गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

!! दिल मागे मोर !!


आज अगर हम चारो ओर देखें तो कोई भी अपनी जिंदगी से संतुष्ट दिखाई ही नहीं देगा. हमारे पास जो है वह कम ही मालूम पड़ता है. हर किसी को “और” चाहिए……… और चाहिए ...और चाहिए ...इसी धुन में लगा रहता है ... चाहे किसी प्राप्य को प्राप्त करने कि मेरी औकात नहीं होगी तो भी बस मैं उसके लिए छटपटाता रहूँगा, बस एक धुन सवार हो जाएगी कि बस कैसे भी हो मुझे यह हासिल करना है.
अरे भाई हासिल करना है, तक तो ठीक है पर यह लोभ इतना भयंकर हो जाता है कि फिर ना किसी मर्यादा कि परवाह……… जाये चाहे सारे कानून-कायदे भाड़ में. ...... और आज चारों तरफ देख लीजिये कि जो मर्यादाओं को तार - तार किये दें रहें है उन्ही की यश-गाथाएं गाई जाती है. हम सब इस लोभ के मोह में वशीभूत हुए वहशीपन कि हद तक गिर चुके है. किसी भी नैतिक प्रतिमान को तोड़ने में हमें कोई हिचक नहीं होती.
या फिर आप खड़े रहिये नैतिकता का झुनझुना लिए, कोई आपके पास फटकेगा ...
भी नहीं.
ना तो कर्म-अकर्म कि भावना रही ना उनके परिणामों कि चिंता. और चिंता होगी भी क्यों हमारे सारे सिद्धांतो को तो हम तृष्णा के पीछे भागते कभी के बिसरा चुके हैं. अहंकार आदि सभी तरीके के नशों को दूर करने वाले धर्म को ही अफीम कि गोली मानकर कामनाओं कि नदी में प्रवाहित कर चुकें है. !

यह लोभ जब तृष्णा को जन्म देता तब उसी के साथ साथ ही जीवन में ईष्र्या का भी प्रवेश हो जाता है. तृष्णा में राग की प्रचुरता होती है. द्वेष ईर्ष्या कि जड़ में दिखाई पड़ता है. आज कल जितना भी अनाचार, भ्रष्टाचार चारो तरफ देखने में मिल रहा है, वह इसी अदम्य तृष्णा या मानव मन में व्याप्त अतृप्त भूख का परिणाम है. पेट की भूख तो एक हद के बाद मिट जाती है, पर यह तृष्णा जितनी पूरी करो उतनी ही बढती जाती है.!

जब हम तृष्णाग्रस्त होतें तो हमारे मन पर ईष्र्या का आवरण पड़ जाता है. हमें “चाहिए” के अलावा कोई दूसरी चीज समझ में ही नहीं आती है. चाहिए भी येन-केन-प्रकारेण. जीवन के हर क्षेत्र में स्पर्धा ही स्पर्घा दिखाई देती है. यह स्पर्धा कब प्रतिस्पर्धा बनकर हमारे जीवन कि सुख शान्ति को लील जाती है हमें पता ही नहीं चलता है. और प्रतिस्पर्धा भी खुद के विकास कि नहीं दूसरे के अहित करने कि हो जाती है दूसरों के नुक्सान में ही हम अपना प्रगति पथ ढूंढने लगें है. खुद का विकास भूल कर आगे बढ़ने के लिए दूसरों के अहित कि सोच ही तो राक्षसी प्रवत्ति है. इस आसुरी सोच के मारे हम खुद को तुर्रम खाँ समझने लगते हैं. खुद को सर्वसमर्थ मान दूसरों के ललाट का लेखा बदलने का दु:साहस भी करने लगतें है. !

याहीं हम चूक कर बैठतें है जो क्षमता प्रकृति ने हमको दी, जो वातावरण जीने के लिए उसे मिला, उसे ठुकरा कर जीने का प्रयास कर लेना महत्वाकांक्षा और अहंकार का ही रूप है. किसी दूसरे के भाग्य में आमूलचूल परिवर्तन तो हम ला भी नहीं पाते उलटे हमारा खुद का विकास भी अवरुद्ध कर बैठते है. बस सारी उर्जा इसी में निकल जाती है. इसी अहंकार के मारे क्रोध उपजता है और कौन नहीं जानता कि क्रोध से हम अपना ही कितना नुक्सान कर बैठते है.

बाकि अब ज्यादा क्या लिखा जाए यह तो अपने खुद के समझने कि चीज है......

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