वेदांत' शब्द संस्कृत के दो
शब्दों से मिलकर बना है -'वेद' और 'अंत।' हमारे वेद चार हैं -ऋग्वेद,
यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन चारों वेदों के चार-चार भाग हैं। आखिरी
भाग 'उपनिषद' हैं। उपनिषद ही 'वेदांत' हैं। वेदों के अंत में होने से वे
वेदांत कहलाए। वेदांत भावनाओं को महत्व नहीं देता। जैसे गणित तर्क पर
आधारित है, वह हमारी कल्पना अथवा मन की भावना से नहीं चलता, उसी प्रकार
वेदांत भी नियमों पर आधारित है। वेदांत के नियमों का पालन जीवन को सुखी
बनाने के लिए जरूरी है। इन नियमों का उद्देश्य है अपने मन का विश्लेषण।
वेदांत का प्रमुख नियम है, 'जितना हम आध्यात्मिक स्तर पर ऊपर उठेंगे उतनी हमारी संसार पर निर्भरता कम होगी।' जो व्यक्ति संसार पर जितना अधिक निर्भर है, वह उतना ही कम आध्यात्मिक है। कोई व्यक्ति कितना आध्यात्मिक है, यह हम कैसे माप सकते हैं? हम देखते हैं कि शरीर का तापमान, ब्लडप्रेशर, हीमोग्लोबिन, शुगर आदि नापने के लिए सैकड़ों उपकरण हैं। पर किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति कितनी है, इसको मापने के लिए कोई उपकरण नहीं है।
जो व्यक्ति पूजा करता है, माला जपता है, तिलक लगाकर सुबह-शाम मंदिर जाता है, क्या हम उसे आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त कह सकते हैं? अथवा जो व्यक्ति वस्त्र त्याग चुका है, दाढ़ी बढ़ा रखी है, क्या उसे हम आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त कह सकते हैं? वेदांत ने इसे जानने का एक थर्मामीटर इस नियम के रूप में दिया है। हमारी संसार पर निर्भरता जितनी अधिक होगी, हम अध्यात्म से उतने ही दूर होंगे। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से अस्सी प्रतिशत उन्नत है, उसकी संसार पर निर्भरता बीस प्रतिशत होगी। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से बीस प्रतिशत उन्नत है, तो उसकी संसार में प्रवृत्ति अस्सी प्रतिशत होगी। आध्यात्मिक विकास का प्रतिशत जितना बढ़ता जाएगा, सांसारिक निर्भरता उतनी कम होती जाएगी।
जो व्यक्ति सांसारिक अथवा इंद्रिय विषयों पर जितना अधिक निर्भर है वह उतना कम आध्यात्मिक है। इंद्रिय विषय जितने हमारे वश में होते जाते हैं, उतनी हम आध्यात्मिक उन्नति करते जाते हैं। यदि दवाई अधिक मात्रा में ली जाए तो वह विष बन जाती है, ऐसे ही विषयों का अधिक सेवन किया जाए तो वे विष बन जाते हैं। आज हम इस बात से दुखी नहीं हैं कि तालिबान ने पाकिस्तान पर आक्रमण कर दिया अथवा ईरान -इराक में लड़ाई हो रही है, हम इस बात से दुखी हैं कि वह व्यक्ति मुझे नमस्ते करके नहीं गया। अथवा उसने मेरी प्रशंसा नहीं की, मुझे सम्मान नहीं दिया। छोटी-छोटी बातों को लेकर आज हम दुखी होते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत है, वह इन छोटी-छोटी बातों से दुखी नहीं होता। वह इन सबके मोह से परे हो जाता है।
ईशावास्योपनिषद में कहा है, जो संसार से मोह रखते हैं वे अंधकार में हैं, पर जो अध्यात्म में मोह रखते हैं वे गहन अंधकार में हैं। अध्यात्म पर निर्भरता भी एक बंधन है, इस बंधन से भी जो व्यक्ति मुक्त हो जाता है वह वास्तविक रूप से आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करता है।
इस संसार का ज्ञान नियमों पर आधारित है। गणित, रसायन शास्त्र, भौतिक विज्ञान, समाज शास्त्र नियमों पर आधारित हैं। हमारा शरीर भी नियमों पर आधारित है। पूरा संसार नियमों पर चलता है। ये नियम दो प्रकार के हैं -कुछ परिवर्तनीय हैं जो समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं। कुछ अपरिवर्तनीय हैं जिन पर देश, काल, परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन अपरिवर्तनीय नियमों को ही 'सनातन धर्म' कहा जाता है। 'सनातन' से अभिप्राय है 'जो अनादि काल से चला आ रहा है।' और 'धर्म' से अभिप्राय है 'नियम।' इस सनातन धर्म का ही दूसरा नाम 'वेदांत' है।
वेदांत का प्रमुख नियम है, 'जितना हम आध्यात्मिक स्तर पर ऊपर उठेंगे उतनी हमारी संसार पर निर्भरता कम होगी।' जो व्यक्ति संसार पर जितना अधिक निर्भर है, वह उतना ही कम आध्यात्मिक है। कोई व्यक्ति कितना आध्यात्मिक है, यह हम कैसे माप सकते हैं? हम देखते हैं कि शरीर का तापमान, ब्लडप्रेशर, हीमोग्लोबिन, शुगर आदि नापने के लिए सैकड़ों उपकरण हैं। पर किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति कितनी है, इसको मापने के लिए कोई उपकरण नहीं है।
जो व्यक्ति पूजा करता है, माला जपता है, तिलक लगाकर सुबह-शाम मंदिर जाता है, क्या हम उसे आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त कह सकते हैं? अथवा जो व्यक्ति वस्त्र त्याग चुका है, दाढ़ी बढ़ा रखी है, क्या उसे हम आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त कह सकते हैं? वेदांत ने इसे जानने का एक थर्मामीटर इस नियम के रूप में दिया है। हमारी संसार पर निर्भरता जितनी अधिक होगी, हम अध्यात्म से उतने ही दूर होंगे। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से अस्सी प्रतिशत उन्नत है, उसकी संसार पर निर्भरता बीस प्रतिशत होगी। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से बीस प्रतिशत उन्नत है, तो उसकी संसार में प्रवृत्ति अस्सी प्रतिशत होगी। आध्यात्मिक विकास का प्रतिशत जितना बढ़ता जाएगा, सांसारिक निर्भरता उतनी कम होती जाएगी।
जो व्यक्ति सांसारिक अथवा इंद्रिय विषयों पर जितना अधिक निर्भर है वह उतना कम आध्यात्मिक है। इंद्रिय विषय जितने हमारे वश में होते जाते हैं, उतनी हम आध्यात्मिक उन्नति करते जाते हैं। यदि दवाई अधिक मात्रा में ली जाए तो वह विष बन जाती है, ऐसे ही विषयों का अधिक सेवन किया जाए तो वे विष बन जाते हैं। आज हम इस बात से दुखी नहीं हैं कि तालिबान ने पाकिस्तान पर आक्रमण कर दिया अथवा ईरान -इराक में लड़ाई हो रही है, हम इस बात से दुखी हैं कि वह व्यक्ति मुझे नमस्ते करके नहीं गया। अथवा उसने मेरी प्रशंसा नहीं की, मुझे सम्मान नहीं दिया। छोटी-छोटी बातों को लेकर आज हम दुखी होते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत है, वह इन छोटी-छोटी बातों से दुखी नहीं होता। वह इन सबके मोह से परे हो जाता है।
ईशावास्योपनिषद में कहा है, जो संसार से मोह रखते हैं वे अंधकार में हैं, पर जो अध्यात्म में मोह रखते हैं वे गहन अंधकार में हैं। अध्यात्म पर निर्भरता भी एक बंधन है, इस बंधन से भी जो व्यक्ति मुक्त हो जाता है वह वास्तविक रूप से आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करता है।
इस संसार का ज्ञान नियमों पर आधारित है। गणित, रसायन शास्त्र, भौतिक विज्ञान, समाज शास्त्र नियमों पर आधारित हैं। हमारा शरीर भी नियमों पर आधारित है। पूरा संसार नियमों पर चलता है। ये नियम दो प्रकार के हैं -कुछ परिवर्तनीय हैं जो समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं। कुछ अपरिवर्तनीय हैं जिन पर देश, काल, परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन अपरिवर्तनीय नियमों को ही 'सनातन धर्म' कहा जाता है। 'सनातन' से अभिप्राय है 'जो अनादि काल से चला आ रहा है।' और 'धर्म' से अभिप्राय है 'नियम।' इस सनातन धर्म का ही दूसरा नाम 'वेदांत' है।
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