क्या अब केंद्र सरकार सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण पर पहल करेगी? सुप्रीमकोर्ट ने एक अहम फैसले में केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछडा वर्ग [ओबीसी] के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को मंजूरी दिया था , लेकिन इस वर्ग की क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने के निर्देश दिए। कोर्ट ने साथ आरक्षण की इस नीति की समय-समय पर समीक्षा करने का भी आदेश दिया। क्रीमी लेयर को परे रखने का फैसला तो स्वागत योग्य है मगर यह न्यायपूर्ण तभी होगा जब सवर्ण गरीबों को भी आरक्षण का लाभ मिले। इस बात को परे रखने के कारण ही मायावती ने सवर्णों के लिए यह मांग रख दी है। चुनाव जीतने के साथ ही उन्होंने सवर्ण गरीबों को आरक्षण का वायदा किया थापर पूरा नहीं किया क्यों ? अब जबकि केंद्र में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर है इस लिए फौरन सवर्णों की मांग रख दी। दलितों की तो वे नेता हैं ही मगर सशक्त तरीके से गरीब सवर्णों के लिए आवाज भी उठा रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले आने के साथ ही उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अन्य पिछड़ा वर्ग को केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की मंजूरी के सुप्रीमकोर्ट के फैसले का स्वागत किया और कहा कि उच्च वर्ग के गरीब तबके को भी इस प्रकार का लाभ दिया जाना चाहिए। मायावती ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकांश लोग आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से तरक्की नहीं कर सके हैं, इसलिए उन्हें इस प्रकार के लाभ देने की सख्त आवश्यकता थी और उन्हें आरक्षण का फायदा मिलना ही चाहिए था। मुख्यमंत्री ने कहा कि वह केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मांग कर रही हैं कि उच्च वर्ग के गरीब वर्ग को भी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाए, ताकि उनके बच्चे भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन स्तर सुधारने के साथ-साथ देश की प्रगति में भी सहायक बन सकें। मायावती की यह मांग भले राजनीति के कारण है मगर न्यायसंगत है कि गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दे सरकार।
आज मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिलाने वाले 2006 के केंद्रीय शिक्षण संस्थान [प्रवेश में आरक्षण] कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए लंबी बहस के बाद उक्त कानून को वैध ठहराया, लेकिन साथ ही यह भी निर्देश दिया कि यदि आरक्षण का आधार जाति है तो इस वर्ग के सुविधा संपन्न यानी क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए। पीठ ने चार एक के बहुमत से उक्त कानून को वैध ठहराया। न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी ने इससे असहमति जताई। पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति अरिजित पसायत, न्यायमूर्ति सी के ठक्कर और न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन शामिल हैं।
ओबीसी के आरक्षण में दायर याचिकाओं में सरकारी कदम का जबरदस्त विरोध करते हुए कहा गया था कि पिछड़े वर्गो की पहचान के लिए जाति को शुरुआती बिंदु नहीं माना जा सकता। आरक्षण विरोधी याचिकाओं में क्रीमीलेयर को आरक्षण नीति में शामिल किए जाने का भी विरोध किया गया था। इस फैसले से न्यायालय के 29 मार्च 2007 के अंतरिम आदेश में कानून के कार्यान्वयन पर लगाई गई रोक समाप्त हो जाएगी। फैसले के बाद अब आरक्षण नीति को 2008-09 शैक्षणिक सत्र में लागू किया जा सकेगा।
ओबीसी का आरक्षण सफरनामा
आईआईटी और आईआईएम सहित केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से संबंधित विवादास्पद कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर घटनाक्रम इस प्रकार रहा:-
20 जनवरी 2006: सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गो तथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश देने के लिए सरकार को विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देने वाला संवैधानिक [93वां संशोधन] अधिनियम 2005 प्रभाव में आया।
16 मई 2006: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामलों की स्थायी समिति ने अपनी 15वीं रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि पिछड़े वर्गो के मुद्दे को लेकर कोई जनगणना नहीं कराई गई। इसमें कहा गया कि भारत के महापंजीयक की रिपोर्ट के अनुसार 2001 की जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आंकड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
22 मई 2006: अशोक कुमार ठाकुर ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर कर अधिनियम 2006 के तहत केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों के दाखिलों में आरक्षण दिए जाने के मामले को चुनौती दी। उस समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स] में आरक्षण विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था।
27 मई 2006: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण कार्यान्वयन से संबंधित अधिनियम को देखने के लिए एक निगरानी समिति बनाई। समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को चेताया कि अधिनियम के कार्यान्वयन से शैक्षणिक योग्यता के साथ समझौता होगा और इससे जनसांख्यिकी आपदा पैदा होगी।
29 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने याचिका पर केंद्र को नोटिस भेजा।
31 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने सभी संबंधित नागरिकों को याचिका पर पार्टी बनने की अनुमति दी और उनसे नई याचिका दायर करने को कहा।
1 दिसंबर 2006: मानव संसाधन और विकास मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 186वीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की और कहा कि 1931 के बाद जाति के आधार पर कोई जनगणना नहीं हुई।
1 जनवरी 2007: अधिनियम के कार्यान्वयन को चुनौती देने वाली एक और याचिका सुप्रीमकोर्ट में दायर।
29 मार्च 2007: सुप्रीमकोर्ट ने अधिनियम के कार्यान्वयन को स्थगित करते हुए अंतरिम आदेश दिया।
7 अगस्त 2007: पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने अधिनियम की वैधता पर फैसला देने के लिए सुनवाई शुरू की।
11 नवंबर 2007: 25 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा गया।
10 अप्रैल 2008: सुप्रीमकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण उपलब्ध कराने वाले केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान [प्रवेश आरक्षण] अधिनियम 2006 की वैधता को बरकरार रखा।मै सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल तो नहीं उठा रहा अहू पर क्या यह गरीब सवर्ण के साथ अन्याय नहीं है ???
सुप्रीम कोर्ट के फैसले आने के साथ ही उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने अन्य पिछड़ा वर्ग को केंद्रीय उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण की मंजूरी के सुप्रीमकोर्ट के फैसले का स्वागत किया और कहा कि उच्च वर्ग के गरीब तबके को भी इस प्रकार का लाभ दिया जाना चाहिए। मायावती ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिकांश लोग आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से तरक्की नहीं कर सके हैं, इसलिए उन्हें इस प्रकार के लाभ देने की सख्त आवश्यकता थी और उन्हें आरक्षण का फायदा मिलना ही चाहिए था। मुख्यमंत्री ने कहा कि वह केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मांग कर रही हैं कि उच्च वर्ग के गरीब वर्ग को भी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण दिया जाए, ताकि उनके बच्चे भी उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपना जीवन स्तर सुधारने के साथ-साथ देश की प्रगति में भी सहायक बन सकें। मायावती की यह मांग भले राजनीति के कारण है मगर न्यायसंगत है कि गरीब सवर्णों को भी आरक्षण दे सरकार।
आज मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिलाने वाले 2006 के केंद्रीय शिक्षण संस्थान [प्रवेश में आरक्षण] कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए लंबी बहस के बाद उक्त कानून को वैध ठहराया, लेकिन साथ ही यह भी निर्देश दिया कि यदि आरक्षण का आधार जाति है तो इस वर्ग के सुविधा संपन्न यानी क्रीमीलेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा जाए। पीठ ने चार एक के बहुमत से उक्त कानून को वैध ठहराया। न्यायमूर्ति दलबीर भंडारी ने इससे असहमति जताई। पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति अरिजित पसायत, न्यायमूर्ति सी के ठक्कर और न्यायमूर्ति आर वी रवींद्रन शामिल हैं।
ओबीसी के आरक्षण में दायर याचिकाओं में सरकारी कदम का जबरदस्त विरोध करते हुए कहा गया था कि पिछड़े वर्गो की पहचान के लिए जाति को शुरुआती बिंदु नहीं माना जा सकता। आरक्षण विरोधी याचिकाओं में क्रीमीलेयर को आरक्षण नीति में शामिल किए जाने का भी विरोध किया गया था। इस फैसले से न्यायालय के 29 मार्च 2007 के अंतरिम आदेश में कानून के कार्यान्वयन पर लगाई गई रोक समाप्त हो जाएगी। फैसले के बाद अब आरक्षण नीति को 2008-09 शैक्षणिक सत्र में लागू किया जा सकेगा।
ओबीसी का आरक्षण सफरनामा
आईआईटी और आईआईएम सहित केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से संबंधित विवादास्पद कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर घटनाक्रम इस प्रकार रहा:-
20 जनवरी 2006: सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गो तथा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों को शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश देने के लिए सरकार को विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देने वाला संवैधानिक [93वां संशोधन] अधिनियम 2005 प्रभाव में आया।
16 मई 2006: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मामलों की स्थायी समिति ने अपनी 15वीं रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि पिछड़े वर्गो के मुद्दे को लेकर कोई जनगणना नहीं कराई गई। इसमें कहा गया कि भारत के महापंजीयक की रिपोर्ट के अनुसार 2001 की जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आंकड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
22 मई 2006: अशोक कुमार ठाकुर ने सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर कर अधिनियम 2006 के तहत केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों के दाखिलों में आरक्षण दिए जाने के मामले को चुनौती दी। उस समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान [एम्स] में आरक्षण विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था।
27 मई 2006: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण कार्यान्वयन से संबंधित अधिनियम को देखने के लिए एक निगरानी समिति बनाई। समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकार को चेताया कि अधिनियम के कार्यान्वयन से शैक्षणिक योग्यता के साथ समझौता होगा और इससे जनसांख्यिकी आपदा पैदा होगी।
29 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने याचिका पर केंद्र को नोटिस भेजा।
31 मई 2006: सुप्रीमकोर्ट ने सभी संबंधित नागरिकों को याचिका पर पार्टी बनने की अनुमति दी और उनसे नई याचिका दायर करने को कहा।
1 दिसंबर 2006: मानव संसाधन और विकास मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 186वीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की और कहा कि 1931 के बाद जाति के आधार पर कोई जनगणना नहीं हुई।
1 जनवरी 2007: अधिनियम के कार्यान्वयन को चुनौती देने वाली एक और याचिका सुप्रीमकोर्ट में दायर।
29 मार्च 2007: सुप्रीमकोर्ट ने अधिनियम के कार्यान्वयन को स्थगित करते हुए अंतरिम आदेश दिया।
7 अगस्त 2007: पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने अधिनियम की वैधता पर फैसला देने के लिए सुनवाई शुरू की।
11 नवंबर 2007: 25 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा गया।
10 अप्रैल 2008: सुप्रीमकोर्ट ने शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण उपलब्ध कराने वाले केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान [प्रवेश आरक्षण] अधिनियम 2006 की वैधता को बरकरार रखा।मै सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल तो नहीं उठा रहा अहू पर क्या यह गरीब सवर्ण के साथ अन्याय नहीं है ???
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