सदियों से, हिंदू धार्मिक पहचान मंदिरों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है। इन पवित्र स्थानों ने न केवल सीखने को बढ़ावा दिया बल्कि चर्चा और बहस के लिए मंच भी प्रदान किए। साथ ही भारतीय मंदिर अनंतकाल से संपदा के भंडार रहे है। वार्षिक मंदिर उत्सवों ने कई भक्तों को आकर्षित किया और सांस्कृतिकआदान-प्रदान और पारस्परिक संबंधों को सुविधाजनक बनाया।मंदिरों के आसपास व्यापारी संघों की उपस्थिति ने व्यापार केमाध्यम से समृद्धि में योगदान दिया।
भारतीय मंदिर की इस परंपरा ने ना जाने कितने लुटेरों को भारत की ओर आकर्षित किया है- ना जाने कितने बर्बर डाकू आये और मंदिरों को ढा कर लूट कर चले गये। इस शृंखला में हालाँकि फोकस मंदिरों का सरकारी नियंत्रण रहेगा।
वर्ष ७११ में सबसे पहला पतन सिंध के मुलतान के मंदिरों का हुआ था जब प्राचीन सूर्य मंदिर जो श्रीकृष्ण पुत्र सांब द्वारा बनवाया गया था- उसे लूट क़ासिम ने भारतीय मंदिरों की इस अनचाही शृंखला का आग़ाज़ किया। पूर्व में इस विषय पर एक विस्तृत शृंखला पोस्ट हुई थी। मुलतान अर्थात् मूलस्थान का सूर्य मंदिर पहला उदाहरण था जब किसी मंदिर से स्वर्ण भंडार एवं मूर्ति आदि लूटी गई- फिर काष्ठ प्रतिमा स्थापित कर फिर से पूजा शुरू हुई हालाँकि शहर और मंदिर पर क़ब्ज़ा मज़हबियो के गैंग ने कर लिया था।
मुलतान के इस मंदिर पर क़ब्ज़े से दो कारण सिद्ध हुए- पहला- मंदिर पर आये चढ़ावे आदि का पूर्ण नियंत्रण। दूसरा- हिंद से आने वाले प्रतिरोध को एक कवच मिलना। हालाँकि कालांतर में ये मंदिर भी पूर्ण रूप से ढाया गया। लेकिन इतिहास में मुलतान का ये मंदिर सर्वप्रथम सत्ता ने अपने क़ब्ज़े में लिया था। इस से पूर्व मंदिरों के पास ज़मीन, गाँव आदि का स्वामित्व रहता रहा था जो राजा महाराजा आदि प्रदान करते थे। तब टोटल कंट्रोल परंपरागत तरीक़े से पुजारी दल और उनके मुख्य महंत आदि के पास रहता था।
इस के तीन सौ साल बाद भारत पर मंदिरों पर हमले बढ़ने लगे- निरंतर हमले से पस्त हिंदू समाज संघर्ष करता रहा- पुजारी विग्रह की पवित्रता बनाये रखने हेतु भागते रहे, बलिदान देते रहे। सोमनाथ मंदिर भी कदाचित् ऐसा मंदिर रहा जो बारंबार हमले का शिकार बनता और पुनः उठ खड़ा होता।
अनेक विदेशी यात्रियों ने इन वैभवशाली मंदिरों पर अनेक वृतांत लिखे है- अब्दुल रज़ाक़ , निकेतन, मानुची , टेवरनीयर, बर्नियर आदि आदि- लिस्ट अपार है। इस विषय पर भी अनेक पोस्ट आ चुकी है। तो ये बात तो साफ़ है- मध्यकाल में भारतीय मंदिरों का वैभव ग़ज़ब का था- सब अपने अपने तौरतरीक़ों से संचालन कर रहे थे- सत्ता का हस्तक्षेप ना के बराबर था।
बारहवीं शताब्दी में ऐबक से शुरू हुआ मंदिरों का विध्वंस औरंगज़ेब काल तक एक विकृत रूप ले चुका था- अनगिनत देवस्थान या विध्वंस किए गए , लूटे गये, क़ब्ज़ा किए गए या फिर दीनहीन अवस्था को प्राप्त हुए। यही कारण है कि भारत के अनेक देवस्थान और पौराणिक स्थानों पर अवैध इमारतों का आज भी जमावड़ा है।
ऐबक के आने के बाद भारत में एक मेजर चेंज आया- अब ये लुटेरे गजनवी आदि की भाँति लूट कर वापस जाने के लिए नहीं आए थे- अब ये देहली में लूट का अड्डा बना रहते- भारत के भिन्न भिन्न स्थानों में डकैती डालते। साथ साथ में जज़िया कर वसूलते। जज़िया कर के भी अलग अलग स्वरूप थे। मसलन सूर्यग्रहण पर होनी वाली मंदिरों और गंगा तट पर होनी वाली पूजा पर भी पहले ही एकमुश्त रक़म जज़िया के रूप में जमा करवानी होती ताकि जनमानस अपने आराध्याओ को पूज सकें। यही क़ानून मंदिरों पर भी लागू था।
एक उदाहरण के तौर पर तिरूपति मंदिर को ही लीजिए। ऐसा नहीं था कि यहाँ डकैती डालने की चेष्टा इन लुटेरों ने नहीं की। इस स्थान का वैभव तो हर किसी की विदित था। अलाउद्दीन ख़िलजी के नरभोगी यार काफ़ूर ने बाक़ायदा सैन्य अभियान चलाया किंतु यहाँ के वराह मंदिर के विषय में सुन टिड्डों का दल वापस चला गया। किंतु औरंगज़ेब के समधी गोलकोंडा का सुल्तान अब्दुल्ला क़ुतुब शाह ने वो कार्य भी कर डाला। तिरूपति पर किए हमले में उसने अकूत दौलत लूटी- मंदिर को हानि भी पहुँचाई। लेकिन उसके वज़ीरों ने उसे समझाया इस स्थान को नष्ट करने का मतलब होगा सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को हलाल कर देना। लिहाज़ा सुल्तान ने भारी भरकम वार्षिक कर लगा कर मंदिर को संचालित होने दिया। मंदिर सुचारू रूप से चलता रहा- कर भरते रहे। भक्त गण आकर पूजा कर अपार संपत्ति जमा करते रहे।
मुग़ल काल के आते आते कहानी में अब ट्विस्ट आया। मथुरा काशी आदि में विखंडित देवस्थानों को पुनः स्थापित करने में अनेक राजा महाराजाओं ने योगदान दिया। मुग़ल बादशाहों से वायदा लिया कि अब इन मंदिरों के निर्माण में कोई विघ्न ना डाला जाएगा। औरंगज़ेब से पहले अनेक मंदिर काफ़ी अच्छी अवस्था में आ चुके थे। काशी के मंदिरों का दौरा करते अनेक विदेशी यात्रियों का लेखन बताता है इन मंदिरों को इन राजा आदि से भूमि गाँव आदि मिलते है जो इनके संचालन में वित्तपोषण आदि का कार्य करते है। जगन्नाथ मंदिर में तो विशाल गौशाला थी जो केवल मंदिर में बंटने वाले प्रसाद आदि हेतु संचालित होती थी।
लेकिन इस सब में मंदिरों को वार्षिक रूप से कर देना पड़ता रहा। जब जब किसी बादशाह या सुल्तान में मज़हबी हिलौरा मारा या उसे अधिक धन की ज़रूरत पड़ी- वो मंदिर की संपदा लूटने में गुरेज़ ना करता। इस संदर्भ में एक बात और नोट करिए- अनेक सुल्तान बादशाह कई मंदिरों को जागीर आदि भी देते- कारण साधारण था- यहाँ से होने वाली वार्षिक आय; जज़िया का स्रोत सूख ना जाएँ। औरंगज़ेब तक ने ऐसा किया। किंतु १६६९ में जब उस पर मज़हबी उन्माद सर चढ़ कर बोला तो सिरे से उसने विध्वंस मचाना शुरू किया।
कहानी की शुरुआत काफ़ी लंबी हो चली है। इस अंक में बस यही तक।
नोट- इस शृंखला में कुछ क़ानून और बिल आदि का उल्लेख रहेगा। पोस्टकर्ता क़ानूनी एक्सपर्ट नहीं है महज़ एक किताबी कीड़ा है। तो यदि कोई कमी दिखाई पड़ें तो संदर्भ सहित पॉइंट आउट कर दें। सुधार कर लिया जाएगा।
आगे है- अंग्रेज़ी काल के क़ानून से । आज़ादी तक के क़ानून की कहानी ।
साभार....Maan ji FB
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