!! भारत में बौध्ध दर्शन का सफाया क्यों और कैसे ?
एक घटना जो बौद्ध दर्शन के भारत से सफाए का कारण बन गयी
भारत में हर इतिहास का जानकर आदमी ये तो जनता हँ की आदि जगदगुरु शंकराचार्य ने भारत से बौद्ध धर्म का सफाया किया लेकिन ये कम लोग ही ये बात जानते हँ की भौद्धो के खिलाफ अभियान की शुरुआत शंकराचार्य ने नहीं बल्कि कुमारिल भट्ट नाम के एक विद्वान् ने की थी
जिन दिनों शंकराचार्य बारह वर्ष की अवस्था में गुरु आज्ञा से वेदांत सूत्र पर अपना विश्वविख्यात '' शारीरक भाष्य '' लिखने के लिए हिमालय की गुप्त कंदराओ में जाने पर विचार कर रहे थे उन्ही दिनों कुमारिल भट्ट नाम के एक वयोवृद्ध विद्वान् बौद्धों के खिलाफ बिगुल फूंक चुके थे और उन्हें उत्तर भारत से बौद्ध धर्म और जैन दर्शन का सफाया कर दिया था ( विशेषकर जेनियो से हुए उनके शास्त्रार्थ तो सर्वथा अलोकिक होते थे )
उन दिनों एक ऐसी घटना घट गयी थी जिसने अनायास ही कुमारिल भट्ट को हिन्दुओ का नायक बना दिया था
कुमारिल भट्ट एक बहुत उच्च स्तरीय विद्वान् थे और बौद्धों के बढ़ते पाखंड से बहुत चिंतित थे
बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए उन्होंने बौद्धों से शास्त्रार्थ करने की ठानी लेकिन बौद्ध दर्शन के सिद्धांतो से अवगत हुए बिना ये संभव नहीं था उन्होंने युक्ति से काम लेते हुए एक बौद्ध भिक्षु को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया और ये शरत राखी की जो हार जायेगा वो दुसरे का धर्म स्वीकार करेगा फिर वे जानबूझकर उससे हार गए , फिर पहले तय हुई शर्त के मुताबिक़ उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और नालंदा के बौद्ध विहार में आकर धरमपाल नाम के एक प्रख्यात बौद्ध आचार्य से बौद्ध न्यायशास्त्र का अध्यन करने लगे
एक दिन उपदेश देते समय आचार्य धरमपाल ने कुमारिल भट्ट आदि शिष्यों के सामने वेदों की निंदा की जिसे सुनकर कुमारिल भट्ट को बड़ा दुःख हुआ
वेह सर झुकाए चुपचाप आंसू बहाने लगे
पास के बौद्ध भिक्षुओ ने कुमारिल को रोते देखकर कारण पूछा , कुमारिल ने रोते हुए कहा - '' आचार्य वृथा ही वेदों की निंदा कर रहे हँ , उससे मुझे बड़ा कष्ट हो रहा हँ
बौद्ध श्रमणों के द्वारा आचार्य को ज्ञात कराते ही उन्होंने कुमारिल से पूंछा - ''तुम रोते क्यों हो ? क्या तुम अभी भी वैद विश्वासी प्रछन्न हिन्दू हो ? बौद्ध श्रमण बनकर क्या तुम हमे प्रताड़ित करने आये हो ?
कुमारिल ने विनीत भाव से कहा - '' आप बिना वैद को समझे अकारण ही वेदों की निंदा कर रहे हँ ''
बौद्ध आचार्य ने उत्तेजित कंठ से कहा - '' तो तुम मेरे कथन की असत्यता प्रमाणित करो ''
तब आचार्य और कुमारिल में शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ ! कुमारिल एक अत्यंत विद्वान पुरुष थे, उन्होंने वैद के प्राधान्य के प्रतिपादन में कटिबद्ध होकर जटिल तर्कजाल से आचार्य को जर्जरित करते हुए कहा - ''सर्वज्ञ की कृपा के बिना जीव सर्वज्ञ नहीं हो सकता , महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के लिए वैदिक धर्म मार्ग का ही आश्रय लिया , फिर वेद ज्ञान से ही ज्ञानी होकर वेद को ही अस्वीकार कर दिया, यह चोरी नहीं तो और क्या हँ ? '''
कुमारिल के कठोर मंतव्य से क्षुब्ध होकर बौद्ध आचार्य ने कहा -'' तुम भगवान् बुद्ध की निंदा करते हो ? इस अत्यंत ऊंचे महल से गिराकर तुम्हारा प्राण संहार करना ही इस पाप का एकमात्र प्रायश्चित हँ
आचार्य का इशारा पाकर अहिंसा ही जिसकी बुनियाद हँ, ऐसे उस बौद्ध धर्म के मानने वालो बौद्ध भिक्षुओ ने जो की इस समय काफी उत्तेजित थे, कुमारिल को पकड़ लिया और छत से नीचे फेंक दिया
कुमारिल वैद विहित सभी साधनाए पूर्ण कर चुके थे और कई सिद्धियों के स्वामी थे , वे योग मार्ग में काफी आगे तक पहुचे हुए थे उन्होंने पहले ही अपनी आत्मा को अपने ब्रह्मस्वरूप में आरुढ़ किया तो जोर से कहा -'' अगर वेद सत्य हँ तो मेरी भी मृत्यु नहीं होगी ''
कुमारिल इतनी ऊँचाई से गिरकर भी सुरक्षित बच गए , ये देखकर बौद्ध भिक्षुओ को बड़ा आश्चर्य हुआ
उधर हिन्दू लोग इस समाचार को सुनकर जोरदार कोलाहल करते हुए बौद्ध विहार में घुस गए और अत्यंत जोर से कोलाहल करते हुए कुमारिल को बौद्ध विहार से बहार ले आये
यद्यपि इतनी ऊंचाई से गिराए जाने पर भी कुमारिल के जीवित बचे रहने को हिन्दुओ ने अपनी जय मान ली
लेकिन इस एक घटना से हिन्दुओ और बौद्धों के बीच में एक महान विरोध का सूत्रपात हुआ
और इसी एक घटना ने आगे चलकर भारत से बौद्ध दर्शन के सफाए को सुनिश्चित किया
इससे हिन्दुओ और बौद्धों के मध्य काफी तनाव फेल गया था और उनके मध्य सशस्त्र संघर्ष के हालत पैदा हो गए थे
इस एक घटना ने जर्जर और शिथिल पड़े हिन्दू धर्म में फिर से प्राणों का संचार कर दिया और हिन्दू धर्म ने वापसी के लिए फिर से अंगडाई ली
लेकिन उन दिनों भारत बहुत से छोटे छोटे राज्यों में बंटा हुआ था और अधिकांश राजसत्ता बौद्धों के ही पास थी
तब हिन्दुओ ने बहुत गहन विचार विमर्श के बाद कुमारिल भट्ट को सामने कर एक विशाल विचारसभा में शास्त्रार्थ करने के लिए धरमपाल को बुलाया ! प्रण यह रहा की जो हारेगा वो जीतने वाले का धर्म स्वीकार करेगा या फिर तुषानल (भूसे के ढेर में आग लगाकर) में प्रवेशपूर्वक प्राण त्याग करेगा
भारत के सभी प्रान्तों से बौद्ध भिक्षु और हिन्दू विद्वान् इस विचारसभा के लिए प्रस्तुत हो मगध में समवेत होने लगे
कुमारिल भट्ट की प्रतिभा के सामने बौद्धविद्वान हीनप्रभ हो गए, विशेष प्रयत्न करने पर भी आचार्य धर्मपाल ही पराजित हुए
कुमारिल ने अकाट्य तर्क देकर हिन्दू शास्त्रों से बौद्ध शास्त्रों को गलत साबित कर दिया और बौद्ध को एक चोर, नकलची और असत्य भाषण करने वाला साबित कर दिया
आचार्य धर्मपाल हार गए थे लेकिन फिर भी उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रहण नहीं किया, कहा -''मेरी पराजय का कारण कुमारिल की प्रतिभा हँ , किन्तु बौद्ध धर्म में मेरी श्रद्धा नष्ट नहीं हुई हँ ,में बुद्ध धर्म की शरणागति से विचलित नहीं हुआ हु , में हिन्दू धर्म में आने की बजाय प्राण त्यागना पसंद करूँगा
धर्मपाल पहले से तय हुई शर्त के अनुसार तुषानल में प्रविष्ट हुए
कुमारिल की इस विजय से हिन्दुओ के हर्ष का ठिकाना नहीं था हिन्दुओ ने कुमारिल को कंधे पर उठाकर जय घोष करना शुरू कर दिया और संध्या काल में कुमारिल को रथ में बिठाकर बड़ी धूमधाम से बड़े जोर शोर से हिन्दू धर्म की जय जय कार करते हुए सारे नगर में रथ से चक्कर लगाया
कुमारिल की इस विजय ने समस्त भारत के लोगो में वैदिक धर्म के नव जागरण की सृष्टि की
उस समय के मगधराज ( वर्तमान में बिहार ) आदित्यसेन ने बौद्धों पर हिन्दुओ की विजय को गौरवान्वित करने के लिए एक विशेष ठाठबाट से कुमारिल भट्ट को प्रधान पुरोहित रख लिया
गोड देश ( वर्तमान में बंगाल ) के हिन्दू राजा शशांक नरेन्द्र वर्धन ने हिन्दुओ के उत्साह को और बढाते हुए बौद्ध गया में आकर , जिस बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर महात्मा बुद्ध ने सिद्धि प्राप्त की थी उस बोधिद्रुम को काट डाला और बोद्ध मंदिर पर अधिकार स्थापित करते हुए महात्मा बुद्ध की मूर्ति के चारो और दीवाल खड़ी करते हुए बंद कर दिया , इतना ही नहीं उन्होंने तीन बार उस वृक्ष के मूल को खोदकर उसे समूल नष्ट कर दिया था
कुमारिल भट्ट ने भी अनेक शास्त्रार्थो में अकाट्य तर्कों से उत्तर भारत में बौद्ध और जैन धर्म के प्राधान्य को नष्ट कर दिया था
बौद्ध आचार्य धरमपाल की पराजय और उनके हश्र के अनंतर और कोई कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने नहीं आते थे
लेकिन बाद में बौद्धों ने राजशक्ति की मदद से फिर से उत्तर भारत में अपनी स्थति मजबूत कर ली थी जिसे कालांतर में महान अद्वेताचार्य आदि जगदगुरु शंकराचार्य ने जड़ से नष्ट कर दिया था
शंकराचार्य ने 16 बरस की उम्र से हिन्दू धर्म की पुनर्स्थापना की शुरुआत की थी और हिमालय से आकर उन्होंने सबसे पहला काम ये ही किया था की कुमारिल भट्ट को शास्त्रार्थ में परास्त करके उन्हें अद्वेत्वादी बनाकर अपने साथ भारत भ्रमण के लिए उन्हें लेने प्रयाग आये थे
अपनी ३२ वर्ष की आयु तक उन्होंने बौद्ध दर्शन का पूरी तरह विध्वंश कर दिया था
हलाकि बौद्ध धर्म को भारत से जड़ से समाप्त करने का श्रेय भले ही शंकर की अलोकिक प्रतिभा को जाता हो लेकिन बौद्धों के खिलाफ अभियान शुरू करने का श्रेय कुमारिल भट्ट को ही जाता हँ
नोट --यह पूरा लेख मेरे फेसबुक मित्र श्री आदित्य यादव जी का है ..मैंने सिर्फ यहाँ पर कॉपी पेस्ट किया है मेरे पाठको के लिए ..~! आदित्य यादव जी कोटिशः धन्यवाद
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