अधिकतर छत पर बनी पानी की टंकी की दशा को सुधारनें या देखने के लिए ऊपर चढऩा पड़ता है। ऊपर जाना कोई बडी बात नही पर सीढिय़ों के बजाय बास की बनी नसैनी से ऊपर जाना मानो ना मानो सही में बड़ी बात है। और उस पर अगर नसैनी की हालत खस्ता है। और उसमें से कुछ पायदान भी गायब है। जो पायदान है। उनके बास भी चटक गए है। उनको थामने वाली कीले भी जंग से कमजोर हो चुकी है। तब तो उस पर चढ़कर ऊपर जाने में अच्छे अच्छो का हलक सूख जाएगा। फिर भी महीने में एक-दो बार तो वो लोग इस जोखिम को लेने से नही क तराते जिनके घर में सीढिय़ा नही है। क्यो कि वो इसका उपयोग पहले से करे आ रहे है।
इसलिए उनका नसैनी से गिर जाने का डर खत्म हो गया है। किसी ने सही कहा है जिस भी काम से डर या उसको करने में हिचकिचाहट हो उसे ज्यादा करना चाहिए या बार -बार करना चाहिए उस काम के प्रति हमारा डर है वो खत्म हो जाएगा। इसी कथन को ध्यान में रखकर एक बडी पेय पदार्थ कंपनी ने तो इस पेय पदार्थ की पब्लिसिटी करने के लिए तथा दूसरे पेय पदार्थाे से अधिक बेचने के लिए एक अपना अलग ही डायलाग/सलोग्न बना डाला डर के आगे जीत है।
ऐसा ही कुछ मैं भी बहुत सारी दूसरी चीजों के साथ भी करता हू। कई दफा पुराने दफ्तर कि लिफ्ट अटक जाने पर उसे ताकत लगाकर खोलता हू और दोनों तलो के बीच से निकलकर बाहर आ जाता हू। जानता हू ऐसे काम बेहद खतरनाक है। पर दिल बहुत से खतरे उठाने की इजाजत बेहिचक दे देता है। दिल कहता है अभी तो मैं जवान हू। मुझे किसी चीज से डरने कि क्या जरूरत है।
मैं नयी चीजे करने से नही कतराता जब छोटा था आठ -नौ सीढिय़ा एक साथ कूदकर उतरने मे अपनी शान समझता था। इसके अलावा मैं ऐसी बहुत सी चीजे करके देखता हू। जिनमें मुझे चोट लगने का अंदेशा होता है। जितने ज्यादा खतरे उठाए है। उतना अधिक ही मैं चीजों को और दुनिया को समझ पाया हू। खतरे उठाने से मेरा मतलब है। नपे-तुले रिस्क के साथ नए काम करके देखना।
खैर खतरे उठाने वाले बहुत से काम हम सभी बचपन में करते थे। पेडों पर चढऩा, झाडियो में घुसना,अगांरो से खेलना, कुछ जोश में आकर हम खुद को खतरे में डालकर भी नया सीखतें है। जैसा कि मुझे क्रिकेट बहुत पसंद है। खेलना और भी अधिक मै ज्यादा बडा खिलाड़ी तो नही बना सका और नाही किसी रणजी,ईरानी ट्राफी का प्लेयर। पर मैरे गांव व आस-पास के क्षेत्रो में तो अपनी गिनती हमेशा शीर्ष में ही रही। बाऊंडरी पार जाती गेंद को फिसलकर गांव के मैदानों में पकडना अपने आपको जानबूझकर चलती गाडी से गिराने जैसा है। उस वक्त तो फिसलने से लगी चोटो का एहसास नही होता। क्योकि एक तो मेच जीतने का जोश दूसरा दर्शको का उत्साहवर्धन करना दिल मे जोश भर देता है। पर बाद में महसूस होता है कि ऐसा करके आफत मोल ले ली।
बड़े होने पर हमने ये सब करना बंद कर दिया। इसके पीछे कई कारण थे। सबसे बड़ी वजह तो यह थी कि हमे सिद्धांतत बहुत सी बाते समझ में आने लगी। इसलिए उन्हे आजमा कर परखने की जरूरत खत्म हो गई है। एक और अहम वजह यह भी रही कि हर चीज को करके देखने के लिए हमने जितने दर्द सहे उनके एवज में हमे कुछ कीमती चीज नही मिली नजीजतन हम अपना बचाव करना सीख गए।
इस सबसे एक नुकसान:- हम खुद को महफूज रखने में कामयाब रहे पर खतरे उठाने फायदे में रहे जिन व्यक्तियों ने यथास्थितिवाद को उचित माना उनकी दुनिया वही थम गयी। मुश्किल तो यह है। कि वे समझ ही नही पाते कि दूसरे उनसे आगे क्यू निकल गए। यहा मै स्पष्ट कर दू कि दूसरो से आगे निकलने के मेरे मापदंड कुछ अलग है। मैं उस व्यक्ति को दूसरो से आगे मानता हू जो हर पल कुछ न कुछ सीखता और आंतरिक विकास करता रहता है। दूसरो से ज्यादा कमाई करना या अधिक धन जुटा लेना आगे बढऩे या बड़ा होने का बड़ा लचर पैमाना है।
इस तरह मै अपनी दुनिया को हमेशा घूमती-डोलती देखना चाहता हू। मैँ अपनी नौका किनारे से खूटे से बंधी नही देख सकता किसी बडे आदमी कहा भी है कि नौकाए किनारे पर सबसे सुरक्षित होती है। पर नौकाओ को इसलिए नही बनाया जाता.............आप भी अपनी नौका को किनारे पर कूडा कचरा भरता नही देखना चाहेंगे।
एक महान दार्शनिक मुझे नाम सही से याद नही उसने कहा था कि हाथो कि उपस्थिति के कारण ही मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वाधिक बुद्धिमान है। चीजो को बेहतर तरीके से उठाने और थामने की हमारी योग्यता हमे अपने परिवेश में सबसे आगे रखती है। अपने अंगूठे और अंगुलियो की मदद से हम दाना चुनने से लेकर हथोडा पीटने जैसे काम बखूबी अजंाम देते है। और हमारा दिमाग इस तथ्य को जानता है। कि हमे कोनसा काम किस तरह करना है। अपने दिमाग को प्रशिक्षित करने के लिए हमे बचपन से ही विविधतापूर्ण काम करके देखने चाहिए।
कुछ भी नया करते समय भीतर से भय का स्वंर उठता है। इस भय का सामना करना किसी भी उम्र में सीखा जा सकता है। खुद के मन को यह बार-बार कहने की जरूरत है हॉ मुझे चोट लग सकती है। पर एक बार करे देखने में क्या हर्ज है। इसे करके देखना चाहिए। अपने मन में उस कार्य के लिए ऐसा सोचना चाहिए कि ये इतना मुश्किल भी नही लगता कि मै न कर सकू । करके देखते है ज्यादा से ज्यादा नाकामयाब ही तो रहेंगे।
मेरे परिवार के छोटे बच्चे ऐसे तो इनकी संख्या अधिक है। पर यहा में सिर्फ दो की चर्चा करना ठीक समझूंगा। क्यो कि यहा मैं जो बात स्पष्ट करना चाहता चाहता हू। उसके लिए ये दोनो एकदम सटीक उदाहरण है। मेरी भानजी धर्मष्ठिा (राधे),और मामा का लडका कान्हू। ये दोनो इनकी शैतानियों और चंचलता के कारण आए दिन अपने शरीर को कुछ न कुछ पीडा पहुचा ही लेते है। विशेषकर जब घर में कुछ मांगलिक कार्य या त्योहार के कारण अधिक लोग जमा हो जाते है। राधे कई बार लौ को छूने के चक्कर में अपनी अंगुलिया जला चुकी है। और आग आजमाने के मामले में कान्हू की तो चूल्हे में से जलती लकड़ी को पकडकर कई बार अपने हाथो को जला चुका है। ये दोनो तो दिन भर मे ऐसे कई कामों को अजांम देते है। और इन्हे चुप कराने में हमारी नानी याद आ जाती है। लेकिन आग से तो इन दोनो ने ऐसा सबक लिया की। राधे तो मोमबती/दिए/अगरबती से भी दूरी बनाकर चलती है।
बगाों को बिस्तर से नही गिरने देने के हर सभंव प्रयास करने के बाद अभी भी कोई न कोई टपक ही जाता हैं। एक मिनट का रोना फिर वही धमाचौकडी चालू। पहले तो मै इन सब चीजो बहुत घबरा जाता था। बात-बात पर मेरी दीदी को बोलता रहता आप राधे का खयाल नही रखते । पर अब जान गया हू कि गिरना-पडऩा,जलना उनकी विकासयात्रा का अनिवार्य चरण है। बस इनकी पुनरावृति न हो और हमेशा अहतियात बरता जाए। हम मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वाधिक तेजी से सीखते है। और अपनी गलती से सबक लेकर आगे बढता है। और जो गलतियों से सबक नही लेतें कभी आगे नही बढ़ पाते केवल मानसिकता ही हमे अक्सर पीछे धकेलती है। सभी गुणों में सीखना मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण है। ये ही सफल व्यक्ति को असफल से पृथक करता है। दफ्तर में चार सालो का अनुभव लेने के नाते में जानता हू जो व्यक्ति प्रयोगधर्मी होता है।
वह कार्यकुशल भी होता है। और अपने कार्य को बेहतर तरीके से व समय पर करता है। लेकिन अब इस मुद्दे पर बात बढाने पर विषय में अंतर आ जाएगा। तो सारी बातो का सार यह है कि नए प्रयोग और नयी चीजे करके देखते रहना हमे आगे ले जाता है। और यथास्थितिवादी बने रहना जड बना देता है।
तो लोटा लाइए अपने भीतर अपना बचपन जब आप जिज्ञासा एंव ऊर्जा से भरपूर थे। और कुछ नया देखने करने के लिए आपको ऐसे प्रेरक लेखो की जरूरत नही पडती थी !
ऐसा ही कुछ मैं भी बहुत सारी दूसरी चीजों के साथ भी करता हू। कई दफा पुराने दफ्तर कि लिफ्ट अटक जाने पर उसे ताकत लगाकर खोलता हू और दोनों तलो के बीच से निकलकर बाहर आ जाता हू। जानता हू ऐसे काम बेहद खतरनाक है। पर दिल बहुत से खतरे उठाने की इजाजत बेहिचक दे देता है। दिल कहता है अभी तो मैं जवान हू। मुझे किसी चीज से डरने कि क्या जरूरत है।
मैं नयी चीजे करने से नही कतराता जब छोटा था आठ -नौ सीढिय़ा एक साथ कूदकर उतरने मे अपनी शान समझता था। इसके अलावा मैं ऐसी बहुत सी चीजे करके देखता हू। जिनमें मुझे चोट लगने का अंदेशा होता है। जितने ज्यादा खतरे उठाए है। उतना अधिक ही मैं चीजों को और दुनिया को समझ पाया हू। खतरे उठाने से मेरा मतलब है। नपे-तुले रिस्क के साथ नए काम करके देखना।
खैर खतरे उठाने वाले बहुत से काम हम सभी बचपन में करते थे। पेडों पर चढऩा, झाडियो में घुसना,अगांरो से खेलना, कुछ जोश में आकर हम खुद को खतरे में डालकर भी नया सीखतें है। जैसा कि मुझे क्रिकेट बहुत पसंद है। खेलना और भी अधिक मै ज्यादा बडा खिलाड़ी तो नही बना सका और नाही किसी रणजी,ईरानी ट्राफी का प्लेयर। पर मैरे गांव व आस-पास के क्षेत्रो में तो अपनी गिनती हमेशा शीर्ष में ही रही। बाऊंडरी पार जाती गेंद को फिसलकर गांव के मैदानों में पकडना अपने आपको जानबूझकर चलती गाडी से गिराने जैसा है। उस वक्त तो फिसलने से लगी चोटो का एहसास नही होता। क्योकि एक तो मेच जीतने का जोश दूसरा दर्शको का उत्साहवर्धन करना दिल मे जोश भर देता है। पर बाद में महसूस होता है कि ऐसा करके आफत मोल ले ली।
बड़े होने पर हमने ये सब करना बंद कर दिया। इसके पीछे कई कारण थे। सबसे बड़ी वजह तो यह थी कि हमे सिद्धांतत बहुत सी बाते समझ में आने लगी। इसलिए उन्हे आजमा कर परखने की जरूरत खत्म हो गई है। एक और अहम वजह यह भी रही कि हर चीज को करके देखने के लिए हमने जितने दर्द सहे उनके एवज में हमे कुछ कीमती चीज नही मिली नजीजतन हम अपना बचाव करना सीख गए।
इस सबसे एक नुकसान:- हम खुद को महफूज रखने में कामयाब रहे पर खतरे उठाने फायदे में रहे जिन व्यक्तियों ने यथास्थितिवाद को उचित माना उनकी दुनिया वही थम गयी। मुश्किल तो यह है। कि वे समझ ही नही पाते कि दूसरे उनसे आगे क्यू निकल गए। यहा मै स्पष्ट कर दू कि दूसरो से आगे निकलने के मेरे मापदंड कुछ अलग है। मैं उस व्यक्ति को दूसरो से आगे मानता हू जो हर पल कुछ न कुछ सीखता और आंतरिक विकास करता रहता है। दूसरो से ज्यादा कमाई करना या अधिक धन जुटा लेना आगे बढऩे या बड़ा होने का बड़ा लचर पैमाना है।
इस तरह मै अपनी दुनिया को हमेशा घूमती-डोलती देखना चाहता हू। मैँ अपनी नौका किनारे से खूटे से बंधी नही देख सकता किसी बडे आदमी कहा भी है कि नौकाए किनारे पर सबसे सुरक्षित होती है। पर नौकाओ को इसलिए नही बनाया जाता.............आप भी अपनी नौका को किनारे पर कूडा कचरा भरता नही देखना चाहेंगे।
एक महान दार्शनिक मुझे नाम सही से याद नही उसने कहा था कि हाथो कि उपस्थिति के कारण ही मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वाधिक बुद्धिमान है। चीजो को बेहतर तरीके से उठाने और थामने की हमारी योग्यता हमे अपने परिवेश में सबसे आगे रखती है। अपने अंगूठे और अंगुलियो की मदद से हम दाना चुनने से लेकर हथोडा पीटने जैसे काम बखूबी अजंाम देते है। और हमारा दिमाग इस तथ्य को जानता है। कि हमे कोनसा काम किस तरह करना है। अपने दिमाग को प्रशिक्षित करने के लिए हमे बचपन से ही विविधतापूर्ण काम करके देखने चाहिए।
कुछ भी नया करते समय भीतर से भय का स्वंर उठता है। इस भय का सामना करना किसी भी उम्र में सीखा जा सकता है। खुद के मन को यह बार-बार कहने की जरूरत है हॉ मुझे चोट लग सकती है। पर एक बार करे देखने में क्या हर्ज है। इसे करके देखना चाहिए। अपने मन में उस कार्य के लिए ऐसा सोचना चाहिए कि ये इतना मुश्किल भी नही लगता कि मै न कर सकू । करके देखते है ज्यादा से ज्यादा नाकामयाब ही तो रहेंगे।
मेरे परिवार के छोटे बच्चे ऐसे तो इनकी संख्या अधिक है। पर यहा में सिर्फ दो की चर्चा करना ठीक समझूंगा। क्यो कि यहा मैं जो बात स्पष्ट करना चाहता चाहता हू। उसके लिए ये दोनो एकदम सटीक उदाहरण है। मेरी भानजी धर्मष्ठिा (राधे),और मामा का लडका कान्हू। ये दोनो इनकी शैतानियों और चंचलता के कारण आए दिन अपने शरीर को कुछ न कुछ पीडा पहुचा ही लेते है। विशेषकर जब घर में कुछ मांगलिक कार्य या त्योहार के कारण अधिक लोग जमा हो जाते है। राधे कई बार लौ को छूने के चक्कर में अपनी अंगुलिया जला चुकी है। और आग आजमाने के मामले में कान्हू की तो चूल्हे में से जलती लकड़ी को पकडकर कई बार अपने हाथो को जला चुका है। ये दोनो तो दिन भर मे ऐसे कई कामों को अजांम देते है। और इन्हे चुप कराने में हमारी नानी याद आ जाती है। लेकिन आग से तो इन दोनो ने ऐसा सबक लिया की। राधे तो मोमबती/दिए/अगरबती से भी दूरी बनाकर चलती है।
बगाों को बिस्तर से नही गिरने देने के हर सभंव प्रयास करने के बाद अभी भी कोई न कोई टपक ही जाता हैं। एक मिनट का रोना फिर वही धमाचौकडी चालू। पहले तो मै इन सब चीजो बहुत घबरा जाता था। बात-बात पर मेरी दीदी को बोलता रहता आप राधे का खयाल नही रखते । पर अब जान गया हू कि गिरना-पडऩा,जलना उनकी विकासयात्रा का अनिवार्य चरण है। बस इनकी पुनरावृति न हो और हमेशा अहतियात बरता जाए। हम मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वाधिक तेजी से सीखते है। और अपनी गलती से सबक लेकर आगे बढता है। और जो गलतियों से सबक नही लेतें कभी आगे नही बढ़ पाते केवल मानसिकता ही हमे अक्सर पीछे धकेलती है। सभी गुणों में सीखना मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण है। ये ही सफल व्यक्ति को असफल से पृथक करता है। दफ्तर में चार सालो का अनुभव लेने के नाते में जानता हू जो व्यक्ति प्रयोगधर्मी होता है।
वह कार्यकुशल भी होता है। और अपने कार्य को बेहतर तरीके से व समय पर करता है। लेकिन अब इस मुद्दे पर बात बढाने पर विषय में अंतर आ जाएगा। तो सारी बातो का सार यह है कि नए प्रयोग और नयी चीजे करके देखते रहना हमे आगे ले जाता है। और यथास्थितिवादी बने रहना जड बना देता है।
तो लोटा लाइए अपने भीतर अपना बचपन जब आप जिज्ञासा एंव ऊर्जा से भरपूर थे। और कुछ नया देखने करने के लिए आपको ऐसे प्रेरक लेखो की जरूरत नही पडती थी !
भगवान बुद्ध ने कहा "पहला पत्थर वो मरे जिसने पाप न किया हो " इस संसार में कोई ऐसा व्यक्ति
नहीं है ,जो पापी न हो यदि हम सब सही करते तो हम इश्वर होते इसलिए , गलतियों पर रोना मत सीखो...गलतिया सीख देती है ,गलतियों को सुधारना सीखो , गिरने और उठने वाले की ही जीत होती है !
नहीं है ,जो पापी न हो यदि हम सब सही करते तो हम इश्वर होते इसलिए , गलतियों पर रोना मत सीखो...गलतिया सीख देती है ,गलतियों को सुधारना सीखो , गिरने और उठने वाले की ही जीत होती है !
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