बौद्ध
काल में भारतीय धर्म और राजनीति के इतिहास के साथ छेड़खानी की गई जिसके
परिणामस्वरूप आज समाज में बहुत ही भ्रम फैला हुआ है। खासकर राम और कृष्ण के
बारे में। बौद्ध और मध्यकाल में जहां धार्मिक इतिहास को बिगाड़ा गया, वहीं
मध्यकाल में साहित्यकारों ने कविता, उपन्यास आदि के माध्यम से इतिहास को
अपने तरीके से लिखा। हम यह कह सकते हैं कि उपन्यासकार, फिल्मकार और धार्मिक
कथा लिखने वाले लोगों ने धर्म को समझे बगैर मनमाने तरीके से मूल कहानी के
साथ छेड़खानी की। रामलीला के माध्यम से राम का मजाक उड़ाया जाता रहा है।
पहले रामायण 6 कांडों की होती थी, उसमें उत्तरकांड नहीं होता था। फिर बौद्धकाल में उसमें राम और सीता के बारे में सच-झूठ लिखकर उत्तरकांड जोड़ दिया गया। उस काल से ही इस कांड पर विद्वानों ने घोर विरोध जताया था, लेकिन इस उत्तरकांड के चलते ही साहित्यकारों, कवियों और उपन्यासकारों को लिखने के लिए एक नया मसाला मिल गया और इस तरह राम धीरे-धीरे बदनाम होते गए। इसी उत्तरकांड को तुलसीदास ने लव-कुश कांड नाम से लिखा और कहानी को और विस्तार दिया।
बीइंग एसोसिएशन ने हाल में ही में एक नाटक का मंचन किया जिसका नाम है- 'म्यूजियम ऑफ स्पीशीज इन डेंजर'। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से मंचित इस नाटक में सीता और द्रौपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने का प्रयास किया गया। यह नाटक लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे ने लिखा। सिर्फ नाटक के लिए इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम को बदनाम करने का प्रयास किया गया। निश्चित ही हमारे समाज में राम के बारे में भ्रम के चलते इस तरह के नाटकों का मंचन होना आम है। जब प्राचीन साहित्यकार ऐसा कर सकते हैं तो इसमें लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे का कोई दोष नहीं है। यह उनके धार्मिक ज्ञान की अपूर्णता का दोष है।
उपरोक्त 4 बातों के अलावा उन पर और भी कई तरीके से वार किए जाते रहे हैं। वार करने वाले लोगों की हिम्मत सिर्फ हिन्दू धर्म पर ही वार करने की होती है, किसी अन्य धर्मों पर वार करने की सोचने में ही उनमें दहशत पैदा हो जाती है।
राम और कृष्ण के विरोध की शुरुआत बौद्धकाल से ही होती आई है। भगवान बुद्ध ने कभी राम और कृष्ण का विरोध नहीं किया, लेकिन नवागत या कहें कि नवयान ने अपने धर्म का आधार नफरत को बनाया, बुद्ध के संदेश को नहीं। खैर...
विपिन किशोर सिन्हा ने एक छोटी शोध पुस्तिका लिखी है जिसका नाम है- 'राम ने सीता-परित्याग कभी किया ही नहीं।' यह किताब संस्कृति शोध एवं प्रकाशन वाराणसी ने प्रकाशित की है। इस किताब में वे सारे तथ्य मौजूद हैं, जो यह बताते हैं कि राम ने कभी सीता का परित्याग नहीं किया। न ही सीता ने कभी अग्निपरीक्षा दी।
जिस सीता के लिए राम एक पल भी रह नहीं सकते और जिसके लिए उन्होंने सबसे बड़ा युद्ध लड़ा उसे वे किसी व्यक्ति और समाज के कहने पर क्या छोड़ सकते हैं? राम को महान आदर्श चरित और भगवान माना जाता है। वे किसी ऐसे समाज के लिए सीता को कभी नहीं छोड़ सकते, जो दकियानूसी सोच में जी रहा हो। इसके लिए उन्हें फिर से राजपाट छोड़कर वन में जाना होता तो वे चले जाते।
अब सवाल यह भी उठता है कि रामायण और रामचरित मानस में तो ऐसा ही लिखा है कि राम ने सीता को कलंक से बचने के लिए छोड़ दिया था। दरअसल, शोधकर्ता मानते हैं कि रामायण का उत्तरकांड कभी वाल्मीकिजी ने लिखा ही नहीं जिसमें सीता परित्याग की बात कही गई है।
रामकथा पर सबसे प्रामाणिक शोध करने वाले फादर कामिल बुल्के का स्पष्ट मत है कि 'वाल्मीकि रामायण का 'उत्तरकांड' मूल रामायण के बहुत बाद की पूर्णत: प्रक्षिप्त रचना है।' (रामकथा उत्पत्ति विकास- हिन्दी परिषद, हिन्दी विभाग प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण 1950)
लेखक के शोधानुसार 'वाल्मीकि रामायण' ही राम पर लिखा गया पहला ग्रंथ है, जो निश्चित रूप से बौद्ध धर्म के अभ्युदय के पूर्व लिखा गया था अत: यह समस्त विकृतियों से अछूता था। यह रामायण युद्धकांड के बाद समाप्त हो जाती है। इसमें केवल 6 ही कांड थे, लेकिन बाद में मूल रामायण के साथ बौद्ध काल में छेड़खानी की गई और कई श्लोकों के पाठों में भेद किया गया और बाद में रामायण को नए स्वरूप में उत्तरकांड को जोड़कर प्रस्तुत किया गया।
बौद्ध और जैन धर्म के अभ्युदय काल में नए धर्मों की प्रतिष्ठा और श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने के लिए हिन्दुओं के कई धर्मग्रंथों के साथ इसी तरह का हेर-फेर किया गया। इसी के चलते रामायण में भी कई विसंगतियां जोड़ दी गईं। बाद में इन विसंगतियों का ही अनुसरण किया गया। कालिदास, भवभूति जैसे कवि सहित अनेक भाषाओं के रचनाकारों सहित 'रामचरित मानस' के रचयिता ने भी भ्रमित होकर उत्तरकांड को लव-कुश कांड के नाम से लिखा। इस तरह राम की बदनामी का विस्तार हुआ।
राजा राम या भगवान : हिन्दू धर्म के आलोचक खासकर 'राम' की जरूर आलोचना करते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि 'राम' हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत आधार स्तंभ है। इस स्तंभ को गिरा दिया गया तो हिन्दुओं को धर्मांतरित करना और आसान हो जाएगा। इसी नीति के चलते तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ मिलकर 'राम' को एक सामान्य पुरुष घोषित करने की साजिश की जाती रही है। वे कहते हैं कि राम कोई भगवान नहीं थे, वे तो महज एक राजा थे। उन्होंने समाज और धर्म के लिए क्या किया? वे तो अपनी स्त्री के लिए रावण से लड़े और उसे उसके चंगुल से मुक्त कराकर लाए। इससे वे भगवान कैसे हो गए?
भगवान राम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहा गया है अर्थात पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ उत्तम पुरुष। अपने वनवास के दौरान उन्होंने देश के सभी आदिवासी और दलितों को संगठित करने का कार्य किया और उनको जीवन जीने की शिक्षा दी। इस दौरान उन्होंने सादगीभरा जीवन जिया। उन्होंने देश के सभी संतों के आश्रमों को बर्बर लोगों के आतंक से बचाया। इसका उदाहरण सिर्फ रामायण में ही नहीं, देशभर में बिखरे पड़े साक्ष्यों में आसानी से मिल जाएगा।
14 वर्ष के वनवास में से अंतिम 2 वर्ष को छोड़कर राम ने 12 वर्षों तक भारत के आदिवासियों और दलितों को भारत की मुख्य धारा से जोड़ने का भरपूर प्रयास किया। शुरुआत होती है केवट प्रसंग से। इसके बाद चित्रकूट में रहकर उन्होंने धर्म और कर्म की शिक्षा दीक्षा ली। यहीं पर वाल्मीकि आश्रम और मांडव्य आश्रम था। यहीं पर से राम के भाई भरत उनकी चरण पादुका ले गए थे। चित्रकूट के पास ही सतना में अत्रि ऋषि का आश्रम था।
दंडकारण्य : अत्रि को राक्षसों से मुक्ति दिलाने के बाद वे दंडकारण्य क्षेत्र में चले गए, जहां आदिवासियों की बहुलता थी। यहां के आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त कराने के बाद वे 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच ही रहे। यहीं पर उनकी जटायु से मुलाकात हुई थी, जो उनका मित्र था। जब रावण सीता को हरण करके ले गया था, तब सीता की खोज में राम का पहला सामना शबरी से हुआ था। इसके बाद वानर जाति के हनुमान और सुग्रीव से।
वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।
इसी दंडकारण्य क्षेत्र में रहकर राम ने अखंड भारत के सभी दलितों को अपना बनाया। भारतीय राज्य तमिलनाडु, महाराष्ट्र, अंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, केरल, कर्नाटक सहित नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक-संस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम इसीलिए जिंदा हैं। राम ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धार्मिक आधार पर संपूर्ण अखंड भारत के दलित और आदिवासियों को एकजुट कर दिया था। इस संपूर्ण क्षेत्र के आदिवासियों में राम और हनुमान को सबसे ज्यादा पूजनीय इसीलिए माना जाता है। लेकिन अंग्रेज काल में ईसाइयों ने भारत के इसी हिस्से में धर्मांतरण का कुचक्र चलाया और राम को दलितों से काटने के लिए सभी तरह की साजिश की, जो आज भी जारी है।
राम राजा नहीं भगवान : जब भी कोई अवतार जन्म लेता है तो उसके कुछ चिह्न या लक्षण होते हैं और उसके अवतार होने की गवाही देने वाला कोई होता है। राम ने जब जन्म लिया तो उनके चरणों में कमल के फूल अंकित थे, जैसा कि कृष्ण के चरणों में थे। राम के साथ हनुमान जैसा सर्वशक्तिमान देव को होना इस बात की सूचना है कि राम भगवान थे। रावण जैसा विद्वान और मायावी क्या एक सामान्य पुरुष के हाथों मारा जा सकता है? इन सबको छोड़ भी दें तो ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र ने इस बात की पुष्टि की कि राम सामान्य पुरुष नहीं, भगवान हैं और वह भी विष्णु के अवतार। इक्ष्वाकु वंश में एक नहीं, कई भगवान हुए उनमें से सबसे पहला नाम ऋषभनाथ का आता है, जो जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे।
यह तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में लिखा- 'ढोल गवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।' ऐसा श्रीराम ने कभी नहीं कहा। यदि रामानंद सागर कोई रामायण लिखते हैं और वे अपनी इच्छा से जब राम के डॉयलाग लिखते हैं, तो इसका यह मतलब तो नहीं लगाना चाहिए कि ऐसा राम ने बोला है। तुलसीदास द्वारा लिखे गए इस एक वाक्य के कारण राम की बहुत बदनामी हुई। कोई यह नहीं सोचता कि जब कोई लेखक अपने तरीके से रामायण लिखता है तो उस समय उस पर उस काल की परिस्थिति और अपने विचार ही हावी रहते हैं।
दूसरी बात राम द्वारा जल समाधि लेने को आलोचकों ने आत्महत्या करना बताया। मध्यकाल में ऐसे बहुत से साधु हुए हैं जिन्होंने जिंदा रहते हुए सभी के सामने धीरे-धीरे देह छोड़ दी और फिर उनकी समाधि बनाई गई। राजस्थान के महान संत बाबा रामदेव (रामापीर) ने जिंदा समाधि ले ली थी, तो क्या हम यह कहें कि उन्होंने आत्महत्या कर ली?
पहले रामायण 6 कांडों की होती थी, उसमें उत्तरकांड नहीं होता था। फिर बौद्धकाल में उसमें राम और सीता के बारे में सच-झूठ लिखकर उत्तरकांड जोड़ दिया गया। उस काल से ही इस कांड पर विद्वानों ने घोर विरोध जताया था, लेकिन इस उत्तरकांड के चलते ही साहित्यकारों, कवियों और उपन्यासकारों को लिखने के लिए एक नया मसाला मिल गया और इस तरह राम धीरे-धीरे बदनाम होते गए। इसी उत्तरकांड को तुलसीदास ने लव-कुश कांड नाम से लिखा और कहानी को और विस्तार दिया।
बीइंग एसोसिएशन ने हाल में ही में एक नाटक का मंचन किया जिसका नाम है- 'म्यूजियम ऑफ स्पीशीज इन डेंजर'। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से मंचित इस नाटक में सीता और द्रौपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने का प्रयास किया गया। यह नाटक लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे ने लिखा। सिर्फ नाटक के लिए इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम को बदनाम करने का प्रयास किया गया। निश्चित ही हमारे समाज में राम के बारे में भ्रम के चलते इस तरह के नाटकों का मंचन होना आम है। जब प्राचीन साहित्यकार ऐसा कर सकते हैं तो इसमें लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे का कोई दोष नहीं है। यह उनके धार्मिक ज्ञान की अपूर्णता का दोष है।
राम को 4 बातों के लिए बदनाम किया जाता है:-
1. उन्होंने सीता का परित्याग कर दिया था,
2. वे भगवान नहीं, महज एक राजा थे,
3. राम का वचन, 'ढोल गवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी...' और
4. उन्होंने आत्महत्या कर ली थी।
उपरोक्त 4 बातों के अलावा उन पर और भी कई तरीके से वार किए जाते रहे हैं। वार करने वाले लोगों की हिम्मत सिर्फ हिन्दू धर्म पर ही वार करने की होती है, किसी अन्य धर्मों पर वार करने की सोचने में ही उनमें दहशत पैदा हो जाती है।
राम और कृष्ण के विरोध की शुरुआत बौद्धकाल से ही होती आई है। भगवान बुद्ध ने कभी राम और कृष्ण का विरोध नहीं किया, लेकिन नवागत या कहें कि नवयान ने अपने धर्म का आधार नफरत को बनाया, बुद्ध के संदेश को नहीं। खैर...
1. सीता का परित्याग कर दिया था? सीता 2 वर्ष तक रावण की अशोक वाटिका में बंधक बनकर रही लेकिन इस दौरान रावण ने सीता को छुआ तक नहीं। इसका कारण था कि रावण को स्वर्ग की अप्सरा ने यह शाप दिया था कि जब भी तुम किसी ऐसी स्त्री से प्रणय करोगे, जो तुम्हें नहीं चाहती है तो तुम तत्काल ही मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे। अत: रावण किसी भी स्त्री की इच्छा के बगैर उससे प्रणय नहीं कर सकता था। वर्ना रावण इतना अच्छा नहीं था कि 2 वर्ष तक किसी स्त्री को गलत इरादे से नहीं छुए।
सीता को मुक्त करने के बाद समाज में यह प्रचारित है कि अग्निपरीक्षा के बाद राम ने प्रसन्न भाव से सीता को ग्रहण किया और उपस्थित समुदाय से कहा कि उन्होंने लोक निंदा के भय से सीता को ग्रहण नहीं किया था। किंतु अब अग्निपरीक्षा से गुजरने के बाद यह सिद्ध होता है कि सीता पवित्र है, तो अब किसी को इसमें संशय नहीं होना चाहिए। लेकिन इस अग्निपरीक्षा के बाद भी जनसमुदाय में तरह-तरह की बातें बनाई जाने लगीं, तब राम ने सीता को छोड़ने का मन बनाया। यह बात उत्तरकांड में लिखी है। यह मूल रामायण में नहीं है।
वाल्मीकि रामायण, जो निश्चित रूप से बौद्ध धर्म के अभ्युदय के पूर्व लिखी गई थी, समस्त विकृतियों से अछूती है। इसमें सीता परित्याग, शम्बूक वध, रावण चरित आदि कुछ भी नहीं था। यह रामायण युद्धकांड (लंकाकांड) में समाप्त होकर केवल 6 कांडों की थी। इसमें उत्तरकांड बाद में जोड़ा गया।
शोधकर्ता कहते हैं कि हमारे इतिहास की यह सबसे बड़ी भूल थी कि बौद्धकाल में उत्तरकांड लिखा गया और इसे वाल्मीकि रामायण का हिस्सा बना दिया गया। हो सकता है कि यह उस काल की सामाजिक मजबूरियां थीं, लेकिन सच को इस तरह बिगाड़ना कहां तक उचित है? सीता ने न तो अग्निपरीक्षा दी और न ही पुरुषोत्तम राम ने उनका कभी परित्याग किया।
विपिन किशोर सिन्हा ने एक छोटी शोध पुस्तिका लिखी है जिसका नाम है- 'राम ने सीता-परित्याग कभी किया ही नहीं।' यह किताब संस्कृति शोध एवं प्रकाशन वाराणसी ने प्रकाशित की है। इस किताब में वे सारे तथ्य मौजूद हैं, जो यह बताते हैं कि राम ने कभी सीता का परित्याग नहीं किया। न ही सीता ने कभी अग्निपरीक्षा दी।
जिस सीता के लिए राम एक पल भी रह नहीं सकते और जिसके लिए उन्होंने सबसे बड़ा युद्ध लड़ा उसे वे किसी व्यक्ति और समाज के कहने पर क्या छोड़ सकते हैं? राम को महान आदर्श चरित और भगवान माना जाता है। वे किसी ऐसे समाज के लिए सीता को कभी नहीं छोड़ सकते, जो दकियानूसी सोच में जी रहा हो। इसके लिए उन्हें फिर से राजपाट छोड़कर वन में जाना होता तो वे चले जाते।
अब सवाल यह भी उठता है कि रामायण और रामचरित मानस में तो ऐसा ही लिखा है कि राम ने सीता को कलंक से बचने के लिए छोड़ दिया था। दरअसल, शोधकर्ता मानते हैं कि रामायण का उत्तरकांड कभी वाल्मीकिजी ने लिखा ही नहीं जिसमें सीता परित्याग की बात कही गई है।
रामकथा पर सबसे प्रामाणिक शोध करने वाले फादर कामिल बुल्के का स्पष्ट मत है कि 'वाल्मीकि रामायण का 'उत्तरकांड' मूल रामायण के बहुत बाद की पूर्णत: प्रक्षिप्त रचना है।' (रामकथा उत्पत्ति विकास- हिन्दी परिषद, हिन्दी विभाग प्रयाग विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण 1950)
लेखक के शोधानुसार 'वाल्मीकि रामायण' ही राम पर लिखा गया पहला ग्रंथ है, जो निश्चित रूप से बौद्ध धर्म के अभ्युदय के पूर्व लिखा गया था अत: यह समस्त विकृतियों से अछूता था। यह रामायण युद्धकांड के बाद समाप्त हो जाती है। इसमें केवल 6 ही कांड थे, लेकिन बाद में मूल रामायण के साथ बौद्ध काल में छेड़खानी की गई और कई श्लोकों के पाठों में भेद किया गया और बाद में रामायण को नए स्वरूप में उत्तरकांड को जोड़कर प्रस्तुत किया गया।
बौद्ध और जैन धर्म के अभ्युदय काल में नए धर्मों की प्रतिष्ठा और श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने के लिए हिन्दुओं के कई धर्मग्रंथों के साथ इसी तरह का हेर-फेर किया गया। इसी के चलते रामायण में भी कई विसंगतियां जोड़ दी गईं। बाद में इन विसंगतियों का ही अनुसरण किया गया। कालिदास, भवभूति जैसे कवि सहित अनेक भाषाओं के रचनाकारों सहित 'रामचरित मानस' के रचयिता ने भी भ्रमित होकर उत्तरकांड को लव-कुश कांड के नाम से लिखा। इस तरह राम की बदनामी का विस्तार हुआ।
राजा राम या भगवान : हिन्दू धर्म के आलोचक खासकर 'राम' की जरूर आलोचना करते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि 'राम' हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत आधार स्तंभ है। इस स्तंभ को गिरा दिया गया तो हिन्दुओं को धर्मांतरित करना और आसान हो जाएगा। इसी नीति के चलते तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ मिलकर 'राम' को एक सामान्य पुरुष घोषित करने की साजिश की जाती रही है। वे कहते हैं कि राम कोई भगवान नहीं थे, वे तो महज एक राजा थे। उन्होंने समाज और धर्म के लिए क्या किया? वे तो अपनी स्त्री के लिए रावण से लड़े और उसे उसके चंगुल से मुक्त कराकर लाए। इससे वे भगवान कैसे हो गए?
भगवान राम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहा गया है अर्थात पुरुषों में सबसे श्रेष्ठ उत्तम पुरुष। अपने वनवास के दौरान उन्होंने देश के सभी आदिवासी और दलितों को संगठित करने का कार्य किया और उनको जीवन जीने की शिक्षा दी। इस दौरान उन्होंने सादगीभरा जीवन जिया। उन्होंने देश के सभी संतों के आश्रमों को बर्बर लोगों के आतंक से बचाया। इसका उदाहरण सिर्फ रामायण में ही नहीं, देशभर में बिखरे पड़े साक्ष्यों में आसानी से मिल जाएगा।
14 वर्ष के वनवास में से अंतिम 2 वर्ष को छोड़कर राम ने 12 वर्षों तक भारत के आदिवासियों और दलितों को भारत की मुख्य धारा से जोड़ने का भरपूर प्रयास किया। शुरुआत होती है केवट प्रसंग से। इसके बाद चित्रकूट में रहकर उन्होंने धर्म और कर्म की शिक्षा दीक्षा ली। यहीं पर वाल्मीकि आश्रम और मांडव्य आश्रम था। यहीं पर से राम के भाई भरत उनकी चरण पादुका ले गए थे। चित्रकूट के पास ही सतना में अत्रि ऋषि का आश्रम था।
दंडकारण्य : अत्रि को राक्षसों से मुक्ति दिलाने के बाद वे दंडकारण्य क्षेत्र में चले गए, जहां आदिवासियों की बहुलता थी। यहां के आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त कराने के बाद वे 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच ही रहे। यहीं पर उनकी जटायु से मुलाकात हुई थी, जो उनका मित्र था। जब रावण सीता को हरण करके ले गया था, तब सीता की खोज में राम का पहला सामना शबरी से हुआ था। इसके बाद वानर जाति के हनुमान और सुग्रीव से।
वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।
इसी दंडकारण्य क्षेत्र में रहकर राम ने अखंड भारत के सभी दलितों को अपना बनाया। भारतीय राज्य तमिलनाडु, महाराष्ट्र, अंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, केरल, कर्नाटक सहित नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड आदि देशों की लोक-संस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम इसीलिए जिंदा हैं। राम ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धार्मिक आधार पर संपूर्ण अखंड भारत के दलित और आदिवासियों को एकजुट कर दिया था। इस संपूर्ण क्षेत्र के आदिवासियों में राम और हनुमान को सबसे ज्यादा पूजनीय इसीलिए माना जाता है। लेकिन अंग्रेज काल में ईसाइयों ने भारत के इसी हिस्से में धर्मांतरण का कुचक्र चलाया और राम को दलितों से काटने के लिए सभी तरह की साजिश की, जो आज भी जारी है।
राम राजा नहीं भगवान : जब भी कोई अवतार जन्म लेता है तो उसके कुछ चिह्न या लक्षण होते हैं और उसके अवतार होने की गवाही देने वाला कोई होता है। राम ने जब जन्म लिया तो उनके चरणों में कमल के फूल अंकित थे, जैसा कि कृष्ण के चरणों में थे। राम के साथ हनुमान जैसा सर्वशक्तिमान देव को होना इस बात की सूचना है कि राम भगवान थे। रावण जैसा विद्वान और मायावी क्या एक सामान्य पुरुष के हाथों मारा जा सकता है? इन सबको छोड़ भी दें तो ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र ने इस बात की पुष्टि की कि राम सामान्य पुरुष नहीं, भगवान हैं और वह भी विष्णु के अवतार। इक्ष्वाकु वंश में एक नहीं, कई भगवान हुए उनमें से सबसे पहला नाम ऋषभनाथ का आता है, जो जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे।
यह तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में लिखा- 'ढोल गवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।' ऐसा श्रीराम ने कभी नहीं कहा। यदि रामानंद सागर कोई रामायण लिखते हैं और वे अपनी इच्छा से जब राम के डॉयलाग लिखते हैं, तो इसका यह मतलब तो नहीं लगाना चाहिए कि ऐसा राम ने बोला है। तुलसीदास द्वारा लिखे गए इस एक वाक्य के कारण राम की बहुत बदनामी हुई। कोई यह नहीं सोचता कि जब कोई लेखक अपने तरीके से रामायण लिखता है तो उस समय उस पर उस काल की परिस्थिति और अपने विचार ही हावी रहते हैं।
दूसरी बात राम द्वारा जल समाधि लेने को आलोचकों ने आत्महत्या करना बताया। मध्यकाल में ऐसे बहुत से साधु हुए हैं जिन्होंने जिंदा रहते हुए सभी के सामने धीरे-धीरे देह छोड़ दी और फिर उनकी समाधि बनाई गई। राजस्थान के महान संत बाबा रामदेव (रामापीर) ने जिंदा समाधि ले ली थी, तो क्या हम यह कहें कि उन्होंने आत्महत्या कर ली?
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