शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

!!आखिर क्या मज़बूरी है मगरूर मायावती की !!

भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यूपी की बसपा सरकार की मुखिया मायावती ने मजबूरी में आपरेशन क्लीन के तहत बड़ी तादाद में मंत्रियों को सरकार से हटाया और विधायकों, मंत्रियों और कद्दावर नेताओं के टिकट काटकर जनता को यह संदेश देने की कोशिश की कि उनकी पार्टी में दागियों, अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के लिये कोई स्थान नहीं है। लेकिन अहम सवाल यह है कि पिछले पांच साल से दर्जनों दागी और भ्रष्टाचारी माया-मंत्रिमंडल के अनमोल नगीनों में शुमार थे, फिर एकाएक ऐसा क्या हुआ कि लोकायुक्त की रिपोर्ट और अनुशंसा से मायावती का विवेक जाग उठा और एक-एक करके उन्होंने अपनी आंख के तारों, अति निकट और चहेतों को पार्टी और सरकार से बाहर निकालने में तनिक भी हिचकिचाहट और संकोच नहीं दिखाया?

क्या यह अन्ना और रामदेव के अनषन और आंदोलन का असर है, या फिर लोकायुक्त का डंडा, जो बेपरवाह सरकार और शासन के शक्तिशाली महानुभावों पर चला। क्या मायावती को अपने मंत्रियांे और नेताओं की असलियत का पता नहीं था और पता चलते ही मायावती ने भ्रष्टाचारियों को चलता किया? क्या ये कहा जाए कि एकाएक मायावती का विवेक जाग गया और उन्होंने अपने-पराए की परवाह किये बिना गुनाहगारों को सजा सुना दी? मायावती की कार्रवाई और कार्यप्रणाली पर कई सवाल और बातें की जा सकती है, लेकिन असलियत शायद कुछ और है, जिसे समझने की जरूरत है। अंदर की कहानी यह है कि लोकायुक्त की अनुशंसा पर अगर मायावती एक महीने के भीतर उन मंत्रियों पर कार्रवाई नहीं करती तो तो वही अनुशंसा राज्यपाल के पास चली जाती. मायावती जानती थी कि राज्यपाल अगर मंत्रियों को बर्खास्त करेंगे तो वह उनकी सरकार और पार्टी दोनों के लिए अच्छा नहीं होगा। इसलिए मजबूरी में ही सही मायावती ने ईमानदार होने का तमगा हासिल करने में कोई कोताही नहीं की।

वैसे भी पांच साल के शासन के दौरान अपने परंपरागत दलित वोट बैंक खिसकने की खबरों और सूचनाओं ने मायावती की रातों की नींद उड़ा रखी है और डैमेज कंट्रोल के तहत मायावती मूली-गाजर की तरह मंत्रियों और नेताओं को पार्टी से उखाड़ने लगीं, लेकिन लगता है यह निर्णय लेने में वो थोड़ी लेट हो चुकी हैं। गौरतलब है कि पिछले पौने पांच साल के राजकाज में मायावती मंत्रिमंडल के कई सदस्यों ने भ्रष्टाचार फैलाने और बढ़ाने के अलावा कुछ खास नहीं किया। जिस बसपा में कोई नेता या मंत्री मायावती के इशारे के बिना मीडिया में एक मामूली सा बयान देने की औकात नहीं रखता, उस सरकार में दर्जनों मंत्री और नेता भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में लिप्त हों और मायावती को इसकी जानकारी न हो, यह बात समझ से परे है। हकीकत यह है कि मायावती ने अपने मंत्रियों, नेताओं और अफसरों पर नजर रखने के लिए खुफियागिरी का पुख्ता इंतजाम कर रखा था, और उनके हर लेन देन पर पूरी नजर रखती थीं। यह शायद इसलिए भी कि इससे माया का हिस्सा तक उनतक पहुंचने में उनके मंत्री और अफसर आनाकानी न कर सकें।
सरकारी निजी सचिवों के साथ प्राईवेट निजि सचिवों की नियुक्ति मंत्रियों-नेताओं और अफसरों की दिनचर्या और कार्यकलापों को हिसाब-किताब रखने और सबकी खबर पंचम तल तक पहुंचाने का ही हिस्सा था। प्राईवेट निजि सचिवों की नियुक्ति में जाति के गणित का भी खासा ख्याल रखा गया था, ब्राहमण नेता के यहां दलित और दलित के यहां ब्राहम्ण सचिवों की नियुक्ति किसी खास योजना तहत ही थी। पौने पांच साल तक मायावती ने बड़ी होशियारी से सूबे के हर विभाग और सरकारी योजनाओं के रूपए से अपने व अपने करीबियों को धन्ना सेठ बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सोशल इंजीनियरिंग की आड़ में मायावती ने दलित और ब्राहमण दोनों को ही जमकर धोखा दिया। ईमानदार और निष्पक्ष तरीके से अगर आकलन किया जाए तो इस कार्यकाल में मायावती ने अपने लिए चाहे जो किया हो लेकिन अपने परंपरागत दलित वोट बैंक के लिए कुछ खास नहीं किया है। दलित स्वाभिमान का नारा बुलंद करके मायावती ने दलितों को अंधेरे में ही रखा। लखनऊ और नोएडा में अपनी, दलित महापुरूषों और हाथी की भव्य व बेशकीमती मूर्तियां, पार्क, स्मारक और रैली स्थल बनवाने के अलावा दलितों के रोजगार, शिक्षा, सुरक्षा, और उत्थान के लिये एक भी गंभीर कदम नहीं उठाया।




अब चुनावी बेला पर खुफिया रिपोर्ट और पार्टी कोआर्डिनेटरों की आंतरिक रिपोर्ट के आधार पर जो बात मायावती को सीधे तौर समझ में आई है, वो यह है कि उनकी सरकार की छवि खासकर उनके परंपरागत वोट बैंक में गिरी है। मायावती ने दलितों और पिछड़ों के कल्याण के लिये ऐसा कुछ ठोस काम नहीं किया, जिसके लिए आने वाले दिनों में मायावती को याद रखा जा सके। लखनऊ और नोएडा में दलित स्वाभिमान के प्रतीक देखने वाले सूबेभर के बसपा समर्थक खुश होने की बजाय अपने इलाकों की दुर्दशा सोचकर मायूस और दुखी अधिक होते हैं।




मायावती चौथी बार सूबे की मुख्यमंत्री बनी हैं। पहले तीन कार्यकाल में गठबंधन की सरकार होने की वजह से वे मनमामाफिक तरीके से राजकाज न चलाने के लिए मजबूर कही जा सकती थीं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनावों में जनता ने बसपा पर पूरा भरोसा जताते हुए पूर्ण समर्थन वाली सरकार का सुनहरा अवसर मायावती को दिया था। लेकिन अफसोस कि उन्होंने इस मौके को सूबे के विकास और सर्वजन हिताय की बजाय अपने और चंद चहेतों के विकास पर ही ध्यान दिया। खुद को दलितों का मसीहा बनने की चाहत में जीते-जी अपनी आदमकद मूर्तियां लगवाकर मायावती किस दलित स्वाभिमान की बात करती हैं, यह तो वही जानें, लेकिन उनकी मूर्तियों से न तो किसी दलित का पेट भरने वाला है और न ही किसी दूसरे का भला होने वाला है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि इसी चूक की वजह से पिछले पांच साल के कार्यकाल में मायावती ने अपने पुख्ता दलित वोट बैंक को उनसे दूर कर दिया है।




ऐसा भी नहीं है कि मायावती को इस असलियत का पता न हो, लेकिन राजनीतिक गुणा-भाग और नफा-नुकसान के फेर में सबकुछ जानते हुए भी वे आंखे मूंदे रहीं। प्रदेश में दलितों पर अत्याचार, अपराध और शोषण के मामलों में बढ़ोतरी हुई है, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। मायावती भयमुक्त वातावरण की बात करती रहीं, लेकिन इस कार्यकाल में सूबे में बलात्कार के मामलों में इजाफा हुआ और दलित महिलाएं अपराधियों व बलात्कारियों के निशाने पर रहीं। सो दलित भी मायावती के बदले रूख-रवैए से अंदर ही अंदर खिन्न हैं। रैली-सम्मेलन के नाम पर लखनऊ घुमाने-फिराने के अलावा दलितों की अपेक्षाओं की कसौटी पर बसपा सरकार खरी नहीं उतर पाई।




दलित वोटरों को ऐसा लगता था कि बहनजी उनके लिए काफी कुछ करेंगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। दलित की बेटी के राज में दलितों की स्थिति बद से बदतर हो गई। अब चुनावी वक्त में मायावती को अपने पक्के और मजबूत वोटरों की याद एक बार फिर आई और उन्हें मनाने और उनकी नाराजगी दूर करने के लिए वे मंत्रियों, नेताओं और विधायकों के टिकट काटने की कवायद कर रही हैं। लेकिन इससे बसपा में नाराजगी और भगदड़ की स्थिति बनी गई है। मायावती चाहती है कि उसका परंपरागत वोट बैंक उसके पाले में लौट आए, लेकिन हालात काफी बिगड़ चुके हैं। फिलहाल बसपा प्रमुख की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं।

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