"अरे भाई लोग क्या कहेंगे?" कितना दिलचस्प है ये डायलोग. हममे से शायद हर कोई इसे दिन भर में कुछ बार तो बोल ही लेता है, चाहते हुए या न चाहते हुए. ये हमारी जुबान पर इस तरह चस्पा हो गया है के छूटता ही नहीं. ..बहुत साल पहले रीवा में दोस्तों के साथ शाम को सोचा चलो एक मूवी देखते है. दोस्त तैयार हो गए. मैं पायजामा में ही चल पड़ा तो दोस्त बोले अरे यार ये क्या करते हो "लोग" क्या कहेंगे. मैंने कहा मैं तो पायजामे में ही जाउगा जिसको जो कहना है कहे फिर भी दोस्तों ने जिद करके पैंट सर्ट पहनावा ही दिया !एक दिन पत्नी के साथ देवास में भी बाज़ार के लिए पायजामे में चल पड़ा तो वो बोली "ढंग के कपडे पहन कर क्यों नहीं चलते "लोग" क्या कहेंगे.? मेरे एक मित्र श्री मुद्रिका प्रसाद तिवारी जी भी कवि सम्मलेन में साथ जाने लगे तो मैं थोडा फ्री स्टाइल में चल पड़ा. फिर वही चिर परिचित वाक्य से सामना हुआ, "अरे यार ढंग से कपडे तो पहन लो "लोग" क्या कहेंगे. मैंने कहा भाई पांच छः घंटे बैठना है जरा आराम रहेगा ऐसे ही चलते है. उन्होंने मुझे बड़ी हिकारत से देखा और बोले "ठीक है जैसे मर्ज़ी करो".!
कहने का मतलब ये की हम लोगो की परवाह करके कब तक चले ? यदि हम संबिधान से मिले मौलिक अधिकारों का सदु -उपयोग करते हुए चलते है ,संबिधान के नियम को बिना उलंघन करते हुए कुछ भी करे फिर नही लोग कहेगे तो हम "लोगो को कहने " के डर से डर जाए क्या ?
आप सभी की राय चाहिए ..........
कहने का मतलब ये की हम लोगो की परवाह करके कब तक चले ? यदि हम संबिधान से मिले मौलिक अधिकारों का सदु -उपयोग करते हुए चलते है ,संबिधान के नियम को बिना उलंघन करते हुए कुछ भी करे फिर नही लोग कहेगे तो हम "लोगो को कहने " के डर से डर जाए क्या ?
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