सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

!! क्या भौतिकता में ही सब कुछ है ?!


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामय.
आइये मित्रो, इस राजनीतिक उठा पटक, खून खराबे की दुनिया से थोड़ी देर के लिए मेरे साथ एकांत में चलें. अपने कीमती समय से बहुत थोडा सा मेरे साथ बांटे. शीर्षक पंक्ति तो अमीर खुसरो साहब बहुत पहले ही लिख गए थे पर बाद में न जाने कितने लोगों ने इसे अपने भिन्न भिन्न उद्देश्यों के लिए प्रयोग किया. ये लाइन आपने बहुत बार सुनी और शायद पढ़ी भी होगी. बहुत से सूफी संतों ने इसे गाया और बजाया है लेकिन क्या हमने कभी इस पर गौर करने की थोड़ी भी कोशिश की है? यदि नहीं तो आपसे आग्रह करूंगा कि एक बार ऐसा जरूर करें. चंद लाइनें है जो आपको याद दिलानी है.
बहुत कठिन है डगर पनघट की....

चार अंधे घूमने फिरने चले बाज़ार में.. और उनमे से हर ये समझता था के हूँ सरदार मैं..

घूमते जाते थे वो रस्ते पे मस्तों की तरह.. खुद को भी न जानते थे खुद्परस्तों की तरह..

सामने से गुल हुआ हट जाइए हट जाइए.. इस तरफ आता है हाथी इस तरफ मत आइये..

सुनके अंधे रुक गए बोले हमें दिखलाइये.. हम भी देखेंगे जरा हाथी यहाँ पर लाइए..

सुनके अंधों की सदा लोगों ने हाथी रोककर.. ले गए अंधों को बोले देखलो ऐ दीदावर..

फिर तो चारो संत से हाथी उन्होंने घेरकर.. खूब जी भर कर टटोला पुश्त पाओं सर कमर..

भर गया जी तब कहा अच्छा इसे ले जाइए.. काबिले तारीफ क्या है ये जरा फरमाइए..

गिर गया कितना मजाके हुस्न अब इंसान का.. इतने घटिया जानवर का नाम हाथी रख दिया..

पहला बोला हाथी कैसा पुश्त-ऐ-दीवार है.. इसके बारे में ज्यादा बहस ही बेकार है.

दूसरा बोला गलत बिलकुल गलत तुमने कहा.. हाथी था के जैसे हो पेड़ का कोई तना..

तीसरा बोला दोनों की गलत बकवास है.. हो खजूरों का सा टहना हमको ये अहसास है..

सर से लेकर सूंड तक हाथ था जिसका फिर.. बोला हाथी है के परनाला किसी दीवार का..

मुख़्तसर ये के फिर एक को एक ने झूठा कहा.. बात आगे बढ़ गयी बेबात का झगडा बढ़ा..

नीम पुरियां हो गए वो जिस्म के कपडे फटे.. उनकी इस हरकत पे सारे लोग बस्ती के हँसे..

इन अन्धो की तरह इस अहले दुनिया में भी बीनाई नहीं.. कैसे देखें ताकते दीदार तो पाई नहीं ..

कोई कहता है खुदाबंदा हरम के दर में है.. कोई कहता है के भगवन सूरते पत्थर में है..

कोई पानी में बुलाये कोई आतिश में कहे.. आखिर इन अंधों की तरह अहले दुनिया बन गए..

अभी भी वक़्त है ऐ इंसान तू मन की आँखें खोल ले.. वरना बहुत कठिन है डगर पनघट की.

तो देखा आपने किस तरह से मजहबी फसाद होते है क्योंकि हमारे पास उनके बारे में सोचने का समय नहीं है. मेरा विनम्र निवेदन है कि इस मुद्दे पर भी गौर किया जाए ताकि हमारी पनघट कि डगर भी आसन हो जाए. क्या भौतिकता में ही सब कुछ है ? थोडा इससे हटकर भी सोचकर देखिये, नुकसान में नहीं रहेंगे. शायद इसी को आत्मसाक्षात्कार कहते है.

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामय..सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद् दुःख भागभवेत.

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