रंगों का त्यौहार होली पूरी दुनिया में अपने अनोखे अंदाज के लिए जाना
जाता है।कहते हैं कि इस दिन रंगों में रंग ही नहीं मिलते बल्कि दिल भी आपस
में मिल जाते हैं। फिल्म शोले के एक सुप्रसिद्ध गाने के बोल भी इसी ओर
इशारा करते हैं।हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार हर वर्ष फाल्गुन माह में होली का
त्यौहार मनाया जाता है, इस माह की पूर्णिमा को पूरी दुनिया में होली
पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है।
मान्यता के अनुसार होली पूर्णिमा के दिन हिरणकश्यपू नाम के राक्षस ने
अपने पुत्र प्रहलाद को होलिका की गोद में बिठाकर आग लगा दी थी लेकिन इस आग
में होलिका जलकर भस्म हो गई और भगवान विष्णु का भक्त होने के कारण प्रहलाद
का बाल भी बांका नहीं हुआ जबकि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त
था। तभी से होली पूर्णिमा के दिन होलिका दहन की परंपरा चल निकली। होलिका दहन
की इस परंपरा और कथा के बारे में सभी जानते हैं।
होली खेलने की परंपरा कोई आधुनिक परंपरा नहीं है इसका उल्लेख हमारे
धार्मिक ग्रंथों नारद पुराण, भविष्य पुराण में मिलता है।कुछ प्रसिद्ध
पुस्तकोंजैसे जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र में भी
होली पर्व के बारे में वर्णनं किया गया है।
इतिहास पर अगर प्रकाश डालें तो मुग़ल काल में होली की परंपरा के सटीक
उदाहरण मिलते हैं।इतिहास में इस बात का वर्णन मिलता है कि अकबर अपनी पत्नी
जोधाबाई के साथ होली खेला करते थे।अकबर के समय होली के दिन मेलों का आयोजन
किया जाता था जिसकी सभी तैयारियां खुद अकबर की निगरानी में पूरी होती थीं।
अब बात करते हैं जहांगीर के समय की, जहांगीर अपनी बेगम नूरजहां के साथ होली
का त्यौहार मनाया करते थे। अलवर के ऐतिहासिक संग्रहालय में एक प्राचीन
चित्र लगा हुआ है जिसमें जहांगीर को नूरजहां के साथ होली खेलते दिखाया गया
है।इतना ही नहीं जहांगीर ने होली की परंपरा का उल्लेख अपनी पुस्तक तुज्क-ए
-जहांगीरी में भी किया है।
शाहजहां का समय आते-आते होली खेलने का मुगलिया अंदाज बिलकुल बदल गया।
इतिहास पर गौर किया जाए तो मिलता है कि शाहजहां के समय होली को ईद-ए
-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) के नाम से जाना जाता था।इस अवसर पर
मिलन समारोहों का आयोजन किया जाता था जिसमें विभिन्न रियासतों के
राजे-महाराजे हिस्सा लिया करते थे, इन मिलन समारोहों का मुख्य उद्देश्य
आपसी दुश्मनी को भुलाकर भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना हुआ करता था।
मुगलों के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफ़र के समय में भी होली का विशेष
महत्त्व हुआ करता था, इतिहास इस ओर इंगित करता है कि होली के अवसर पर
बहादुर शाह जफ़र के मंत्री रंग लगाने जाया करते थे।यही कारण था कीसन 1857 की क्रांति में पुरे हिन्दुस्तान के हिन्दू बादशाह बहादुर शाह जफ़र के झंडे के नीचे क्रांति किया ।
पर दुःख का विषय यह है की आज ज्यादातर मुस्लिम भाई हिन्दुओ के त्यौहार में सरीक नहीं होती है और यही हाल हिन्दुओ का भी है (अपवाद की बात नहीं कर रहा हु ) जहा तक मेरी ब्यक्तिगत राय है की हम सभी धर्मो के लोगो को आपस ने सभी त्यौहार मिल जुल कर मानना और मनाना चाहिए । पर यहाँ एक बहुत बड़ा अंतर है साकाहार और मांसाहार का जो हमें इन त्योहारों पर साथ खडा नहीं होने देता है । फिर भी रंगों का त्यौहार होली में इस तरह का कोई भी अड़चन नहीं होना चाहिए । आखिर हम भी तो ईद में मीठी सेवैया खाते है मुस्लिमो के घर में फिर मुस्लिम भाई होली का रंग से दूर क्यों ?
नागेश्वर जी बहुत अच्छा लेखन हैं आपका, जानकारी से भरपूर, क्या में आपके लेख अपने ब्लॉग " हिंदू हिंदी हिन्दुस्थान " पर डाल सकता हूँ..वन्देमातरम...
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