बुधवार, 21 दिसंबर 2011

!! रूस में भगवद् गीता पर प्रतिबन्ध क्या यह जायज है ?


रूसी-भारतीय सम्बन्धों को अचानक फिर से परीक्षा के दौर से गुज़रना पड़ रहा है। सोमवार को कुछ भारतीय संसद सदस्यों ने संसद का अधिवेशन भंग कर दिया। दिल्ली में रूसी दूतावास और भारत के   विभिन्न नगरों में बने रूस के कूटनीतिक   कार्यालयों के सामने विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए। भारतीय जनता द्वारा किए जा रहे   इस विरोध और बेचैनी का कारण है रूस के साइबेरियाई नगर तोम्स्क में दायर किया गया वह मुक़दमा, जिसमें भगवद् गीता के उस अनुवाद पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की गई है, जो पहले स्वामी प्रभुपाद ने हिन्दी से अंग्रेज़ी में किया था और बाद में जिसका अंग्रेज़ी से रूसी में अनुवाद किया गया है।
तोमस्क में दायर किए गए इस मुक़दमे को भारत की जनता ने अपने धार्मिक-ग्रंथ का अपमान करने का प्रयास माना है और वह गुस्से से फट पड़ी है। आइए ज़रा देखें कि मुक़दमा क्यों दायर किया गया है और भारतीय जनता का असंतोष कितना उचित है। क्या सचमुच बात इतनी गंभीर है कि समय की कसौटी पर खरे उतरे रूस-भारतीय सम्बन्धों को ही बलि पर चढ़ा दिया जाए? रेडियो रूस ने इस सिलसिले में रूस के रणनीतिक अनुसंधान संस्थान के विशेषज्ञ बरीस वलख़ोन्स्की से बातचीत की। बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
सबसे पहले तो यह कहना चाहिए कि रूस में भगवद् गीता के विरुद्ध किसी ने भी कोई आवाज़ नहीं उठाई है। रूसी भाषा मे गीता के कई अनुवाद प्रकाशित हुए हैं जो अलग-अलग लोगों ने किए हैं। गीता का पहला रूसी अनुवाद अट्ठारहवीं शताब्दी के अन्त में प्रकाशित हुआ था और रूसी विद्वानों ने गीता में गहरी रुचि लेनी शुरू कर दी थी। फिर सोवियत सत्ता काल में भी गीता के दो अनुवाद प्रकाशित हुए। 1956 में बरीस स्मिरनोव ने गीता का अनुवाद किया और फिर 1985 में व्सेवोलद सेमेन्त्सोव ने उसका अनुवाद किया। गीता के ये सभी अनुवाद आज रूस में दुर्लभ पुस्तकें मानी जाती हैं और भारत सम्बन्धी रूसी विशेषज्ञों द्वारा अनूदित पुस्तकों में इन्हें सर्वश्रेष्ठ किताबें माना जाता है।
लेकिन आज रूस में जो क़िताब घर-घर में वितरित की जा रही है, वह अन्तर्राष्ट्रीय  कृष्ण चेतना समाज द्वारा रूसी में अंग्रेज़ी से अनूदित भगवद् गीता का वह संस्करण है, जिसका अनुवाद कभी हिन्दी से अंग्रेज़ी में स्वामी प्रभुपाद ने किया था और अनुवाद करते हुए उन्होंने उसमें अपनी तरफ़ से बहुत-सी टिप्पणियाँ जोड़ दी थीं। इस तरह  उन्होंने जो पुस्तक तैयार की थी, उसका नाम रखा था-- 'भगवद् गीता एज़ इट इज़' यानी  'भगवत गीता  जैसी की तैसी'। प्रभुपाद द्वारा अंग्रेज़ी में किया गया गीता का अनुवाद कैसा था, आइए इसकी बात नहीं करें, लेकिन गीता का जो अनुवाद प्रभुपाद के उस अनुवाद से रूसी में अनूदित होकर सामने आया, उसमें भयानक ग़लतियाँ हैं और मूल श्लोकों का अर्थ इतना ज़्यादा बदल गया है कि अब इस क़िताब को 'भगवद् गीता एज़ इट इज़ नॉट'  कहना ज़्यादा बेहतर होगा। लेकिन फिर भी भयानक ग़लतियों वाली इस रूसी अनुवाद की लाखों प्रतियाँ प्रकाशित करवा ली गईं और उनका रूस में वितरण किया जाने लगा।
अब सवाल यह उठता है कि क्या स्वामी प्रभुपाद द्वारा किया गया गीता का अनुवाद, जिसे हरेकृष्ण आन्दोलन के प्रतिनिधि अपनी धार्मिक पुस्तक मानते हैं, हिन्दुओं की वही भगवद् गीता है, जिसे भारतीय जनता पूजती है। वैसे भी हरेकृष्ण आन्दोलन और इस्कॉन का भारत से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है। स्वामी प्रभुपाद ने 1996 में अमरीका में इसकी स्थापना की थी। इस संगठन की स्थापना करने का उनका उद्देश्य पश्चिमी देशों में हिन्दू धर्म का प्रचार करना नहीं था, बल्कि पैसा कमाना था। और अपने इस उद्देश्य में वे सफल भी रहे थे। आज भी यह संगठन धर्म की आड़ में काम कर रहा एक व्यावसायिक-संगठन है जो रूस में सफलतापूर्वक अपना व्यापार कर रहा है।
सवाल यह भी उठता है कि रूस के तोम्स्क  नगर में स्वामी प्रभुपाद की क़िताब पर जो मुकदमा दायर किया गया है, वह कितना उचित है? तोम्स्क की अदालत ने ख़ुद कोई निर्णय देने के बदले उन रूसी विशेषज्ञों से प्रभुपाद की क़िताब की जाँच कराई जो संस्कृत ख़ूब अच्छी तरह जानते हैं और जो भारत की धार्मिक परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों से भी अच्छी तरह परिचित हैं। बरीस वलख़ोन्स्की ने कहा :
बात यह है कि जिन विशेषज्ञों ने स्वामी प्रभुपाद की किताब का विशलेषण किया, पहले तो उन्होंने कहा कि इस किताब में कहीं-कहीं अतिवाद दिखाई देता है, लेकिन बाद में वे ख़ुद ही अपनी इस बात से मुकर गए। लेकिन इससे तोम्स्क में चलने वाले मुक़दमे पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। तोम्स्क की स्थानीय अदालत और स्थानीय अधिकारियों की राय को  भारत में पूरे रूस की राय मान लिया गया है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह वैसी ही घटना है, जैसी अमरीका में घटी थी, जब अमरीकी पादरी टेरी जोन्स ने सार्वजनिक रूप से कुरान जलाई थी। तब तो किसी ने यह नहीं कहा था कि टेरी जोन्स   द्वारा की जा रही इस कार्रवाई को सारे अमरीका का समर्थन प्राप्त है। उसे बस एक आदमी की उग्रवादी  भावना मान लिया गया था। इसी तरह तोम्स्क की अदालत में चल रहे मुक़दमे को  भी पूरे रूस की भावना नहीं माना जाना चाहिए।
सोमवार की शाम को भारत स्थित रूस के राजदूत अलेक्सान्दर कदाकिन  ने भी इस पर अपनी टिप्पणी की  और  रूस में गीता पर प्रतिबंध की मुहिम चलाने वालों को 'मूर्ख' करार दिया। उन्होंने कहा-  मैं समझता हूँ कि किसी भी पवित्र ग्रंथ को अदालत में ले जाना ग़लत है। सभी धर्म के लोगों के लिए यह ग्रंथ पवित्र है। इसका परीक्षण वैज्ञानिक गोष्ठियों, कांग्रेस, सेमिनार आदि में होना चाहिए, न कि अदालतों में। उन्होंने इस पर 'आश्चर्य' जताया कि ऐसी घटना साइबेरिया के तोमस्क शहर में हो रही है, जो धर्मनिरपेक्षता एवं धार्मिक सहिष्णुता के लिए जाना जाता है।
गीता पर प्रतिबंध लगाने की मुहिम चला रहे लोगों की कड़ी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा है-- ऐसा लगता है कि तोमस्क में भी कुछ मूर्ख व बेवकूफ किस्म के लोग रहते हैं।

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