी धरती पर भारत के दुश्मन मारे गए...
यूपीआई पेमेंट,
वंदे भारत आदि.

दुनिया का सबसे बड़ा स्टेडियम
दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति

विश्व का सबसे लम्बा रेलवे स्टेशन
एशिया की सबसे बड़ी हेलीकाप्टर निर्माण इकाई...
विश्व की सबसे लंबी विद्युतीकृत रेल सुरंग

अयोध्या में राम मंदिर और धारा 370 को हटाना हमारे लिए सिर्फ बोनस है।

पेट्रोल की कीमत दिल्ली:
2004 रु. 32
2014 रु. 86
2024 रू. 108
(पेट्रोल की बढ़त खुद निकाल लीजिए) ।।

जोधाबाई एक भ्रम

महारानी जोधाबाई, जो कभी थी ही नहीं, लेकिन बड़ी सफाई से उनका अस्तित्व गढ़ा गया और हम सब झांसे में आ गए ... 

जब भी कोई हिन्दू राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप कराने की कोशिश की जाती है!

बताया जाता है कि कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया! परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नहीं किया है!

उन सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद

अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी किसी हिन्दू रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया। परन्तु हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखाने के षड्यंत्र के तहत बाद में कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!

और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए! जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नहीं था!

18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर हिन्दू बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठा पहचान शुरू किया गया। फिर 18 वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरियम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!

और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया कि आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चुका है!

और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को नीचा दिखाने की कोशिश जाती है! जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!

आन, बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??
हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं???? जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया, उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाली । पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ, जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं मिला!

मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए- जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया! इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नहीं किया!

हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी ऐतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे । कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई, जो बहुत चौंकाने वाली है! इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी, जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ, इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!

राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया, जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था, इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथों में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया! जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नहीं, बल्कि दासी-पुत्री थी!

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था। इस विवाह के विषय में अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें 
 संदेह है, इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!

'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) 

हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है, क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नहीं थे और ना ही हिन्दू गोद भराई की रस्म हुई थी!

सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय में कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनों का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपूताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!

17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव (अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था, वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत! (1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है! हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!

ये ऐसे कुछ तथ्य हैं, जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!

लेकिन अब यह षड़यंत्र अधिक दिन नहीं चलेगा।

जय राजपुताना❤️🙏

बुधवार, 6 मार्च 2024

नेहरू की आत्ममुग्धता

जब इन्दिरा गांधी की सुरक्षा में खूबसूरत रूसी नौजवान लगाए गए 

भारत को तब नई नई आज़ादी मिली हुयी थी। पण्डित नेहरू के नेतृत्व में पूरे देश मे कांग्रेस का झण्डा लहरा रहा था।

पण्डित नेहरू साम्यवाद और समाजवाद के घोड़े पर सवार थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनियां दो खेमों में बंट गई  थी। एक तरफ सोवियत रूस तब पूरी दुनियां में कम्यूनिज़्म और सोशलिज्म का झण्डा बरदार था तो दूसरी तरफ संयुक्त राज्य अमेरिका डेमोक्रेसी और कैपिटलिज्म का पैरोकार। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इन दो महाशक्तियों में एक अदृश्य युद्ध छिड़ गया जिसे कोल्डवार के नाम से जाना जाता है। इस कोल्डवार को लीड कर रही थी यूएसएसआर की खुफिया एजेंसी केजीबी और यूएसए की खुफिया एजेंसी सीआइए।

ये दोनों एजेंसियां अलग अलग देशों में खुफिया ऑपरेशन चलाकर वहां की व्यवस्थाओं पर अपना कब्जा चाहती थीं। उस समय दोनों के निशाने पर था एक ऐसा देश जो क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवां सबसे बड़ा और जनसंख्या के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा देश था। भारत की व्यवस्था पर कब्जा का अर्थ पूरे यूरोप के बराबर व्यवस्था पर कब्जा। दोनों एजेंसियों ने अपने एजेण्ट भारत मे लगा रखे थे। लेकिन नेहरू के वाम पंथ की तरफ रुझान का फायदा उठा कर केजीबी व्यवस्था में गहरी घुसपैठ कर चुकी थी। नेहरू ने अमेरिका को अपना दुश्मन बना लिया था।                  
जोसेफ स्टालिन नेहरू और गांधी को खुलेआम "इम्पीरियलिस्ट पपेट" कहता था और उनकी खिल्ली उड़ाता था।लेकिन नेहरू को तब भी उसकी गोद मे बैठना ही पसंद आया। केजीबी ने भारत मे यूएसएसआर के दूतावास की मदद से अपने सैंकड़ों एजेंटों को भारत के सत्ता केंद्र दिल्ली में काम पर लगा दिये।

उस समय केजीबी के अहम खुफिया दस्तावेजों का प्रबंधन देख रहे थे "वेसिली मित्रोखिन"। मित्रोखिन कई वर्षों तक इन खुफिया दस्तावेजों की एक एक कॉपी अपने पास जमा करते रहे।फिर एक दिन ब्रिटिश खुफिया एजेंसी MI6 की मदद से वे रूस से भागने में सफल हुये और ब्रिटिश सुरक्षा में उन्होंने इन खुफिया दस्तावेजों के हवाले दो किताबें प्रकाशित करवाई जिन्हें मित्रोखिन आर्काइव 1 और 2 के नाम से जाना जाता है।

अपनी किताब में मित्रोखिन ने केजीबी के बहुत ही खुफिया ऑपरेशन्स की पोल खोलकर दुनियां भर में तहलका मचा दिया। मित्रोखिन के अनुसार 'जब भारत के प्रधानमंत्री नेहरू सोवियत रूस की यात्रा पर गये तो अपने साथ बेटी इन्दिरा को लेकर भी गये। उनकी इस यात्रा को केजीबी ने बहुत ही चतुराई से डिजाइन किया था। रूस पहुंचते ही नेहरू का अभूतपूर्व स्वागत किया गया। उन्हें मॉस्को की सड़कों पर स्टालिन के साथ घुमाया गया। आयोजन को भव्य रोड़ शो का स्वरूप दिया गया। कुल मिला कर नेहरू को ये अहसास दिलवाया गया कि वो रूस में भी बहुत लोकप्रिय हैं।'

केजीबी जानती थी कि नेहरू आत्ममुग्ध व्यक्ति हैं अतः उन्हें नियन्त्रण में लाने का यही सबसे अच्छा तरीका था कि चने के झाड़ पर चढ़ाकर मनमाने समझौते करवा लिए जायें। मित्रोखिन आगे बताते हैं कि उस समय केजीबी की तरफ से इंदिरा गांधी को 20 मिलियन भारतीय रुपयों का भुगतान किया गया। उन्हें रूस के खूबसूरत द्वीपों पर और बीचों पर भ्रमण के लिये ले जाया गया। जहां उनकी सुरक्षा में जान बूझ कर लम्बे चौड़े और खूबसूरत दिखने वाले अफसरों को तैनात किया गया था।
Video- https://www.facebook.com/share/v/qkKqR8UUYe8WriEc/?mibextid=qi2Omg


आउटलुक के लेख का कुछ अंश:

उस यात्रा के दौरान केजीबी ने नेहरू से कई महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर करवा लिये। उस दौरान केजीबी ने नेहरू और इंदिरा को यह विश्वास दिलाया कि आने वाला समय कम्युनिस्टों का होगा। इसके बाद केजीबी बड़े पैमाने पर ऐसे नेताओं के चुनाव अभियान चलाने लगी जो चुनाव जीत कर मन्त्री बने। फिर इन मंत्रियों की मदद से वे हमारी व्यवस्थाओं पर और मजबूत पकड़ बनाते चले गये।

नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी ने केजीबी के पर कतरने शुरू कर दिये थे लेकिन ताशकंद में केजीबी ने उनकी हत्या कर दी। उनकी हत्या के बाद इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी। इस दौरान केजीबी ने रूस में भारतीय दूतावास में मौजूद राजनयिकों को पैसे का लालच देकर, भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसाकर और हनीट्रैपिंग करके कई गोपनीय सूचनाओं को बाहर निकलवाया।

बिजनेस स्टैंडर्ड का लेख:

केजीबी भारतीय राजनयिकों, लेखकों, पत्रकारों, फिल्मकारों, नेताओं और महत्वपूर्ण मंत्रालयों के अधिकारियों को कोई ना कोई सम्मान के बहाने मॉस्को बुलाती थी और वहां किसी को पैसे से खरीद लेते थे तो किसी को महिला एजेंटों का उपयोग करके फंसा लेते थे। महिला एजेंट जिन्हें स्पेरो यानी गौरेया कहा जाता था, इन नेताओं और लेखकों के साथ रंगरेलियां मनाती थी और उनका वीडियो बनाकर फिर ब्लैकमेल करके महत्वपूर्ण सूचनाओं को चुराती थीं।

जहां एक तरफ केजीबी भारत की व्यवस्थाओं में गहरी घुसपैठ कर रही थी वहीं दूसरी तरफ सीआइए भी इस खेल में जुटी हुई थी। दोनों एजेंसियों ने भारत को अपना प्लेग्राउंड बनाया हुआ था। भारतीय राजव्यवस्था के खेवनहार कांग्रेसियों को और वामपंथियों को खरीदने के लिये दोनों देश पानी की तरह पैसा बहा रहे थे। केजीबी ने भारत के लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को पैसे देकर अपने पक्ष में कर लिया। इन अखबारों के माध्यम से केजीबी ने हजारों आर्टिकल प्रकाशित करवाये। इन लेखों के द्वारा भारतीय जनमानस में अमेरिका के खिलाफ एक माहौल तैयार करवाया गया।

आज जो Press trust of India है उसे उस समय Press TASS of India कहा जाता था। TASS उस समय सोवियत समाचार एजेंसी थी। यही एजेंसी भारतीय प्रेस को नियंत्रित करती थी। भारत से बड़े बड़े पत्रकारों और लेखकों को सोवियत खर्चे पर मॉस्को बुलाया जाता था। वहां उन्हें कोई छोटा मोटा सम्मान देकर केजीबी के दफ्तरों में भेजा जाता था जहाँ केजीबी के एजेंट उन्हें ब्रीफ करते थे। सोवियत सरकार अपने खर्चे पर भारत मे जगह जगह सोवियत पुस्तक मेलों का आयोजन करवाती थी। इन पुस्तक मेलों में ऐसी लाखों पुस्तकें मुफ्त में बांटी जाती थी जो अमेरिका के खिलाफ प्रोपेगैंडा चलाती थीं और वामपन्थी नीतियों के पक्ष में एक जनमत तैयार करने का काम करती थी। इस तरह के आयोजनों के लिये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के कैडरों का उपयोग किया जाता था।

उस समय दिल्ली में स्थित सोवियत दूतावास सबसे अधिक चर्चा में रहता था। वहां हर समय पत्रकारों, लेखकों, फ़िल्म कलाकारों, सरकारी अफसरों और नेताओं का हुजूम लगा रहता था। एक अनुमान के मुताबिक उस समय सोवियत दूतावास में 800 से ज्यादा कर्मचारी काम करते थे जिनमें से ज्यादातर केजीबी के एजेंट होते थे। हर वर्ष रूस ने करीब दस हजार ऐसे टूरिस्ट भारत आते थे जिन्हें सोवियत सरकार अपने खर्चे पर भारत भेजती थी। इन टूरिस्टों में कितने केजीबी के एजेण्ट होते थे यह आज भी रहस्य है।

सोवियत निर्देशों का पालन करते हुये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने इंदिरा गांधी को बाहर से समर्थन दिया जिसके कारण उनकी सरकार बच गयी।

इस समर्थन की एवज में वामपंथियों ने कला, संस्कृति, शिक्षा, पुरातत्व, भाषा इत्यादि विभागों में अपने लोग महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिये। इन्हीं वामपंथियों ने 1972 में Indian Council of Historical Research (ICHR) का गठन किया। इस संस्था ने भारतीय इतिहास का जो बंटाधार किया वो कई सौ वर्षों तक मुस्लिम और ईसाई भी नहीं कर पाये।

रोमिला थॉपर, डी.एन झा, रामगुहा, इरफान हबीब, जैसे फिक्शन लेखकों को इतिहास का विशेषज्ञ बना दिया गया। इन्होंने अपनी मर्जी से बिना किसी पुख्ता सबूत के मनमर्जी का इतिहास लिखा। ये जो आज आप देखते हैं ना कि किस तरह से इतिहास की किताबों में मुगलों की तारीफों का बखान किया गया है, ये सब इन्हीं की देन है।

ये जो देशद्रोहियों का अड्डा J.N.U है ना 1969 में ही बना था। इसे बनाने में भी कम्युनिस्ट ही शामिल थे। कम्युनिस्टों ने उस समय जो बीज बोया था वो आज वृक्ष बनकर "भारत तेरे टुकड़े होंगे" जैसा फल दे रहा है।
प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों का निर्धारण भी सोवियत रूस के इशारों पर किया जाने लगा। पाठ्यक्रम से चुन चुन कर हिन्दू प्रतीकों को मिटाया जाने लगा। हिन्दू रीति रिवाजों का मजाक बनाया जाने लगा। इस काम मे तमाम समाचार पत्र पत्रिकाएं लगी हुई थी। केजीबी सोवियत खर्चे पर मुफ्त में ऐसा साहित्य वितरित करवा
रही थी जो हिन्दू धर्म के खिलाफ जहर उगलता था। उस समय पूरे देश में जगह जगह मास्को कल्चरल फेस्टिवल का आयोजन किया जाता था। इन आयोजनों में पहुंचने वाले युवाओं का जबतदस्त ब्रेनवॉश किया जाता था। कुल मिलाकर एक तरफ केजीबी सरकार पर नियंत्रण करके सैन्य और गोपनीय सूचनायें चुरा रही थी तो दूसरी तरफ कला, संस्कृति, धर्म और भाषा को जबरदस्त नुकसान पहुंचा रही थी।

बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

झांसी की रानी के वंशज...अब यहां है ।।

अपने इतिहास के सर्वोच्च नायकों के साथ हमने कैसा व्यवहार किया है उसकी एक बानगी देखिये ।

झांसी के अंतिम संघर्ष में महारानी लक्ष्मीबाई की पीठ पर बंधा उनका बेटा दामोदर राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ ?

वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.

अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.

1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.

महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.

आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं :-

15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.

मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.

डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.

इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.

मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.

नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.

असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.

मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.

देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.

मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.

ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.

हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.

उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.

फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.

सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.

इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.

दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी.

इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं।

जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया।

अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।

दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं।

उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे ! अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार हैं।

🙌 अनेक शूरवीर सम्राटों के इस अखंड भारत में हमे कभी कोई विदेशी आक्रांता गुलाम नहीं बना सकता था बशर्ते अपने ही लोगों ने कायरता न दिखाई होती.

साभार :

शनिवार, 6 जनवरी 2024

श्री राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में नही जायेंगे शंकराचार्य ।।


शंकराचार्य गद्दी को हम साक्षात भगवान शिव मानते है आप गुरुतुल्य है प्रभू । लेकिन आपके इस दास के मन मे एक विकार आ रहा है आशा है आप शंका का समाधान करेगे
या फिर उनके अनुयायी इसका समाधान करेगे ।।

प्रभु श्री राममंदिर के उद्घाटन मे आप लोगो को तवज्जो नही दी जा रही है
ऐसा हमने कही और से नही आपके मुंह से सुना है ।
आपके अनुसार "राममंदिर निर्माण मे सारा योगदान आपका था लेकिन आज श्रेय मोदी ले रहे है ??"

अच्छा भगवन अब थोड़ा इतिहास मे चलते है आपकी पीठ की एक गद्दी जगन्नाथपुरी है जगन्नाथपुरी मंदिर की रक्षा मे एक राजा मानसिंह का भारी योगदान था ।
चले जगन्नाथपुरी मंदिर की बात छोड़ देते है गुजरात के द्वारिकाधीश मंदिर का 15वी सदी के अंत मे जीर्णोद्धार हुआ वह भी राजा मानसिंह के समयकाल मे  उन्ही के प्रयासो से
वह भी छोड़ दे जिनकी भक्ति के कारण पूरा विश्व आपको भी प्रणाम करता है। 
उस वृन्दावन तीर्थ का जीर्णोद्धार भी राजा मानसिंह के काल मे हुआ
वृन्दावन को वैष्णव नगरी मानकर छोड़ दे, तो काशी तो स्वयं शम्भो की नगरी है उसका जीर्णोद्धार भी राजा मानसिंह में काल मे हुआ । लेकिन क्या आप किसी भी जानकर ने राजा मानसिंह के भारी अपमान पर एक बार भी चुप्पी तोड़ी ??  
एक बार भी उनके योगदान को जनता के समक्ष रखा ? 
जबकि ऐसा नही है की आप जानते नही थे ऐसा हमे लगता है । जब आपको यह पता था की ताजमहल शिवालय था आमेर वालो का था
तो क्या आपको अपने मंदिरो का इतिहास पता नही था ।

क्यो की यह विषय ऐसा है,जो आम जनता भी अच्छे से नही समझती लेकिन आप अवश्य समझते है
और हा आम जनता की तरह हमे हल्दीघाटी वाली बात मत बताना की इसलिए मानसिंह का समर्थन नही किया क्यो की बात फिर बढ़ जाएगी और दूर तलक जाएगी ।

जब आप राजाओ को उनके योगदान का श्रेय देने को तैयार नही तो फिर आज राजनीति भी शायद आपके साथ वही कर रही है जो कभी आपसे हुआ ।

कृपा कर मेरे मन के इस विकार को शांत करे नही कर सकते तो मेरा आप कुछ नही ऊखाड सकते बस आप मठो मे बैढ कर हर सनातन के 
मंदिरो के निर्माण पर ऐसे ही विरोध कर कर । 
अपनी बची कुची ईज्जत निलाम करते रहे  कोई दिक्कत नही 🙏