पूरा ब्लॉग सावधानी से पढेगे तो ही समझ आयेगा की क्या है !! रासलीला सब्द का रहस्य !!
कही पर किसी भी प्रकार के अनैतिक कार्य में स्त्री -पुरष हो या जवान लड़का-लडकी हो, कही भी अकेले मिल जाए या दिख जाए तो सामान्य भाषा में ज्यादातर यही कहा जाता है की "रासलीला" कर रहे है ,,समाज में कही भी रासलीला सब्द का उपयोग बहुतायत में होता है लोग बिना सोचे समझे इस सब्द "रासलीला" का प्रयोग करते है ..पर अधात्म की बात करे तो कृष्ण भगवान् के लिए भी यही सब्द का प्रयोग कई बार कई ग्रंथो में किया गया है ...पर इस सब्द "रासलीला" का क्या मतलब होता है बहुत ही कम बंधू जानते है ! प्राचीन भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है! भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है!दरअसल रास एक कलाविधा है! प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है। मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती हैं! अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करनेवाले अनेक रासगीतों की रचना की है! रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है!मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं! कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है! अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है! इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है! रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है! रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना! रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना !......
रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है! इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे! इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है! नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है! जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं! रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं, विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है ! र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं, लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है।
वसंत ऋतु में बुंदेलखण्ड में एक प्रसिद्ध मेला रहस लगता है जिसका संबंध भी रास से जोड़ा जाता है, कुछ विद्वानों ने रासो की व्युत्पत्ति रहस्' शब्द के रहस से जोड़ी है, रामनारायण दूगड लिखते हैं- रास या रासो शब्द रहस या रहस्य का प्राकृत रुप मालूम पड़ता है, इसका अर्थ गुप्त बात या भेद है, जैसे कि शिव रहस्य, देवी रहस्य आदि ग्रन्थों के नाम हैं, वैसे शुद्ध नाम पृथ्वीराज रहस्य है जोकि प्राकृत में पृथ्वीराज रास, रासा या रासो हो गया,डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल और कविराज श्यामदास के अनुसार रहस्य पद का प्राकृत रुप रहस्सो बनता है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रुपान्तर रासो बन गया है! रहस्य> रहस्सो> रअस्सो >रासो इसका विकास क्रम है, बुंदेलखण्ड में सागर के पास गढ़ाकोटा के प्रसिद्ध रहस मेला के संदर्भ में भी इसी रहस्य शब्द का हवाला दिया जाता है,बताते हैं कि अंग्रेजो के खिलाफ बुदेलों की क्रांति की योजनाएं इसी मेले में बनती थीं यानी मेले की आड़ में यह काम किया जाता था,मान्यता है कि मेला लगना ही इसलिए शुरू हुआ था ! गोपनीयता के अर्थ में इस आयोजन से रहस शब्द जुड़ा और फिर इसका तद्भव रूप रहस् सामने आया, मगर यह बात प्रामाणिक नहीं लगती, मेले में गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान संभव है किन्तु इसी उद्धेश्य से यह आयोजन शुरू हुआ है यह बात अविश्सनीय और अव्यावहारिक लगती है !
संस्कृत का रहस शब्द बना है रहस् धातु से, इसकी अर्थवत्ता व्यापक है,मूलतः इसमें एकान्त, गुप्तवार्ता, भेद की बात जैसे अर्थ समाहित हैं, इसका एक अन्य अर्थ केलि, किलोल, क्रीड़ा, कामक्रिया भी है, समझा जा सकता है कि प्राचीनकाल की जनपदीय संस्कृति में युवक-युवतियों के मिलने-जुलने से जुड़े ऐसे आयोजन आम थे,ये आयोजन स्वतःस्फूर्त होते थे। कुलीनों के वसंतोत्सव से हटकर इनकी सामाजिक संरचना बस्तर के घोटुल के जरिये समझी जा सकती है,भाव यही है कि युवक-युवतियों का आपसे में मिलना गोपनीय व्यवहार है! इस संदर्भ में गुप्त बात, भेद, गूढ़ता, आचरण की विचित्रता जैसे लक्षणों को ही रहस्य के अंतर्गत समझना चाहिए न की जासूसी या गुप्तचरी वाले भाव इसमें जोड़ने चाहिए, निश्चित ऋतु और निश्चित स्थान पर तरुण-तरुणियों का ऐसा आचरण जब आम हो गया तब इस स्वतः स्फूर्त आयोजन ने रहस् मेले का रूप लिया,यहां समझें कि समूह में भी कोई जोड़ा अपनी निजता और गोपनीयता के साथ ही खुद में लीन होता है.......
विद्वानों और आलोचकों में रास शब्द पर बड़ा विवाद है. अवध, बुंदेलखण्ड और छत्तीसगढ़ की लोककला विधा रहस से भी इस रास का रिश्ता जोड़ा जाता है. वैसे रास के छह रूपांतर हिन्दी की शैलियों में देखने को मिलते हैं जैसे- रास, रासा, रासो, रासौ, रायसा, रायसौ. इसी तरह इसकी व्युत्पत्ति के आधार स्वरूप भी छह शब्दों को वक्तन फ वक्तन सामने रखा जाता रहा है मसलन-रहस्य, रसायण, राजादेश, राजयश, रास और रासक.यह तय है कि रास शब्द की व्युत्पत्ति न तो रहस से हुई है और न ही रहस शब्द का जन्म रास से हुआ है. इसी तरह फिरंगियों के विरुद्ध गोपनीय सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए ये आयोजन शुरू हुए यह कहना भी गलत है. अलबत्ता रहस का रहस्य से रिश्ता है और दो प्रेमी हृदयों के आपसी मिलन के भेद में ही रहस का रहस्य निहित है.अब मेलों-ठेलों की गहमा-गहमी में चोर पुलिस का खेल भी होता है और षड्यंत्रों को अंजाम भी दिया जाता है.यह उसके उद्धेश्य नहीं बल्कि लाभ हैं. मगर प्रामाणिक नहीं.............
रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है! इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे! इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है! नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है! जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं! रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं, विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है ! र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं, लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है।
वसंत ऋतु में बुंदेलखण्ड में एक प्रसिद्ध मेला रहस लगता है जिसका संबंध भी रास से जोड़ा जाता है, कुछ विद्वानों ने रासो की व्युत्पत्ति रहस्' शब्द के रहस से जोड़ी है, रामनारायण दूगड लिखते हैं- रास या रासो शब्द रहस या रहस्य का प्राकृत रुप मालूम पड़ता है, इसका अर्थ गुप्त बात या भेद है, जैसे कि शिव रहस्य, देवी रहस्य आदि ग्रन्थों के नाम हैं, वैसे शुद्ध नाम पृथ्वीराज रहस्य है जोकि प्राकृत में पृथ्वीराज रास, रासा या रासो हो गया,डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल और कविराज श्यामदास के अनुसार रहस्य पद का प्राकृत रुप रहस्सो बनता है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रुपान्तर रासो बन गया है! रहस्य> रहस्सो> रअस्सो >रासो इसका विकास क्रम है, बुंदेलखण्ड में सागर के पास गढ़ाकोटा के प्रसिद्ध रहस मेला के संदर्भ में भी इसी रहस्य शब्द का हवाला दिया जाता है,बताते हैं कि अंग्रेजो के खिलाफ बुदेलों की क्रांति की योजनाएं इसी मेले में बनती थीं यानी मेले की आड़ में यह काम किया जाता था,मान्यता है कि मेला लगना ही इसलिए शुरू हुआ था ! गोपनीयता के अर्थ में इस आयोजन से रहस शब्द जुड़ा और फिर इसका तद्भव रूप रहस् सामने आया, मगर यह बात प्रामाणिक नहीं लगती, मेले में गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान संभव है किन्तु इसी उद्धेश्य से यह आयोजन शुरू हुआ है यह बात अविश्सनीय और अव्यावहारिक लगती है !
संस्कृत का रहस शब्द बना है रहस् धातु से, इसकी अर्थवत्ता व्यापक है,मूलतः इसमें एकान्त, गुप्तवार्ता, भेद की बात जैसे अर्थ समाहित हैं, इसका एक अन्य अर्थ केलि, किलोल, क्रीड़ा, कामक्रिया भी है, समझा जा सकता है कि प्राचीनकाल की जनपदीय संस्कृति में युवक-युवतियों के मिलने-जुलने से जुड़े ऐसे आयोजन आम थे,ये आयोजन स्वतःस्फूर्त होते थे। कुलीनों के वसंतोत्सव से हटकर इनकी सामाजिक संरचना बस्तर के घोटुल के जरिये समझी जा सकती है,भाव यही है कि युवक-युवतियों का आपसे में मिलना गोपनीय व्यवहार है! इस संदर्भ में गुप्त बात, भेद, गूढ़ता, आचरण की विचित्रता जैसे लक्षणों को ही रहस्य के अंतर्गत समझना चाहिए न की जासूसी या गुप्तचरी वाले भाव इसमें जोड़ने चाहिए, निश्चित ऋतु और निश्चित स्थान पर तरुण-तरुणियों का ऐसा आचरण जब आम हो गया तब इस स्वतः स्फूर्त आयोजन ने रहस् मेले का रूप लिया,यहां समझें कि समूह में भी कोई जोड़ा अपनी निजता और गोपनीयता के साथ ही खुद में लीन होता है.......
विद्वानों और आलोचकों में रास शब्द पर बड़ा विवाद है. अवध, बुंदेलखण्ड और छत्तीसगढ़ की लोककला विधा रहस से भी इस रास का रिश्ता जोड़ा जाता है. वैसे रास के छह रूपांतर हिन्दी की शैलियों में देखने को मिलते हैं जैसे- रास, रासा, रासो, रासौ, रायसा, रायसौ. इसी तरह इसकी व्युत्पत्ति के आधार स्वरूप भी छह शब्दों को वक्तन फ वक्तन सामने रखा जाता रहा है मसलन-रहस्य, रसायण, राजादेश, राजयश, रास और रासक.यह तय है कि रास शब्द की व्युत्पत्ति न तो रहस से हुई है और न ही रहस शब्द का जन्म रास से हुआ है. इसी तरह फिरंगियों के विरुद्ध गोपनीय सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए ये आयोजन शुरू हुए यह कहना भी गलत है. अलबत्ता रहस का रहस्य से रिश्ता है और दो प्रेमी हृदयों के आपसी मिलन के भेद में ही रहस का रहस्य निहित है.अब मेलों-ठेलों की गहमा-गहमी में चोर पुलिस का खेल भी होता है और षड्यंत्रों को अंजाम भी दिया जाता है.यह उसके उद्धेश्य नहीं बल्कि लाभ हैं. मगर प्रामाणिक नहीं.............
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