सोमवार, 20 नवंबर 2017

आज़ादी की लड़ाई में राजपूत राजाओ का सहयोग (भाग 2)

शशि थरूर जी आपके लिए जबाब ।  अंग्रेजो के बिरुद्ध राजपूत राजाओ का महा सहयोग ........
1857 के वीर आदिवासी क्रांतिकारी देशभक्तों में मध्यप्रदेश के गौंड़, राजवंश के राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह का नाम देशवासी सदा कृतज्ञता से आदर पूर्वक स्मरण करते हैैं। शंकर शाह गढ़ामंडला के प्राचीन गौंड राजघराने के वंशज थे। उनके पूर्वजों ने 1500 तक गौड़वाना में राज्य किया था और स्वतंत्रता प्रेमी गौंड शासकों ने हमेशा अपने राज्य को स्वायत्त और स्वतंत्र बनाने के लिए आक्र मणकारियों से संघर्ष किया। इसी राजवंश में प्रतापी वीर महारानी दुर्गावती थी, जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर की फौज से संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहूति देकर अपनी और अपने राज्य की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा था।

शंकर शाह अपने यशस्वी स्वतंत्रता प्रेमी पूर्वजों के इतिहास पर गर्व करते थे इसीलिए जब 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ देशी रियासतों और सैनिकों ने सशस्त्र क्रांति की, तब उन्होंने इसमें सहयोग दिया। वीर शंकर शाह ने एक छंदमय कविता की रचना की और गांव-गांव में और दूरदराज के वनों में रहने वाले आदिवासी गर्व और जोश से इस कविता को गाते हुए अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने लगे। जबलपुर के डिप्टी कमिश्नर को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने इस कविता के रचनाकार को तलाशना शुरू कर दिया। जांच के दौरान जब पुलिस को पता चला कि राजा शंकर शाह कविताएं लिखते हैं, तो डिप्टी कमिश्नर ने गढ़ामंडला में उनके निवास की तलाशी ली और वहां एक कागज पर लिखी यह कविता जब उन्हें मिली तो उन्होंने राजा शंकर शाह को कैद कर लिया।

शंकर शाह अपने पूर्वजों के समझौते के कारण ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार के पेंशनर थे और पुरवा में अपने पुत्र रघुनाथ शाह के साथ रहते थे, लेकिन गढ़ामंडला में उनका परम्परागत निवास भी था, जहां वे अक्सर आया-जाया करते थे और अपनी रियासत के सरदारों, जागीरदारों के वंशजों से समय-समय पर भेंट मुलाकात भी करते थे। यद्यपि शंकर शाह का राज्य अंग्रेजों ने हड़प लिया था और उनके पास कोई शासन अधिकार भी नहीं थे, लेकिन जनता में वे लोकप्रिय और आदरणीय बने हुए थे। इसी कारण जनता ने 1857 में उनके आवाहन पर कंपनी सरकार के खिलाफ संघर्ष किया।

अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर ने शंकर शाह को कंपनी की ओर से पेंशन के अलावा तीन गांव की जागीर भी दी थी। इस कारण कंपनी ने उन्हें अपना जागीरदार और पेंशनर बना रखा था और जब उन्होंने विद्रोह किया तो कंपनी सरकार के डिप्टी कमिश्नर ने राजा शंकर शाह को राजद्रोही घोषित कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। बताया जाता है कि आदिवासी विद्रोहियों ने 1857 के सितम्बर माह में किसी दिन संगठित रूप से जबलपुर में अंग्रेजों की छावनी पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी, लेकिन डिप्टी कमिश्नर ने फकीर के वेश में एक चपरासी को शंकर शाह के इर्द गिर्द तैनात कर रखा था और उसी की सूचना पर डिप्टी कमिश्नर को आदिवासी विद्रोह की खबर मिली। इस पर लेफ्टिनेंट क्लार्क के साथ 20 सैनिक जवानों और बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों को पुरवा में शंकर शाह को घेरने के लिए भेजा गया।

डिप्टी कमिश्नर भी इस सैनिक दल के साथ शामिल हुआ। 14 सितम्बर 1857 को शंकर शाह का निवास घेर लिया गया और पूरे गांव को भी घेर लिया गया। इसके बाद राजा के निवास में घुसकर डिप्टी कमिश्नर ने राजा शंकर शाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह और 13 अन्य व्यक्तियों को गिरफ्तार कर जबलपुर छावनी भेज दिया। बाद में निवास स्थान की गहन तलाशी ली गई तो आपत्ति जनक वस्तु के नाम पर केवल कागज का एक टुकड़ा मिला, जिसमें की दुर्गादेवी की स्तुति की कविता छन्द रूप में लिखी गई थी। चूंकि यह कविता जनता में लोकप्रिय हो चुकी थी अत: डिप्टी कमिश्नर ने इसे विद्रोह की कविता मानकर राजा और उनके पुत्र को राजद्रोही घोषित कर दिया। एक अन्य कागज पर रघुनाथ शाह द्वारा देशभक्ति से प्रेरित कविता भी डिप्टी कमिश्नर को मिली। बाद में उसने रघुनाथ शाह और शंकर शाह की कविताओं का अस्काइन नामक एक विद्ववान से अनुवाद कराया।

अपने प्रिय नेता और राजा तथा उसके परिवारजनों की अंग्रेज सरकार द्वारा गिरफ्तारी की खबर मिलने पर आदिवासी उग्र हो गए और उन्होंने इनकी रिहाई के लिए जबलपुर पर सशस्त्र हमला कर दिया, लेकिन इस बारे में तत्कालीन अंग्रेज सरकार के सैनिक दस्तावेजों में कोई विवरण नहीं मिलता है। इतना जरूर लिखा गया है कि रात्रि में छावनी के पास गोली चालन की आवाजें सुनी गई और छावनी के पास एक मकान में आग लगा दी गई। कुछ कैदियों को छुड़ाने के भी प्रयास किये गये, लेकिन इन प्रयासों में तीन आदिवासियों की मौत हो गई। आदिवासी विद्रोहियों ने जेल से कई कैदियों को रिहा कराने में सफलता पाई थी, इसका पता इसी से चलता है कि घटना की जांच के लिए एक जांच कमेटी बनाई गई जिसमें डिप्टी कमिश्नर और दो अंग्रेज अधिकारी शामिल किए गए। कुछ दिनों बाद जेल से भागे कई कैदियों को पकडऩे मे अंग्रेज पुलिस को सफलता भी मिल गई और उनमें से कई कैदियों को चुपचाप राजद्रोह का अपराधी घोषित कर उन्हें कठोर दण्ड दिया गया।

राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को 18 सितम्बर 1857 को एक तोप के मूह से बांधकर मौत की नींद सुला दिया गया। वृद्ध शंकर शाह और उनके पुत्र ने सीना तानकर अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए जयघोष किया और खुशी-खुशी मौत को गले लगा लिया।

शशि थरूर जैसे सुतियों के कारण हमे अपने गौरवशाली इतिहास को पुनः स्मरण करने का मौका मिलता है , इनके लिए जूतांजलि तो बनती है । 

आज़ादी की लड़ाई में राजपूत राजाओ का सहयोग (भाग 1).

दो दिन पहले कांग्रेस नेता शशी थरूर राजपूतों पर तंज कसते हुए कह रहे थें कि अंग्रेजों के समय में राजपूत कहां थे ?....तो थरूर साहब राजपूत 1000 वर्षो तक जिस तरह मुसलमानों से लड़ते रहें,उसी तरह वें अंग्रेजो से भी पुरे देश में लड़ते रहें।बेहतर होगा कि आप इतिहास को अच्छी तरह से अध्ययन करें।आज मैं 1857 की क्रांति में बिहार के राजपूतों के योगदान पर चर्चा करूंगा।
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...बिहार में क्रांति का नेतृत्व का जगदीशपुर रियासत के राजा वीर कुंवर सिंह ने नेतृत्व किया।वह भी उस 80 वर्ष के बुढापे के उम्र में जिस उम्र में लोग लाठी का सहारा ले लेते हैं लेकिन उन्होनें तलवार का सहारा लिया था।25 जुलाई 1875 को बिहार के दानापुर के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और वें सभी जगदीशपुर जाकर वीर कुंवर सिंह के सेना में शामिल हो गये।कुंवर सिंह ने सेना को संगठित कर अंग्रेजो से युद्ध किया।
.....कुंवर सिंह को साथ देने के लिए बिहार के विभिन्न क्षेत्रों से अनेक राजपूत जागीरदार और जमींदार भी आएं जिनका नाम है---पीरो परगना का तहसीलदार हरिकिशन सिंह अपने चारों भाई लक्ष्मी सिंह,अजीत सिंह, आनन्द सिंह और राधसिंह ने इस क्रांति में भाग लिया इन चारों को अंग्रेजो ने काले पानी की सजा दी थी।
.........विर कुंवर सिंह के साथ अंग्रेजों के विरूद्ध जिन राजपूतों की महत्वपुर्ण भूमिका रही उनका नाम है सासाराम के निशान सिंह चौहान ,गाजीपुर के सिधा सिंह और जोधा सिंह,रामेशर सिंह ( अंग्रेजी सेना का बागी सुबेदार ), सुन्दर सिंह (जनरल पद पर ), भजन सिंह ( चावर,भोजपुर अंग्रेजी सेना के बागी सुबेदार ) , राणा दालान सिंह (क्रांति परामर्श दाता ), जीवधन सिंह (खुमदनी ,गया का जमींदार), बिहियां कुमान का कमाण्डर लक्ष्मी सिंह (भदवर ,भोजपुर ), कान सिंह ,काशी सिंह (प्रधान सेनापति ), रणबहादुर सिंह (गाजीपुर का जमींदार ), शिवबालक सिंह (क्रांति के जनरल ),हरि सिंह हेमतपुर (भोजपुर का जमींदार )।
.......हजारा सिंह (भोजपुर-बलिया का जमींदार ),मनकुब सिंह (अंग्रेजी सेना के बागी सिपाही) ,जगमाल सिंह (बागी सिपाही ), उदति सिंह ,द्वारका सिंह , शिवधर शरण सिंह,आनन्द सिंह (घुड़सवार सेना के जनरल ), रामनारायण सिंह (बागी सिपाही ), राधे सिंह,भोला सिंह (गोला-बारूद प्रभारी ),देव सिंह ,साहिबजादा सिंह ,राम सिंह (बागी सुबेदार ),तिलक सिंह और भारू सिंह(बागी सुबेदार ), तिलक सिंह (बागी सुबेदार )।
......18मार्च 1858 को आजमगढ के पास अतरौलिया में कुंवर सिंह के नेतृत्व में राजपूतों ने अंग्रेजो के विरूद्ध घोर युद्ध किया यह यूद्ध चार दिन तक चला 22 मार्च को अंग्रेजी सेना हार गई।उसके बाद कर्नल डेम्स के नेतृत्व में अंग्रेजी कमांडर मिलमैन की सहायता के लिए आई किंतु राजपूतों ने उसे भी पराजित कर दिया।डेम्स भागकर आजमगढ किले में छिप गया।उसके बाद बनारस पर चढाई किया गया तो इससे घबड़ाकर लार्ड कैनिंग घबड़ाकर बड़ी सेना भेज दी।6 अप्रैल को युद्ध हुआ लार्डमार्क हार कर भाग गया किंतु कुंवर सिंह ने पिछि कर उसे आजमगढ के किले में कैद कर लिया।उसे साथ देने लगर्ड आया वह भी हार गया।जब वें गंगा पार कर जगदीशपुर आ रहे थे तो डगलस के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना पिछा करती आ गई और गोली चलाने लगा एक गोली उनके दांये हाथ में लगी विष फैलने के डर से उन्होने तलवार से अपना हाथ काट दिया।
.......उनके जगदीशपुर पहुंचने के 24 घंटे बाद ही लिग्रैण्ड के नेतृत्व में फिर अंग्रेजी सेना ने आक्रमण कर दिया।यहां पर भी 23 अप्रैल 1858 को बुरी अंग्रेजों की हार हुई।उसके बाद जगदीशपुर शासन करने लगे वे पुरी तरह अजेय रहें किंतु युद्ध में इतने बुरी तरह से घायल हो गये थे कि तीन दिन बाद 26 अप्रैल 1858 को स्वर्ग सिधार गयें।अंग्रेज इतिहासकार होम्स इनकी वीरता पर मुग्धर होकर अपनी पुस्तक में लिखता है----The Old Rajput who has fought so honourabluy and so bravely against the british power died on 26 april 1858
..........वीर कुंवर सिंह के स्वर्गावास के बाद अमर सिंह गद्दी पर बैठें उन्होने भी डगलस और लगर्ड की सेना से युद्ध लड़ा।बिहिया,हातम
पुर ,दलीलपुर आदी तीनों जगह अंग्रेजो की इस तरह हराया की 15 जुन 1858 को जनरल लगर्ड को त्यागपत्र देना पड़ा।उसके बाद उसने कसम खायी की मै अमर सिंह को हराकर ही नौकरी में लौटुंगा 19 अक्टुबर को नोनुदी गांव मे फिर घोर युद्ध हुआ।अंग्रेज अमर सिंह के हाथी तक पहुंचे लेकिन वे हाथी से कुदकर निकल पड़े इसके बाद अमर सिंह का कहीं पता न चला।
.......अंग्रेजी काल में बिहार के कुछ और राजपूत वीरों ने अंग्रेजो से लोहा लिया जिनमें मुंगेर जिले गिद्धोर रियासत के राजकुमार कालिका सिंह, ठाकुर बनारसी प्रसाद सिंह इन इलाको से नन्दकुमार सिंह,श्याम सिंह ,नेमधारी सिंह तो शाहाबाद के हरिहर सिंह,सारण के प्रभुनाथ सिंह ,सारंगधर सिंह आदी हजारीबाग से रामनारायण सिंह समस्तीपुर से सत्यनारायण सिंह ,शिवपुर से नवाब सिंह आदी बहुत से बिहार के राजपूतों ने राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया।
उत्तरप्रदेश : 
रायबरेली के राजा --: राणा बेनी माधव सिंह ने 1857 की लड़ाई में बहुत ही महत्वपुर्ण भूमिका निभाया था।इन्होनें हीरा पट्टी के ठाकुर परगट सिंह, परदहां के ठाकुर जालिम सिंह, अजमतगढ़ के गोगा व भीखा साव तथा दुबारी, भगतपुर, नैनीजोर, रुदरी, बम्हौर, मोहब्बतपुर, बगहीडाड़ के क्रान्तिकारियों को संगठन में शामिल कर सेना बनाकर अंग्रेजों से पहले-पहल गुरील्ला युद्ध कर बहुत नुकसान पहुंचाया। 3 जून 1857 को विद्रोह हुआ तो इनके नेतृत्व में अंग्रेजों का खजाना लूटा गया। जेल से कैदी आजाद किये गये। सरकारी कार्यालयों पर कब्जा कर स्वतंत्रता का झण्डा फहरा दिया गया।इस संघर्ष में लेफ्टिनेंट हचिंसन व कर्नल डेविस मारे गये। गये।

.....इसके बाद 4 जून को विपल्वी सैनिक और बेनी माधव सिंह सरदार बन्धु सिंह के नेतृत्व में फैजाबाद रवाना हो गये। वहां पर भाग रहे अंग्रेजों को घाघरा नदी में बेगमगंज के निकट मौत के घाट उतार दिया और कानपुर के विद्रोहियों की मदद के लिए चल दिये।
......26 जून 1857 को अंग्रेजी अफसर बेनी बुल्स ने बवण्डरा किले की घेराबंदी की। बेनी माधव सिंह की विपल्वी सेना से अंग्रेज परास्त होकर भाग खड़े हुए। राजा की सेना ने अंग्रेजों का पीछा किया। बेनी बुल्स की हार की जानकारी बनारस और इलाहाबाद पहुंची तो भारी संख्या में ब्रिटिश फौज आजमगढ़ भेजी गयी।
अंग्रेजी सेना अतरौलिया पहुंचती कि इससे पहले ही कोयलसा में फिर मुठभेड़ हुई और अंग्रेज पुन: परास्त हुए।मैदान छोड़कर भाग रहे अंग्रेजी सेना पर विपल्वी सेना ने कप्तानगंज और सेहदां में पुन: आक्रमण कर गोला-बारूद व रसद छीन लिया तथा स्वतंत्रता का ध्वज लहरा दिया।इसके बाद बेनी माधव सिंह और कुंवर सिंह की अतरौलिया के लिए रवाना हुई।बिहार भोजपुर में अंग्रेजी सेना से घमासान युद्ध हुआ। अंग्रेज परास्त होकर भाग खड़े हुए। बेनी माधव सिंह ने भारी मात्रा में गोला-बारूद हथियार अंग्रेजो से छिन लिये।(स्रोत-भारत में अंग्रेजी काल ,भाग-3 )
राजा हनुमन्त सिंह ---:सन 1857 में कालांकार (प्रतापगढ ) के राजा हनवंतसिंह ने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष करने के लिए अपने बड़े पुत्र राजकुमार लाल साहब प्रताप सिंह के नेतृत्व में 1000 सैनिकों की एक बटालियन बनाई और इसी बटालियन का नेतृत्व करते 19 फरवरी 1858 को इतिहास प्रसिद्ध चांदा के युद्ध में कॉलिन कैम्पबेल के नेतृत्व वाली अंग्रेजी फौजों से लोहा लेते हुए राजकुमार प्रताप सिंह विरगति हो गयें।.......
राजा पृथ्वीपाल सिंह--: ने 3 जुन 1857 की लड़ाई में अंग्रेजो से लड़कर अपना तिघरा राज्य वापस ले लिया था।
राजा फतेहबहादुर सिंह--: इन्होनें भी 3 जुन 1857 को अंग्रेजों से अपना अतरौलिया राज्य छिन लिया था।किंतु बाद में 23 जून 1858 को राजा फतेह बहादुर सिंह फैजाबाद में महीरपुर कोट के निकट अंग्रेजों से युद्ध करते हुए विरगति को प्राप्त हो गये।
राजा देवीबक्श सिंह विशेन --: यह गोंडा के राजा थें।सबसे पहले इन्होनें अंग्रेजों से खुद लड़ाई लड़ी उसके बाद यह बेगम हजरत महल के साथ जा मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाईयां लड़ी।अंग्रेजों ने इनके विरता को देखकर प्रलोभन भी दिया कि आप लड़ना छोड़ दिजीए हम आपके राज्य लौटा देगें लेकिन वें मानें नही लड़ते रहें।अंत में यह नेपाल चले गयें।
लाल माधव सिंह --: यह अमेठी के राजा थें पहली लड़ाई में हार गयें और इन्होनें अमेठी खो दिया था 13 नवम्बर 1858 को इन्होनें अंग्रेजों से रामसाकिया का किला छिन लिया।उसके बाद इन्होनें अमेठी किला जीतने की योजना बनाई।अंग्रेजों से बार-बार संघर्ष किया अनेक में जीते भी तो हारे भी।इनके विरता को विस्तृत रूप से जानने के लिए आपको अंग्रेजी की बुक- सिवील रिविलियन इन इंडियन म्यूटिनीज- को पढना पड़ेगा।
राजा जसपाल सिंह --: इन्होनें अंग्रेजों को इतना परेशान किया था और छति पहुंचायी थी कि अंग्रेजो ने लखनऊ में इनकों फांसी दे दिया था।
अन्य राजा --- नरहरपुर के राजा हरि नारायण सिंह, सतासी के राजा उदित नारायण सिंह, हरिकृष्ण सिंह के साथ अंग्रेजों से लोहा लिये थे। इन राजाओं और जमींदारों को संगठित कर पैना के अयोध्या सिंह, ठाकुर सिंह, माधों सिंह, पल्टन सिंह, गुरूदयाल सिंह आदि ने 600 से अधिक हथियार बन्द सैनिको को लेकर अंग्रेजों से आजादी की जंग शुरू कर दी थी। 31 मई 1857 को फिरंगियों के साथ जंगे एलान कर गोरखपुर-पटना और गोरखपुर-आजमगढ़ का नदी मार्ग यातायात रोककर घाटों पर रसद और खजाने से लदी नावों को रोककर लूट लिया था।
सैनिक राजपूत ---:जब 1857 की लड़ाई शुरू हुई तो कई राजपूत सैनिक ने विद्रोह कर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर लड़ाईया लड़ी जिनका नाम है--द्वारका सिंह, कालका सिंह, रघुबीर सिंह,बलदेव सिंह, दर्शन सिंह,मोती सिंह हीरा सिंह,सेवा सिंह, काशी सिंह, भगवान् सिंह, शिवबक्स सिंह ,लक्ष्मण सिंह, रामसहाय सिंह, रामसवरण सिंह, शिव सिंह, शीतल सिंह, मोहन सिंह, इन्दर सिंह ,मैकू सिंह, रामचरण सिंह, शीतल सिंह ,मथुरा सिंह, नारायण सिंह, लाल सिंह,शिवदीन सिंह, बिशनसिंह, बलदेव सिंह, माखन सिंह, दुर्गा सिंह,जुराखन सिंह प्रथम और बरजौर सिंह।--स्रोत (भारत में अंग्रेजीकाल ,भाग -2 )
ग्रामीण राजपूत ---: हापुड़ जिलें में धौलाना एक गांव हैं यहां और इसके आस-पास के सैंकड़ों ग्रामीण राजपूतों ने अंग्रेजों के विरूद्ध सशस्त्र लड़ाई लड़ी।यहां के राजपूतों ने मेरठ जाकर पुरे शहर पर ही अपना अधिकार जमा लिया और ग्यारह पलटनों के अंग्रेज कर्नल लेफ्टिनेंट हंडरसन, ले.पेंट आदि को मार डाला फिर वहां से यह लोग दिल्ली कुच गयें।दिल्ली पहुंचकर भी इनलोगों ने कई सरकारी भवनों से अंग्रेजों के झंडा को उतार फेंका और चार अंग्रेजों को मार डाला।
जिसपर अंग्रेजों ने इनके गांव से पकड़कर धौलाना गांव में ही 29 नवम्बर 1857 को पिपल के पेंड़ पर 13 राजपूतों और 1 वैश्य को फांसी पर लटका दिया था जिनका नाम है --लाला झनकूमल 2. वजीर सिंह चौहान 3. साहब सिंह गहलौत 4. सुमेर सिंह गहलौत 5. किड्ढा गहलौत, 6. चन्दन सिंह गहलौत 7. मक्खन सिंह गहलौत 8. जिया सिंह गहलौत 9. दौलत सिंह गहलौत 10. जीराज सिंह गहलौत 11. दुर्गा सिंह गहलौत 12. मुसाहब सिंह गहलौत 13. दलेल सिंह गहलौत 14. महाराज सिंह गहलौत।--(स्रोत--दैनिक जागरण तथा शिवकुमार गोयल की पुस्तक क्रांतिकारी आंदोलन )।
राजा उदित नारायण---: सतासी नरेश राजा उदित नारायण सिंह ने भी अंग्रेजों को खुब पानी पिलाया।इन्होनें कुछ क्रांतिकारीयों की मदद से गोरखपुर शहर को ही कब्जा कर लिया था।लगभग तीन महीनें तक गोरखपुर इनके कब्जे में रहा उसके बाद अंग्रेजों ने जाल बिछाकर पकड़ लिया और काला पानी की सजा दी जहां इनका स्वर्गवास हो गया (स्रोत --श्री नेत राजपूत के भेजे गये संदेश )
FB से  Sanjeet Singh का  लेख.......

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

बाघेल युगीन रीवा की साहित्य परंपरा

  1.                               
  2. हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य की लगभग सहस्त्र वर्षों की दीर्घ कालीन परम्परा तीन काल में विभाजित किया है- आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।1 तदानुसार (1) आदिकाल 1000-1500 र्इ0 (2) मध्यकाल 1500-1800र्इ0  (3) आधुनिक काल1800 र्इ0 से प्रारंभ।2 विषयान्तर्गत अनुशीलन पर तथ्य उजागर होता है कि उक्त परंपरा का प्रारंभिक है मध्यकाल और रचना है 'दुर्गादास महापात्र —ति अजीत फते नायक रयसा। रचना काल —ति में उधृत नहीं है। आंकलन है
  3. (क) रायसा रासो का संक्षिप्त संस्करण एवं शैली के रूप में दुर्गादास महापात्र व्दारा मूल घटना के कुछ दिनो बाद लिखा गया। इसका प्रकाशन और भी बाद में हुआ।(3)
  4. (ख)....इससे जान पड़ता है कि ग्रंथ रचनाकाल युद्ध के दो साल के हेर फेर का है।4
  5. (ग) उक्त युद्ध 4 दिसम्बर सन 1796 में हुआ था जो नैकहार्इ युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है।5
  6. कवि दुर्गादास ने 'अजीत फते नायक रायसा की रचना हिरान्या वंश के राजाराम की आज्ञा से की। दृष्टव्य है उक्त ग्रंथ के छंद 40, 43 एवं 44।
  7.  ग्रंथालोचन - बीर रस प्रधान रासों परम्परा से भिन्न इस ग्रंथ में डिंगल तथा ब्रज मिश्रित राजस्थानी भाषा का प्रयोग किया है, किन्तु क्रियापद बृज भाषा के हैं। अजीत फतेह का स्थार्इ भाव उत्साह है। रौद्र वीभत्स, अदभुत, भयानक का चित्रण, क्रोध, भय, विस्मय,  गुप्सा जैसे स्थार्इ भाव परिपुष्ट रूप में मिलते हैं तथा अपुष्ट वीर रस का परिपोषण भी करते हैं।  एक बात छूटी जा रही थी, वजह महत्वपूर्ण रचनाओं का प्रभाव ही हो सकता है। राजा रामचन्द्र बाघेला  (1555-92 र्इ0) जो गहोरा का गौरव बढ़ा रहे थे 1563 र्इ0 में बांधवगढ़ आये, इसे राजधानी बनाकर इसी नाम से रियासत कायम की। 1555 र्इ0से 1562 र्इ0 तक ख्यात कलाकार तानसेन उनके दरबार में रहेे। उन्ही के दरबार में कवि माधव उरव्य भी रहे जिन्होने (1556 र्इ0) प्रशस्यात्मक महाकाव्य 'वीर भानूदय की रचना की। रामचन्द्र के पुत्र ने सन 1591 में इस ग्रंथ की प्रतिलिपि करार्इ थी।
  8. रायल एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता की पाण्डुलिपि क्र0 3109,'रामचन्द्रयश:प्रबन्ध को जतीन्द्र विमल चौधरी ने सन 1946 को प्रकाशित किया। अकबर से कालिदास की उपाधि पाने वाले कवि गोविन्द भÍ ने यह प्रशसित राजा रामचन्द्र को लक्षित कर लिखी है। इन्हे शाही कवि 'अक्कबरीय कालीदास गोविन्द भÍ कहा जाता है। इन्होने 'वीरभद्र चम्पू भी लिखा है।( प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी : अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृ.227)  ख्यात कवि विश्वनाथ जी की चौथी पुस्त में कवि नरहरि महापात्र जी हुये जो अकबर के दरबार में रहे किन्हीं कारणों से बांधवगढ़ आये थे जो अमरकंटक चले गये उनके पुत्र हरिनाथ तत्कालीन राजा रामचन्द्र के दरबार में आये और यह छन्द कहा :
  9. काहू के करम उमरार्इ पातसार्इ रर्इ, काहू के करम राज राजनसो हेत है।
  10. काहू के करम हय हांथी पर गने पुर, काहू के करम हेम हरिन सों नेत है।।
  11. हरिनाथ जोर्इ जाहि के लिलार लीक, लीक, सोर्इ सोर्इ यहि दरबार आनि लेत है।
  12. महाराज बांधव नरेश राम सिंह तेरे, कर के भरोसे करतारौ लिख देत है। 6 
  13. राजा रामचन्द्र के पुत्र वीरभद्र देव हुये (सन1554) सन 1577 में इन्होने काम शास्त्र पर 'कन्दर्पचूड़ामणि ग्रंथ की रचना की। इसे सन 1908 में महाराज व्यंकटरमण सिंह ने प्रकाशित कराया जिसका सम्पादन  'रीवा राज्य दर्पण के लेखक जीतन सिंह ने किया। पं0 सूर्यप्रसाद ने इसकी हिन्दी टीका(वेंकट रहस्य) लिखी। सन 1926 में यह संस्—त-पुस्तकालय लाहौर द्वारा भी प्रकाशित किया गया। वीरभद्र का राज्यकाल अल्प समय का था। इनकी अन्य रचना 'दशकुमार-पूर्वकथा-सार पाण्डुलिपि कलकत्ता में(क्र.जी.9368) सुरक्षित है। पधनाभ मिश्र —त 'वीरभद्रदेव चम्पू पधनाभ मिश्र द्वारा सन 1577 में रची गर्इ।(डा0 राजीवलोचन अग्नीहोत्री)  सन 1668 में कवि रूपणि मिश्र ने महाराजा भाव सिंह की आज्ञा से 'बघेलवंश वर्णनम रचना जो सोमदेव भÍ के कथा सरित्सागर की पाण्डुलिपि से प्राप्त की गयी थी, शुद्ध प्रति तैयार की। कवि रूपणि मिश्र ने महाराजा भाव सिंह की प्रशसित में 100 श्लोक स्वयं रच कर ग्रंथ के अन्त में जोड़ दिए। इस ग्रंथ की प्रतिलिपि कलकत्ता में (क्र. 5398) सुरक्षित है।
  14. कवि हरिनाथ की छठवीं पीढ़ी में कवि शिवनाथ राम हुये। ये गंगा तट असनी नामक गाँव में निवास करते थे, रीवा आये। महाराजा अजीत सिंह ने इन्हें अपने दरबार में राज कवि बनाया और सिलपरी गाँव दिया। संभव है कि इनके वंश परम्परा के दुर्गादास महापात्र हैं, क्योंकि नरहरि दास जी के पितामह महाकवि धीरधर महापात्र जिन्हें महापात्र की पदवी आलाउद्दीन से मिली थी।7 धीरधर संस्कृत के प्रसिद्ध ग्रंथ 'साहित्य दर्पण के रचयिता थे। इनके वंशज ही सिलपरी ग्राम के पवार्इदार हुए और 'महापात्र या 'भÍ कुल नाम से जाने जाते हैं।
  15. शिवनाथ राम जी के पुत्र अजबेश राम महापात्र हुये और वे महाराजा विश्वनाथ सिंह तथा महाराजा रघुराज सिंह के दरबार में रहे। संस्—त हो या हिन्दी साहित्य रीवा का योगदान पुष्कल और महान है। वैसे देखा जाये तो महाराजा जयसिंह से राजवंश की साहित्य परम्परा चलती है। महाराजा जयसिंह ने स्वयं बीस पुस्तकों की रचना की।8 इनमें 'हरिचरित चंदि्रका, तथा 'कृष्ण तरंगिनी सुन्दर कृतियाँ है और उस भकित उन्मेष से लिखी गर्इ हंै जो भकितकाल की प्रबल प्रवृति रही है।9
  16. हिन्दी के प्रथम नाटक का मान 'आनन्द रघुनन्दन को मिला। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और कुँवर सूर्यबली सिंह ने तमाम सिथतियाँ स्पष्ट की है कि यह हिन्दी का प्रथम नाटक है। आंनन्द रघुनन्दन के रचयिता है महाराज विश्वनाथ सिंह इनका 1833 र्इ0 से 1854 र्इ0 तक राजकाल रहा। विश्वनाथ सिंह समन्वयवादी उन कवियों के श्रेणी में आते हैं जिनके मूर्धन्य कवि गोस्वामी तुलसीदास है।10 इनके द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रंथ कहे जाते हैं - अष्टयाम आàकि, गीता रघुनन्दन शतिका, आनन्द रघुनन्दन (नाटक), उत्तम काव्य प्रकाश, रामायण, गीता रघुनन्दन प्रमाणिक, सर्व संग्रह, कबीर के बीजक की टीका, विनय पत्रिका की टीका, रामचन्द्र की सवारी, भजन, पदार्थ, धनुर्विध, परमतत्व प्रकाश, आनन्द रामायण, पर धर्म निर्णय, शानित शतक, वेदान्त पंचक शतिका, गीतावली पूर्वाध, ध्रुवाष्ठक, उत्तम नीति चंदि्रका, अबोध नीति, पाखण्ड खणिडनी, आदि मंगल, बसंत, चौतीसी, चौरासी रैमनी, ककहरा, शब्द, विश्व भोजन प्रसाद, ध्यान मंजरी, विश्वनाथ प्रकाश, परम तत्व, संगीत रघुनन्दन।11 इनका अधिकांश सहित्य उपदेशात्मक और वर्णनात्मक है।
  17. मध्य युगीन हिन्दी सहित्य के प्रवाह में महाराजा विश्वनाथ सिंह नही बहें, उन्होने नाटक आनन्द रघुनन्दन की रचना की। कुँवर सूर्यबली सिंह ''यदि यह रचना काल के अनितम भाग मे न लिखा गया होता तो मध्यकाल रसात्मक अभिव्यकित की एक सश्क्त सरणि - श्रव्य काव्य से वंचित रह जाता, उसकी संपन्नता बाधित हो जाती। अत: विश्वनाथ सिंह ने मध्यकालीन साहित्य को अनुपम अद्वितीय रचना से संवारा है। 'आन्नद रघुनन्दन का रचना काल ग्रन्थ में अंकित नही है। विन्ध्य प्रादेशिक सहित्य सम्मेलन रीवा द्वारा प्रकाशित पत्रिका के सम्पदिकीय मे निर्माण तिथि का निर्धारण हुआ है,- 'आनन्द रघुनन्दन नाटक की रचना सम्वत 1800 से 1911 के मध्य कभी हुर्इ है। एक सौ ग्यारह वर्षो का अन्तराल मन को उद्वेलित किये रहा। खोज-बीन करते जानकारी मिली आनंद रघुनंदन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से - इति श्री महाराज कुमार श्री बाबू साहब विश्वनाथ सिंह जूदेव कृति आनन्द रघुनंदन नाटक सम्पूर्ण समाप्त शुभमस्तु श्री राम, सुदि सुक्रे वौ संवत 1888 (सन 1831) को मुकाम बिजौरी बैठ लिखों।12 तदानुसार इस बात की पुषिट होती है कि विश्वनाथ सिंह ने आनंद रघुनंदन अपने राजकुमार काल में कभी लिखा जिसकी प्रतिलिपि 1831 र्इ0 में किसी ने किया। उनका जन्मकाल है  तिथि बैशाख शुक्ल 14 विक्रम संवत 1848 (1789 र्इ0) अत: 'आनन्द रघुनन्दन का रचना काल र्इ0 1831 के आस-पास होना विदित होता है। 'आनंद रघुनन्दन नाटक हिन्दी एवं संस्—त दोनो सूचियों में प्राप्त होता है किन्तु यह सत्य है कि पहले हिन्दी में ततपश्चात संस्—त अनुवाद हुआ। महाराजा विश्वनाथ सिंह ने सगुण और निगर्ुण की एक वाक्यता प्रतिपादित की ।''13
  18. विश्वनाथ युग में सूफी संत शाह नज़फ अली खाँ का जि़क्र आता है, रायबरेली के पास सलोन गाँव में जन्म लिया जहाँ के 'पदमावत रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी हैं। खाँ साहब फारसी के ज्ञाता थे और फारसी की एक रचना रीवा की तुरकहटी में बैठ कर लिखी थी 'प्रेम चिंगारी। 14
  19. महाराज जय सिंह —ष्णोंपासक थे और पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह रामोपासक हुए। महाराज रघुराज सिंह कृष्णोंपासक सिद्ध होते हैं। महाराज रघुराज सिंह का जन्म सन 1823 र्इ0 कार्तिक कृष्णपक्ष चार दिन गुरुवार को हुआ। कवि युगलेश ने कहा है ''जस प्रताप मंदिर कियो, विश्वनाथ महाराज, तापर कलसा ताहिको धरयो भूप रघुराज। हालाँकि नींव तो महाराज जय सिंह ने ही रखी और माहौल का भी प्रभाव पड़ा, क्योंकि राज दरबार में कर्इ विद्वान कवि आश्रय पाते थे। इनकी रचनाओं को देखा जाय और देखिये कि कितना विशिष्ट, वृहत और विशद है। समीक्षा आचार्य कुँवर सूर्यबली सिंह ने कहा कि ''महाराज रघुराज सिंह ने जिस मनोयोग से 'रामस्वयंबर में राम कथा गार्इ है उसी उन्मेष में 'रुकिमणी परिणय और 'आन्दाम्बुनिधि में —ष्ण कथा कही है। इस प्रकार उन्होने सिद्धांत और व्यवहार को एक कर दिया है जो मध्यकालीन कवियों में शायद ही कोर्इ कर सका हो।
  20. 'आनन्दाम्बुनिधी के बारे में बघेली गधकार रविरंजन सिंह ने लिखा है-''इस ग्रंथ से हिन्दी की एक बड़ी छतिपूर्ति हुर्इ है। इसके पूर्व हिन्दी प्रेमी श्रीमदभागवत की कविता का रसास्वादन करने से वंचित रह जाते थे। महाराज रघुराज सिंह रीतिकालीन प्रवाह में नहीं बहे। देखा जाय तो महाराज रघुराज सिंह मध्यकाल में शुरुआत से अन्त तक छाये रहे। सूरदास एवं तुलसीदास ऐसे दो चार कवि ही होंगे जिनके लिये काव्य साधन और साध्य दोनो था। रघुराज सिंह भी इन्ही में आते हैं, ये भक्त भी हैं और साहित्यकार भी। इनकी रचनायें कुछ एक को छोड़ कर, शुद्ध धार्मिक है। 'गंगा अष्टोत्तर शतक साहितियक स्त्रोत है और इसके जोड़ की एक ही रचना है-पदमाकर की ख्याति को उजागर करने वाली 'गंगालहरी।15
  21. प्राप्त सूचियों के अनुसार महाराज रघुराज सिंह के सर्व ग्रंथों की संख्या 56 तक पहँुचती है। विद्वानों के मत से वह 28 से अधिक नहीं कही जाती है। 'रघुराज विलास लोक साहित्य का अच्छा उदाहरण है। तुलसीदास जी के 'रामलला नहछू और 'जानकी मंगल आदि का जो स्थान है लोक साहित्य में, वही स्थान है 'रघुराज विलास का। उनके बनरा, बधार्इ, होली आदि के पद गाँवों में आज भी सुनार्इ देते हैं।
  22. महाराज रघुराज सिंह के राजकवि अजबेस राम जी रहे, जो फारसी और ब्रज के अच्छे ज्ञाता रहे। कवि अजवेश मध्यकाल को वीर काव्य देने वाले प्रसिद्ध कवियों में से थे। कवि अजवेश भÍ (महापात्र) ने बान्धव गद्दी के महाराजाओं की वंशावली लिखी है। इनके रचे छन्द -
  23.                      संगर समत्थ सजो भूप विश्वनाथ सिंह वीरता को रूप खूब आनन लखात है।
  24.     मारु बजे बाजे गाजे द्विरद दतारे भारे सुभट समूह सावधान दरसात है।।
  25.    विक्रम विहद्द हिंदुवान हद्द अजबेश जय सिंह के नंद के अनंद अधिकात हैं।
  26.   तरकात जात बंधु करकत जात फौज फरकत बाहु बाजी थरकत जात है।।
  27. कवि अजबेश के पुत्र कवि सुखराम जी ब्रज एवं संस्—त के ज्ञाता थे और व्याकरण शास्त्र के पूर्ण पणिडत। ये महाराज रघुराज सिंह के दरबार में रहे। ये ब्रज भाषा में सुन्दर रचना करते थे और कविता में अपना नाम अन्य कवियों की तरह नहीं रखते थे। -
  28.                     आज महाराज की शरण आय अपनी विपत अंगरेजन हू भाखी है।
  29.                    नर नरनाहन सदा ही पातसाहन को विपति परै पै पति बाँधौपति राखी है।।
  30. द्विवेदी युगीन कवि-त्रयी हंै मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्यय 'हरिऔध और ठा0 गोपाल शरण सिंह। रीवा के नर्इगढ़ी इलाकेदार ठा0 गोपाल शरण सिंह का सन 1891 में जन्म हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की —पा से आपने साहित्य में विशेष स्थान बनाया। खड़ी बोली को सजीव, मधुर और सशक्त बनाने वालों में आपका विशेष स्थान है। राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों में आपने अनेक स्थानों पर अध्यक्षता की। आपने उच्चकोटि का साहित्य सृजन किया है - माधवी, कादमिबनी, ज्योतिष्मती, संचिता, सुमना, सागरिका, ग्रामिका, आधुनिक कवि, विश्वगीत, पे्रमान्जली, शानित-गीत, मीरा और जगदालोक जो पुरष्—त हुर्इ। 'माधवी घनाक्षरी छन्दों में सरस व माधुर्य गुणों से भरपूर रचनाओं का संग्रह है। आपकी कविताओं में सामाजिक समस्याओं का निरूपण एवं जन जागरण का स्पष्ट स्वर है जो काव्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
  31. रीवा की धरती सदा साहित्यकार प्रसूता रही है और यहाँ के राजाओं द्वारा पोषित। सन 1880-81 में उर्दू लेखक मौलवी रहमान अली ने 'तवारिख-ए-बघेलखण्ड लेखन की शुरुआत की।16 महाराजा व्यंकटरमण सिंह ने हिन्दी को विशेष महत्व दिया और सन 1895 में हिन्दी को राज्य भाषा घोषित किया। महाराजा व्यंकटरमण सिंह के समय इस क्षेत्र (आज का मध्य प्रदेश) का प्रथम स्वतंत्र राष्टी्रय पत्र 'भारत भ्राता सन1914 के बाद महाराजा व्यंकटरमण सिंह के समय में निकला। जिसके सम्पादक श्री बलदेव सिंह थे।17 पणिडत मदन मोहन मालवीय ने इस पत्र की राष्टी्रय भावना और निर्भीकता की बहुत प्रशंसा की लेकिन अंग्रेज सरकार ने पत्र की प्रतियाँ और पे्रस जब्त कर लिया। सन
  32. 1918, श्री ब्रजरत्न भÍाचार्य के सम्पादन में 'शुभचिन्तक(सप्ताहिक) प्रकाशित होने लगा। सन 1920-21 के 'रीजेन्सी काल में सारे पत्रों का प्रकाशन बंद करा दिया गया। सन 1930 से 'प्रकाश महाराजा गुलाब सिंह की पे्ररणा से प्रकाशित होना प्रारंभ हुआ इसके सम्पादक रहे श्री नरसिंह राम शुक्ल, म0 अर्जुन सिंह, केशव प्रसाद चतुर्वेदी। गुलाब सिंह के सत्ता से हटने के बाद यह अनियमित रहा। श्री बलवन्त सिंह की प्रेरणा से कुँवर सूर्यबली सिंह एवं यादवेन्द्र सिंह के सम्पादकत्व में साहितियक मासिक पत्रिका 'बान्धव प्रकाशित हुर्इ लेकिन शुद्ध साहितियक होने की वजह से अल्प जीवी रही। श्री जगमोहन निगम भी इस पत्रिका से जुड़े हुए थे। इस क्षेत्र की पत्रिकाओं में कुँवर सूर्यबली सिंह ने सम्पादकीय लेखन और साहितियक समीक्षा की शुरुआत की।
  33. कवि सुखराम जी के पुत्र महापात्र सीतल प्रसाद 'शीतलेश महाराज व्यंकटरमण सिंह एवं महाराजा गुलाब सिंह के दरबार के राजकवि रहे। आप ब्रज भाषा साहित्य के पणिडत थे और उन्होने 'गुलाब गौरव ग्रंथ लिखा जिसे 'गुलाब प्रकाश' भी कहा जाता है।
  34. 'शीतलेश जी के पुत्र ब्रजेश जी ने साहित्य शास्त्र का गहन अध्ययन किया। आपका जन्म सन 1871, सिलपरी ग्राम रीवा में हुआ। आपकी गणना ब्रज के आचार्य कवियों में की जाती है। आपके द्वारा रचित ग्रंथों में 'रमेश रत्नाकर, माधव विलास, विरह-वाटिका, सोरठ शतक, अलंकार निर्णय, रस रसांग-निर्णय, शान्त शतक, श्रृंगार-शिरोमणि, मोहन चरित्र माला, विश्वनाथ शरण भूषण, ब्रजेश विनोद हैं।
  35. बख्शी हनुमान प्रसाद जी का जन्म 1872 र्इ0 में हुआ। आपने 'साहित्य सरोज नामक एक अलंकार ग्रंथ की रचना की। आप हिन्दी के अलावा उदर्ू और फारसी के ज्ञाता थे। बघेलखण्ड की धरती साहित्यकारों से अलं—त रही है, मेरा दुर्भाग्य है कि अध्ययन के दौरान स्वतंत्रता पूर्व के कर्इ कवियों के नाम जानकारी में आए लेकिन उनके साहित्य के पुण्य प्रसाद से वंचित रहा।
  36. श्री गोविंद प्रसाद पाण्डेय :जन्म सन 1874। आप संस्—त, उदर्ू और फारसी के ज्ञाता थे। श्री भगवत प्रसाद, कवि राधिकेश जी, कवि मधुर जी, श्री हरिवंश प्रसाद श्रीवास्तव। कवि रामाधीन लालजी खरे : रीतिकाल की परंपरा के सफल कवि थे और प्रचुर मात्रा में साहित्य सृजन किया, लगभग 40 ग्रंथों की। स्वतंत्रता पूर्व काल मेें आप बहुत चर्चित व प्रतिषिठत साहित्य सृजक रहे। आप अपनी काव्य प्रतिभा के कारण ओरछा राजा के राजकवि हुए। इसी क्रम में अभी और साहित्यकार हैं जैसे आचार्य केशव के वंशज श्री श्याम सेवक मिश्र, कप्तान सम्पत कुमार सिंह, श्री बज्रपाणि सिंह 'पविपाणि, कप्तान यादवेन्द्र सिंह, कवि मनोहर सिंह, लाल महावीर सिंह बघेल, सरदार शत्रुसूदन सिंह, कवि हरशरण शर्मा 'शिव, श्री रामभद्र गौड़, श्री माधव प्रसाद और पणिडत चन्द्रशेखर शर्मा। पणिडत चन्द्रशेखर शर्मा का जन्म सन 1894 को रायपुर कचर्ुलियान रीवा में हुआ। आपकी रचनायें कर्इ बार पुरस्—त हुर्इं। कवि शेषमणि शर्मा 'मणि रायपुरी आपके पुत्र हैं। कवि लाल महाबली सिंह बघेल की 'गांधी गौरव रचना प्रकाशित हुर्इ है। कवि परशुराम जी पाण्डेय काफी प्रसिद्ध हैं। आपका बांधव झण्डागान रीवा राज्य के सभी पाठशालाओं में गाया जाता था और 'वह शकित हमें दो दयानिधे कर्तव्य मार्ग पर डट जावें...,इन्ही की रचना मानी जाती रही है लेकिन 'आजकल पत्रिका अंक नवंबर 2010 में इस कविता के कवि मुरारीलाल शर्मा 'बालबंधु का उल्लेख है। इनकी 'हरिकीर्तन, 'साकेत पथ एवं 'काव्य कलिका है। कवि अमिबका प्रसाद भÍ 'अमिबकेश : आपकी कविताओं में वीर रस और राष्ट्रप्रेम का स्वर प्रधान है। सन1941 में कविता संग्रह 'ज्योति प्रकाशित हुर्इ। श्री लखनप्रताप सिंह 'उरगेश':सन 1916 में जन्म हुआ, 'उल्कापात, 'आभा, 'प्रसाद,'अभिनयशाला एवं 'मानस परिचय आपकी रचनायें हैं। श्री भारत सिंह बघेल : जन्म सन 1905 ग्राम महसुआ रीवा में हुआ। आपकी 'विन्ध्य वैभव, 'बान्धव गान, 'देवतालाब महात्म्य, और 'विन्ध्य के प्राचीन ग्रंथ आदि हैं।
  37. हिन्दी जगत में 'मिश्रबंधु समान रीवा में मान्य रहे हैं गधकार बंधुत्रय लाल —ष्णवंश सिंह, लाल भानु सिंह और लाल दयावान सिंह, साहित्य की हर विधाओं में पारंगत रहे हैं। समीक्षा विधा की पहचान बनाने वाले रहे हैं कुँवर सूर्यबली सिंह। इन्होने गध साहित्य को विभिन्न पाठयक्रमों तक पंहुचाया है।
  38. कुँवर सूर्यबली सिंह परिहार का जन्म सन 1906 ग्राम रायपुर कचर्ुलियान, रीवा में हुआ। प्रो0 आदित्यप्रताप सिंह ने' हंस की उड़ान में लिखा है ''सूर्यबली सिंह ने न तो विश्वनाथ सिंह, रघुराज सिंह, ठा0 गोपाल शरण सिंह को बुर्जुआ कहकर खारिज किया है न दिनकर न अज्ञेय और न मुकितबोध की ही उपेक्षा की है - यहाँ तक कि गध लेखकों और आंचलिक कवियों पर भी मौखिक और लिखित रूप में साहितियक अनुशीलन वे करते रहे हैं।...आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और सूर्यबली सिंह की दृषिट और समीक्षा सृषिट ऐसी निर्जीवता से ग्रस्त नहीं है।...निसंदेह वे आचार्य शुक्ल के उत्तराधिकारियों में से एक हैं, उनका दोष केवल यह है कि वे काशी छोड़ रीवा चले आये। आपने आचार्य लाला भगवान दीन, पणिडत अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य केशव प्रसाद मिश्र जैसे दिग्गजों से शिक्षा प्राप्त की। सन 1936 में बनारस हिन्दू विश्वविधालय से स्नातकोत्तर किया।
  39. कुँवर सूर्यबली सिंह की प्रकाशित एवं प्रशंसित रचनायें : 'हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा (सन1936) वि0 प्रा0 हिन्दी साहित्य सम्मेलन रीवा से पुरस्—त, 'जीवन ज्योति, 'राजनीति परिचय, 'हिन्दी कविता, 'आधुनिक मराठी साहित्य, 'विधापति एवं 'सुभाषित। आचार्य शुक्ल —पण रहे हैं किसी लेखक की प्रशंसा करने में किन्तु सूर्यबली सिंह की —ति 'हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा में उन्होने  —पणता का त्याग करते लिखा है ''हिन्दी की प्रचीन एवं नवीन काव्य धारा में सूर्यबली सिंह एम ए ने दोनो धाराओं की विभिन्नता प्रकट करने वाली बहुत सी  विशेषताओं का अच्छा उदघाटन किया है। उन विशेषताओं की ओर ध्यान देने से दोनो प्रकार की कविताओं के स्वरूप का परिचय और वर्तमान कविता की भिन्न-भिन्न शाखाओं का आभास मिल जाता है। हमारे काव्य क्षेत्र में ज्यों ज्यों अनेक रूपता का विकास होता जायेगा त्यों त्यों ऐसी पुस्तकों की आवश्यकता बढ़ती जायेगी। उक्त पुस्तक में लेखक ने विभाव पक्ष, भाव पक्ष, कला तथा भाषा के आधार पर हिन्दी कविता का अध्ययन प्रस्तुत किया है। आप संगठन वादी कविता के पक्षधर नहीं है।
  40. कुँवर सूर्यबली सिंह सन 1936-37 साहित्य समीक्षा संघ बनारस,  सन 1936-45 रघुराज साहित्य परिषद के प्रधान मंत्री, बांधव मासिक पत्रिका रीवा (सन 1942-44) के सम्पादक और स्वतंत्रता आन्दोलन (सन1942-44) में जेल यात्रा की। अध्ययन, लेखन एवं अध्यापन जीवन पर्यन्त रहा।
  41. पदमभूषण शिवमंगल सिंह सुमन की बड़ी बहन कीर्ति कुँवरि का विवाह सन 1907 को महाराज व्यंकटरमण सिंह से हुआ, लेकिन सन 1918 को महाराज का देहान्त हो गया। महारानी ने अपना वैधव्य —ष्ण भकित और साहित्य को दिया। आपने कर्इ ग्रंथो का सृजन किया : 'श्री राधा—ष्ण विनोद भजनावली, 'भक्त प्रभाकर, 'कीर्ति रमण,'ज्ञानदीप,'कीर्ति सुधा,'श्री जगदीश कीर्ति शतक,'कीर्ति लता,'कीर्ति अष्टक,'कीर्ति शिरोमणि,'कीर्ति बहार,'कीर्ति निधि','कीर्ति त्रिवेणी,'श्रीबद्रीश, 'कीर्ति चिन्तामणि,'कीर्ति कौमुदी, 'कीर्ति जया,'कीर्ति किरण,'कीर्ति माधुरी, 'कीर्ति भाष्कर, 'कीर्ति गोविन्द,'कीर्ति प्रकाश,'कीर्ति गंगे,'कीर्ति पुष्पन्जली,'ज्ञानमाला,'कीर्ति प्रमोद,। आपकी रचनायें भ्कितरस प्रधान हैं। कुछ पंकितयाँ :
  42. ''यह कीर्ति अधीर पुकार रही सुनि लेहु —पा करि हे बनवारी,
  43. आपन जान दया करिये हम तो निशिवासर शरण तुम्हारी।
  44. ''जब से उल्फत ने सताया जी कहीं लगता नहीं
  45.  क्या करुँ उनके बिना बैचेन हूँ निशि याम री।
  46. बघेलकाल राज्य विलियन सन 1948 तक के रीवा राज्य में साहित्य के प्रसिद्ध और भी हस्ताक्षर हैं। हिन्दी, उदर्ू, फारसी और अंग्रेजी के ज्ञाता, इतिहासकार प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी जिन्होने इतिहास के धुंधलाये आइनों को साफ किया है। सन 1919 में 'रीवा राज्य दर्पण के लेखक श्री जीतन सिंह, 'रीवा राज्य का सैनिक इतिहास (सन 1937) लेखक- लाल जनार्दन सिंह और गुरू रामप्यारे अगिनहोत्री 'रीवा राज्य का इतिहास एवं प्रकाशित काव्य ग्रंथ 'प्रलाप।
  47. महाराज व्यंकटरमण सिंह के दरबार में झुरवा अहीर मौजा देवखर त्यौंथर तहसील रीवा ने 'नैकहार्इ केर बिरहा सुनाया था जो शायद लिखित तो नहीं पर बहुत चर्चित हुआ।18 गध साहित्य में संख्या कुछ कम नहीं थी, श्री सिद्धविनायक द्विवेदी(उपन्यासकार), कथा साहित्य के शिल्पी रहे हैं लाल यादवेन्द्र सिंह माड़ौ रीवा। कवि कुँवर सोमेश्वर सिंह : जन्म सन 1910, आपके काव्य ग्रंथ हैं-'रत्ना, 'दृगजल, 'सरोज और ख्ुासरो। कवि सोमेश्वर सिंह सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि ठा0गोपालशरण सिंह के सुपुत्र हैं।
  48. बैजनाथ प्रसाद 'बैजू : जन्म सन 1910 को हुआ। आपका रचना काल सन 1935 से प्रारंभ होता है। सूकितयों का एक संग्रह 'बैजू की सूकितयाँ के नाम से सन 1940 को प्रकाशित हुआ। कुँवर सूर्यबली सिंह ने बैजू को उन गिने चुने कवियों में माना है ''जो सामान्य भाषा को अपना कर अपनी आवाज सर्व सामान्य तक पंहुचाने वाले हैं। रिमहीं (बघेली) की यह रचना भाषा की सशक्तता और छन्द चयन के कारण विशेष है। कवि ने अपने अनुभवों को व्यक्त करने का अनूठा तरीका अपनाया है। बड़ी खूबसूरती से प्रचलित देशीय मुहावरों का प्रयोग हुआ है। कुल मिलाकर आप रिमहीं के जनप्रिय कवि हैं।
  49.  आइए अब कवि शेषमणि शर्मा 'मणि की बात करें। इनका जन्म रायपुर कचर्ुलियान में सन 1916 को हुआ। इन्हे सन 1953 में विन्ध्य प्रदेश शासन से प्रबंध —ति 'कैकेयी पर व्यास पुरस्कार प्रदान किया गया था। अन्य रचनायें :'मणिकिरण, 'द्वितीया,'बागी की डायरी,'अन्तध्र्वनि,'क्रानित की चिनगारियाँ और 'जग-जीवन है।
  50. अवधी को जायसी और तुलसी मिले। बघेली को बैजू और सैफू आदि।19 पूरा नाम सैफुद्दीन सिद्दकी 'सैफू : जन्म 1 जुलार्इ 1924, प्रकाशित काव्य संकलन 'दिया बरी भा अजोर, 'भारत केर माटी की जानकारी मिली है। डा0 भगवती प्रसाद शुक्ल के शब्दों में ''सैफू सच्चे अर्थों में बघेली के समर्थ और प्राणवान कवि हैं।      ''बिन पखना मेंड़राय सरग मा, रहय लपेटे सूत।
  51.                सैफू कहँय बताबा ककऊ, कउन आय इया भूत।20
  52.  यहाँ की धरती बाणभÍ की कार्यस्थली है। क्या राजा क्या आम जन, हिन्दी, संस्—त, उदर्ू, फारसी, 'अउ बघेली में सृजन करने वाले कम नहीं थे, न हैं, न होंगे। 000      
  53. ----- संदर्भ ------
  54. 1.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन ।
  55. 2.डा0 धीरेन्द्र वर्मा : हिन्दी भाषा का इतिहास।  
  56. 3. प्रो0 आदित्य प्रताप सिंहरविरंजन सिंह :अजीत फतेह बघेलखण्ड का आल्हा की साहितियक पृष्ठ भूमि से।
  57. 4. अजीत फते रायसा : पं. रामभद्र गौड़।
  58. 5. रविरंजन सिंह : 'रीवा तब अउर अब' पृ.21।
  59. 6. महाकवि ब्रजेश : प्रो0 —ष्ण चन्द्र वर्मा पृ. 11-12।
  60. 7. बिपिन बिहारी मिश्र :विशाल भारत,फरवरी1946 ।
  61. 8.हिन्दी नाटक उदभव और विकास पृ. 166।
  62. 9-10-.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
  63. 11. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी साहित्य का इतिहास।
  64. 12. असद खान :बघेलख्ण्ड की स्थापत्य कला।
  65. 13. कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
  66. 14. रविरंजन सिंह : प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी की डायरी।
  67. 15.कुँवर सूर्यबली सिंह :मध्य युगीन साहित्य को रीवा की देन।
  68. 16. डा0 दिवाकर सिंह :बघेल राजपूत की पाण्डुलिपि।
  69. 17.श्रीमती स्नेहलता तिवारी :बघेलखण्ड की पत्र पत्रिकायें
  70. 18. प्रो0 अख्तर हुसैन निज़ामी : अजीत फते नायक रायसा बघेलखण्ड का आल्हा पृ.221।
  71. 19. डा0 सूर्यभान सिंह :बघेली व्याकरण
  72. 20.उत्तर- पतंग

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

अदृश्य स्याही वाली प्राचीन कला की अनसुलझी पहेली...

Note--: निम्नलिखित लेख श्री सुरेश चिपलूनकर जी के पोर्टल desiCNN से लिया गया है ! नीचे पोर्टल की लिंक दी गई है ! अद्भुत जानकारी के लिए इस पोर्टल में जरूर जाएँ !  

प्राचीन  भारत में ऋषि-मुनियों को जैसा अदभुत ज्ञान था, उसके बारे में जब हम जानते हैं, पढ़ते हैं तो अचंभित रह जाते हैं. रसायन और रंग विज्ञान ने भले ही आजकल इतनी उन्नति कर ली हो, परन्तु आज से 2000 वर्ष पहले भूर्ज-पत्रों पर लिखे गए "अग्र-भागवत" का यह रहस्य आज भी अनसुलझा ही है.
जानिये इसके बारे में कि आखिर यह "अग्र-भागवत इतना विशिष्ट क्यों है? अदृश्य स्याही से सम्बन्धित क्या है वह पहेली, जो वैज्ञानिक आज भी नहीं सुलझा पाए हैं.
आमगांव… यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुडी हुई. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘असम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना है. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यूँ आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता हैं. असम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं. मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है.
‘ब्रम्ह्कुंड’ नामक स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष/प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज की ससुराल माना जाता है. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता है. हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने ४–५ मित्र–सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दुसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष हैं, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्ही साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा..!  दूसरे दिन सुबह-सुबह रामगोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गये, तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपडे में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा.” वह दिन था, ९ अगस्त, १९९१.
आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी "कहानी" और चमत्कारों वाली बात सुनाई जा रही है, लेकिन दो मिनट और आगे पढ़िए तो सही... असल में दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर, रामगोपाल जी अपने स्थान पर आए, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़–सुथरे ‘भूर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन लंबे-लंबे पत्तों को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करे..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आये. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में ४३१ खाली (कोरे) भूर्जपत्र थे. बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करू..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड गए. रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया.
कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आये. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक भूर्जपत्र पूरा पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए. अब रामगोपाल जी ने सभी ४३१ भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, की भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र हैं. लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय. इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं.
रामगोपाल जी को मिले हुए इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर / देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया हैं. लगभग १८ भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं. रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले.
यदि हम इसे काल्पनिक कहानी मानें, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रध्दा’ के विषय अगर ना भी मानें... तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते ही हैं. जैसे, कि हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..? भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र... आदि लेखन में उपयोगी साधन थे.
मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार है – “भूर्जपत्र यह ‘भूर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भूर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो – ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे. भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही हैं. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ है. परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पध्दतियां थी, जिनकी जानकारी मिली हैं. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं.
मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं – ‘भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपडे में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपडे को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..’ भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का है. आश्चर्य इस बात का हैं, की जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं. पानी से मिटती नहीं. उलटें, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं. इस का अर्थ यह हुआ, की कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं. उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘विज्ञान, या यूं कहे, "आजकल का शास्त्रशुध्द विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ" इस मिथक को मानने वालों के लिए, ‘अग्र भागवत’ यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है. स्वाभाविक है कि किसी प्राचीन समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था, और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिध्द हो चुका है..! दुर्भाग्य यह है कि अब यह ज्ञान लुप्त हो चुका है. यदि भारत में समुचित शोध किया जाए एवं पश्चिमी तथा चीन की लाईब्रेरियों की ख़ाक छानी जाए, तो निश्चित ही कुछ न कुछ ऐसा मिल सकता है जिससे ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठ सके. !
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शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

तैमूर को किसने हराया ?


हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे जातिवाद से ऊपर उठ कर सोच ही नहीं सकते। यही पिछले 1200 वर्षों से हो रही उनकी हार का मुख्य कारण है। इतिहास में कुछ प्रेरणादायक घटनाएं मिलती है। जब जातिवाद से ऊपर उठकर हिन्दू समाज ने एकजुट होकर अक्रान्तायों का न केवल सामना किया अपितु अपने प्राणों की बाजी लगाकर उन्हें यमलोक भेज दिया। तैमूर लंग के नाम से सभी भारतीय परिचित है। तैमूर के अत्याचारों से हमारे देश की भूमि रक्तरंजित हो गई। उसके अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी।
तैमूर लंग ने मार्च सन् 1398 ई० में भारत पर 92000 घुड़सवारों की सेना से तूफानी आक्रमण कर दिया। तैमूर के सार्वजनिक कत्लेआम, लूट खसोट और सर्वनाशी अत्याचारों की सूचना मिलने पर संवत् 1455 (सन् 1398 ई०) कार्तिक बदी 5 को देवपाल राजा (जिसका जन्म निरपड़ा गांव जि० मेरठ में एक जाट घराने में हुआ था) की अध्यक्षता में हरयाणा सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन जि० मेरठ के गाँव टीकरी, निरपड़ा, दोगट और दाहा के मध्य जंगलों में हुआ।
सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये - (1) सब गांवों को खाली कर दो। (2) बूढे पुरुष-स्त्रियों तथा बालकों को सुरक्षित स्थान पर रखो। (3) प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति सर्वखाप पंचायत की सेना में भर्ती हो जाये। (4) युवतियाँ भी पुरुषों की भांति शस्त्र उठायें। (5) दिल्ली से हरद्वार की ओर बढ़ती हुई तैमूर की सेना का छापामार युद्ध शैली से मुकाबला किया जाये तथा उनके पानी में विष मिला दो। (6) 500 घुड़सवार युवक तैमूर की सेना की गतिविधियों को देखें और पता लगाकर पंचायती सेना को सूचना देते रहें।
पंचायती सेना - पंचायती झण्डे के नीचे 80,000 मल्ल योद्धा सैनिक और 40,000 युवा महिलायें शस्त्र लेकर एकत्र हो गये। इन वीरांगनाओं ने युद्ध के अतिरिक्त खाद्य सामग्री का प्रबन्ध भी सम्भाला। दिल्ली के सौ-सौ कोस चारों ओर के क्षेत्र के वीर योद्धा देश रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने रणभूमि में आ गये। सारे क्षेत्र में युवा तथा युवतियां सशस्त्र हो गये। इस सेना को एकत्र करने में धर्मपालदेव जाट योद्धा जिसकी आयु 95 वर्ष की थी, ने बड़ा सहयोग दिया था। उसने घोड़े पर चढ़कर दिन रात दूर-दूर तक जाकर नर-नारियों को उत्साहित करके इस सेना को एकत्र किया। उसने तथा उसके भाई करणपाल ने इस सेना के लिए अन्न, धन तथा वस्त्र आदि का प्रबन्ध किया।
प्रधान सेनापति, उप-प्रधान सेनापति तथा सेनापतियों की नियुक्ति
सर्वखाप पंचायत के इस अधिवेशन में सर्वसम्मति से वीर योद्धा जोगराजसिंह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाया गया। यह खूबड़ परमार वंश का योद्धा था जो हरद्वार के पास एक गाँव कुंजा सुन्हटी का निवासी था। बाद में यह गाँव मुगलों ने उजाड़ दिया था। वीर जोगराजसिंह के वंशज उस गांव से भागकर लंढोरा (जिला सहारनपुर) में आकर आबाद हो गये जिन्होंने लंढोरा गुर्जर राज्य की स्थापना की। जोगराजसिंह बालब्रह्मचारी एवं विख्यात पहलवान था। उसका कद 7 फुट 9 इंच और वजन 8 मन था। उसकी दैनिक खुराक चार सेर अन्न, 5 सेर सब्जी-फल, एक सेर गऊ का घी और 20 सेर गऊ का दूध।
महिलाएं वीरांगनाओं की सेनापति चुनी गईं उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) रामप्यारी गुर्जर युवति (2) हरदेई जाट युवति (3) देवीकौर राजपूत युवति (4) चन्द्रो ब्राह्मण युवति (5) रामदेई त्यागी युवति। इन सब ने देशरक्षा के लिए शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की।
उपप्रधान सेनापति - (1) धूला भंगी (बालमीकी) (2) हरबीर गुलिया जाट चुने गये। धूला भंगी जि० हिसार के हांसी गांव (हिसार के निकट) का निवासी था। यह महाबलवान्, निर्भय योद्धा, गोरीला (छापामार) युद्ध का महान् विजयी धाड़ी (बड़ा महान् डाकू) था जिसका वजन 53 धड़ी था। उपप्रधान सेनापति चुना जाने पर इसने भाषण दिया कि - “मैंने अपनी सारी आयु में अनेक धाड़े मारे हैं। आपके सम्मान देने से मेरा खूब उबल उठा है। मैं वीरों के सम्मुख प्रण करता हूं कि देश की रक्षा के लिए अपना खून बहा दूंगा तथा सर्वखाप के पवित्र झण्डे को नीचे नहीं होने दूंगा। मैंने अनेक युद्धों में भाग लिया है तथा इस युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दे दूंगा।” यह कहकर उसने अपनी जांघ से खून निकालकर प्रधान सेनापति के चरणों में उसने खून के छींटे दिये। उसने म्यान से बाहर अपनी तलवार निकालकर कहा “यह शत्रु का खून पीयेगी और म्यान में नहीं जायेगी।” इस वीर योद्धा धूला के भाषण से पंचायती सेना दल में जोश एवं साहस की लहर दौड़ गई और सबने जोर-जोर से मातृभूमि के नारे लगाये।
दूसरा उपप्रधान सेनापति हरबीरसिंह जाट था जिसका गोत्र गुलिया था। यह हरयाणा के जि० रोहतक गांव बादली का रहने वाला था। इसकी आयु 22 वर्ष की थी और इसका वजन 56 धड़ी (7 मन) था। यह निडर एवं शक्तिशाली वीर योद्धा था।
सेनापतियों का निर्वाचन - उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) गजेसिंह जाट गठवाला (2) तुहीराम राजपूत (3) मेदा रवा (4) सरजू ब्राह्मण (5) उमरा तगा (त्यागी) (6) दुर्जनपाल अहीर।
जो उपसेनापति चुने गये - (1) कुन्दन जाट (2) धारी गडरिया जो धाड़ी था (3) भौन्दू सैनी (4) हुल्ला नाई (5) भाना जुलाहा (हरिजन) (6) अमनसिंह पुंडीर राजपुत्र (7) नत्थू पार्डर राजपुत्र (8) दुल्ला (धाड़ी) जाट जो हिसार, दादरी से मुलतान तक धाड़े मारता था। (9) मामचन्द गुर्जर (10) फलवा कहार।
सहायक सेनापति - भिन्न-भिन्न जातियों के 20 सहायक सेनापति चुने गये।
वीर कवि - प्रचण्ड विद्वान् चन्द्रदत्त भट्ट (भाट) को वीर कवि नियुक्त किया गया जिसने तैमूर के साथ युद्धों की घटनाओं का आंखों देखा इतिहास लिखा था।
प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर के ओजस्वी भाषण के कुछ अंश -
“वीरो! भगवान् कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जो उपदेश दिया था उस पर अमल करो। हमारे लिए स्वर्ग (मोक्ष) का द्वार खुला है। ऋषि मुनि योग साधना से जो मोक्ष पद प्राप्त करते हैं, उसी पद को वीर योद्धा रणभूमि में बलिदान देकर प्राप्त कर लेता है। भारत माता की रक्षा हेतु तैयार हो जाओ। देश को बचाओ अथवा बलिदान हो जाओ, संसार तुम्हारा यशोगान करेगा। आपने मुझे नेता चुना है, प्राण रहते-रहते पग पीछे नहीं हटाऊंगा। पंचायत को प्रणाम करता हूँ तथा प्रतिज्ञा करता हूँ कि अन्तिम श्वास तक भारत भूमि की रक्षा करूंगा। हमारा देश तैमूर के आक्रमणों तथा अत्याचारों से तिलमिला उठा है। वीरो! उठो, अब देर मत करो। शत्रु सेना से युद्ध करके देश से बाहर निकाल दो।”
यह भाषण सुनकर वीरता की लहर दौड़ गई। 80,000 वीरों तथा 40,000 वीरांगनाओं ने अपनी तलवारों को चूमकर प्रण किया कि हे सेनापति! हम प्राण रहते-रहते आपकी आज्ञाओं का पालन करके देश रक्षा हेतु बलिदान हो जायेंगे।
मेरठ युद्ध - तैमूर ने अपनी बड़ी संख्यक एवं शक्तिशाली सेना, जिसके पास आधुनिक शस्त्र थे, के साथ दिल्ली से मेरठ की ओर कूच किया। इस क्षेत्र में तैमूरी सेना को पंचायती सेना ने दम नहीं लेने दिया। दिन भर युद्ध होते रहते थे। रात्रि को जहां तैमूरी सेना ठहरती थी वहीं पर पंचायती सेना धावा बोलकर उनको उखाड़ देती थी। वीर देवियां अपने सैनिकों को खाद्य सामग्री एवं युद्ध सामग्री बड़े उत्साह से स्थान-स्थान पर पहुंचाती थीं। शत्रु की रसद को ये वीरांगनाएं छापा मारकर लूटतीं थीं। आपसी मिलाप रखवाने तथा सूचना पहुंचाने के लिए 500 घुड़सवार अपने कर्त्तव्य का पालन करते थे। रसद न पहुंचने से तैमूरी सेना भूखी मरने लगी। उसके मार्ग में जो गांव आता उसी को नष्ट करती जाती थी। तंग आकर तैमूर हरद्वार की ओर बढ़ा।
हरद्वार युद्ध - मेरठ से आगे मुजफ्फरनगर तथा सहारनपुर तक पंचायती सेनाओं ने तैमूरी सेना से भयंकर युद्ध किए तथा इस क्षेत्र में तैमूरी सेना के पांव न जमने दिये। प्रधान एवं उपप्रधान और प्रत्येक सेनापति अपनी सेना का सुचारू रूप से संचालन करते रहे। हरद्वार से 5 कोस दक्षिण में तुगलुकपुर-पथरीगढ़ में तैमूरी सेना पहुंच गई। इस क्षेत्र में पंचायती सेना ने तैमूरी सेना के साथ तीन घमासान युद्ध किए।
उप-प्रधानसेनापति हरबीरसिंह गुलिया ने अपने पंचायती सेना के 25,000 वीर योद्धा सैनिकों के साथ तैमूर के घुड़सवारों के बड़े दल पर भयंकर धावा बोल दिया जहां पर तीरों* तथा भालों से घमासान युद्ध हुआ। इसी घुड़सवार सेना में तैमूर भी था। हरबीरसिंह गुलिया ने आगे बढ़कर शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह घोड़े से नीचे गिरने ही वाला था कि उसके एक सरदार खिज़र ने उसे सम्भालकर घोड़े से अलग कर लिया। (तैमूर इसी भाले के घाव से ही अपने देश समरकन्द में पहुंचकर मर गया)। वीर योद्धा हरबीरसिंह गुलिया पर शत्रु के 60 भाले तथा तलवारें एकदम टूट पड़ीं जिनकी मार से यह योद्धा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा।
(1) उसी समय प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने 22000 मल्ल योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उनके 5000 घुड़सवारों को काट डाला। जोगराजसिंह ने स्वयं अपने हाथों से अचेत हरबीरसिंह को उठाकर यथास्थान पहुंचाया। परन्तु कुछ घण्टे बाद यह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया। जोगराजसिंह को इस योद्धा की वीरगति से बड़ा धक्का लगा।
(2) हरद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के 2805 सैनिकों के रक्षादल पर भंगी कुल के उपप्रधान सेनापति धूला धाड़ी वीर योद्धा ने अपने 190 सैनिकों के साथ धावा बोल दिया। शत्रु के काफी सैनिकों को मारकर ये सभी 190 सैनिक एवं धूला धाड़ी अपने देश की रक्षा हेतु वीरगती को प्राप्त हो गये।

(3) तीसरे युद्ध में प्रधान सेनापति जोगराजसिंह ने अपने वीर योद्धाओं के साथ तैमूरी सेना पर भयंकर धावा करके उसे अम्बाला की ओर भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध में वीर योद्धा जोगराजसिंह को 45 घाव आये परन्तु वह वीर होश में रहा। पंचायती सेना के वीर सैनिकों ने तैमूर एवं उसके सैनिकों को हरद्वार के पवित्र गंगा घाट (हर की पौड़ी) तक नहीं जाने दिया। तैमूर हरद्वार से पहाड़ी क्षेत्र के रास्ते अम्बाला की ओर भागा। उस भागती हुई तैमूरी सेना का पंचायती वीर सैनिकों ने अम्बाला तक पीछा करके उसे अपने देश हरयाणा से बाहर खदेड़ दिया।
वीर सेनापति दुर्जनपाल अहीर मेरठ युद्ध में अपने 200 वीर सैनिकों के साथ दिल्ली दरवाज़े के निकट स्वर्ग लोक को प्राप्त हुये।
इन युद्धों में बीच-बीच में घायल होने एवं मरने वाले सेनापति बदलते रहे थे। कच्छवाहे गोत्र के एक वीर राजपूत ने उपप्रधान सेनापति का पद सम्भाला था। तंवर गोत्र के एक जाट योद्धा ने प्रधान सेनापति के पद को सम्भाला था। एक रवा तथा सैनी वीर ने सेनापति पद सम्भाले थे। इस युद्ध में केवल 5 सेनापति बचे थे तथा अन्य सब देशरक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुये।
इन युद्धों में तैमूर के ढ़ाई लाख सैनिकों में से हमारे वीर योद्धाओं ने 1,60,000 को मौत के घाट उतार दिया था और तैमूर की आशाओं पर पानी फेर दिया।
हमारी पंचायती सेना के वीर एवं वीरांगनाएं 35,000, देश के लिये वीरगति को प्राप्त हुए थे।
प्रधान सेनापति की वीरगति - वीर योद्धा प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर युद्ध के पश्चात् ऋषिकेश के जंगल में स्वर्गवासी हुये थे।
(सन्दर्भ-जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-३७९-३८३ )
ध्यान दीजिये। एक सवर्ण सेना का उपसेनापति वाल्मीकि था। अहीर, गुर्जर से लेकर 36 बिरादरी उसके महत्वपूर्ण अंग थे। तैमूर को हराने वाली सेना को हराने वाली कौन थे? क्या वो जाट थे? क्या वो राजपूत थे? क्या वो अहीर थे? क्या वो गुर्जर थे? क्या वो बनिए थे? क्या वो भंगी या वाल्मीकि थे? क्या वो जातिवादी थे?
नहीं वो सबसे पहले देशभक्त थे। धर्मरक्षक थे। श्री राम और श्री कृष्ण की संतान थे? गौ, वेद , जनेऊ और यज्ञ के रक्षक थे।
आज भी हमारा देश उसी संकट में आ खड़ा हुआ है। आज भी विधर्मी हमारी जड़ों को काट रहे है। आज भी हमें फिर से जातिवाद से ऊपर उठ कर एकजुट होकर अपने धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी मातृभूमि की रक्षा का व्रत लेना हैं। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना आरम्भ करेंगे। आप में से कौन कौन मेरे साथ है

सोमवार, 4 सितंबर 2017

सूर्यवंशी ''मौर्य'' क्षत्रिय राजपूत वंश की गौरव गाथा


मौर्यो के रघुवंशी क्षत्रिय होने के प्रमाण-
महात्मा बुध का वंश शाक्य गौतम वंश था जो सूर्यवंशी क्षत्रिय थे।कौशल नरेश प्रसेनजित के पुत्र विभग्ग ने शाक्य क्षत्रियो पर हमला किया उसके
बाद इनकी एक शाखा पिप्लिवन में जाकर रहने लगी। वहां मोर पक्षी की अधिकता के कारण मोरिय कहलाने लगी।
बौद्ध रचनाओं में कहा गया है कि ‘नंदिन’(नंदवंश) के कुल का कोई पता नहीं चलता (अनात कुल) और चंद्रगुप्त को असंदिग्ध रूप से अभिजात कुल का बताया गया है।
चंद्रगुप्त के बारे में कहा गया है कि वह मोरिय नामक क्षत्रिय जाति की संतान था; मोरिय जाति शाक्यों की उस उच्च तथा पवित्र जाति की एक शाखा थी, जिसमें महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ था। कथा के अनुसार, जब अत्याचारी कोसल नरेश विडूडभ ने शाक्यों पर आक्रमण किया तब मोरिय अपनी मूल बिरादरी से अलग हो गए और उन्होंने हिमालय के एक सुरक्षित स्थान में जाकर शरण ली। यह प्रदेश मोरों के लिए प्रसिद्ध था, जिस कारण वहाँ आकर बस जाने वाले ये लोग मोरिय कहलाने लगे, जिनका अर्थ है मोरों के स्थान के निवासी। मोरिय शब्द ‘मोर’ से निकला है, जो संस्कृत के मयूर शब्द का पालि पर्याय है।
एक और कहानी भी है जिसमें मोरिय नगर नामक एक स्थान का उल्लेख मिलता है। इस शहर का नाम मोरिय नगर इसलिए रखा गया था कि वहाँ की इमारतें मोर की गर्दन के रंग की ईंटों की बनी हुई थीं। जिन शाक्य गौतम क्षत्रियों ने इस नगर का निर्माण किया था, वे मोरिय कहलाए।
महाबोधिवंस में कहा गया है कि ‘कुमार’ चंद्रगुप्त, जिसका जन्म राजाओं के कुल में हुआ था (नरिंद-कुलसंभव), जो मोरिय नगर का निवासी था, जिसका निर्माण साक्यपुत्तों ने किया था, चाणक्य नामक ब्राह्मण (द्विज) की सहायता से पाटलिपुत्र का राजा बना।
महाबोधिवंस में यह भी कहा गया है कि ‘चंद्रगुप्त का जन्म क्षत्रियों के मोरिय नामक वंश में’ हुआ था (मोरियनं खत्तियनं वंसे जातं)। बौद्धों के दीघ निकाय नामक ग्रन्थ में पिप्पलिवन में रहने वाले मोरिय नामक एक क्षत्रिय वंश का उल्लेख मिलता है। दिव्यावदान में बिन्दुसार (चंद्रगुप्त के पुत्र) के बारे में कहा गया है कि उसका क्षत्रिय राजा के रूप में विधिवत अभिषेक हुआ था (क्षत्रिय-मूर्धाभिषिक्त) और अशोक (चंद्रगुप्त के पौत्र) को क्षत्रिय कहा गया है।
मौर्यो के 1000 हजार साल बाद विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस ग्रन्थ लिखा।जिसमे चन्द्रगुप्त को वृषल लिखा।
वर्षल का अर्थ आज तक कोई सही सही नही बता पाया पर हो सकता है जो अभिजात्य न हो।
चन्द्रगुप्त क्षत्रिय था पर अभिजात्य नही था एक छोटे से गांव के मुखिया का पुत्र था।
अब इस ग्रन्थ को लिखने के भी 700 साल बाद यानि अब से सिर्फ 300 साल पहले किसी ढुंढिराज ने इस पर एक टीका लिखी जिसमे मनगढंत कहानी लिखकर उसे शूद्र बना दिया।
यही से यह गफलत फैली।
जबकि हजारो साल पुराने भविष्य पुराण में लिखा है कि मौर्यो ने विष्णुगुप्त ब्राह्मण की मदद से नन्दवंशी शूद्रो का शासन समाप्त कर पुन क्षत्रियो की प्रतिष्ठा स्थापित की।
दो हजार साल पुराने बौद्ध और जैन ग्रन्थ और पुराण जो पण्डो ने लिखे उन सबमे मौर्यो को क्षत्रिय लिखा है।
1300 साल पुराने जैन ग्रन्थ कुमारपाल प्रबन्ध में चित्रांगद मौर्य को रघुवंशी क्षत्रिय लिखा है।
महापरिनिव्वानसुत में लिखा है कि महात्मा बुद्ध के देहावसान के समय सबसे बाद मे पिप्पलिवन के मौर्य आए ,उन्होंने भी खुद को शाक्य वंशी गौतम क्षत्रिय बताकर बुद्ध के शरीर के अवशेष मांगे,
एक पुराण के अनुसार इच्छवाकु वंशी मान्धाता के अनुज मांधात्री से मौर्य वंश की उतपत्ति हुई है।
इतने प्रमाण होने और आज भी राजपूतो में मौर्य वंश का प्रचलन होने के बावजूद सिर्फ 200-300 साल पुराने ग्रन्थ के आधार पर कुछ मूर्ख मौर्यो को शूद्र घोषित कर देते हैं।
ये वो मूर्ख हैं जिन्हें सही इतिहास की जानकारी नही है और ये पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुराई मुराव शूद्रों को (जो पिछले 50 सालो से अब मौर्य लिखने लगे)ही असली मौर्य कुशवाहा शाक्य समझ लेते हैं।
सबने मौखिक सुनकर रट लिया कि पुराणों में मौर्यो को शूद्र लिखा है पर किस पुराण में और किस पृष्ठ पर ये नही देखा।
हर ऑथेंटिक पुराण में मौर्य को क्षत्रिय सत्ता दोबारा स्थापित करने वाला वंश लिखा है
वायु पुराण विष्णु पुराण भागवत पुराण मत्स्य पुराण सबमें मौर्य वंश को सूर्यवँशी क्षत्रिय लिखा है।।
मत्स्य पुराण के अध्याय 272 में यह कहा गया है की दस मौर्य भारत पर शासन करेंगे और जिनकी जगह शुंगों द्वारा ली जाएगी और शतधन्व इन दस में से पहला मौरिया(मौर्य) होगा।
विष्णु पुराण की पुस्तक चार, अध्याय 4 में यह कहा गया है की "सूर्य वंश में मरू नाम का एक राजा था जो अपनी योग साधना की शक्ति से अभी तक हिमालय में एक कलाप नाम के गाँव में रह रहा होगा" और जो "भविष्य में क्षत्रिय जाती की सूर्य वंश में पुनर्स्थापना करने वाला होगा" मतलब कई हजारो वर्ष बाद।
इसी पुराण के एक दुसरे भाग पुस्तक चार, अध्याय 24 में यह कहा गया है की "नन्द वंश की समाप्ति के बाद मौर्यो का पृथ्वी पर अधिकार होगा, क्योंकि कौटिल्य राजगद्दी पर चन्द्रगुप्त को बैठाएगा।"
कर्नल टॉड मोरया या मौर्या को मोरी का विकृत रूप मानते थे जो वर्तमान में एक राजपूत वंश का नाम है।
महावंश पर लिखी गई एक टीका के अनुसार मोरी नगर के क्षत्रिय राजकुमारों को मौर्या कहा गया।
संस्कृत के विद्वान् वाचस्पति के कलाप गाँव को हिमालय के उत्तर में होना मानते हैं-मतलब तिब्बत में। ये ही बात भागवत के अध्याय 12 में भी कही गई है. "वायु पुराण यह कहते हुए प्रतीत होता है की वो(मारू) आने वाले उन्नीसवें युग में क्षत्रियो की पुनर्स्थापना करेगा।"
(खण्ड 3, पृष्ठ 325) विष्णु पुराण की पुस्तक तीन के अध्याय छः में एक कूथुमि नाम के ऋषि का वर्णन है।
गुहिल वंश के बाप्पा रावल के मामा चित्तौड़ के राजा मान मौर्य थे।
चित्तौड की स्थापना चित्रांगद मौर्य ने की थी।
कुमारपाल प्रबन्ध में 36 क्षत्रिय वंशो की सूची में मौर्य वंश का भी नाम है
गुजरात के जैन कवि ने चित्रांगद मौर्य को रघुवंशी लिखा था 7 वी सदी में।।
मौर्यो ने पुरे भारत और मध्य एशिया तक पर राज किया।दूसरे वंशो के राज्य उनके सामने बहुत छोटे हैं
कोई 100 गांव की स्टेट कोई 500 गांव की स्टेट वो सब मशहूर हो गए।
और कई लाखो गांव कस्बो देशों के मौर्य सम्राट जो सीधे राम के वंशज हैं उन्हें बिना ढंग से अध्यनन करके शूद्र बताया जाए तो बड़े शर्म की बात है।।

चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन-----
चन्द्रगुप्त मोरिय के पिता
पिप्लिवंन के सरदार थे जो मगध के शूद्र राजा नन्द के हमले में मारे गये।
ब्राह्मण चाणक्य का नन्द राजा ने अपमान किया जिसके बाद चाणक्य ने देश को शूद्र राजा के चंगुल से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया। एक दिन
चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को देखा तो उसके भीतर छिपी प्रतिभा को पहचान
गया। उसने च्न्द्र्गुप्र के वंश का पता कर उसकी माँ से शिक्षा देने के लिए
चन्द्रगुप्त को अपने साथ लिया। फिर वो उसे तक्षिला ले गया जहाँ
चन्द्रगुप्त को शिक्षा दी गयी।
उसी समय यूनानी राजा सिकन्दर ने भारत
पर हमला किया।
चन्द्रगुप्त और चानक्य ने पर्वतीय राजा पर्वतक से मिलकर नन्द राजा पर
हमला कर उसे मारकर देश को शूद्रो के चंगुल से मुक्ति दिलाई। साथ ही साथ
यूनानी सेना को भी मार भगाया। उसके बाद बिन्दुसार और अशोक राजा
हुए। सम्राट अशोक बौध बन गया।
जिसके कारण द्वेषवश ब्राह्मणों ने उसे शूद्र घोषित कर
दिया।
अशोक के कई पुत्र हुए जिनमे महेंद्र कुनाल,जालोंक दशरथ थे
जलोक को कश्मीर मिला,दशरथ को मगध की गद्दी मिली।
कुणाल के पुत्र सम्प्रति को
पश्चिमी और मध्य भारत यानि आज का गुजरात राजस्थान मध्य प्रदेश
आदि मिला।
सम्प्रति जैन बन गया उसके बनाये मन्दिर आज भी राजस्थान में मिलते हैं, सम्प्रति के के वंशज आज के मेवाड़ उज्जैन इलाके में राज करते रहे।
पश्चिम भारत के मौर्य क्षत्रिय राजपूत माने गये। चित्तौड पर इनके राजाओ के नाम महेश्वर भीम
भोज धवल और मान थे।
मौर्य और राजस्थान--------
राजस्थान के कुछ भाग मौर्यों के अधीन या प्रभाव
क्षत्र में थे। अशोक का बैराठ का शिलालेख
तथा उसके उत्तराधिकारी कुणाल के पुत्र
सम्प्रति द्वारा बनवाये गये मन्दिर मौर्यां के
प्रभाव की पुश्टि करते हैं। कुमारपाल प्रबन्ध
तथा अन्य जैन ग्रंथां से अनुमानित है कि चित्तौड़
का किला व चित्रांग तालाब मौर्य राजा चित्रांग
का बनवाया हुआ है। चित्तौड़ से कुछ दूर
मानसरोवर नामक तालाब पर राज मान का,
जो मौर्यवशी माना जाता है, वि. सं. 770
का शिलालेख कर्नल टॉड को मिला, जिसमें
माहेश्वर, भीम, भोज और मान ये चार नाम
क्रमशः दिये हैं। कोटा के निकट कणसवा (कसुंआ)
के शिवालय से 795 वि. सं. का शिलालेख
मिला है, जिसमें मौर्यवंशी राजा धवल का नाम है।
इन प्रमाणां से मौर्यों का राजस्थान में अधिकार
और प्रभाव स्पष्ट हाता है।
चित्तौड़ के ही एक और मौर्य शासक धरणीवराह का भी नाम मिलता है
शेखावत गहलौत राठौड़ से पहले शेखावाटी क्षेत्र और मेवाड़ पर मौर्यो की सत्ता थी।शेखावाटी से मौर्यो ने यौधेय जोहिया राजपूतों को हटाकर जांगल देश की ओर विस्थापित कर दिया था।
पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज चौहान के सामन्तों में भीम मौर्य और सारण मौर्य मालंदराय मौर्य और मुकुन्दराय मौर्य का भी नाम आता है।
ये मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र सम्प्रति के वंशज थे।मौर्य वंश का ऋषि गोत्र भी गौतम है।
गहलौत वंशी बाप्पा रावल के मामा चित्तौड के मान मौर्य थे, बाप्पा रावल ने मान मौर्य से चित्तौड का किला जीत
लिया और उसे अपनी राजधानी बनाया।
इसके बाद मौर्यों की एक शाखा
दक्षिण भारत चली गयी और मराठा राजपूतो में मिल गयी जिन्हें आज मोरे मराठा कहा जाता है वहां इनके कई राज्य थे। आज भी मराठो में मोरे वंश उच्च कुल माना जाता है।
खानदेश में मौर्यों का एक लेख मिला है...जो ११ वी शताब्दी का है।जिसमे उल्लेख है के ये मौर्य काठियावाड से यहाँ आये....! एपिग्रफिया इंडिका,वॉल्यूम २,पृष्ठ क्रमांक २२१....सदर लेख वाघली ग्राम,चालीसगांव तहसील से मिला है....
एक शाखा उड़ीसा चली गयी ।वहां के राजा धरणीवराह के वंशज रंक उदावाराह के प्राचीन लेख में उन्होंने सातवी सदी में चित्तौड या चित्रकूट से आना लिखा है।
कुछ मोरी या मौर्य वंशी
राजपूत आज भी आगरा मथुरा निमाड़ मालवा उज्जैन में मिलते हैं। इनका गोत्र गौतम है। बुद्ध का गौत्र भी गौतम था जो इस बात का प्रमाण है कि मौर्य
और गौतम वंश एक ही वंश की दो शाखाएँ हैं,

मौर्य और परमार वंश का सम्बन्ध-----
13 वी सदी में मेरुतुंग ने स्थिरावली की रचना की थी
जिसमे उज्जैन के सम्राट गंधर्वसेन को जो विक्रमादित्य परमार के पिता थे उन्हें मौर्य सम्राट सम्प्रति का पौत्र लिखा था।
जिन चित्तौड़ के मौर्यो को भाट ग्रंथो में मोरी लिखा है वहां मोरी को परमार की शाखा लिख दिया।जबकि परमार नाम बहुत बाद में आया।उन्ही को समकालीन विद्वान रघुवंशी मौर्य लिखते है।
उज्जैन अवन्ति मरुभूमि तक सम्प्रति का पुरे मालवा और पश्चिम भारत पर राज था जो उसके हिस्से में आया था।इसकी राजधानी उज्जैन थी।इसी उज्जैन में स्थिरावली के अनुसार सम्प्रति मौर्य के पौत्र के पुत्र विक्रमादित्य ने राज किया जिन्हें भाट ग्रंथो में परमार लिखा गया।
परमार राजपूतो की उत्पत्ति अग्नि वंश से मानी जाती है परन्तु अग्नि से किसी की उत्पत्ति नही होती है. राजस्थान के जाने माने विद्वान सुरजन सिंंह झाझड, हरनाम सिंह चौहान के अनुसार परमार राजवंश मौर्य वंश की शाखा है.इतिहासकार गौरीशंकर ओझा के अनुसार सम्राट अशोक के बाद मौर्यो की एक शाखा का मालवा पर शासन था. भविष्य पुराण मे भी इसा पुर्व मे मालवा पर परमारो के शासन का उल्लेख मिलता है.
"राजपूत शाखाओ का इतिहास " पेज # २७० पर देवी सिंंह मंडावा महत्वपूर्न सूचना देते है. लिखते है कि विक्रमादित्य के समय शको ने भारत पर हमला किया तथा विक्रमादित्य न उन्हेे भारत से बाहर खदेडा. विक्रमादित्य के वंशजो ने ई ५५० तक मालवा पर शासन किया. इन्ही की एक शाखा ने ६ वी सदी मे गढवाल चला गया और वहा परमार वंश की स्थापना की.
अब सवाल उठता है कि विक्रमादित्य किस वंश से थे? कर्नल जेम्स टाड के अनुसार भारत के इतिहास मे दो विक्रमादित्य आते है. पहला मौर्यवंशी विक्रमादित्य जिन्होने विक्रम संवत की सुरुआत की. दूसरा गुप्त वंश का चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जो एक उपाधि थी..
मिस्टर मार्सेन ने "ग्राम आफ सर्वे "मे लिखा है कि शत्धनुष मौर्य के वंश मे महेन्द्रादित्य का जन्म हुआ और उसी का पुत्र विक्रमादित्य हुआ..
कर्नल जेम्स टाड पेज # ५४ पर लिखते है कि मौर्य तक्षक वंशी थे जो बाद मे परमार राजपूत कहलाये. अत: स्पष्ट हो जाता है कि परमार वंश मौर्य वंश की ही शाखा है.
कालीदास , अमरिसंह , वराहमिहिर,धनवंतरी, वररुिच , शकु आदि नवरत्न विक्रमाद्वित्य के दरबार को सुशोभित करते थे तथा इसी राजवंश मे जगत प्रिसद्ध राजा भोज का जन्म हुआ.
इसी आधार पर मौर्य और परमार को एक मानने के प्रमाण हैं।
अधिकतर पश्चिम भारत के मौर्य परमार कहलाने लगे और छोटी सी शाखा बाद तक मोरी मौर्य राजपूत कहलाई जाती रही और भाट इन्हें परमार की शाखा कहने लगे जबकि वास्तव में उल्टा हो सकता है।
कर्नल जेम्स टॉड ने भी चन्द्रगुप्त मौर्य को
परमार वंश से लिखा है।
चन्द्रगुप्त के समय के सभी जैन और बौध धर्म मौर्यों को शुद्ध सूर्यवंशी क्षत्रिय प्रमाणित करते है ।चित्तौड के मौर्य राजपूतो को पांचवी सदी में
सूर्यवंशी ही माना जाता था किन्तु कुछ ब्राह्मणों ने द्वेषवष बौध धर्म ग्रहण करने के कारण इन्हें शूद्र घोषित कर दिया, किन्तु पश्चिम भारत के मौर्य पुन वैदिक
धर्म में वापस आ जाने से क्षत्रिय राजपूत ही कहलाये।।
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मौर्य वंश आज राजपूतो में कहाँ गायब हो गया??????
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मौर्य वंश अशोक के पोत्रो के समय दो भागो में बंट गया।
पश्चिमी भाग सम्प्रति मौर्य के हिस्से में आया।वो जैन बन गया था।उसकी राजधानी उज्जैन थी।उसके वंशजो ने लम्बे समय तक मालवा और राजस्थान में राज किया।
पूर्वी भाग के राजा बौद्ध बने रहे और पुष्यमित्र शुंग द्वारा मारे गए।वे बाद तक बौद्ध बने रहने के कारण शूद्र बन गए और पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार में मौर्य मुराव मुराई जाति शूद्र है।
पश्चिमी भारत के मौर्य बाद में आबू पर्वत पर यज्ञ द्वारा पुन वैदिक धर्म में वापस आ गए और परमार राजपूतो के नाम से प्रसिद्ध हुए।
इनकी चित्तौड़ शाखा मौर्य ही कहलाती रही।
चित्तौड़ शाखा के ही वंश भाई सिंध के भी राजा थे।उनका नाम साहसी राय मौर्य था जिन्हें मारकर चच ब्राह्मण ने सिंध पर राज किया तब उनके रिश्ते के भाई चित्तौड़ से वहां चच ब्राह्मण से लड़ने गए थे जिसका जिक्र 8 वी सदी में लिखी चचनामा में मिलता है।
जब बापा रावल ने मान मोरी को हराकर चित्तौड़ से निकाल दिया तो यहाँ के मौर्य मोरी राजपूत इधर उधर बिखर गए----
1-एक शाखा रंक उदवराह के नेतृत्व में उड़ीसा चली गयी।वहां के अधिकतर सूर्यवँशी आज उसी के वंशज होने का दावा करते हैं।
2-एक शाखा हिमाचल प्रदेश गयी और चम्बा में भरमोर रियासत की स्थापना की।इनके लेख में इन्हे 5 वी सदी के पास चित्तौड़ से आना लिखा है।ये स्टेट आज भी मौजूद है और इनके राजा को सूर्यवँशी कहा जाता है।इस शाखा के राजपूत अब चाम्बियाल राजपूत कहलाते हैं
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Chambial
3-एक शाखा मालवा की और पहले से थी और आज भी निमाड़ उज्जैन और कई जिलो में शुद्ध मौर्य राजपूत मिलते हैं।
एक शाखा आगरा के पास 24 गाँव में है और शुद्ध मोरी राजपूत कहलाती है।
इस राठौर राजपूत ठिकाने की लड़की मौर्य राजपूत ठिकाने में ब्याही है
http://www.indianrajputs.com/view/maswadia
4-एक शाखा महाराष्ट्र चली गयी।उनमे खानदेश में आज भी मौर्य राजपूत हैं जबकि कुछ मराठा बन गए और मोरे मराठा कहलाते हैं।
5-एक शाखा गुजरात चली गयी और जमीन राज्य न रहने से कम दर्जे के राजपूतो में मिल गयी और कार्डिया कहलाती है।
वास्तव में मौर्य अथवा मोरी वंश एक शुद्ध सूर्यवंशी क्षत्रिय राजपूत वंश है जो आज भी राजपूत समाज का अभिन्न अंग है।
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मौर्य मोरी वंश के गोत्र प्रवर आदि---
गोत्र--गौतम और कश्यप
प्रवर तीन--गौतम वशिष्ठ ब्राह्स्पत्य
वेद--यजुर्वेद
शाखा--वाजसनेयी
कुलदेव--खांडेराव
गद्दी--कश्मीर,पाटिलिपुत्र, चित्तौड़, उज्जैनी,भरमौर, सिंध,
निवास--आगरा, मथुरा, फतेहपुर सीकरी, उज्जैन, निमाड़, हरदा,इंदौर, खानदेश महाराष्ट्र ,तेलंगाना, गुजरात(karadiya में),हिमाचल प्रदेश,मेवाड़
सांस्कृतिक रिवाज--शुभ कार्यो में मोर पंख रखते हैं।
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क्या है पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार के फर्जी मौर्य नामधारियों की वास्तविकता----
आज जो जातियां पूर्वी उत्तर प्रदेश बिहार मध्य प्रदेश में पिछले पचास साल से मौर्य लिख रहे हैं उनका असली
नाम मुराव है और ये पूरब में माली का काम करते हैं इनका मौर्य क्षत्रियो से कोई लेना देना नही है,यह भी हो सकता है कि ये उन मौर्यवँशियो में हों जो बहुत बाद तक भी बौद्ध धर्म में बने रहे और इस कारण ब्राह्मणों द्वारा इन्हें शूद्र घोषित कर दिया गया हो।।
इसके अलावा जो जाती आज शाक्य लिखने लगी है
यूपी में उसका असली नाम सागड़ है।
जो जाती आज खुद को कुशवाहा लिखती है उसका असली नाम काछी है..लेकिन राजनितिक कारणों से इन्हें सम्राट अशोक का वंशज बताकर क्षत्रिय राजपूतों के इतिहास के साथ छेड़छाड़ की जा रही है।
इन माली जातियों ने मौर्य शाक्य कुशवाहा लिख कर इन टाइटल पर
कब्जा इसी प्रकार कर लिया जैसे अहीर यादव बन गये।
रेफरेंस---
1--http://www.theosophy.wiki/en/Morya
2--पुराणों में मौर्य वंश
http://www.katinkahesselink.net/blavatsky/…/v6/y1883_173.htm
3-https://en.m.wikipedia.org/…/Ancestry_of_Chandragupta_Maurya
4--आचार्य चाणक्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र
5-जयशंकर प्रसाद कृत "चन्द्रगुप्त"
6-http://www.indianrajputs.com/view/maswadia