शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

!! क्या ब्रह्मण समाज संखनाद करेगे बी .एस .पी. के लिए ?

ब्राह्मण समाज पिछले विधानसभा चुनावों में मायावती के ‘हाथी’ के लिए सत्ता की राह प्रशस्त करने को शंखनाद किया था । मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का मेरुदंड बने ब्राह्मण इस बार कहां होंगे, यह यक्ष प्रश्न चुनाव मैदान में सभी के मन में कौंध रहा है। फिलहाल तमाम वजह ऐसी हैं, जिसके चलते सियासत के मैदान में ब्रेनगेम से दांव पलटने में माहिर यह समूह पुराने अंदाज में माया के साथ जाता हुआ नहीं दिख रहा है।

पिछले चुनाव में ‘पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ का नारा यह बताने के लिए काफी था कि कुर्सी की दौड़ में वक्त कितनी तेजी से करवट लेता है। पिछली बार पंडितों का हुजूम मायावती के ब्राह्मण चेहरे के रूप में पेश किए गए सतीशचन्द्र मिश्र के साथ मायावती के सिर पर ताज रखने निकला और ताज पहना भी दिया।पर  इस बार इस वर्ग की थोड़ी-बहुत बेरुखी भी मायावती को भारी पड़ सकती है और उनके सत्ता की राह का कंटक भी बन सकती है। कई इलाकों में ब्राह्मणों का स्वर माया राज के खिलाफ है। बसपा में ब्राह्मणों की रहनुमाई के अनवरत प्रतीक बने सतीशचन्द्र मिश्र भी इस बार जमी बर्फ को पिघलाने में पहले जैसे कामयाब होंगे, कहना मुश्किल है।

शिकायतों की फेहरिश्त लंबी है, लेकिन जो आम शिकायत है वह ये कि माया राज में हमारे साथ धोखा हुआ।आम जन चाहते थे कि जातिवादी और कानून व्यवस्था को तार-तार करने वाले मुलायम राज से निजात मिलेगा,पर ऐसा नहीं हुआ ।
आम जन (खासकर ब्रह्मण समाज) को कांग्रेस और भाजपा में उन्हें संभावना नहीं दिखी, लिहाजा बसपा का दामन थाम लिया। इस रणनीतिक शिफ्ट में सतीश मिश्र की बसपा में मौजूदगी बहाना बनी। लेकिन, इस बार ब्रह्मण समाज  बसपा से अपनी नाराजगी छिपाना नहीं चाहते। वजह वही है जिसके लिए वे सपा को कोसते थे वही की वही बात बसपा ने भी कर दिखाया
मेरे ससुराल के पास कोराव (इलाहाबाद से 50 किलोमीटर ) के चन्द्रभूषण शुक्ल भी  पिछली बार बसपा के हाथी पर सवार हो सत्ता सुख ओढ़ने की चाहत मन में समेटी। वोट दिया बसपा जीती भी। लेकिन, इस बार अंदाज बदला है। बसपा का नाम आते ही बोले, ‘नहीं नहीं। हमारा केवल वोट चाहिए था।’ शुक्ला और उनके जैसे कई अन्य लोग इन तर्को की काट पेश करते हैँ कि, क्या यह तथ्य सही नहीं है कि बसपा में सतीशचंद्र मिश्र बड़े नेता हैं। तमाम ब्राह्मणों को अच्छे महकमे देकर मंत्री पद से नवाजा गया। ब्राह्मणों को सत्ता में अपनी शक्ति का एहसास लंबे अंतराल के बाद हुआ।

यही के श्रवन शुक्ला जी कहते हैं कि अगर पंडित अच्छे थे तो मायावती ने 9 ब्राह्मणों के टिकट घोषित होने के बाद क्यों काट दिया। और 29 ब्राह्मण विधायकों का टिकट क्यों काट दिया। राकेशधर त्रिपाठी और रंगनाथ मिश्र जैसे मंत्रियों को अंत में क्यों हटा दिया गया। उन्होंने अपने वर्ग से जुड़े विधायकों का टिकट क्यों नहीं काटा। वे यह बात सुनने को तैयार नहीं कि केवल ब्राह्मणों का ही टिकट नहीं काटा गया। वे ऐसी कोई बात सुनना पसंद नहीं करते, जो उनके तर्क को सूट नहीं करती।

पिछले चुनाव में ब्राह्मणों का इस बात का गर्व था कि वे राजगद्दी के पीछे की बड़ी ताकत थे। क्या वे इस बार भी ऐसी ही गर्वीली अनुभूति नहीं चाहते।  ब्राह्मणों का मन मस्तिष्क सत्ता की ताकत का प्रतिमान गढ़ने में भरोसा करता है। लेकिन, बसपा के खिलाफ वोट करना और सपा के पक्ष में वोट नहीं करने से ब्राह्मणों को अपनी इस ताकत का भरोसा नहीं टूटेगा। पर  अपवाद हमेशा होते हैं। ब्रह्मण समाज यह बताना चाहता हैं कि अगर हम सिंघासन पर बैठा सकते हैं तो
सिंघासन से  उतार भी सकते हैं।तो मेरा अनुमान है की इस बार ब्रह्मण वर्ग का बोट कही कुछ नया गुल नहीं खिला दे ..फिर भी देखते है इन्तजार करते है हाथी किस करवट बैठता है ? पंजे को रौदता है या साइकल को तोड़ता है या फिर कमल के फूल का नास्ता करता है यह हाथी किस करवट बैठता है इन्तजार करते है !

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