शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

ब्राह्मणवाद के नाम पर ब्राह्मणो का बिरोध क्यों ?

‘ब्राह्मण’ आज के समय में एक ऐसा विषय हैं जिनका वर्णन धरती के सबसे खतरनाक खलनायकों में से किया जाता है.  ऐसे दौर में जब पैसा ‘सुप्रीम गॉड’ बन चुका है और इज्जत-सम्मान सिर्फ उसी व्यक्ति को मिलता है जिसके पास पैसा होता है. उस दौर में भी अगर कुछ लोग कपोल-कल्पित इतिहास पर छाती पीटते हों और खुद को शोषित-पिछड़ा मानकर खुद की बेहतरी के लिए कुछ करने के बजाय किसी दूसरे को गिराने में अपनी ऊर्जा खपा रहे हों तो ऐसे में इसका पता लगाना बेहद आवश्यक हो जाता है कि, उन्हें भटकाया किसने है और इसके पीछे उनकी मंशा क्या है.! 

अगर एक झूठ सौ बार बोला जाय तो वह सत्य सिद्ध हो जाता है 

प्रोपोगंडा में बहुत ताकत होती है, यह किसी के भी सोच विचार बदलने का एक ताकतवर हथियार है. लगभग 150 वर्ष पूर्व ब्राह्मणों के विरुद्ध ग्लोबल माफियाओं द्वारा शुरू किया गया प्रोपोगंडा वर्तमान में एक मिशन सा बन चुका है. राजनीतिक पार्टियाँ के नेता व उनके समर्थक हों या फिर अमेरिका यूरोप में बैठे माफियाओं के चंदे पर पलने वाले एनजीओ या फिर भारत के कुंठाग्रस्त बुद्धिजीवियों से प्रभावित युवा लगभग हर तरफ से ब्राह्मणों के खिलाफ ऐसा भड़काऊ माहौल तैयार किया जा रहा है जैसे दोनों वर्ल्ड वॉर उन्हीं की वजह से हुए थे और हिटलर-स्टालिन-माओ, ब्रिटेन, अमेरिका ने दुनिया भर में जितने कत्लेआम किये सब ब्राह्मणों की वजह से ही किये थे. प्रोपोगंडा में बहुत ताकत होती है, यह किसी के भी सोच विचार बदलने का एक ताकतवर हथियार है.!
एंटी ब्राह्मण माहौल बनाने के लिए तथाकथित दलित-पिछड़े एवं नेताओं-पत्रकारों का ब्राह्मण विरोध तो मात्र एक मुखौटा भर है, ब्राह्मण विरोध के पीछे के मास्टरमाइंड कहीं और ही बैठे हैं. हर किसी को यह बात अवश्य समझ लेनी चाहिए, ये युग पैसे का है जिसके पास जितना पैसा है उसकी आवाज उतनी ही तेजी से सुनी जाती है. ऐसा ही कुछ एंटी ब्राह्मण माहौल बना रहे लोगों के साथ है जिन्हें भारत को तोड़ने का सपना देखने वाली ताकतें अकूत धन उपलब्ध करवाया करती हैं. यह समझने की आवश्यकता है, आखिर ब्राह्मणों ने ऐसी कौन सी गलतियाँ की थीं जिनके चलते आज उनके अस्तित्व को मिटाने की बातें हो रही हैं.!

समझते हैं उन कारणों के बारे में जिसके चलते कुछ ताकतें धरती से ब्राह्मणों का सफाया चाहती हैं :

ब्राह्मण और मानव जगत दोनों ही एक दूसरे के बिना अधूरे रहे हैं. ब्राह्मण शब्द का मानव जाति से वही संबंध है जो जल का प्रकृति से अर्थात एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती. ऐसा नहीं है कि, प्रकृति में सिर्फ जल ही सर्वश्रेष्ठ है या मानवों में सिर्फ ब्राह्मण ही सर्वश्रेष्ठ हैं. ना कोई नीचा है और ना कोई ऊंचा बल्कि सभी का अपना-अपना महत्त्व है.!

प्राणी जीवन के दो द्वार हैं एक जीवन और एक मृत्यु, एक आदर्श सभ्यता वही है जो इसके बीच के मार्ग को सरल कर दे

ऋषियों और ब्राह्मणों द्वारा निर्मित भारतीय सभ्यता धरती की सर्वश्रेष्ठ सभ्यता थी और भारतीयों द्वारा बनाई व्यवस्था धरती की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था. इसमें कोई राकेट साइंस नहीं था बल्कि इसे समझना उतना ही सरल है जितनी सरल हमारी ये सभ्यता थी. इस व्यवस्था में मनुष्य का जीवन कितनी आसानी से गुजर जाय इसपर जोर दिया जाता था. आज की कथित प्रगतिशील व्यवस्था में प्राणी जगत का क्या हाल है ये हर कोई जानता है. लोगों को अपने जीवन से घुटन सी होने लगी है, अपनी मूलभूत जरूरत की चीजें पाने के लिए लोग क्या क्या नहीं कर रहे. तथाकथित प्रगतिशील लोगों द्वारा धरती का कबाड़ा हो चुका है और अब मंगल ग्रह पर रहने के लिए प्लाट तलाशे जा रहे हैं.!
इस दानवी व्यवस्था को बिचौलियों की व्यवस्था कहा जाय तो गलत नहीं होगा. आज हर एक कदम पर बिचौलिए हैं जिनसे पार पाए बिना जीना मुश्किल है. तथाकथित प्रगतिशीलत बनने और विज्ञान द्वारा चीजें आसान बनाने के नाम पर मानव जीवन को और भी जटिल बना दिया गया है. खाने-पानी से लेकर हवा और जमीन तक हर चीज पर बिचौलियों का कब्जा है. इंसान को कुछ भी प्राप्त करने के लिए पहले कहीं से कागज के टुकड़े जुटाने पड़ते हैं तभी वह कुछ प्राप्त कर सकता है. धरती पर राज करने का सपना देखने वाले कुछ ग्लोबल माफियाओं ने धरती पर ऐसा सिस्टम थोपा जिससे पूरा मानव जगत उनका गुलाम हो गया. समस्या यह नहीं है कि मानव जगत गुलाम है, समस्या यह है कि, इसका उन्हें आभास तक नहीं है. अब अगर इस दानवी व्यवस्था की राह में टाँगे अड़ाने वाला कोई बचा है तो वह है भारत का ब्राह्मण समुदाय. जो पिछले हजारों वर्षों से दानवों और उनकी व्यवस्था के खिलाफ ना ही मात्र लड़ता रहा है बल्कि लोगों को भी शिक्षित कर उनके खिलाफ खड़ा करता रहा है. इसीलिये आवश्यक है कि, पहले इन्हें खत्म किया जाय.!

शैतानी व्यवस्थाओं में सबसे बड़ा रोड़ा हैं ब्राह्मण 

ब्राह्मण हजारों वर्षों से अध्यापक समुदाय (Teacher Community) रहा है, जिसका कार्य हमेशा से ही मानव समाज को सुशिक्षित करना, जागृत करना और उन्हें बेहतर बनाना रहा है वो भी बिना किसी से एक रुपया फीस मांगे. मानव-मूल्य क्या होते हैं, धरती पर हर एक प्राणी की कीमत क्या है ये ज्ञान ब्राह्मणों ने भारतीय समाज को दिया था. आज के समय में लोग अपने बच्चों को हजारों लाखों की फीस देकर पढ़ाते हैं फिर वही बच्चे अपने माँ बाप को लात मार देते हैं. सामाजिक जीवन जीने वाले भारतीयों को एकाकी सभ्यता में जीना सिखाया जा रहा है. भारतीयों ने जो आपसी विश्वास पर आधारित समाज और व्यवस्थाएं बनाई थीं आजकल वह आई कार्ड में सिमट के रह गयी है. ऐसा पहले पश्चिम में था अब वही कु-संस्कृति भारत में स्थापित हो गयी है. हैरानी होती है जानकर इसे मानव सभ्यता आजकल प्रगतिशील होना कहती है.!
जब दुनिया के अन्य हिस्सों में लोग कबीलाई जीवन जीते थे और उनके जीवन का एक ही ध्येय पेट भरना और बच्चे पैदा करना था. तब ब्राह्मणों के नेर्तित्त्व में भारतीयों ने एक उच्चकोटि की सभ्यता विकसित कर ली थी. ना ही मात्र दुनिया की सबसे पहली पुस्तक ऋग्वेद भारत में लिखी गयी थी बल्कि सुश्रुत संहिता, चरक संहिता और पतंजलि योग सूत्र जैसी उच्च कोटि की पुस्तकें भारत में हजारों वर्षों पहले लिखी जा चुकी थीं. ब्राह्मणों का सृष्टि की शुरुआत से ही एक ही मिशन रहा था धरती को कैसे सभ्य समाज के रहने लायक एवं बेहतर से बेहतर बनाया जा सके. यही कारण था की उन्होंने सामाजिक जीवन में संतुलन बनाये रखने के लिए समाज में कई नियमों का निर्माण किया और उनका पालन समाज किस तरह करे इसके उपाय भी किये थे.!

छात्र को विद्या देने के लिए और बीमार व्यक्ति से इलाज के लिए पैसे वसूलने से बड़ा अपराध धरती पर कोई और नहीं है, ये व्यवस्था ही धरती पर हर एक भ्रष्टाचार की जननी है 

ब्राह्मणों को मिटाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि वर्तमान में जो शैतानी सिस्टम दुनिया पर थोपा गया है और हर चीज बिकाऊ बना दी गयी है. ये सब ब्राह्मणिक ढाँचे में फिट नहीं बैठती हैं. ब्राह्मण ऐसी व्यवस्था के हमेशा से विरोधी रहे थे. चाहे वह छात्रों से पैसे वसूल कर उन्हें शिक्षा देना हो. बेड पर लेटे बीमार व्यक्ति से पैसे वसूलना हो. दूध-दही-अनाज और यहाँ तक कि, जल, मिटटी और हवा भी बेंचने का धंधा चल पड़ा है. न्याय व्यवस्था जैसी चीज को भी बिकाऊ बना दिया गया है. बिना पैसे और किसी बिचौलिए के न्याय तो दूर लोगों की सुनवाई भी नहीं हो सकती. मानव जीवन से जुड़ा हर एक पहलू आज पैसे पर जाकर अटकता है. आज इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है कि, इंसान पैसे कमाने के लिए पैदा होता है या अन्य प्राणियों की तरह जीने के लिए.!
ग्लोबल माफियाओं ने हर देश में सेंट्रल बैंक बनाकर धरती को अपनी करेंसी और मुद्रा प्रणाली द्वारा कंट्रोल कर लिया है. 20वीं सदी में उन्होंने हर देश से राजतंत्र जैसी प्राकृतिक व्यवस्था हटाने की शुरुआत की थी और सभी देशों पर जबरन शैतानी लोकतंत्र थोप दिया ताकि बिचौलियों के माध्यम से वो दुनिया पर शासन कर सकें. जो तानशाही से भी खतरनाक शासन प्रणाली है. तानाशाही और लोकतंत्र में सिर्फ इतना फर्क है कि, तानाशाही प्रत्यक्ष होती है और लोकतंत्र में तानाशाही चुनाव जीतने के बाद होती है. तानाशाही में जनता को कम से कम आभास होता है कि, वह तानाशाही झेल रही है लेकिन लोकतंत्र में उसे तमाम प्रोपोगंडाओं के माध्यम से उसे विश्वास दिलाया जाता है कि, वह एक बेहतर सिस्टम में जी रहे हैं जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं. ब्राह्मणों ने धरती के लिए जो सिस्टम बनाया था उनमें इन सब शोषणकारी चीजें कहीं नहीं थीं. चूँकि ब्राह्मणों की सलाह और देखरेख में ही भारत शासित होता था इसलिए आवश्यक है कि, उन्हें इतना बदनाम कर दिया जाय जिससे उन्हें शासन से दूर रखने में कोई समस्या ना आये.!

राज-काज को लेकर एक पुरानी कहावत है जिसके अनुसार, अगर किसी राष्ट्र की राजव्यवस्था के बारे में जानना है तो आप वहां के राजा को नहीं बल्कि उस राजा के सलाहकारों को देखो 

ब्राह्मणिक सामाजिक व्यवस्था में ठगों लुटेरों की कोई जगह नहीं 

पश्चिम के सामाजिक जीवन में सिर्फ मनुष्यों की गिनती होती है किसी अन्य की नहीं जबकि भारत का सामजिक ढांचा मात्र मानव जीवन तक ही नहीं सीमित था बल्कि उसमें प्रकृति, पेड़-पशु-पक्षी एवं पूरा ब्रह्मांड आता था जिनके संरक्षण और सम्मान की बातें वेदों में भी लिखी हैं. ब्राह्मणों ने हर उस चीज के संरक्षण पर बल दिया जो कि, प्राकृतिक संतुलन और मानव जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक थे.! पश्चिमी जगत हमेशा से ही ठग और लुटेरा समुदाय रहा है उन्हें जहाँ मौका मिला वहां उन्होंने लोगों को ठगा. रूस के लोग आज भी ब्रिटेन को ठग-लुटेरा और अंग्रेजी भाषा को चोर-लुटेरों की भाषा बोलते हैं. आज की समाज व्यवस्था कुछ ऐसी है लोग चाहे जितना बड़ा अपराध कर लें वह कभी सुधर नही सकते क्योंकि ये समाज व्यवस्था कुकर्मियों को सजा नहीं देती बल्कि उनका संरक्षण करती है. आजकल अपराधी युवाओं के आदर्श होते हैं. चोरों-लुटेरों और हत्यारों के भी गुरु होने लगे हैं. जबकि भारतीय समाज व्यवस्था कुछ ऐसी थी जहाँ अपराध तो दूर लोग इसके बारे में सोच भी नहीं सकते थे. यदि कोई सामाजिक नियम तोड़ता भी था तो उसे समाज ऐसा बहिष्कृत करता था जो ना जीने लायक होता था ना मरने लायक.!
आज ये देखना बेहद आश्चर्यजनक है, प्रकृति का दोहन करने वाले, धरती की हर एक चीज को अपने उपभोग की वस्तु मानने वाले, मानव समाज को नस्लों में बांटने वाले, मनुष्यों को इस धर्म उस धर्म में विभाजित करने वाले, धरती पर बॉर्डर की रेखाएं खींचने वाले, वीजा पासपोर्ट जैसा वाहियात सिस्टम लगाकर मानव समाज को एक राष्ट्रीयता में समेट देने वाले, न्याय व्यवस्था के नाम पर बिचौलियों की व्यवस्था लादने वाले लोग अरबों रूपये की फंडिंग करके उन ब्राह्मणों के विरुद्ध मिशन चलवा रहे हैं जिन्होंने मानव सभ्यता को आदर्श तरीके से जीना सिखाया था.!

एक पुरानी रणनीति रही है, आप अगर अपने विरोधी की बराबरी ना कर सको तो उसे बदनाम कर दो. इस तरह से ना ही मात्र आप उससे ऊपर आ जाओगे बल्कि अगले की विश्वसनीयता भी खत्म हो जायेगी.... 

जब भी अन्याय और अधर्म बढ़ा है ब्राह्मण ना ही मात्र पूरे समाज को लेकर हमेशा उसके खिलाफ खड़े हुए हैं बल्कि उन्होंने समय-समय पर उसका सफाया भी किया है. इसलिए भविष्य में ऐसा फिर कभी ना होने पाए इसके लिए आवश्यक था कि, उनका सफाया कर दिया जाय. भारत ने कभी किसी सभ्यता पर हमला नहीं किया लेकिन दुनिया के हर एक कोने से आक्रमणकारी भारत पर हमला करते रहे लेकिन वो कभी भी इस सभ्यता को मिटा नहीं पाए. ग्लोबल माफियाओं के मजदूर ब्रिटिश जब भारत आये तब उन्होंने अनुभव किया कि, भारतीयों से युद्ध में पार पाना संभव नहीं है इसलिए उन्होंने छल-प्रपंच और भारतीयों को बांटने की नीति अपनाई जिससे वे लंबे समय तो इस महान राष्ट्र को लूट सकें. उन्होंने भारतीय शिक्षा व्यवस्था, शासन व्यवस्था, समाज व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था को कंट्रोल करके भारत को छिन्न-भिन्न कर दिया जिससे भारतीय अपनी जड़ों से कट जाएँ.!
पश्चिमी लुटेरों के इतने जतन के बावजूद भी भारत पर उनका कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा. क्योंकि भारत में ब्राह्मण थे जो बेहद ही मोटी चमड़ी के होते हैं और थोड़े समय बाद पुनः भारतीयों को भारतीय ढाँचे में ढालने की कला में वो हजारों वर्षों से पारंगत रहे हैं. यही कारण था, इस बार ऐसा मिशन चलाया गया जिससे भारतीयों से ही ब्राह्मणों का खात्मा करवाया जा सके. ग्लोबल माफियाओं की इस व्यवस्था को अगर किसी से सबसे ज्यादा खतरा है तो ब्राह्मणों से इसलिए उन्होंने एक सोची-समझी साजिश के तहत ब्राह्मणों के विरुद्ध प्रोपोगेन्डा करना शुरू कर दिया. उन्होंने उन्हीं लोगों को ब्राह्मणों के विरुद्ध भड़काना आरंभ कर दिया जो भारतीय सभ्यता का एक प्रमुख अंग थे.!

''युद्ध की यह एक पुरानी रणनीति रही है, किसी किले को बाहरी दुश्मन उतनी आसानी से नहीं ढहा पाते जितनी जल्दी उसे किले के अंदर वाले ढहा डालते हैं, इसी रणनीति के तहत भारतीय समाज में ही विभाजन की रेखाएं खींच दी गयीं. प्रत्यक्ष युद्ध में ना जीत पाए इसलिए भारतीय समाज में फूट डालकर भारत को जीतने की साजिश ''

ब्रिटिशों के आने से पहले भारत में कभी कोई जाति प्रथा नहीं थी और ना ही जाति प्रथा जैसी किसी चीज का जिक्र हमारे किसी प्राचीन ग्रंथ या एतिहासिक पुस्तकों में मिलता है. यहाँ तक कि, भारत और भारतीय संस्कृति पर लिखने वाले फाह्यान, ह्वेनसांग, अलबरूनी, मेगास्थनीज और टॉलमी जैसे विदेशी इतिहासकारों ने भारत में जाति व्यवस्था जैसी चीज  का कोई जिक्र किया है. ब्राह्मणों द्वारा किसी का शोषण तो दूर की बात भारत में सामुदायिक नफरत का कभी कोई इतिहास नहीं रहा. भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अध्ययन करने आये सभी विदेशी यात्रियों ने एक भी ऐसा कोई तथ्य नहीं दिया जो यह प्रमाणित कर सके कि, भारतीय समाज में किसी प्रकार की कोई असमानता थी..

भारतीय समाज में जातियां नहीं ज्ञातियाँ थीं. ज्ञातियाँ अर्थात जिन्हें जिस क्षेत्र का ज्ञान हो : शिक्षक, पुरोहित, योद्धा, व्यापारी, किसान, ग्वाल, लोहार, कुम्हार, सुनार, चर्मकार, नाई इसी तरह भारत में कई सारी ज्ञातियाँ थीं. जो जिस क्षेत्र के ज्ञाता थे वे अपनी ज्ञातियों के अनुसार विभाजित थे, कोई भी व्यक्ति भारत में जाति के हिसाब से नहीं बल्कि ज्ञाति के हिसाब से जाना जाता था. जाति शब्द वास्तव में ज्ञाति का ही अपभ्रंश है जिसे जानबूझकर ग्लोबल माफियाओं ने अपने भाड़े के विद्वानों से स्थापित करवाया.

 ब्राह्मण वर्ग में शिक्षक ज्ञाति के साथ ही पुरोहित भी हुआ करते थे अर्थात पर+हित, अर्थात ऐसे लोग जिनका कार्य ही दूसरों के हित के लिए सोचना था. मानवों के हित के लिए, समाज के हित के लिए, प्रकृति के हित के लिए, यहाँ तक कि पशु पक्षियों के हित से लेकर नदी-तालाबों और पेड़-पालवों का का भी हित. आज जिस बराबरी (Equality) और शोषक व्यवस्था का ढोल पीटा जाता है अगर किसी ने सभी के हित का ध्यान रखते हुए समाज के लिए आदर्श व्यवस्था का निर्माण किया था तो वो भारतीय समाज का ब्राह्मण वर्ग था. जिन्होंने हर किसी का काम बाँट दिया था. लोग सिर्फ वही करते थे जो वो सबसे अच्छी तरह से कर पाते थे.
हर एक मनुष्य की छमता को देखते हुए ऐसी ही व्यवस्था के लिये हमारे पूर्वजों ने 4 वर्ण बनाये थे. ये सामाजिक नियम ब्राह्मणों ने नहीं बल्कि मानव समाज ने बनाये थे, ब्राह्मण भी इस व्यवस्था का हिस्सा थे जो समाज द्वारा खड़े किये गये थे. उनका पोषण भी समाज ही करता था. सोचने-विचारने और निर्णय लेने के अन्य की अपेक्षा ब्राह्मण वर्ग ज्यादा बेहतर तरीके से कर सकता था इसलिए उन्हें समाज ने इस जिम्मेदारी के लिए चुना था.

M.A. Sherring (Matthew Atmore Sherring 1826–1880) नामक एक ईसाई पादरी का इस कार्य में महत्त्वपूर्ण रोल रहा था. उसने भारतीय समाज को जातियों अर्थात कास्ट में बांटने के लिए एक किताब लिखी थी Hindu Tribes and Castes (इस लिंक पर क्लिक कर आप ये पुस्तक पढ़ सकते हैं) इसके जरिये ग्लोबल माफियाओं ने ईसाई मिशनरियों के साथ मिलकर भारतीय समाज को कई धड़ों में बांटने की स्क्रिप्ट तैयार करवाई थी जो कि अब जाकर परवान चढ़ रही है. मैक्समूलर भी ऐसा ही भाड़े पर हायर किया गया इंडोलोजिस्ट था जिसने बाद में यह स्वीकार भी किया कि, उसे ब्रिटिश एम्पायर द्वारा भारतीय धर्म ग्रंथो को विकृत करने के लिए हायर नौकरी पर रखा गया था.!

मनुस्मृति जैसे महान ग्रंथ को भी ब्रिटिश काल में ही दूषित किया गया. इसके पहले इतिहास में कभी मनुस्मृति को लेकर कोई शिकायत नहीं मिलती. 18-1900 से पहले के साहित्यों में मनुस्मृति के खिलाफ एक भी शब्द कहीं देखने को नहीं मिलेगा. बल्कि मनुस्मृति की महिमा का बखान कई देशों के विद्वानों ने किया है. चूँकि मनुस्मृति ही वह विधान था जिससे भारतीय समाज चलता था इसलिए भारत के दुश्मनों ने सबसे ज्यादा इस ग्रंथ को ही बदनाम किया. जितने भी तथाकथित भारतीय समाज सुधारकों ने मनुस्मृति की निंदा की या उन्हें जलाया वास्तव में उन्हें मनुस्मृति का लेश मात्र भी ज्ञान ना था. उन्होंने मनुस्मृति की जगह यूरोपियनों की प्रोपोगंडा-स्मृति पढी थी.! 

भारत को ईसाई देश ना बना पाने की कुंठा......

ईसाईयों में उनके जन्म के समय से ही एक हवस रही है, पूरी दुनिया को ईसाईयत में बदलने की. इसमें उन्हें एक अलग ही चरमसुख की प्राप्ति होती है. मिशनरियों ने पहले यूरोप में पागन धर्म को मानने वाले यूरोपियनों को ईसाईयत में धर्मांतरित किया फिर यही मिशन उनका उत्तर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और एशिया में चला. लगभग हर जगह उन्हें मनचाही सफलता मिली और उन्होंने सफलतापूर्वक देश के देश ईसाई बना डाले. लेकिन भारत में वे ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि यहाँ उनका मुकाबला ब्राह्मणों से था ईसाई मिशनरियां और यूरोपीय लुटेरे एक बेहद संगठित गिरोह की तरह काम करते रहे हैं. जहाँ-जहाँ यूरोपीय लुटेरे लूट-मार करने के लिए जाते थे वहां पीछे-पीछे ईसाई मिशनरियां अपनी दूकान लेकर पहुंच जाती थीं. लुटे-पिटे परेशान लोग दुनिया के लिए समस्या हैं लेकिन वे ईसाई मिशनरियों के लिए एक मौका होते हैं. विपदाग्रस्त स्थलों में मिशनरियों की दुकान सबसे अच्छी चलती है.! 

दुनिया के किसी भी कोने में (गैर ईसाई) जब कोई आपदा आती है तो वहां राहत बाद में पहुंचती हैं, अपनी दुकानें लेकर ईसाई मिशनरियाँ वहां पहले पहुंचती हैं...... 

भारत में ईसाई मिशनरियों को अपनी असफलता का कारण उसी समय पता चल गया था जब पुर्तगाली शैतान जेवियर्स (वही सेंट जेवियर जिसके नाम पर भारत में हजारों स्कूल कालेज हैं) गोवा में धर्मांतरण और लूटमार के लिए पहुंचा था. ब्राह्मण हमेशा से ही ईसाई मिशनरियों की राह में बड़ा रोड़ा रहे हैं. ब्रिटिशों ने भारत में जानबूझकर कई बार अकाल को जन्म दिया. जिसमें करोड़ों भारतीय मारे गये. सिर्फ बंगाल क्षेत्र में ही 1 करोड़ के लगभग भारतीयों का अकाल में सफाया हो गया. इस तबाही में ईसाई मिशनरियों ने गिद्धों की तरह हर मौके को लपकने की कोशिश की और भूखे लोगों को अनाज देने के नाम पर जमकर धर्मान्तरित किया. लेकिन फिर भी ईसाई मिशनरियों को वो सफलता कभी नहीं मिल पाई जिसकी उन्हें अपेक्षा थी.धर्मांतरण के लिए भारत आयीं ईसाई मिशनरियों ने वेटिकन को कई पत्र लिखे थे जिसमें उन्होंने भारत में ईसाईयत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा ब्राह्मणों को बताया था. ईसाई मिशनरियों के अनुसार, ब्राह्मणों की सामाजिक व्यवस्था के चलते हिन्दुओं को ईसाईयत में ढाल पाना असंभव है.ईसाई मिशनरियों से ऐसे इनपुट मिलने के बाद वेटिकन और Jesuit जैसे ईसाई संगठनों ने रणनीति तैयार की है कि, सबसे पहले ब्राह्मणों को बदनाम कर भारतीय समाज से उनकी उपयोगिता समाप्त की जाय. इसके पश्चात ही उनका ईसाईयत मिशन भारत में सफल हो पायेगा. वर्तमान में भारत में चल रहे ब्राह्मण विरोध का कारण ईसाईयत मिशन ही है. अगर आप ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि, भारतीय व्यवस्थाओं को सिरे से नकारने और यूरोपीय व्यवस्थाओं को अपनाने में भारत का वह तबका बहुत आगे है जिसने यूरोपीय माध्यम से अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षा पायी है.

भारत का अंग्रेजी मीडिया भारत और भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ ही ब्राह्मणों का कट्टर विरोधी है तो उसका यही कारण है..... 

आज यह एक रिसर्च का विषय है कि, ईसाई मिशनरियों में गैर ईसाईयों को ईसाईयत में ढालने की इतनी हवस क्यों है ? आखिर कौन सा आनंद मिलता है उन्हें ? आज जब हर वर्ग अपनी बेहतरी के लिए पसीना बहाने में व्यस्त है ऐसे में बर्बर ईसाई मिशनरियाँ आज भी धर्म परिवर्तन जैसी मध्ययुगीन सोच अपनाये हुए हैं. दुनिया बदल गयी लेकिन ईसाई मिशनरियां आज भी अपनी सोच बदलने को नहीं तैयार.! 

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य को गाली देना आसान है पर बनना कठिन है !

ढाई इंच की चमड़े की लचीली ज़ुबान से ब्राह्मणो ठाकुरो वैश्यों और वर्णव्यवस्था को गाली देने में कत्तई मेहनत नहीं लगती, कोई भी दे सकता है। लेकिन मेहनत लगती है 2500 वर्षो के इतिहास का सही अवलोकन करने में जो कोई करना नहीं चाहता।
मैं भली भाँति जनता हूँ की 25-30 से ज्यादा लोग इस लेख को पूरा पढ़ेंगे भी नहीं ,न ही मेरे इस लेख से कोई वैचारिक क्रांति ही आएगी, न ही हिन्दू लड़ना छोड़ेंगे और न ही एक भी "जय भीम"कहने वाला अपनी सोच बदल लेगा। लेकिन जो लोग जानकारी के आभाव में जब कट्टर वर्णव्यवस्था के कारण अपराधबोध से ग्रस्त अपने आपको तर्कहीन महसूस करते हैं, वे इसे अंत तक जरूर पढ़ें। इस लेख को मेरे ब्राह्मण होने से ब्राह्मणों की वकालत न समझ कर,सिर्फ हिन्दुओं की गलतफहमी और आपसी मतभेद दूर करने के नज़रिये से बिना किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो कर पढ़ें तथा मनन करें की एक पक्षीय और अधूरे इतिहास को पढ़ाने का ही नतीजा है आज हिन्दू समाज में फैली हुई वैमनस्यता तथा मतान्तर।
लेख बहुत लम्बा और बोरिंग न हो जाये इसलिए बहुत संक्षेप में लिखने का प्रयत्न करूँगा ,तथा इतिहास की कुछ पुस्तकों एवं लिंक के नाम भी लेख के बीच में दे रहा हूं , जिन्हे कोई शक शुबा हो वे उन पुस्तकों एवं लिंक का अध्ययन करके अपना मत निर्धारित कर सकते हैं।
पिछले चार दिनों में एक साथ निम्न चार वाक्यों ने मुझे आज लिखने के लिए मजबूर कर दिया ----------
जय भीम -जय मीम , इस नारे के साथ 100 यू पी की सीटों पर चुनाव लड़ेंगे ओवैसी। ( टाइम्स ऑफ़ इंडिया -3 फरवरी)
चलो हिन्दू धर्म और धर्म ग्रंथो को छोड़ कर नास्तिक हो जाएँ। (फेसबुक पर एक पोस्ट)
कल फेसबुक पर मेरे एक कमेंट के जवाब में यह प्रतिउत्तर आना ---"क्या कमाल है वीदेशी लोग बता रहे है ' जय भारत ' पहले आना चाहीये" ।
या जब कभी मैं जाति प्रथा की कट्टरता के लिए मात्र दो पक्षों को कटघरे में खड़ा पता हूँ और फिर हिन्दुओं को आपस में फेसबुक या ज़मीन पर लड़ता हुआ पता हूँ तो मन कराह उठता है ,कि हम लोगों ने 1500 वर्षों की शारीरिक गुलामी ही नहीं की बल्कि इतने कट्टर मानसिक गुलाम हो गए की जहाँ वो अकबर तो महान हो गया जिसके राज में 500000 लोगों को गुलाम बना मुसलमान बना दिया , लेकिन उसने अपनी सत्ता न मनाने वाले चित्तौड़गढ़ के 38000 राजपूतों को कटवा दिया था , उस का महिमामंडन करने के लिए एकतरफा चलचित्र भी बने ,ग्रन्थ भी लिखे गए और सीरियल भी बने लेकिन महाराणा प्रताप,गुरु गोबिंद सिंह जी ,गुरु तेग बहादुर , रानी लक्ष्मी बाई को दो पन्नो में समेट दिया गया और पन्ना धाय को बिलकुल ही विस्मृत कर दिया गया। इसका सबसे ताजातरीन उदाहरण है, कुछ माह पहले रिलीज हुई फिल्म "हैदर" - - 25 साल के सैन्य बलों के कश्मीर में बलिदान को ढ़ाई घंटे की फिल्म में धो कर रख दिया, और कहीं यह नहीं बताया कि सिर्फ 50 सालों में कश्मीर घाटी के 10 लाख हिंदू 3000 के अंदर कैसे सिमट गये, उर्दू राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के पूर्व मुख्य सम्पादक "अजीज बर्नी" ने कसाब के पकड़े जाने के बाद एक पुस्तक लिखी "RSS का षड्यंत्र" , जिसका विमोचन कांग्रेस के उपाध्यक्ष "दिग्विजय सिंह" ने किया था, उस पुस्तक के अनुसार 26/11 का मुम्बई हमला RSS ने करवाया था। अगर इसी पुस्तक को राज संरक्षण प्राप्त हो जाये और स्कूलों में पढ़ाई जाने लगे तो 50 साल बाद RSS को सफाई देनी मुश्किल पड़ जायेगी। स्कूली किताबों से इस इतिहास को कैसे हटाया गया यह जानने के लिए "NCERT controversy",and keywords like that Google search कर लें।
सबसे अहम बात यह है कि यह इतिहास लिखा किसने ??? भारत के सबसे बुजुर्ग इतिहासकार "राजेन्द्र लाल मित्रा 1822 में पैदा हुए थे। 1880 के दशक तथा 1900 दशक में पहली बार वैज्ञानिक विधि से इतिहास का अवलोकन किया जाये इस पर चर्चा हुई थी। 1899 में रबिन्द्र नाथ टैगोर पहली बार "भारती " नाम की पत्रिका में "अक्षय कुमार मित्रा" नाम के नवोदित इतिहासकार के Oitihashik chitra (Historical Vignettes), नाम की शोध पत्रिका की प्रशंसा करते हुए एक लेख लिखा था " Enthusiasm for History" । 1919 बंगाल यूनिवर्सिटी पहली बार आधुनिक एवं मध्यकालीन इतिहास का परास्नातक पाठयक्रम शुरू किया गया ,1920 से 1930 तक के काल खंड में अन्य विश्वविद्यालयों में इतिहास के विभाग खोले गए तथा स्नातक स्तर पर इतिहास पढने की शुरुआत की गयी। तो फिर प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था पर आधिकारिक इतिहास किसने लिखा और किस आधार पर लिखा ??????
http://publicculture.org/…/the-public-life-of-history-an-ar…
ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर ने भावावेश में इतिहास और त्थयों को कैसे तोड़ा मरोड़ा और एक नया इतिहास रच दिया जिसके चलते आज के अम्बेडकरवादी अन्य लोगों को विदेशी और खुद को भारत का मूल नागरिक बताते हैं।अम्बेदकरवादी " Aryans, Jews, Brahmins :Theorising Authority Through Myths Of Identity " By Dorothy M.Figueira, published by Navayana,अवश्य पढ़ लें तथा जो बहुत से अम्बेडकरवादी कमेंट बॉक्स में हिंदी में लिखने की बात करते हैं, उनके लिए यह लिंक पढ़ना मुश्किल होगा, अतः उनसे निवेदन है की किसी से पढ़वा कर अपना भ्रम ज़रूर दूर कर लें अन्यथा , आप के दिल में अन्य जातियों के लिए अम्बेडकर जी द्वारा भरा गया ज़हर हमेशा भरा रहेगा जो की भविष्य में देश के लिए अहितकर होगा।
http://tribhuvanuvach.blogspot.in/2014/10/parit-3.html
http://epaper.indianexpress.com/…/Indian-Exp…/13-March-2015…
बात शुरू करता हूँ , उन अतिज्ञानियों के ज्ञान से जिन्होंने शायद ही कभी "मनु समृति"का अध्ययन किया होगा लेकिन जयपुर हाई कोर्ट परिसर में महर्षि मनु की 28 जून 1989 को मूर्ती लगने पर विरोध प्रगट किया और 28 जुलाई 1989 को हाई कोर्ट की फुल बेंच ने अपने पूरे ज्ञान का परिचय देते हुए 48 घंटे में मूर्ती हटाने का आदेश पारित कर दिया।लेकिन दूसरी तरफ से भी अपना पक्ष रखा गया और तीन दिन के लगातार बहस के दौरान मनु के आलोचक पक्ष के वकील मनु को गलत साबित नहीं कर पाये और एक अंतरिम आदेश के साथ अपना पूर्व में मूर्ती हटाने का आदेशहाई कोर्ट को स्थगित करना पड़ा । मूर्ती आज भी वहीँ है। इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी नीचे दिए गए लिंक में पढ़ी जा सकती है।
https://www.google.co.in/url
अब इससे पीछे चलते हैं वर्तमान के दलित मसीहा, रामविलास पासवान पर --- क्या उन्होंने अपनी पहली पत्नी को तलाक दे कर उन पर अत्याचार नहीं किया??? या यहाँ पर भी नीना शर्मा (एक पंजाबी ब्राह्मण),उनकी दूसरी पत्नी जिसने एक दलित से शादी की ने ब्राह्मणत्व की धारणा को तोड़ कर एक दलित से शादी नहीं की।
इससे और पीछे चलते हैं, भीम राव अम्बेडकर पर -- "जय भीम" तो बहुत बोला जाता है ,क्या डा. सविता , आंबेडकर जी की पत्नी जो की पुणे के कट्टर ब्राह्मण परिवार से थीं ,उन्होंने क्या जाती पाती के बंधनों की परवाह की थी। और अम्बेडकरवादियों ने बहुत कुशलता से आंबेडकर द्वारा रचित The Buddha And His Dharma जो की उनकी मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुई की मूल प्रस्तावना जो की उन्होंने 15 मार्च 1956 लिखी थी ,को छुपा दिया जिसमे उन्होंने अपनी ब्राह्मण पत्नी और उन ब्राह्मण अध्यापकों ( महादेव आंबेडकर, पेंडसे, कृष्णा जी अर्जुन कुलेसकर ,बापूराव जोशी ) की हृदयस्पर्शी चर्चा की थी। बहुत आसान है महादेव आंबेडकर का भीमराव को अपने घर में खाना खिलाना भूलना ,बहुत आसान है ब्राह्मण सविता देवी का जीवन भुलाना और बहुत आसान है कृष्णा जी अर्जुन कुलेसकर नामक उस ब्राह्मण को भुलाना जिसने भीमराव को "महात्मा बुद्ध " पर पढ़ने को पुस्तक दी और भीमराव बौधि हो गए।
http://www.thoughtnaction.co.in/dr-ambedkar-and-brahmins/
उपरोक्त उदाहरणों से मैं यह सिद्ध करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ ,की इस समय में वर्णव्यवस्था का कट्टरपन अपने चरमोत्कर्ष पर नहीं था। बहुत विद्रूप थी इस समय और इससे पहले वर्णव्यवस्था। लेकिन वर्णव्यवस्था में विद्रूपता और कट्टरपन क्यों कब और कैसे आया ,क्या कभी किसी ने वामपंथियों द्वारा रचित इतिहास के इतर कुछ पढ़ने की कोशिश की ???? जो और जितना पढ़ाया गया उसी को समग्र मान कर चल पढ़े भेड़चाल और लगे धर्मग्रंथों और उच्च जातियों को गलियां देने।
मनु स्मृति और अन्य धर्मशास्त्रों में वर्णव्यवस्था "कर्म आधारित" थी और कर्म के आधार पर कोई भी अपना वर्ण बदलने के लिए स्वतंत्र था। आज का समाज जाति बंधन तो छोड़िये किसी भी बंधन को न स्वीकारने के दसियों तर्क कुतर्क दे सकता है। लेकिन वर्णव्यस्था पर उंगली उठाने वालों के लिए " vedictruth: वेद और शूद्र " vedictruth.blogspot.com में एक सारगर्भित लेख है।इसके बाद भी कोई अगर कुतर्क दे तो उसे मानव मन का अति कल्पनाशील होना ही मानूंगा।
इतिहास में बहुत पीछे न जाते हुए, चन्द्रगुप्त मौर्य (340 BC -298 BC) से शरुआत करते हुए बताना चाहूंगा, कि चन्द्रगुप्त के प्रारंभिक जीवन के बारे में तो इतिहासकारों को बहुत कुछ नहीं मालूम है परन्तु ,"मुद्राराक्षस" में उसे कुलविहीन बताया गया है। जो की बाद में चल कर यदि उस समय वर्णव्यवस्था थी तो उसे तोड़ते हुए अपने समय का एक शक्तिशाली राजा बना। इसी समय "सेल्यूकस" के दूत "मैगस्थनीज़" के यात्रा वृतांत के अनुसार उस समय इसी चतुर्वर्ण में ही कई जातियाँ 1) दार्शनिक 2) कृषि 3)सैनिक 4) निरीक्षक /पर्यवेक्षक 5) पार्षद 6) कर निर्धारक 7) चरवाहे 8) सफाई कर्मचारी और 9 ) कारीगर हुआ करते थे। लेकिन चन्द्रगुप्त के प्रधानमंत्री "कौटिल्य" के अर्थशास्त्र एवं नीतिसार अनुसार, किसी के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार की कठोर सज़ा थी। यहाँ तक की वैसे तो उस समय दास प्रथा नहीं थी लेकिन चाणक्य के अनुसार यदि किसी को मजबूरी में खुद दास बनना पड़े तो भी उससे कोई नीच अथवा अधर्म का कार्य नहीं करवाया जा सकता था।ऐसा करने की स्थिति में दास दासता के बन्धन से स्वमुक्त हो जाता था।सब अपना व्यवसाय चयन करने के लिए स्वतंत्र थे तथा उनसे यह अपेक्षा की जाती थी वे धर्मानुसार उनका निष्पादन करेंगे । मौर्य वंश के इतिहास में कहीं भी शूद्रों के साथ अमानवीय या भेदभावपूर्ण व्यवहार का लेखन पढ़ने में नहीं आया। जब दासों के प्रति इतनी न्यायोचित व्यवस्था थी , तो आम जन तो नीतिशास्त्रों से शासित किये ही जाते थे। एक बात का और उल्लेख यहाँ करना चाहूंगा,इस समय तक वैदिक भागवत धर्म का अधिकांश लोग पालन करते थे लेकिन बौद्ध तथा जैन धर्मों में अपने प्रवर्तकों की सुन्दर सुन्दर मूर्तियों की पूजा की देखा देखि इसी समय पर वैदिक धर्म में मूर्ती पूजा का पर्दुभाव हुआ। इसी समय पर भगवानों के सुन्दर सुन्दर रूपों की कल्पना कर के उन्हें मंदिरों में प्रतिष्ठित किया जाने लगा।
जी इस त्तथ्य पर दुबारा गौर करें, इस समय तक हिन्दू वैदिक धर्म का पालन करते हुए हवन यज्ञो द्वारा निर्गुण तथा निराकार परमेश्वर की पूजा किया करते थे। और मनुस्मृति को पानी पी पी कर कोसने वालों को मालूम होना चाहिए कि मनु स्मृति इस काल से बहुत पहले तब लिखी गयी थी जब निराकार ईश्वर को पूजा जाता था। मुख से ब्राह्मण पैदा हुए थे मनु का सांकेतिक तात्पर्य था कि सुवचन और सुबुद्धि के गुणों के द्वारा ब्राह्मणो का जन्म हुआ। यह एक सांकेतिक तात्पर्य था कि भुजाओं के बल के द्योतक क्षत्रिय बने। और यही सांकेतिक तात्पर्य था कि जीविकोपार्जन के कर्मो से वैश्यों का जन्म हुआ और श्रम का काम करने वाले चरणो से शूद्रों का जन्म हुआ। या जिनमे ये गुण जैसे हैं वे उन वर्णों में गुणों और कर्मों के आधार पर विभाजित किये जाएँ।
यहीं यदि मनु श्रम को भुजाओं से जोड़ कर लिख देते कि भुजाओं से शूद्रो का जन्म हुआ तो क्या चरणों से युद्ध में भाग लेने वाले क्षत्रिय नीच वर्ण के हो जाते ????? दोष निकलने वाले उसमे भी दोष निकल लेते क्योंकि उन्हें न अपनी अकर्मण्यता में कोई दोष नज़र आता है और न वे इतिहास और तदोपरांत के घटनाक्रम में अपनी अज्ञानता के चलते कोई दोष ढूंढ पाते हैं।
चन्द्रगुप्त मौर्य के लगभग 800 वर्ष पश्चात चीनी तीर्थयात्री "फा हियान" चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय भारत आया उसके अनुसार वर्णव्यवस्था बहुत कठोर नहीं थी,ब्राह्मण व्यापर ,वास्तुकला तथा अन्य प्रकार की सेवाएं दिया करते थे ,क्षत्रिय वणिजियक एवं औद्योगिक कार्य किया करते थे ,वैश्य राजा ही थे ,शूद्र तथा वैश्य व्यापर तथा खेती बड़ी करते थे। कसाई, शिकारी ,मच्छली पकड़ने वाले,माँसाहार करने वाले अछूत समझे जाते थे तथा "वे" नगर के बाहर रहते थे। गंभीर अपराध न के बराबर थे ,अधिकांश लोग शाकाहारी थे। इसीलिए इसे भारतवर्ष का स्वर्ण काल भी कहा जाता है।
यही बातें "हुएंन- त्सांग "ने वर्ष 631-644 AD तक अपने भारत भ्रमण के दौरान लिखीं।उस समय विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध नहीं था, सती प्रथा नहीं थी, पर्दा प्रथा नहीं थी , दास प्रथा नहीं थी , हिजड़े नहीं बनाये जाते थे , जौहर प्रथा नहीं थी ,ठगी गिरोह नहीं हुआ करते थे, क़त्ल नहीं हुआ करते थे ,बलात्कार नहीं हुआ करते थे, सभी वर्ण आपस में बहुत सौहाद्रपूर्ण तरीके से रहते थे और ..........…… वर्ण व्यवस्था इतनी कट्टर नहीं हुआ करती थी।यह भारत का स्वर्णकाल कहलाता है। फिर ये सारी कुरीतियां वैदिक धर्म में कहाँ से आ गयीं।
इसी स्वर्णकाल के समय लगभग वर्ष 500 AD में जो तीन विशेष कारण जिनकी वजह से वैदिक धर्म का लचीलापन खत्म होना शुरू हुआ, मेरी समझ से वे थे, मध्य एशिया से जाहिल हूणों के आक्रमण तथा उनका भारतीय समाज में घुलना मिलना, बौद्ध धर्म में "वज्रायन" सम्प्रदाय जिसके भिक्षु एवं भिक्षुणियों ने अश्लीलता की सीमाएं तोड़ दी थी, तथा बौद्धों द्वारा वेद शिक्षा बिल्कुल नकार दी गई थी एवं "चर्वाक" सिद्धांत पंच मकार - - मांस,मछली, मद्य, मुद्रा और मैथुन ही जीवन का सार थे का जनसाधारण में लोकप्रिय होना।
इस सन्दर्भ में नेहरू और वामपंथियों पर भारतीय मूल के ब्रिटेन में रहने वाले प्रख्यात लेखक --V.S Naipaul ने कटाक्ष करते हुए "The Pioneer" समाचार पत्र में एक लेख लिखा ---- " आप अपने इतिहास को नज़रअंदाज़ कैसे कर सकते हैं ?? लेकिन स्वराज और आज़ादी की लड़ाई ने इसे नज़रअंदाज़ किया है। आप जवाहर लाल नेहरू की Glimpses of World History पढ़ें , ये भारतीय पौराणिक कथाओं के बारे में बताते बताते आक्रान्ताओं के आक्रमण पर पहुँच जाता है। फिर चीन से आये हुए तीर्थयात्री बिहार नालंदा और अनेकों जगह पहुँच जाते हैं। पर आप यह नहीं बताते की फिर क्या हुआ ,क्यों आज अनेकों जगह, जहाँ का गौरवपूर्ण इतिहास था खंडहर क्यों हैं ??? आप यह नहीं बताते की भुबनेश्वर, काशी और मथुरा को कैसे अपवित्र किया गया। "
वर्णव्यवस्था के लचीलेपन के ख़त्म होने के एक से बढ़ कर एक कारण हैं, जो मेरी नज़र में सबसे अहम कारण है उसे सबसे अंत में लिखूंगा।
लेकिन जो इतिहास हमें पढ़ाया गया है ,उसमे सोमनाथ के मंदिर को लूटना तो बताया गया है परन्तु महमूद ग़ज़नवी ने कंधार के रास्ते आते और जाते हुए मृत्यु का क्या तांडव खेला कभी नहीं बताया जाता। उसमे 1206 के मोहम्मद गौरी से लेकर 1857 तक के बहादुर शाह ज़फर का अधूरा चित्रण ही आपके सामने किया गया है, पूरा सच शायद बताने से मुस्लिम वर्ग नाराज़ हो जाता। और वैसे भी जैसा की वीर सावरकर ने 1946 लिख दिया था, कि लम्बे समय तक सत्ता में बने रहने के लिए तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं ने यही रणनीति बनायीं थी की ,हिन्दुओं में फूट डाली जाये और मुस्लिमों का तुष्टिकरण किया जाये। इसी का आज यह दुष्परिणाम है की न तो मुस्लिम आक्रान्ताओं का पूरा इतिहास ही पढ़ाया गया और आज हिन्दू पूरी जानकारी के आभाव में वर्णव्यवस्था के नाम पर चाहे सड़क हो चाहे फेसबुक कहीं पर भी भिड़ जाते हैं।
जी हाँ हमारा इतिहास यह नहीं बताता की वर्ष 1000 AD की भारत की जनसँख्या 15 करोड़ से घट कर वर्ष 1500 AD में 10 करोड़ क्यों रह गयी थी ??? नीचे जो लिख रहा हूँ उसमे जबरन धर्म परिवर्तन, बलात्कार ,कत्ले आम, कम उम्र के लड़कों का हिजड़ा बनाया जाना आप खुद जोड़ते जाईयेगा।
( नीचे दिए हुए तथ्य ,1)Islam's India slave Part-1,by M.A Khan, 2)"The Legacy of Jihad: Islamic Holy war and the fate of non non -Muslims By A.G Bostom.and 3)Slave trading During Mulim rule, by K.S Lal 4),‘The sword of the prophet.’ By Trifkovic, S. - - Regina Orthodox Press, Inc. 2002.
से लिए गए हैं )
http://islammonitor.org/index.php…-
http://www.islam-watch.org/…/islamic-jihad-legacy-of-forced… ( two must read links, to understand the summary)
उपरोक्त पुस्तक जो की कई अन्य पुस्तकों का निचोड़ हैं , का सारांश नीचे लिख रहा हूँ ---------
1 )महमूद ग़ज़नवी ---वर्ष 997 से 1030 तक 2000000 , बीस लाख सिर्फ बीस लाख लोगों को महमूद ग़ज़नवी ने तो क़त्ल किया था और 750000 सात लाख पचास हज़ार लोगों को गुलाम बना कर भारत से ले गया था 17 बार के आक्रमण के दौरान (997 -1030). ---- जिन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया , वे शूद्र बना कर इस्लाम में शामिल कर लिए गए। इनमे ब्राह्मण भी थे क्षत्रिय भी वैश्य भी और शूद्र तो थे ही।
2 ) दिल्ली सल्तनत --1206 से 1210 ---- कुतुबुद्दीन ऐबक --- सिर्फ 20000 गुलाम राजा भीम से लिए थे और 50000 गुलाम कालिंजर के राजा से लिए थे। जो नहीं माना उनकी बस्तियों की बस्तियां उजाड़ दीं। गुलामों की उस समय यह हालत हो गयी कि गरीब से गरीब मुसलमान के पास भी सैंकड़ों हिन्दू गुलाम हुआ करते थे ।
3) इल्ल्तुत्मिश ---1236-- जो भी मिलता उसे गुलाम बना कर, उस पर इस्लाम थोप देता था।
4) बलबन ----1250-60 --- ने एक राजाज्ञा निकल दी थी , 8 वर्ष से ऊपर का कोई भी आदमी मिले उसे मौत के घाट उत्तर दो। महिलाओं और लड़कियों वो गुलाम बना लिया करता था। उसने भी शहर के शहर खाली कर दिए।
5) अलाउद्दीन ख़िलजी ---- 1296 -1316 -- अपने सोमनाथ की लूट के दौरान उसने कम उम्र की 20000 हज़ार लड़कियों को दासी बनाया, और अपने शासन में इतने लड़के और लड़कियों को गुलाम बनाया कि गिनती कलम से लिखी नहीं जा सकती। उसने हज़ारों क़त्ल करे थे और उसके गुलमखाने में 50000 लड़के थे और 70000 गुलाम लगातार उसके लिए इमारतें बनाने का काम करते थे। इस समय का ज़िक्र आमिर खुसरो के लफ़्ज़ों में इस प्रकार है " तुर्क जहाँ चाहे से हिंदुओं को उठा लेते थे और जहाँ चाहे बेच देते थे।
6) मोहम्मद तुगलक ---1325 -1351 ---इसके समय पर इतने कैदी हो गए थे की हज़ारों की संख्या में रोज़ कौड़ियों के दाम पर बेचे जाते थे।
7) फ़िरोज़ शाह तुगलक -- 1351 -1388 -- इसके पास 180000 गुलाम थे जिसमे से 40000 इसके महल की सुरक्षा में लगे हुए थे। इसी समय "इब्न बतूता " लिखते हैं की क़त्ल करने और गुलाम बनाने की वज़ह से गांव के गांव खाली हो गए थे। गुलाम खरीदने और बेचने के लिए खुरासान ,गज़नी,कंधार,काबुल और समरकंद मुख्य मंडियां हुआ करती थीं। वहां पर इस्तांबुल,इराक और चीन से से भी गुलाम ल कर बेचे जाते थे।
8) तैमूर लंग --1398/99 --- As per "Malfuzat-i-Taimuri" इसने दिल्ली पर हमले के दौरान 100000 गुलामों को मौत के घाट उतरने के पश्चात ,2 से ढ़ाई लाख कारीगर गुलाम बना कर समरकंद और मध्य एशिया ले गया।
9) सैय्यद वंश --1400-1451 -- हिन्दुओं के लिए कुछ नहीं बदला, इसने कटिहार ,मालवा और अलवर को लूटा और जो पकड़ में आया उसे या तो मार दिया या गुलाम बना लिया।
10) लोधी वंश-1451--1525 ---- इसके सुल्तान बहलूल ने नीमसार से हिन्दुओं का पूरी तरह से वंशनाश कर दिया और उसके बेटे सिकंदर लोधी ने यही हाल रीवां और ग्वालियर का किया।
11 ) मुग़ल राज्य --1525 -1707 --- बाबर -- इतिहास में ,क़ुरान की कंठस्थ आयतों ,कत्लेआम और गुलाम बनाने के लिए ही जाना जाता है।
12 ) अकबर ---1556 -1605 ---- बहुत महान थे यह अकबर महाशय , चित्तोड़ ने जब इनकी सत्ता मानाने से इंकार कर दिया तो इन्होने 30000 काश्तकारों और 8000 राजपूतों को या तो मार दिया या गुलाम बना लिया और, एक दिन भरी दोपहर में 2000 कैदियों का सर कलम किया था। कहते हैं की इन्होने गुलाम प्रथा रोकने की बहुत कोशिश की फिर भी इसके हरम में 5000 महिलाएं थीं। इनके समय में ज्यादातर लड़कों को खासतौर पर बंगाल की तरफ अपहरण किया जाता था और उन्हें हिजड़ा बना दिया जाता था। इनके मुख्य सेनापति अब्दुल्लाह खान उज़्बेग, की अगर मानी जाये तो उसने 500000 पुरुष और गुलाम बना कर मुसलमान बनाया था और उसके हिसाब से क़यामत के दिन तक वह लोग एक करोड़ हो जायेंगे।
13 ) जहांगीर 1605 --1627 --- इन साहब के हिसाब से इनके और इनके बाप के शासन काल में 5 से 600000 मूर्तिपूजकों का कत्ल किया गया था औरसिर्फ 1619-20 में ही इसने 200000 हिन्दू गुलामों को ईरान में बेचा था।
14) शाहजहाँ 1628 --1658 ----इसके राज में इस्लाम बस ही कानून था, या तो मुसलमान बन जाओ या मौत के घाट उत्तर जाओ। आगरा में एक दिन इसने 4000 हिन्दुओं को मौत के घाट उतरा था। जवान लड़कियां इसके हरम भेज दी जाती थीं। इसके हरम में सिर्फ 8000 औरतें थी।
15) औरंगज़ेब--1658-1707 -- इसके बारे में तो बस इतना ही कहा जा सकता है की ,जब तक सवा मन जनेऊ नहीं तुलवा लेता था पानी नहीं पीता था। बाकि काशी मथुरा और अयोध्या इसी की देन हैं। मथुरा के मंदिर 200 सालों में बने थे इसने अपने 50 साल के शासन में मिट्टी में मिला दिए। गोलकुंडा में 1659 सिर्फ 22000 लड़कों को हिजड़ा बनाया था।
16)फर्रुख्सियार -- 1713 -1719 ,यही शख्स है जो नेहरू परिवार को कश्मीर से दिल्ली ले कर आया था, और गुरदासपुर में हजारों सिखों को मार और गुलाम बनाया था।
17) नादिर शाह --1738 भारत आया सिर्फ 200000 लोगों को मौत के घाट उत्तर कर हज़ारों सुन्दर लड़कियों को और बेशुमार दौलत ले कर चला गया।
18) अहमद शाह अब्दाली --- 1757-1760 -1761 ----पानीपत की लड़ाई में मराठों युद्ध के दौरान हज़ारों लोग मरे ,और एक बार में यह 22000 लोगों को गुलाम बना कर ले गया था।
19) टीपू सुल्तान ---1750 - 1799 ----त्रावणकोर के युद्ध में इसने 10000 हिन्दू और ईसाईयों को मारा था एक मुस्लिम किताब के हिसाब से कुर्ग में रहने वाले 70000 हिन्दुओं को इसने मुसलमान बनाया था।
ऐसा नहीं कि हिंदुओं ने डटकर मुकाबला नहीं किया था, बहुत किया था, उसके बाद ही इस संख्या का निर्धारण इतिहासकारों ने किया जो कि उपरोक्त दी गई पुस्तकों एवं लिंक में दिया गया है ।
गुलाम हिन्दू चाहे मुसलमान बने या नहीं ,उन्हें नीचा दिखाने के लिए इनसे अस्तबलों का , हाथियों को रखने का, सिपाहियों के सेवक होने का और बेइज़्ज़त करने के लिए साफ सफाई करने के काम दिए जाते थे। जो गुलाम नहीं भी बने उच्च वर्ण के लोग वैसे ही सब कुछ लूटा कर, अपना धर्म न छोड़ने के फेर में जजिया और तमाम तरीके के कर चुकाते चुकाते समाज में वैसे ही नीचे की पायदान शूद्रता पर पहुँच गए। जो आतताइयों से जान बचा कर जंगलों में भाग गए जिन्दा रहने के उन्होंने मांसाहार खाना शुरू कर दिया और जैसी की प्रथा थी ,और अछूत घोषित हो गए।
Now come to the valid reason for Rigidity in Indian Caste System--------
वर्ष 497 AD से 1197 AD तक भारत में एक से बढ़ कर एक विश्व विद्यालय हुआ करते थे, जैसे तक्षिला, नालंदा, जगदाला, ओदन्तपुर। नालंदा विश्वविद्यालय में ही 10000 छात्र ,2000 शिक्षक तथा नौ मंज़िल का पुस्तकालय हुआ करता था, जहाँ विश्व के विभिन्न भागों से पड़ने के लिए विद्यार्थी आते थे। ये सारे के सारे मुग़ल आक्रमण कारियों ने ध्वस्त करके जला दिए। न सिर्फ इन विद्या और ज्ञान के मंदिरों को जलाया गया बल्कि पूजा पाठ पर सार्वजानिक और निजी रूप से भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इतना तो सबने पढ़ा है ,लेकिन उसके बाद यह नहीं सोचा कि अपने धर्म को ज़िंदा रखने के लिए ज्ञान, धर्मशास्त्रों और संस्कारों को मुंह जुबानी पीढ़ी दर पीढ़ी कैसे आगे बढ़ाया गया । सबसे पहला खतरा जो धर्म पर मंडराया था ,वो था मलेच्छों का हिन्दू धर्म में अतिक्रमण / प्रवेश रोकना। और जिसका जैसा वर्ण था वो उसी को बचाने लग गया। लड़कियां मुगलों के हरम में न जाएँ ,इसलिए लड़की का जन्म अभिशाप लगा ,छोटी उम्र में उनकी शादी इसलिए कर दी जाती थी की अब इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी इसका पति संभाले, मुसलमानों की गन्दी निगाह से बचने के लिए पर्दा प्रथा शुरू हो गयी। विवाहित महिलाएं पति के युद्ध में जाते ही दुशमनों के हाथों अपमानित होने से बचने के लिए जौहर करने लगीं ,विधवा स्त्रियों को मालूम था की पति के मरने के बाद उनकी इज़्ज़त बचाने कोई नहीं आएगा इसलिए सती होने लगीं, जिन हिन्दुओं को घर से बेघर कर दिया गया उन्हें भी पेट पालने के लिए ठगी लूटमार का पेशा अख्तिया करना पड़ा। कौन सी विकृति है जो मुसलमानों के अतिक्रमण से पहले इस देश में थी और उनके आने के बाद किसी देश में नहीं है। हिन्दू धर्म में शूद्र कृत्यों वाले बहरूपिये आवरण ओढ़ कर इसे कुरूप न कर दें इसीलिए वर्णव्यवस्था कट्टर हुई , इसलिए कोई अतिशियोक्ति नहीं कि इस पूरी प्रक्रिया में धर्म रूढ़िवादी हो गया या वर्तमान परिभाषा के हिसाब से उसमे विकृतियाँ आ गयी। मजबूरी थी वर्णों का कछुए की तरह खोल में सिकुड़ना।
जैसा कि जवाहर लाल नेहरू जो की मुस्लिमों के पक्षधर थे ने भी अपनी पुस्तक "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया "में हिन्दू वर्णव्यवस्था के सम्बन्ध में लिखा है ---- 1)There is truth in that and its origin was probably a device to keep the foreign conquerors apart from and above the conqured people.Undoubtdly in its growth it has acted in that way, though originally there may have been a good deal of FLEXIBILITY about it. Yet that is only a part of the truth and it does not explain its power and cohesiveness and the way it has lasted down to the present day.It survived not only the powerful impact of Buddhism and Mughal rule and the spread of Islam, ------------ page 264- .
यहीं से वर्ण व्यवस्था का लचीलापन जो की धर्मसम्मत था ख़त्म हो गया। इसके लिए आज अपने को शूद्र कहने वाले ब्राह्मणो या क्षत्रियों को दोष देकर अपने नए मित्रों को ज़िम्मेदार कभी नहीं ठहराते हैं । वैसे जब आप लोग डा. सविता माई(आंबेडकर जी की ब्राह्मण पत्नी) के संस्कारों को ज़बरदस्ती छुपा सकते हैं,
http://www.thoughtnaction.co.in/dr-ambedkar-and-brahmins/
जब आप लोग अपने पूर्वजो के बलिदान को याद नहीं रख सकते हैं जिनकी वजह से आप आज भी हिन्दू हैं तो आप आज उन्मुक्त कण्ठ से ब्राह्मणो और क्षत्रिओं को गाली भी दे सकते हैं,जिनके पूर्वजों ने न जाने इस धर्म को ज़िंदा रखने के लिए क्या क्या कष्ट सहे। पूरे के पूरे मज़हब ख़त्म हो कर दिए गए दुनिया के नक़्शे से, लेकिन आप वो नहीं देखना चाहते। कहाँ चला गया पारसी मज़हब अपनी जन्म भूमि ईरान से ??? क्या क्या ज़ुल्म नहीं सहे यहूदियों और यज़ीदियों ने अपने आप को ज़िंदा रखने के लिए। कहाँ चला गया बौद्ध धर्म का वो वटवृक्ष जिसकी शाखाएँ बिहार से लेकर अफगानिस्तान मंगोल चीन इंडोनेशिया तक में फैली हुईं थीं ??? कौन सा मज़हब बचा मोरक्को से लेकर मलेशिया तक ???? सिर्फ और सिर्फ बचे तो सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले। शर्म आनी चाहिए उन लोगों को जो अपने पूर्वजों के बलिदानों को भूल कर, इस बात पर गर्व नहीं करते कि आज उनका धर्म ज़िंदा है मगर वो रो रहे हैं कि वर्णव्यवस्था ज़िंदा क्यों है। नीचे दिए गए लिंक में पढ़ लीजिये, कि जो कुछ ऊपर लिखा है वो अन्य देशों में भी हुआ वहां के मज़हब मिट गए और आपका धर्म ज़िंदा है।
और आज जिस वर्णव्यवस्था में हम विभाजित हैं उसका श्रेय 1881 एवं 1902 की अंग्रेजों द्वारा कराई गयी जनगणना है जिसमें उन्होंने demographic segmentation को सरल बनाने के लिए हिंदु समाज को इन चार वर्णों में चिपका दिया।
http://www.tamilnet.com/img/publish/2011/08/16430.pdf
वैसे भील, गोंड, सन्थाल और सभी आदिवासियों के पिछड़ेपन के लिए क्या वर्णव्यवस्था जिम्मेदार है?????
कौन ज़िम्मेदार है इस पूरे प्रकरण के लिए अनजाने या भूलवश धर्म में विकृतियाँ लाने वाले पंडित ??? या उन्हें मजबूर करने वाले मुसलमान आक्रांता ??? या आपसे सच्चाई छुपाने वाले इतिहास के लेखक ???? कोई भी ज़िम्मेदार हो पर हिन्दू भाइयो अब तो आपस में लड़ना छोड़ कर भविष्य की तरफ एक सकारात्मक कदम उठाओ। अगर पिछड़ी जाति के मोदी देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं, तो उतने ही पथ तुम्हारे लिए भी खुले हैं ,मान लिया कल तक तुम पर समाज के बहुत बंधन थे पर आज तो नहीं हैं ।
अगर आज हिन्दू एक होते तो आज कश्मीर घाटी में गिनती के 2984 हिन्दू न बचते और 4.50 लाख कश्मीरी हिंदू 25 साल से अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह न रह रहे होते और 16 दिसंबर के निर्भया काण्ड ,मेरठ काण्ड ,हापुड़ काण्ड …………गिनती बेशुमार है, इस देश में न होते।
वैसे सबसे मजे की बात यह है कि जिनके पूर्वजों ने ये सब अत्याचार किए, 800 साल तक राज किया, वो तो पाक साफ हो कर अल्पसंख्यकों के नाम पर आरक्षण भी पा गये और कटघरे में खड़े हैं, कौन?????
जवाब आपके पास है???

सोमवार, 8 जनवरी 2018

हवाईज़ादा” एवं वैमानिक शास्त्र पर कथित बुद्धिजीवियों में इतनी बेचैनी क्यों है ?


जैसे ही यह निश्चित हुआ, कि मुम्बई में सम्पन्न होने वाली 102 वीं विज्ञान कांग्रेस में भूतपूर्व फ्लाईट इंजीनियर एवं पायलट प्रशिक्षक श्री आनंद बोडस द्वारा भारतीय प्राचीन विमानों पर एक शोधपत्र पढ़ा जाएगा, तभी यह तय हो गया था कि भारत में वर्षों से विभिन्न अकादमिक संस्थाओं पर काबिज, एक “निहित स्वार्थी बौद्धिक समूह” अपने पूरे दमखम एवं सम्पूर्ण गिरोहबाजी के साथ बोडस के इस विचार पर ही हमला करेगा, और ठीक वैसा ही हुआ भी. एक तो वैसे ही पिछले बारह वर्ष से नरेंद्र मोदी इस “गिरोह” की आँखों में कांटे की तरह चुभते आए हैं, ऐसे में यदि विज्ञान काँग्रेस का उदघाटन मोदी करने वाले हों, इस महत्त्वपूर्ण आयोजन में “प्राचीन वैमानिकी शास्त्र” पर आधारित कोई रिसर्च पेपर पढ़ा जाने वाला हो तो स्वाभाविक है कि इस बौद्धिक गिरोह में बेचैनी होनी ही थी. ऊपर से डॉक्टर हर्षवर्धन ने यह कहकर माहौल को और भी गर्मा दिया कि पायथागोरस प्रमेय के असली रचयिता भारत के प्राचीन ऋषि थे, लेकिन उसका “क्रेडिट” पश्चिमी देश ले उड़े हैं.

सेकुलरिज़्म, प्रगतिशीलता एवं वामपंथ के नाम पर चलाई जा रही यह “बेईमानी” कोई आज की बात नहीं है, बल्कि भारत के स्वतन्त्र होने के तुरंत बाद से ही नेहरूवादी समाजवाद एवं विदेशी सेकुलरिज़्म के विचार से बाधित वामपंथी इतिहासकारों, साहित्यकारों, लेखकों, अकादमिक विशेषज्ञों ने खुद को न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ के रूप में पेश किया, बल्कि भारतीय इतिहास, आध्यात्म, संस्कृति एवं वेद-आधारित ग्रंथों को सदैव हीन दृष्टि से देखा. चूँकि अधिकाँश पुस्तक लेखक एवं पाठ्यक्रम रचयिता इसी “गिरोह” से थे, इसलिए उन्होंने बड़े ही मंजे हुए तरीके से षडयंत्र बनाकर, व्यवस्थित रूप से पूरी की पूरी तीन पीढ़ियों का “ब्रेनवॉश” किया. “आधुनिक वैज्ञानिक सोच”(?) के नाम पर प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद, पुराण आदि को पिछड़ा हुआ, अनगढ़, “कोरी गप्प” अथवा “किस्से-कहानी” साबित करने की पुरज़ोर कोशिश चलती रही, जिसमें वे सफल भी रहे, क्योंकि समूची शिक्षा व्यवस्था तो इसी गिरोह के हाथ में थी. बहरहाल, इस विकट एवं कठिन पृष्ठभूमि तथा हो-हल्ले एवं दबाव के बावजूद यदि वैज्ञानिक बोडस जी विज्ञान काँग्रेस में प्राचीन वैमानिक शास्त्र विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत कर पाए, तो निश्चित ही इसका श्रेय “बदली हुई सरकार” को देना चाहिए.

यहाँ पर सबसे पहला सवाल उठता है, कि क्या विरोधी पक्ष के इन “तथाकथित बुद्धिजीवियों” द्वारा उस ग्रन्थ में शामिल सभी बातों को, बिना किसी विचार के, अथवा बिना किसी शोध के सीधे खारिज किया जाना उचित है? दूसरा पक्ष सुने बिना, अथवा उसके तथ्यों एवं तर्कों की प्रामाणिक जाँच किए बिना, सीधे उसे नाकारा या अज्ञानी साबित करने की कोशिश में जुट जाना “बौद्धिक भ्रष्टाचार” नहीं है? निश्चित है. यदि इन वामपंथी एवं प्रगतिशील लेखकों को ऐसा लगता है कि महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित “वैमानिकी शास्त्र” निहायत झूठ एवं गल्प का उदाहरण है, तो भी कम से कम उन्हें इसकी जाँच तो करनी ही चाहिए थी. बोडस द्वारा रखे गए विभिन्न तथ्यों एवं वैमानिकी शास्त्र में शामिल कई प्रमुख बातों को विज्ञान की कसौटी पर तो कसना चाहिए था? लेकिन ऐसा नहीं किया गया. किसी दूसरे व्यक्ति की बात को बिना कोई तर्क दिए सिरे से खारिज करने की “तानाशाही” प्रवृत्ति पिछले साठ वर्षों से यह देश देखता आया है. “वैचारिक छुआछूत” का यह दौर बहुत लंबा चला है, लेकिन अंततः चूँकि सच को दबाया नहीं जा सकता, आज भी सच धीरे-धीरे विभिन्न माध्यमों से सामने आ रहा है... इसलिए इस “प्रगतिशील गिरोह” के दिल में असल बेचैनी इसी बात की है कि जो “प्राचीन ज्ञान” हमने बड़े जतन से दबाकर रखा था, जिस ज्ञान को हमने “पोंगापंथ” कहकर बदनाम किया था, जिन विद्वानों के शोध को हमने खिल्ली उड़ाकर खारिज कर दिया था, जिस ज्ञान की भनक हमने षडयंत्रपूर्वक नहीं लगने दी, कहीं वह ज्ञान सच्चाई भरे नए स्वरूप में दुनिया के सामने न आ जाए. परन्तु इस वैचारिक गिरोह को न तो कोई शोध मंजूर है, ना ही वेदों-ग्रंथों-शास्त्रों पर कोई चर्चा मंजूर है और संस्कृत भाषा के ज़िक्र करने भर से इन्हें गुस्सा आने लगता है. यह गिरोह चाहता है कि “हमने जो कहा, वही सही है... जो हमने लिख दिया, या पुस्तकों में लिखकर बता दिया, वही अंतिम सत्य है.. शास्त्रों या संस्कृत द्वारा इसे कोई चुनौती दी ही नहीं जा सकती”. इतनी लंबी प्रस्तावना इसलिए दी गई, ताकि पाठकगण समस्या के मूल को समझें, विरोधियों की बदनीयत को जानें और समझें. बच्चों को पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी... क्यों? क्या उससे पहले यहाँ भारत नहीं था? यह भूमि नहीं थी? यहाँ लोग नहीं रहते थे? वास्कोडिगामा के आने से पहले क्या यहाँ कोई संस्कृति, भाषा नहीं थी? फिर वास्कोडिगामा ने क्या खोजा?? वही ना, जो पहले से मौजूद था.

खैर... बात हो रही थी वैमानिकी शास्त्र की... सभी विद्वानों में कम से कम इस बात को लेकर दो राय नहीं हैं कि महर्षि भारद्वाज द्वारा वैमानिकी शास्त्र लिखा गया था. इस शास्त्र की रचना के कालखंड को लेकर विवाद किया जा सकता है, लेकिन इतना तो निश्चित है कि जब भी यह लिखा गया होगा, उस समय तक हवाई जहाज़ का आविष्कार करने का दम भरने वाले “राईट ब्रदर्स” की पिछली दस-बीस पीढियाँ पैदा भी नहीं हुई होंगी. ज़ाहिर है कि प्राचीन काल में विमान भी था, दूरदर्शन भी था (महाभारत-संजय प्रकरण), अणु बम (अश्वत्थामा प्रकरण) भी था, प्लास्टिक सर्जरी (सुश्रुत संहिता) भी थी। यानी वह सब कुछ था, जो आज है, लेकिन सवाल तो यह है कि वह सब कहां चला गया? ऐसा कैसे हुआ कि हजारों साल पहले जिन बातों की “कल्पना”(?) की गई थी, ठीक उसी प्रकार एक के बाद एक वैज्ञानिक आविष्कार हुए? अर्थात उस प्राचीन काल में उन्नत टेक्नोलॉजी तो मौजूद थी, वह किसी कारणवश लुप्त हो गई. जब तक इस बारे में पक्के प्रमाण सामने नहीं आते, उसे शेष विश्व द्वारा मान्यता नहीं दी जाएगी. “प्रगतिशील एवं सेकुलर-वामपंथी गिरोह” द्वारा इसे वैज्ञानिक सोच नहीं माना जाएगा, “कोरी गप्प” माना जाएगा... फिर सच्चाई जानने का तरीका क्या है? इन शास्त्रों का अध्ययन हो, उस संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार किया जाए, जिसमें ये शास्त्र या ग्रन्थ लिखे गए हैं. चरक, सुश्रुत वगैरह की बातें किसी दूसरे लेख में करेंगे, तो आईये संक्षिप्त में देखें कि महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिकी शास्त्र” पर कम से कम विचार किया जाना आवश्यक क्यों है... इसको सिरे से खारिज क्यों नहीं किया जा सकता.

जब भी कोई नया शोध या खोज होती है, तो उस आविष्कार का श्रेय सबसे पहले उस “विचार” को दिया जाना चाहिए, उसके बाद उस विचार से उत्पन्न हुई आविष्कार के सबसे पहले “प्रोटोटाइप” को महत्त्व दिया जाना चाहिए. लेकिन राईट बंधुओं के मामले में ऐसा नहीं किया गया. शिवकर बापूजी तलपदे ने इसी वैमानिकी शास्त्र का अध्ययन करके सबसे पहला विमान बनाया था, जिसे वे सफलतापूर्वक 1500 फुट की ऊँचाई तक भी ले गए थे, फिर जिस “आधुनिक विज्ञान” की बात की जाती है, उसमें महर्षि भारद्वाज न सही शिवकर तलपदे को सम्मानजनक स्थान हासिल क्यों नहीं है? क्या सबसे पहले विमान की अवधारणा सोचना और उस पर काम करना अदभुत उपलब्धि नहीं है? क्या इस पर गर्व नहीं होना चाहिए? क्या इसके श्रेय हेतु दावा नहीं करना चाहिए? फिर यह सेक्यूलर गैंग बारम्बार भारत की प्राचीन उपलब्धियों को लेकर शेष भारतीयों के मन में हीनभावना क्यों रखना चाहती है?

अंग्रेज शोधकर्ता डेविड हैचर चिल्द्रेस ने अपने लेख Technology of the Gods – The Incredible Sciences of the Ancients (Page 147-209) में लिखते हैं कि हिन्दू एवं बौद्ध सभ्यताओं में हजारों वर्ष से लोगों ने प्राचीन विमानों के बारे सुना और पढ़ा है. महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित “यन्त्र-सर्वस्व” में इसे बनाने की विधियों के बारे में विस्तार से लिखा गया है. इस ग्रन्थ को चालीस उप-भागों में बाँटा गया है, जिसमें से एक है “वैमानिक प्रकरण, जिसमें आठ अध्याय एवं पाँच सौ सूत्र वाक्य हैं. महर्षि भारद्वाज लिखित “वैमानिक शास्त्र” की मूल प्रतियाँ मिलना तो अब लगभग असंभव है, परन्तु सन 1952 में महर्षि दयानंद के शिष्य स्वामी ब्रह्ममुनी परिव्राजक द्वारा इस मूल ग्रन्थ के लगभग पाँच सौ पृष्ठों को संकलित एवं अनुवादित किया गया था, जिसकी पहली आवृत्ति फरवरी 1959 में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित हुई थी. इस आधी-अधूरी पुस्तक में भी कई ऐसी जानकारियाँ दी गई हैं, जो आश्चर्यचकित करने वाली हैं.

इसी लेख में डेविड हैचर लिखते हैं कि प्राचीन भारतीय विद्वानों ने विभिन्न विमानों के प्रकार, उन्हें उड़ाने संबंधी “मैनुअल”, विमान प्रवास की प्रत्येक संभावित बात एवं देखभाल आदि के बारे में विस्तार से “समर सूत्रधार” नामक ग्रन्थ में लिखी हैं. इस ग्रन्थ में लगभग 230 सूत्रों एवं पैराग्राफ की महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हैं. डेविड आगे कहते हैं कि यदि यह सारी बातें उस कालखंड में लिखित एवं विस्तृत स्वरूप में मौजूद थीं तो क्या ये कोरी गल्प थीं? क्या किसी ऐसी “विशालकाय वस्तु” की भौतिक मौजूदगी के बिना यह सिर्फ कपोल कल्पना हो सकती है? परन्तु भारत के परम्परागत इतिहासकारों तथा पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस “कल्पना”(?) को भी सिरे से खारिज करने में कोई कसर बाकी न रखी. एक और अंग्रेज लेखक एंड्रयू टॉमस लिखते हैं कि यदि “समर सूत्रधार” जैसे वृहद एवं विस्तारित ग्रन्थ को सिर्फ कल्पना भी मान लिया जाए, तो यह निश्चित रूप से अब तक की सर्वोत्तम कल्पना या “फिक्शन उपन्यास” माना जा सकता है. टॉमस सवाल उठाते हैं कि रामायण एवं महाभारत में भी कई बार “विमानों” से आवागमन एवं विमानों के बीच पीछा अथवा उनके आपसी युद्ध का वर्णन आता है. इसके आगे मोहन जोदड़ो एवं हडप्पा के अवशेषों में भी विमानों के भित्तिचित्र उपलब्ध हैं. इसे सिर्फ काल्पनिक कहकर खारिज नहीं किया जाना चाहिए था. पिछले चार सौ वर्ष की गुलामी के दौर ने कथित बौद्धिकों के दिलो-दिमाग में हिंदुत्व, संस्कृत एवं प्राचीन ग्रंथों के नाम पर ऐसी हीन ग्रंथि पैदा कर दी है, उन्हें सिर्फ अंग्रेजों, जर्मनों अथवा लैटिनों का लिखा हुआ ही परम सत्य लगता है. इन बुद्धिजीवियों को यह लगता है कि दुनिया में सिर्फ ऑक्सफोर्ड और हारवर्ड दो ही विश्वविद्यालय हैं, जबकि वास्तव में हुआ यह था कि प्राचीन तक्षशिला और नालन्दा विश्वविद्यालय जहाँ आक्रान्ताओं द्वारा भीषण अग्निकांड रचे गए अथवा सैकड़ों घोड़ों पर संस्कृत ग्रन्थ लादकर अरब, चीन अथवा यूरोप ले जाए गए. हाल-फिलहाल इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा बिना किसी शोध अथवा सबूत के संस्कृत ग्रंथों एवं लुप्त हो चुकी पुस्तकों/विद्याओं पर जो हाय-तौबा मचाई जा रही है, वह इसी गुलाम मानसिकता का परिचायक है.

इन लुप्त हो चुके शास्त्रों, ग्रंथों एवं अभिलेखों की पुष्टि विभिन्न शोधों द्वारा की जानी चाहिए थी कि आखिर यह तमाम ग्रन्थ और संस्कृत की विशाल बौद्धिक सामग्री कहाँ गायब हो गई? ऐसा क्या हुआ था कि एक बड़े कालखण्ड के कई प्रमुख सबूत गायब हैं? क्या इनके बारे में शोध करना, तथा तत्कालीन ऋषि-मुनियों एवं प्रकाण्ड विद्वानों ने यह “कथित कल्पनाएँ” क्यों की होंगी? कैसे की होंगी? उन कल्पनाओं में विभिन्न धातुओं के मिश्रण अथवा अंतरिक्ष यात्रियों के खान-पान सम्बन्धी जो नियम बनाए हैं वह किस आधार पर बनाए होंगे, यह सब जानना जरूरी नहीं था? लेकिन पश्चिम प्रेरित इन इतिहासकारों ने सिर्फ खिल्ली उड़ाने में ही अपना वक्त खराब किया है और भारतीय ज्ञान को बर्बाद करने की सफल कोशिश की है.

ऑक्सफोर्ड विवि के ही एक संस्कृत प्रोफ़ेसर वीआर रामचंद्रन दीक्षितार अपनी पुस्तक “वार इन द एन्शियेंट इण्डिया इन 1944” में लिखते हैं कि आधुनिक वैमानिकी विज्ञान में भारतीय ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने बताया कि सैकड़ों गूढ़ चित्रों द्वारा प्राचीन भारतीय ऋषियों ने पौराणिक विमानों के बारे में लिखा हुआ है. दीक्षितार आगे लिखते हैं कि राम-रावण के युद्ध में जिस “सम्मोहनास्त्र” के बारे में लिखा हुआ है, पहले उसे भी सिर्फ कल्पना ही माना गया, लेकिन आज की तारीख में जहरीली गैस छोड़ने वाले विशाल बम हकीकत बन चुके हैं. पश्चिम के कई वैज्ञानिकों ने प्राचीन संस्कृत एवं मोड़ी लिपि के ग्रंथों का अनुवाद एवं गहन अध्ययन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि निश्चित रूप से भारतीय मनीषियों/ऋषियों को वैमानिकी का वृहद ज्ञान था. यदि आज के भारतीय बुद्धिजीवी पश्चिम के वैज्ञानिकों की ही बात सुनते हैं तो उनके लिए चार्ल्स बर्लित्ज़ का नाम नया नहीं होगा. प्रसिद्ध पुस्तक “द बरमूडा ट्राएंगल” सहित अनेक वैज्ञानिक पुस्तकें लिखने वाले चार्ल्स बर्लित्ज़ लिखते हैं कि, “यदि आधुनिक परमाणु युद्ध सिर्फ कपोल कल्पना नहीं वास्तविकता है, तो निश्चित ही भारत के प्राचीन ग्रंथों में ऐसा बहुत कुछ है जो हमारे समय से कहीं आगे है”. 400 ईसा पूर्व लिखित “ज्योतिष” ग्रन्थ में ब्रह्माण्ड में धरती की स्थिति, गुरुत्वाकर्षण नियम, ऊर्जा के गतिकीय नियम, कॉस्मिक किरणों की थ्योरी आदि के बारे में बताया जा चुका है. “वैशेषिका ग्रन्थ” में भारतीय विचारकों ने परमाणु विकिरण, इससे फैलने वाली विराट ऊष्मा तथा विकिरण के बारे में अनुमान लगाया है. (स्रोत :- Doomsday 1999 – By Charles Berlitz, पृष्ठ 123-124).

इसी प्रकार कलकत्ता संस्कृत कॉलेज के संस्कृत प्रोफ़ेसर दिलीप कुमार कांजीलाल ने 1979 में Ancient Astronaut Society की म्यूनिख (जर्मनी) में सम्पन्न छठवीं काँग्रेस के दौरान उड़ सकने वाले प्राचीन भारतीय विमानों के बारे में एक उदबोधन दिया एवं पर्चा प्रस्तुत किया था (सौभाग्य से उस समय वहाँ सतत खिल्ली उड़ाने वाले, आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी नहीं थे). प्रोफ़ेसर कांजीलाल के अनुसार ईसा पूर्व 500 में “कौसितकी” एवं “शतपथ ब्रह्मण” नामक कम से कम दो और ग्रन्थ थे, जिसमें अंतरिक्ष से धरती पर देवताओं के उतरने का उल्लेख है. यजुर्वेद में उड़ने वाले यंत्रों को “विमान” नाम दिया गया, जो “अश्विन” उपयोग किया करते थे. इसके अलावा भागवत पुराण में भी “विमान” शब्द का कई बार उल्लेख हुआ है. ऋग्वेद में “अश्विन देवताओं” के विमान संबंधी विवरण बीस अध्यायों (1028 श्लोकों) में समाया हुआ है, जिसके अनुसार अश्विन जिस विमान से आते थे, वह तीन मंजिला, त्रिकोणीय एवं तीन पहियों वाला था एवं यह तीन यात्रियों को अंतरिक्ष में ले जाने में सक्षम था. कांजीलाल के अनुसार, आधे-अधूरे स्वरूप में हासिल हुए वैमानिकी संबंधी इन संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित धातुओं एवं मिश्रणों का सही एवं सटीक अनुमान तथा अनुवाद करना बेहद कठिन है, इसलिए इन पर कोई विशेष शोध भी नहीं हुआ. “अमरांगण-सूत्रधार” ग्रन्थ के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर एवं इंद्र के अलग-अलग पाँच विमान थे. आगे चलकर अन्य ग्रंथों में इन विमानों के चार प्रकार रुक्म, सुंदरा, त्रिपुर एवं शकुन के बारे में भी वर्णन किया गया है, जैसे कि “रुक्म” शंक्वाकार विमान था जो स्वर्ण जड़ित था, जबकि “त्रिपुर विमान” तीन मंजिला था. महर्षि भारद्वाज रचित “वैमानिकी शास्त्र” में यात्रियों के लिए “अभ्रक युक्त” (माएका) कपड़ों के बारे में बताया गया है, और जैसा कि हम जानते हैं आज भी अग्निरोधक सूट में माईका अथवा सीसे का उपयोग होता है, क्योंकि यह ऊष्मारोधी है

भारत के मौजूदा मानस पर पश्चिम का रंग कुछ इस कदर चढ़ा है कि हममें से अधिकांश अपनी खोज या किसी रचनात्मक उपलब्धि पर विदेशी ठप्पा लगते देखना चाहते हैं. इसके बाद हम एक विशेष गर्व अनुभव करते हैं. ऐसे लोगों के लिए मैं प्राचीन भारतीय विमान के सन्दर्भ में एरिक वॉन डेनिकेन की खोज के बारे में बता रहा हूँ उससे पहले एरिक वॉन डेनिकेन का परिचय जरुरी है. 79 वर्षीय डेनिकेन एक खोजी और बहुत प्रसिद्ध लेखक हैं. उनकी लिखी किताब 'चेरिएट्स ऑफ़ द गॉड्स' बेस्ट सेलर रही है. डेनिकेन की खूबी हैं कि उन्होंने प्राचीन इमारतों और स्थापत्य कलाओं का गहन अध्ययन किया और अपनी थ्योरी से साबित किया है कि पूरे विश्व में प्राचीन काल में एलियंस (परग्रही) पृथ्वी पर आते-जाते रहे हैं. एरिक वॉन डेनिकेन 1971 में भारत में कोलकाता गए थे. वे अपनी 'एंशिएंट एलियंस थ्योरी' के लिए वैदिक संस्कृत में कुछ तलाशना चाहते थे. डेनिकेन यहाँ के एक संस्कृत कालेज में गए. यहाँ उनकी मुलाकात इन्हीं प्रोफ़ेसर दिलीप कंजीलाल से हुई थी. प्रोफ़ेसर ने प्राचीन भारतीय ग्रंथों का आधुनिकीकरण किया है. देवताओं के विमान यात्रा वृतांत ने वोन को खासा आकर्षित किया. वोन ने माना कि ये वैदिक विमान वाकई में नटबोल्ट से बने असली एयर क्राफ्ट थे. उन्हें हमारे मंदिरों के आकार में भी विमान दिखाई दिए. उन्होंने जानने के लिए लम्बे समय तक शोध किया कि भारत में मंदिरों का आकार विमान से क्यों मेल खाता है? उनके मुताबिक भारत के पूर्व में कई ऐसे मंदिर हैं जिनमे आकाश में घटी खगोलीय घटनाओ का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है. वॉन के मुताबिक ये खोज का विषय है कि आख़िरकार मंदिर के आकार की कल्पना आई कहाँ से? इसके लिए विश्व के पहले मंदिर की खोज जरुरी हो जाती है और उसके बाद ही पता चल पायेगा कि विमान के आकार की तरह मंदिरों के स्तूप या शिखर क्यों बनाये गए थे? हम आज उसी उन्नत तकनीक की तलाश में जुटे हैं जो कभी भारत के पास हुआ करती थी. 

#NSB

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

भीमा कोरेगाँव क्यों हुआ ?

पोस्ट लंबा है पर भीमा कोरेगाँव क्यों हुआ ? गुजरात में पाटीदार आंदोलन क्यों हुआ ? उत्तरप्रदेश में चुनाव के ठीक पहले सहारनपुर में दलितों ने आगजनी क्यों किया ? जिसे सवर्ण-दलित संघर्ष का नाम मायावती ने दिया ! समय निकालकर ही पढ़े, यदि इच्छा हो तो !
देश का मानस आज दो भाग में बंट गया है ''मोदी समर्थक और मोदी विरोधी'' !
मोदी समर्थक में ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें न तो राजनीति से मतलब है और न ही RSS से ! पर ये है पक्के देश भक्त, इन्हे मोदी से अधिक देश की चिंता है और आज की तारिख में मोदी से अधिक देश की चिंता सायद ही किसी को हो इसी लिए ये मोदी भक्त है ! और इन्ही मोदी भक्तों में हम जैसे, आप जैसे राष्ट्रवादी भी है ! ye निष्पक्ष हैं लेकिन मोदी में उन्हें आशा दिखती है! वर्षों की तुष्टिकरण, भ्रष्टाचार और राजनैतिक अपराध से निराश लोगों में मोदी एक हिम्मत जगाते हैं ! नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए मोदीजी अपने समर्थकों में विश्वास भी जगा चुके हैं !
अब आइए, मोदी विरोधी कौन से लोग हैं...?
मोदी विरोधी केवल विपक्ष की राजनीति या भाजपा विरोधी नेता ही नहीं हैं!
एक बड़ा वर्ग गैर-राजनीतिक लोगों का है, जिसे जानते तो सभी हैं लेकिन स्पष्ट विवरण या तस्वीर नहीं होने के कारण मूल तक नहीं पहुंच पाते!
विरोध के गैर राजनीतिक वर्ग पर नजर डालें !
इसमें पहला वर्ग है मुसलमान! अब जहां मुसलमान है वहां पाकिस्तान और बांग्लादेश स्वत: आ जाता है, इस्लाम के सहारे कह लें या मुस्लिम ब्रदरहुड!
जब बांग्लादेश और पाकिस्तान आता है, तब आतंकवाद, नकली नोट का कारोबार, स्मगलिंग, घुसपैठ और गोधन का अवैध कारोबार अपने आप शामिल हो जाता है !
दूसरा वर्ग है मिशनरीज! मिशनरीज का अर्थ है धर्मांतरण और भारतीय इन्फ्रास्ट्रक्चर एवं जीडीपी को तोड़कर भारत को आयात के भरोसे रखना । इनमे से ज्यादातर ''इटैलियम माई'' के कृपापात्र है जिन पर कृपा आनी रुक गई है मोदी सरकार आने से !
तीसरा वर्ग है नक्सलवाद, यह एक सूअर की प्रजाति है, जिसे गंदगी पसंद है!
मतलब भारत में गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी का आलम बना रहे ताकि इसके नेताओं को समर्थक मिलते रहें, और क्रांति के नाम पर अरबों रुपये की लेवी उगाही का धंधा चलता रहे !
चौथा वर्ग है माफिया, अफसरशाही का गठजोड़, यह घरेलू दीमक है, जो दीवारों की नींव में पैठ बनाकर खोदता रहता है, और तमाम संसाधनों को चट कर जाता है! इस वर्ग में मीडिया के नाम पर जीने खाने वाले दलालों की संख्या भी बहुत बड़ी है।
अब आइए दादरी, ऊना, रोहित वेमुला, असहिष्णुता, अवार्ड वापसी, जेएनयू और तत्काल भीमा कोरेगांव के मुद्दे पर, तब स्पष्ट हो जाएगा कि मोदी विरोधी तबका कर क्या रहा है ?
कंजकिरो झारखंड का छोटा सा गांव है, इसके बगल में बोकारो थर्मल पावर स्टेशन है जहां केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की टुकड़ी तैनात रहती है!
2006- 07 के बीच इस इलाके में दो नक्सली वारदात हुए जिसमें 15 CISF जवान शहीद हो गए थे! इस हमले का मास्टरमाइंड था ''कोबाड गांधी''।
दून स्कूल का छात्र रहा उच्च शिक्षित कोबाड गांधी नक्सली समूह भाकपा माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य और थिंक टैंक है ! कोबाड गांधी पर नक्सली वारदात को अंजाम देने के दर्जनों मुकदमे दर्ज हैं। इसकी पत्नी का नाम है ''अनुराधा गांधी'', वह भी नक्सली संगठन की बड़ी सिंपेथाइजर रही है! मिलिंद तेलतुंबडे नाम का इंजीनियर 80 के दशक में वेस्टर्न कोल फिल्ड्स लिमिटेड में नौकरी करता था एवं ट्रेड यूनियन का नेता था!
उन्हीं दिनों उसकी मुलाकात कोबाड गांधी की पत्नी अनुराधा गांधी से हुई, और वह नक्सली संगठन में शामिल हो गया! मघ्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के जंगलों में मिलिंद तेलतुंबडे दुर्दात नक्सली नेता के रूप में कुख्यात ही नहीं है, बल्कि इस 47 वर्षीय नक्सली की 97 हजार वर्ग किमी में फैला जंगली क्षेत्र में समानांतर सरकार चलती रही है! मिलिंद तेलतुंबडे का बड़ा भाई है आनंद तेलतुंबडे! आनंद तेलतुंबडे बाबा साहब अम्बेडकर की पोती का पति है, यानि बहुजनन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अम्बेडकर का बहनोई ! वही प्रकाश अंबेदकर जिसकी अगुआई में 1जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव में विजय दिवस मनाया जा रहा था, और जिसने 3 जनवरी को महाराष्ट्र बंद का आह्वान किया! नोटबंदी के कारण नक्सली संगठनों के अरबों रुपये बेकार हो गए, कुछ पैसों को नक्सली नेता ठिकाने लगा पाए, लेकिन उससे केवल उनकी जरूरतें पूरी हो सकती है, संगठन नहीं चल पाएगा ! नकली नोट का कारोबार जो बांग्लादेश और पाकिस्तान से चलता था, नोटबंदी ने उसकी कमर तोड़ दी है। बड़े नक्सली नेता जैसे झारखंड में सक्रिय चिराग दा जैसों को ढेर कर दिया गया है, और कोबाड गांधी 17/12/2017 को हैदराबाद से झारखंड पुलिस के हत्थे चढ़ चुका है ! कोबाड गांधी के जरिए सरकार पूरे नक्सली तंत्र की गुत्थी सुलझाने लगी है, समाजसेवी संगठन और NGOs जो नक्सली संगठनों से पोषित हो रहे हैं उनका लेखा-जोखा सरकार को मिलने लगा है ! कोबाड गांधी के जरिए मिलिंद तेलतुंबडे के बारे में कई जानकारियां सरकार को मिल रही है, जिसकी आंच की तपिश में प्रकाश अंबेदकर का झुलसना तय है, इसीलिए प्रकाश अम्बेडकर जो आजतक नेपत्थ्य में था अचानक बाहर छटपटाता हुआ दिखने लगा है! "द वायर" नाम का न्यूज पोर्टल और NDTV कोबाड गांधी का सिंपेथाइजर है, नक्सली लेवी से उगाही का पैसा कहां कहां लगाते हैं, इससे आप स्पष्ट समझ सकते हैं!
''उमर खालिद'' (खा-लीद ) पाकिस्तान पोषित आतंकवाद का सॉफ्ट चेहरा है ! जाहिर है भीमा कोरेगांव के कार्यक्रम में वह क्यों शामिल था, आपको समझ आ गया होगा ! मोदी सरकार देशद्रोह में संलिप्त चूहों के बिल में आग लगा चुकी है, वे बिलबिलाकर बाहर आने लगे हैं, बिल से वे बाहर तो आ गए हैं, लेकिन सरकार उन्हें कितना रगड़ पाती है यह देखना अभी बाकी है !
आखिर दलित आंदोलन ही क्यों....?
नक्सलियों में नई भर्ती लगभग बंद हो चुकी है, नब्बे के दशक में हर वर्ग के आपराधिक प्रवृति के युवा नक्सली संगठनों में शामिल हो रहे थे, एवं जंगलों में आदिवासी युवक युवतियों की बड़ी संख्या उनके लच्छेदार भाषणों के जाल में फंसकर बड़ी फौज बन गई! कांग्रेस सरकार में मिशनरीज की तूती बोलने लगी थी, सो नक्सलवाद के जरिए उनका भी हित सधने लगा था ! अब आदिवासी समाज का नक्सलवाद से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है, इसलिए नक्सली नेता दलितों पर डोरे डाल रहे हैं ! उन्हें खंडित इतिहास पढ़ाकर बरगलाया जा रहा है ! पहले चरण में उन्हें मोदी विरोध की पट्टी पढ़ाई जा रही है, ताकि कांग्रेस और भाजपा विरोधी पार्टियों का वोट बढ़ जाए, और उसके बाद उन्हें नक्सली संगठनों से जोड़ने का प्रयास होगा, ताकि नक्सली फौज खड़ी करके फिर से अरबों रूपयों की लेवी उगाही की अर्थव्यवस्था कायम हो सके ! एक सवाल छूट रहा है ! आखिर कांग्रेस के युवराज इन कथित दलित आंदोलनों में क्यों हाँथ सेक रहे है ?
मतलब साफ़ है समझिये ... दरसल युवराज,सहजादे इन सभी के सहारे 2019 में सत्ता की सिखर पर जाना चाहते है ! अब निर्णय आपको लेना है की युवराज को सत्ता सौपना है या एक फ़कीर को ?
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बुधवार, 3 जनवरी 2018

मुबारक,शुभकामनाएं,बधाई का ब्यापक अर्थ


मुबारक-बधाई व शुभकामनाएं शब्द का उपयोग करते समय हम कई बार अनजाने में गलतियाँ करते हैं, इसका कारण यही हो सकता है कि हमे हिंदी का सही सही ज्ञान नही हो । चूँकि हिंदी में कई भषाये, बोलियाँ मिश्रित जो गई यही भूल का सबसे बड़ा कारण है । आइये भ्रम दूर करते हैं....
मुबारक शब्द का अर्थ...
मुबारक शब्द उर्दू का है,हिंदी का नही । इसका अर्थ हिंदी में शुभ,मंगलप्रद, मंगलकारी; जिसमें बरकत (उन्नति) दी गई हो । किसी अवसर पर बधाई देने के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे- मुबारक हो । 
बधाई शब्द का अर्थ....
बधाई  किसी शुभ अवसर पर अथवा किसी अच्छे कार्य के पूर्ण होने पर दिया जाने वाला संदेशा है ।  मुबारकबाद शुभ अवसर पर गाया जाने वाला गाना; मंगलाचार, बधावा है । 
इस प्रकार आप देख सकते हैं कि दोनों शब्दों के अर्थ एक ही हैं। मुबारक शब्द उर्दू, अरबी का है और बधाई शब्द संस्कृत का है । तो, मुबारक शब्द का प्रयोग उर्दू के वाक्यों में और बधाई का प्रयोग हिंदी/संस्कृत के वाक्यों में होता है जैसे ..
असलम भाई, ईद मुबारक ।
शंकर भाई, होली की बधाई ।
शुभकामनाएं व बधाई....
जब कोई उपलब्धि हो या जब कोई अवसर हो उसके लिये बधाई दी जानी चाहिये। जैसे होली दीपावली आदि। कोई उत्तीर्ण हुआ वह बधाई का पात्र है न कि शुभकामना का। किसी को अवार्ड मिला, वह बधाई का पात्र है न कि शुभकामना का। किसी का जन्म दिन है तो बधाई ही दी जाएगी। जहां थोड़ा भी संशय हो वहां शुभकामनाएं दी जा सकती हैं। यदि कोई एग्जाम देने जा रहा है तो शुभकामनाएं दी जाएंगी, बधाई नही, कोई यात्रा पर जा रहा है तो शुभकामनाएं दी जाएंगी न कि बधाई। तात्पर्य यह है कि जो कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण हो चुका, उसके लिए बधाई और जिसकी पूर्णता/सफलता में संदेह हो उसके लिये शुभकामनाएं।।
इसके कुछ अपवाद भी हैं। जैसे परीक्षा पास करने की बधाई और साक्षात्कार के लिए शुभकामनाएं एक साथ दी जा सकती हैं। उज्ज्वल भविष्य के लिये शुभकामना हो सकती है परन्तु जो हो रहा है, जैसे जन्मदिन, त्योहार, डिग्री, अवार्ड, सम्मान आदि उसके लिए बधाई ही उपयुक्त है। शुभकामना भविष्य के लिये होती है और बधाई वर्तमान की ओर इंगित करती है।