मन शरीर के भीतर का वह अदृश्य भाग है जिससे विचारों की उत्पत्ति होती है। यह मस्तिष्क की कार्यशक्ति का द्योतक है। यह कार्यशक्ति कई तरह की होती है, जैसे चिंतन शक्ति, स्मरण-शक्ति, निर्णय शक्ति, बुद्धि, भाव, इंद्रियाग्राह्यता, एकाग्रता, व्यवहार, परिज्ञान (अंतर्दृष्टि), इत्यादि....
दिन भर के काम के बाद थका हुआ मैं, आराम से बिस्तर में लेटा कोई फिल्म देख रहा था मैं । न जाने क्यूँ कोई खटका सा मन में महसूस हो रहा था...मन ही मन एक अंतर्द्वंद्व चल रहा था ...फिल्म से ध्यान कब हटा पता ही नहीं चला ...
जरा सा ध्यान दिया तो पता चला ये दिल और दिमाग के बीच की रस्साकसी है.... दिल अपने तर्क दे रहा है और दिमाग अपने ...दोनों काशी से आये हुए किन्ही विद्वानों की भांति शास्त्रार्थ करने में व्यस्त थे ...मेरा मानना था की हम अपने शरीर को अंगों को नियंत्रित करते हैं ... लेकिन ये दो अंग तो स्वचालित यन्त्र की तरह ... अपने ही निर्णय पर विकासमान थे ... मन इन दोनों के बीच दोलन करता हुआ ... किसी राजा की तरह जो विषय से अनिभिज्ञ सिर्फ विद्वानों के तर्क के अनुसार एक को दूसरे से श्रेष्ठ समझता है और अगले ही क्षण दूसरे विद्वान द्वारा दिए गए तर्क से आश्चर्यचकित होकर उसे श्रेष्ठ समझने लगता है ...दिल के द्वारा दिए गए तर्क बहुधा व्यहवारिकता की सीमा से उसी तरह परे होते हैं जैसे किसी निर्धन के लिए महल के सुख साधन ... दूसरी ओर दिमाग के तर्क उसी तरह संतुलित होते हैं जिस तरह किसी तुला के दोनों पलड़े ..
तथापि दिल का दिया एक क्षीण तर्क भी ..दिमाग के सबसे मजबूत दलील को दरकिनार करने की क्षमता रखता हैं ... ज्यादातर जीत दिल की ही होती है .... इसे ईश्वर का चमत्कार कहा जाए या मानव की दुर्बलता ...
लाख कोशिशो के बाद भी दिल, दिमाग पर हावी होता दीख पड़ता था ...और दिमाग युद्ध में घायल किसी महापराक्रमी योद्धा की भांति प्रघात की प्रबलता को प्रचंड करता जाता था ..दिमाग द्वारा दिए गए हर तर्क से मन को एक क्षण की शान्ति मिलती थी और सौतिया डाह से ओतप्रोत दिल अगले ही क्षण उस शान्ति को उसी प्रकार वाष्पीकृत कर देता था जैसे रेगिस्तान में गिरी जल की एक बूँद को तपती हुई रेत.... फिर भी वर्षो से चली आई रीत है कि दिल का कहा कभी झूठ नहीं होता ... परन्तु उसमे व्यावहारिकता नहीं होती ... दिल उसी प्रकार मूढ़ होता है जिस प्रकार चकोर पक्षी जो स्वाति नक्षत्र की चांदनी रात में ओस कि एक बूँद के लिए हर पल टकटकी लगाये चाँद कि ओर देखता रहता है ... मुझे तो यह प्रतीत होता है कि चकोर भी अपने निर्णय दिल से ही लेता होगा ...अगर दिमाग से लेता होता तो यहाँ उसकी उपमा न दी जाती ..
इसी उहापोह में मन विचलित होने लगा...दोनों ही सही प्रतीत होते हैं ...और दोनों ही हितों कि बात करते हैं बस एक बलिदान कि अपेक्षा रखता है तो दूसरा किसी भी परिस्थिति में लाभ के बारे में सोचता है ..
इस विषय पर कुछ लिखना अत्यंत कठिन है ..क्यूंकि दिल और दिमाग के बीच का वार्तालाप किसी भी भाषा कि सीमा से परे है ...दिल और दिमाग एक ही संयुक्त परिवार में रहने वाले उन दो भाइयों के सामान हैं जो न तो साथ रह सकते हैं और न ही अलग हो सकते हैं ..और मन इनके पिता के सामान है जो दोनों के तर्क सुनता तो अवश्य है परन्तु किसी एक को दूसरे से श्रेष्ठ नहीं कह सकता ....
इसी उधेड़बुन में पड़ा हुआ मैं न जाने कब निद्रा के आगोश में समां गया .... और मेरे साथ दिल और दिमाग भी मन का पीछा उसी भांति छोड़ उठे जैसे कोई बालक मिठाई मिलने के बाद माँ को छोड़ उसे खाने में मग्न हो जाता है ...
रात ही है जो मन के लिए उसकी अपनी है यही वो समय है जब मन, स्वप्न की संरचना करता है ...क्यूंकि सुबह होते ही दिल और दिमाग पुनः मन को किसी वृद्ध पिता की तरह अपने अपने तर्क से व्यस्त कर देंगे ....
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