शशि थरूर जी आपके लिए जबाब । अंग्रेजो के बिरुद्ध राजपूत राजाओ का महा सहयोग ........
1857 के वीर आदिवासी क्रांतिकारी देशभक्तों में मध्यप्रदेश के गौंड़, राजवंश के राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह का नाम देशवासी सदा कृतज्ञता से आदर पूर्वक स्मरण करते हैैं। शंकर शाह गढ़ामंडला के प्राचीन गौंड राजघराने के वंशज थे। उनके पूर्वजों ने 1500 तक गौड़वाना में राज्य किया था और स्वतंत्रता प्रेमी गौंड शासकों ने हमेशा अपने राज्य को स्वायत्त और स्वतंत्र बनाने के लिए आक्र मणकारियों से संघर्ष किया। इसी राजवंश में प्रतापी वीर महारानी दुर्गावती थी, जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर की फौज से संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहूति देकर अपनी और अपने राज्य की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा था।
शंकर शाह अपने यशस्वी स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों के इतिहास पर गर्व करते थे इसीलिए जब 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ देशी रियासतों और सैनिकों ने सशस्त्र क्रांति की, तब उन्होंने इसमें सहयोग दिया। वीर शंकर शाह ने एक छंदमय कविता की रचना की और गांव-गांव में और दूरदराज के वनों में रहने वाले आदिवासी गर्व और जोश से इस कविता को गाते हुए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने लगे। जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने इस कविता के रचनाकार को तलाशना शुरू कर दिया। जांच के दौरान जब पुलिस को पता चला कि राजा शंकर शाह कविताएं लिखते हैं, तो डिप्टी कमिश्नर ने गढ़ामंडला में उनके निवास की तलाशी ली और वहां एक कागज पर लिखी यह कविता जब उन्हें मिली तो उन्होंने राजा शंकर शाह को कैद कर लिया।
शंकर शाह अपने पूर्वजों के समझौते के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार के पेंशनर थे और पुरवा में अपने पुत्र रघुनाथ शाह के साथ रहते थे, लेकिन गढ़ामंडला में उनका परम्परागत निवास भी था, जहां वे अक्सर आया-जाया करते थे और अपनी रियासत के सरदारों, जागीरदारों के वंशजों से समय-समय पर भेंट मुलाकात भी करते थे। यद्यपि शंकर शाह का राज्य अंग्रेजों ने हड़प लिया था और उनके पास कोई शासन अधिकार भी नहीं थे, लेकिन जनता में वे लोकप्रिय और आदरणीय बने हुए थे। इसी कारण जनता ने 1857 में उनके आवाहन पर कंपनी सरकार के खिलाफ संघर्ष किया।
अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर ने शंकर शाह को कंपनी की ओर से पेंशन के अलावा तीन गांव की जागीर भी दी थी। इस कारण कंपनी ने उन्हें अपना जागीरदार और पेंशनर बना रखा था और जब उन्होंने विद्रोह किया तो कंपनी सरकार के डिप्टी कमिश्नर ने राजा शंकर शाह को राजद्रोही घोषित कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। बताया जाता है कि आदिवासी विद्रोहियों ने 1857 के सितम्बर माह में किसी दिन संगठित रूप से जबलपुर में अंग्रेजों की छावनी पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी, लेकिन डिप्टी कमिश्नर ने फकीर के वेश में एक चपरासी को शंकर शाह के इर्द गिर्द तैनात कर रखा था और उसी की सूचना पर डिप्टी कमिश्नर को आदिवासी विद्रोह की खबर मिली। इस पर लेफ्टिनेंट क्लार्क के साथ 20 सैनिक जवानों और बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों को पुरवा में शंकर शाह को घेरने के लिए भेजा गया।
डिप्टी कमिश्नर भी इस सैनिक दल के साथ शामिल हुआ। 14 सितम्बर 1857 को शंकर शाह का निवास घेर लिया गया और पूरे गांव को भी घेर लिया गया। इसके बाद राजा के निवास में घुसकर डिप्टी कमिश्नर ने राजा शंकर शाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह और 13 अन्य व्यक्तियों को गिरफ्तार कर जबलपुर छावनी भेज दिया। बाद में निवास स्थान की गहन तलाशी ली गई तो आपत्ति जनक वस्तु के नाम पर केवल कागज का एक टुकड़ा मिला, जिसमें की दुर्गादेवी की स्तुति की कविता छन्द रूप में लिखी गई थी। चूंकि यह कविता जनता में लोकप्रिय हो चुकी थी अत: डिप्टी कमिश्नर ने इसे विद्रोह की कविता मानकर राजा और उनके पुत्र को राजद्रोही घोषित कर दिया। एक अन्य कागज पर रघुनाथ शाह द्वारा देशभक्ति से प्रेरित कविता भी डिप्टी कमिश्नर को मिली। बाद में उसने रघुनाथ शाह और शंकर शाह की कविताओं का अस्काइन नामक एक विद्ववान से अनुवाद कराया।
अपने प्रिय नेता और राजा तथा उसके परिवारजनों की अंग्रेज सरकार द्वारा गिरफ्तारी की खबर मिलने पर आदिवासी उग्र हो गए और उन्होंने इनकी रिहाई के लिए जबलपुर पर सशस्त्र हमला कर दिया, लेकिन इस बारे में तत्कालीन अंग्रेज सरकार के सैनिक दस्तावेजों में कोई विवरण नहीं मिलता है। इतना जरूर लिखा गया है कि रात्रि में छावनी के पास गोली चालन की आवाजें सुनी गई और छावनी के पास एक मकान में आग लगा दी गई। कुछ कैदियों को छुड़ाने के भी प्रयास किये गये, लेकिन इन प्रयासों में तीन आदिवासियों की मौत हो गई। आदिवासी विद्रोहियों ने जेल से कई कैदियों को रिहा कराने में सफलता पाई थी, इसका पता इसी से चलता है कि घटना की जांच के लिए एक जांच कमेटी बनाई गई जिसमें डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारी शामिल किए गए। कुछ दिनों बाद जेल से भागे कई कैदियों को पकडऩे मे अंग्रेज पुलिस को सफलता भी मिल गई और उनमें से कई कैदियों को चुपचाप राजद्रोह का अपराधी घोषित कर उन्हें कठोर दण्ड दिया गया।
राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को 18 सितम्बर 1857 को एक तोप के मूह से बांधकर मौत की नींद सुला दिया गया। वृद्ध शंकर शाह और उनके पुत्र ने सीना तानकर अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए जयघोष किया और खुशी-खुशी मौत को गले लगा लिया।
शशि थरूर जैसे सुतियों के कारण हमे अपने गौरवशाली इतिहास को पुनः स्मरण करने का मौका मिलता है , इनके लिए जूतांजलि तो बनती है ।
1857 के वीर आदिवासी क्रांतिकारी देशभक्तों में मध्यप्रदेश के गौंड़, राजवंश के राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह का नाम देशवासी सदा कृतज्ञता से आदर पूर्वक स्मरण करते हैैं। शंकर शाह गढ़ामंडला के प्राचीन गौंड राजघराने के वंशज थे। उनके पूर्वजों ने 1500 तक गौड़वाना में राज्य किया था और स्वतंत्रता प्रेमी गौंड शासकों ने हमेशा अपने राज्य को स्वायत्त और स्वतंत्र बनाने के लिए आक्र मणकारियों से संघर्ष किया। इसी राजवंश में प्रतापी वीर महारानी दुर्गावती थी, जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर की फौज से संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहूति देकर अपनी और अपने राज्य की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा था।
शंकर शाह अपने यशस्वी स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों के इतिहास पर गर्व करते थे इसीलिए जब 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ देशी रियासतों और सैनिकों ने सशस्त्र क्रांति की, तब उन्होंने इसमें सहयोग दिया। वीर शंकर शाह ने एक छंदमय कविता की रचना की और गांव-गांव में और दूरदराज के वनों में रहने वाले आदिवासी गर्व और जोश से इस कविता को गाते हुए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने लगे। जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने इस कविता के रचनाकार को तलाशना शुरू कर दिया। जांच के दौरान जब पुलिस को पता चला कि राजा शंकर शाह कविताएं लिखते हैं, तो डिप्टी कमिश्नर ने गढ़ामंडला में उनके निवास की तलाशी ली और वहां एक कागज पर लिखी यह कविता जब उन्हें मिली तो उन्होंने राजा शंकर शाह को कैद कर लिया।
शंकर शाह अपने पूर्वजों के समझौते के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार के पेंशनर थे और पुरवा में अपने पुत्र रघुनाथ शाह के साथ रहते थे, लेकिन गढ़ामंडला में उनका परम्परागत निवास भी था, जहां वे अक्सर आया-जाया करते थे और अपनी रियासत के सरदारों, जागीरदारों के वंशजों से समय-समय पर भेंट मुलाकात भी करते थे। यद्यपि शंकर शाह का राज्य अंग्रेजों ने हड़प लिया था और उनके पास कोई शासन अधिकार भी नहीं थे, लेकिन जनता में वे लोकप्रिय और आदरणीय बने हुए थे। इसी कारण जनता ने 1857 में उनके आवाहन पर कंपनी सरकार के खिलाफ संघर्ष किया।
अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर ने शंकर शाह को कंपनी की ओर से पेंशन के अलावा तीन गांव की जागीर भी दी थी। इस कारण कंपनी ने उन्हें अपना जागीरदार और पेंशनर बना रखा था और जब उन्होंने विद्रोह किया तो कंपनी सरकार के डिप्टी कमिश्नर ने राजा शंकर शाह को राजद्रोही घोषित कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। बताया जाता है कि आदिवासी विद्रोहियों ने 1857 के सितम्बर माह में किसी दिन संगठित रूप से जबलपुर में अंग्रेजों की छावनी पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी, लेकिन डिप्टी कमिश्नर ने फकीर के वेश में एक चपरासी को शंकर शाह के इर्द गिर्द तैनात कर रखा था और उसी की सूचना पर डिप्टी कमिश्नर को आदिवासी विद्रोह की खबर मिली। इस पर लेफ्टिनेंट क्लार्क के साथ 20 सैनिक जवानों और बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों को पुरवा में शंकर शाह को घेरने के लिए भेजा गया।
डिप्टी कमिश्नर भी इस सैनिक दल के साथ शामिल हुआ। 14 सितम्बर 1857 को शंकर शाह का निवास घेर लिया गया और पूरे गांव को भी घेर लिया गया। इसके बाद राजा के निवास में घुसकर डिप्टी कमिश्नर ने राजा शंकर शाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह और 13 अन्य व्यक्तियों को गिरफ्तार कर जबलपुर छावनी भेज दिया। बाद में निवास स्थान की गहन तलाशी ली गई तो आपत्ति जनक वस्तु के नाम पर केवल कागज का एक टुकड़ा मिला, जिसमें की दुर्गादेवी की स्तुति की कविता छन्द रूप में लिखी गई थी। चूंकि यह कविता जनता में लोकप्रिय हो चुकी थी अत: डिप्टी कमिश्नर ने इसे विद्रोह की कविता मानकर राजा और उनके पुत्र को राजद्रोही घोषित कर दिया। एक अन्य कागज पर रघुनाथ शाह द्वारा देशभक्ति से प्रेरित कविता भी डिप्टी कमिश्नर को मिली। बाद में उसने रघुनाथ शाह और शंकर शाह की कविताओं का अस्काइन नामक एक विद्ववान से अनुवाद कराया।
अपने प्रिय नेता और राजा तथा उसके परिवारजनों की अंग्रेज सरकार द्वारा गिरफ्तारी की खबर मिलने पर आदिवासी उग्र हो गए और उन्होंने इनकी रिहाई के लिए जबलपुर पर सशस्त्र हमला कर दिया, लेकिन इस बारे में तत्कालीन अंग्रेज सरकार के सैनिक दस्तावेजों में कोई विवरण नहीं मिलता है। इतना जरूर लिखा गया है कि रात्रि में छावनी के पास गोली चालन की आवाजें सुनी गई और छावनी के पास एक मकान में आग लगा दी गई। कुछ कैदियों को छुड़ाने के भी प्रयास किये गये, लेकिन इन प्रयासों में तीन आदिवासियों की मौत हो गई। आदिवासी विद्रोहियों ने जेल से कई कैदियों को रिहा कराने में सफलता पाई थी, इसका पता इसी से चलता है कि घटना की जांच के लिए एक जांच कमेटी बनाई गई जिसमें डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारी शामिल किए गए। कुछ दिनों बाद जेल से भागे कई कैदियों को पकडऩे मे अंग्रेज पुलिस को सफलता भी मिल गई और उनमें से कई कैदियों को चुपचाप राजद्रोह का अपराधी घोषित कर उन्हें कठोर दण्ड दिया गया।
राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को 18 सितम्बर 1857 को एक तोप के मूह से बांधकर मौत की नींद सुला दिया गया। वृद्ध शंकर शाह और उनके पुत्र ने सीना तानकर अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए जयघोष किया और खुशी-खुशी मौत को गले लगा लिया।
शशि थरूर जैसे सुतियों के कारण हमे अपने गौरवशाली इतिहास को पुनः स्मरण करने का मौका मिलता है , इनके लिए जूतांजलि तो बनती है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें