शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

सरदार बल्ल्भ भाई पटेल की 139 जयंती है पर विशेष

आज सरदार बल्ल्भ भाई पटेल की 139 जयंती है । सरदार जी  ने देश की 500 से अधिक रियासतो को भारतीय गणराज्य मिलाने का अतुलनीय  कार्य किया था । कई रियासते ऐसी थी जो भारत में विलय के लिए तैयार नहीं थी जैसे, भोपाल,हैदराबाद,जूनागढ़ ,रीवा आदि कई रियासते है । सरदार पटेल जी  जब रीवा (MP) की रियासत के विलय के लिए गए तो   हमारे यहाँ  रीवा के  महाराजा ''गुलाब सिंह जूदेव'' ने सरदार पटेल को जबाब दिया ''आपकी दाल यहाँ नहीं गलेगी'' तब सरदार जी ने जबाब दिया
 '' पानी होगा तो दाल जरूर गलेगी'' मतलब साफ़ इसारा था की इज्जत बचानी है तो भारत में विलय हो जाओ नहीं तो सेना जबरजस्ती विलय कर लेगी । और तत्कालीन (1918-1947 ) महाराजा गुलाब सिंह जूदेव सहर्ष विलय के लिए तैयार हो गए । इसी तरह तरह से जूनागढ़ का नबाब तो पाकिस्तान  में विलय की घोषणा कर दिया 
  हमारा देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ, लेकिन गुजरात के जूनागढ़ में आजादी के बाद भी मातम का माहौल था। यहां के लोग दहशत में थे कि जूनागढ़ कहीं पाकिस्तान का हिस्सा न हो जाए। एक ओर जहां पूरा देश खुशियां मना रहा था, वहीं जूनागढ़ के लोग डरे-सहमे हुए थे।

इसी बीच लौहपुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल ने मोर्चा संभाल लिया और जूनागढ़ को भारत का हिस्सा बनाकर ही दम लिया। सरदार पटेल की जयंती  (31 अक्टूबर) के अवसर पर  आपको पटेल के द्वारा जूनागढ़ रियासत को भारत में मिलाने के प्रयासों के बारे में जानकारी दे रहा है।

जूनागढ़ का नवाब नवाब मोहम्मद महाबत पाकिस्तान भाग निकला और  9 नवंबर 1947 को जूनागढ़, भारत का हिस्सा घोषित कर दिया गया। इसीलिए 9 नवंबर को पाकिस्तान में 'ब्लैक डे' माना जाता है, जबकि इस दिन गुजरात में खुशियां मनाई जाती हैं। इसका पूरा श्रेय भी सरदार पटेल को ही जाता है।
 दरअसल 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, उस समय भी देश की तीन ऐसी रियासतें थीं, जिन्होंने भारत और पाकिस्तान  में शामिल होना स्वीकार नहीं किया था। ये रियासतें थीं जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद और गुजरात का जूनागढ़,मध्यप्रदेश की भोपाल और रीवा रियासत । जूनागढ़ की बात की जाए तो इस समय मुस्लिम लीग के कट्टर समर्थक शहनवाज भुट्टो जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने की अंदर ही अंदर पूरी तैयारी कर चुके थे। इस समय जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद महाबत खान थे।
इतिहासकारों की मानें तो शहनावाज भुट्टो ने जूनागढ़ के नवाब मुहम्मद महाबत को अपने झांसे में पूरी तरह ले भी लिया था। इतना ही नहीं, 15 अगस्त 1947 को शहनावाज ने जूनागढ़ का पाकिस्तान के साथ जुड़ने वाला एलान भी करा दिया था। जब अखबारों में यह खबर प्रकाशित हुई तो जूनागढ़ की जनता भड़क उठी। वहीं, सरदार पटेल ने भी जूनागढ़ के लिए कमर कस ली।

प्रारंभिक पहल करते हुए सरदार पटेल और जामनगर (गुजरात) के महाराजा दिग्विजय सिंह ने जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद महाबत से कहा कि वह अपनी रियासत जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाने के निर्णय को वापस ले लें। सरदार पटेल ने नवाब से यह भी कहा कि जूनागढ़ को भारत का हिस्सा बनाने में सहयोग करें। इसके एवज में उन्हें यहां सम्माननीय पद भी दिया जाएगा। लेकिन नवाब महाबत अपनी जिद पर अड़ा रहा। 

 
इस समय तक जूनागढ़ की जनता में भी आक्रोश चरम पर पहुंच गया था। जूनागढ़ को पाकिस्तान में शामिल न होने देने के लिए एक बार फिर से स्वतंत्रता सेनानी खड़े हो गए।
वहीं 25 सितंबर 1947 को MUMBAI में स्वतंत्रता सेनानियों के नेताओं की एक बैठक हुई, जिसमें जूनागढ़ की आजादी के लिए आरजी हुकुमत नामक एक जन आंदोलन शुरू करने की योजना बनाई गई। इस आंदोलन की घोषणा होते ही स्वतंत्रता सेनानियों ने जूनागढ़ रियासत के मुख्य गांवों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। इसी का नतीजा यह रहा कि आरजी हुकुमत ने 2 नवंबर तक जूनागढ़ राज्य के 36 गांवों पर कब्जा कर लिया था। इससे जूनागढ़ के नवाबी शासन की नींव हिल गई। अब जूनागढ़ के लोगों को आशा की किरण दिखाई देने लगी थी।

स्वतंत्रता सेनानियों के बढ़ते कदमों को देखकर नवाब मोहम्मद महाबत समझ गया था कि अब उसके हाथों से जूनागढ़ की रियासत निकल चुकी है और अब तो उसे अपनी जान बचाकर भागने का मौका ढूंढना था। सरदार पटेल ने भी नवाब को जूनागढ़ से भाग जाने की सलाह दी। स्वतंत्रता सेनानियों और जूनागढ़ की जनता के आक्रोश को देखते हुए नवाब चुपके से 24 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान भाग निकला।

नवाब को पाकिस्तान जाकर अपनी गलती का अहसास हुआ था। इतना ही नहीं, नवाब ने पाकिस्तान के तत्कालीन उच्चचुक्त श्रीप्रकाश से मुलाकात कर उन्हें बताया था कि वह वापस जूनागढ़ जाना चाहता है। हालांकि नवाब के लिए अब काफी देर हो चुकी थी। अगर उसने आजादी के ही दिन जूनागढ़ रियासत को भारत का हिस्सा घोषित कर दिया होता तो ताउम्र उसके नाम का डंका जूनागढ़ रियासत में बजता। 

अगर सरदार पटेल ने समय रहते जूनागढ़ के लिए अथक प्रयास नहीं किए होते तो शायद गुजरात का यह खूबसूरत  और ऐतिहासिक शहर पाकिस्तान का हिस्सा होता । सरदार पटेल जी की 139 वी जन्म तिथि पर सत सत नमन ।

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

1971 के युद्ध में पाकिस्तानी सैनिको के आत्मसमर्पण की पूरी दास्तान

पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया ख़ाँ ने जब 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया और शेख़ मुजीब गिरफ़्तार कर लिए गए, वहाँ से शरणार्थियों के भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया.जैसे-जैसे पाकिस्तानी सेना के दुर्व्यवहार की ख़बरें फैलने लगीं, भारत पर दबाव पड़ने लगा कि वह वहाँ पर सैनिक हस्तक्षेप करे

इंदिरा गांधी  चाहती थीं कि अप्रैल में हमला हो

इंदिरा गांधी ने इस बारे में थलसेनाअध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय माँगी.उस समय पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट जनरल जेएफ़आर जैकब याद करते हैं, "जनरल मानेकशॉ ने एक अप्रैल को मुझे फ़ोन कर कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है. मैंने उनसे कहा कि ऐसा तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन है जिसके पास पुल बनाने की क्षमता नहीं है. कुछ नदियाँ पाँच पाँच मील चौड़ी हैं. हमारे पास युद्ध के लिए साज़ोसामान भी नहीं है और तुर्रा यह कि मॉनसून शुरू होने वाला है. अगर हम इस समय पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं फँस कर रह जाएंगे."मानेकशॉ राजनीतिक दबाव में नहीं झुके और उन्होंने इंदिरा गांधी से साफ़ कहा कि वह पूरी तैयारी के साथ ही लड़ाई में उतरना चाहेंगे.।

               तीन दिसंबर 1971...इंदिरा गांधी कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं. शाम के धुँधलके में ठीक पाँच बजकर चालीस मिनट पर पाकिस्तानी वायुसेना के सैबर जेट्स और स्टार फ़ाइटर्स विमानों ने भारतीय वायु सीमा पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू कर दिए. इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटने का फ़ैसला किया. दिल्ली में ब्लैक आउट होने के कारण पहले उनके विमान को लखनऊ मोड़ा गया. ग्यारह बजे के आसपास वह दिल्ली पहुँचीं. मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद लगभग काँपती हुई आवाज़ में अटक-अटक कर उन्होंने देश को संबोधित किया. पूर्व में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेनाओं ने जेसोर और खुलना पर कब्ज़ा कर लिया. भारतीय सेना की रणनीति थी महत्वपूर्ण ठिकानों को बाई पास करते हुए आगे बढ़ते रहना

ढाका पर कब्ज़ा भारतीय सेना का लक्ष्य नहीं

आश्चर्य की बात है कि पूरे युद्ध में मानेकशॉ खुलना और चटगाँव पर ही कब्ज़ा करने पर ज़ोर देते रहे और ढ़ाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने रखा ही नहीं गया. इसकी पुष्टि करते हुए जनरल जैकब कहते हैं, "वास्तव में 13 दिसंबर को जब हमारे सैनिक ढाका के बाहर थे, हमारे पास कमान मुख्यालय पर संदेश आया कि अमुक-अमुक समय तक पहले वह उन सभी नगरों पर कब्ज़ा करे जिन्हें वह बाईपास कर आए थे. अभी भी ढाका का कोई ज़िक्र नहीं था. यह आदेश हमें उस समय मिला जब हमें ढाका की इमारतें साफ़ नज़र आ रही थीं."

भारतीय सैनिक
पाकिस्तानी टैंक पर बैठे भारतीय सैनिक
पूरे युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी को कभी विचलित नहीं देखा गया. वह पौ फटने तक काम करतीं और जब दूसरे दिन दफ़्तर पहुँचतीं, तो कह नहीं सकता था कि वह सिर्फ़ दो घंटे की नींद लेकर आ रही हैं. जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा याद करते हैं, "आधी रात के समय जब रेडियो पर उन्होंने देश को संबोधित किया था तो उस समय उनकी आवाज़ में तनाव था और ऐसा लगा कि वह थोड़ी सी परेशान सी हैं. लेकिन उसके अगले रोज़ जब मैं उनसे मिलने गया तो ऐसा लगा कि उन्हें दुनिया में कोई फ़िक्र है ही नहीं. जब मैंने जंग के बारे में पूछा तो बोलीं अच्छी चल रही है. लेकिन यह देखो मैं नार्थ ईस्ट से यह बेड कवर लाई हूँ जिसे मैंने अपने सिटिंग रूम की सेटी पर बिछाया है. कैसा लग रहा है? मैंने कहा बहुत ही ख़ूबसूरत है. ऐसा लगा कि उनके दिमाग़ में कोई चिंता है ही नहीं."

गवर्नमेंट हाउस पर बमबारी

14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि दोपहर ग्यारह बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के चोटी के अधिकारी भाग लेने वाले हैं. भारतीय सेना ने तय किया कि इसी समय उस भवन पर बम गिराए जाएं. बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी. गवर्नर मलिक ने एयर रेड शेल्टर में शरण ली और नमाज़ पढ़ने लगे. वहीं पर काँपते हाथों से उन्होंने अपना इस्तीफ़ा लिखा ।

        दो दिन बाद ढाका के बाहर मीरपुर ब्रिज पर मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने अपनी जोंगा के बोनेट पर अपने स्टाफ़ ऑफ़िसर के नोट पैड पर पूर्वी पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल नियाज़ी के लिए एक नोट लिखा- प्रिय अब्दुल्लाह, मैं यहीँ पर हूँ. खेल ख़त्म हो चुका है. मैं सलाह देता हूँ कि तुम मुझे अपने आप को सौंप दो और मैं तुम्हारा ख़्याल रखूँगा.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा अब इस दुनिया में नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने बीबीसी को बताया था, "जब यह संदेश लेकर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता नियाज़ी के पास गए तो उन्होंने उनके साथ जनरल जमशेद को भेजा, जो ढाका गैरिसन के जीओसी थे. मैंने जनरल जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2-माउंटेन डिव का झंडा लगा दिया. जब मैं नियाज़ी के पास पहुँचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव किया."
16 दिसंबर की सुबह सवा नौ बजे जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुँचें. नियाज़ी ने जैकब को रिसीव करने के लिए एक कार ढाका हवाई अड्डे पर भेजी हुई थी.जैकब कार से छोड़ी दूर ही आगे बढ़े थे कि मुक्ति बाहिनी के लोगों ने उन पर फ़ायरिंग शुरू कर दी. जैकब दोनों हाथ ऊपर उठा कर कार से नीचे कूदे और उन्हें बताया कि वह भारतीय सेना से हैं. बाहिनी के लोगों ने उन्हें आगे जाने दिया ।

आँसू और चुटकुले

जब जैकब पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचें. तो उन्होंने देखा जनरल नागरा नियाज़ी के गले में बाँहें डाले हुए एक सोफ़े पर बैठे हुए हैं और पंजाबी में उन्हें चुटकुले सुना रहे हैं. जैकब ने नियाज़ी को आत्मसमर्पण की शर्तें पढ़ कर सुनाई. नियाज़ी की आँखों से आँसू बह निकले. उन्होंने कहा, "कौन कह रहा है कि मैं हथियार डाल रहा हूँ." जनरल राव फ़रमान अली ने इस बात पर ऐतराज़ किया कि पाकिस्तानी सेनाएं भारत और बांग्लादेश की संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण करें. समय बीतता जा रहा था. जैकब नियाज़ी को कोने में ले गए. उन्होंने उनसे कहा कि अगर उन्होंने हथियार नहीं डाले तो वह उनके परिवारों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकते. लेकिन अगर वह समर्पण कर देते हैं, तो उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी होगी. जैकब ने कहा- मैं आपको फ़ैसला लेने के लिए तीस मिनट का समय देता हूँ. अगर आप समर्पण नहीं करते तो मैं ढाका पर बमबारी दोबारा शुरू करने का आदेश दे दूँगा.

नागरा

            ढाका के बाहरी इलाक़े में खड़े मेजर जनरल नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर
अंदर ही अंदर जैकब की हालत ख़राब हो रही थी. नियाज़ी के पास ढाका में 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक और वह भी ढाका से तीस किलोमीटर दूर । 

अरोड़ा अपने दलबदल समेत एक दो घंटे में ढाका लैंड करने वाले थे और युद्ध विराम भी जल्द ख़त्म होने वाला था. जैकब के हाथ में कुछ भी नहीं था. 30 मिनट बाद जैकब जब नियाज़ी के कमरे में घुसे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था. आत्म समर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था.

जैकब ने नियाज़ी से पूछा क्या वह समर्पण स्वीकार करते हैं? नियाज़ी ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने यह सवाल तीन बार दोहराया. नियाज़ी फिर भी चुप रहे. जैकब ने दस्तावेज़ को उठाया और हवा में हिला कर कहा, ‘आई टेक इट एज़ एक्सेप्टेड.’ नियाज़ी फिर रोने लगे. जैकब नियाज़ी को फिर कोने में ले गए और उन्हें बताया कि समर्पण रेस कोर्स मैदान में होगा. नियाज़ी ने इसका सख़्त विरोध किया. इस बात पर भी असमंजस था कि नियाज़ी समर्पण किस चीज़ का करेंगे.
भारतीय सेना के सामने सेना के ऑफीसर पिस्टल जमीन में रखकर आत्म समर्पण किया

मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने बताया था, "जैकब मुझसे कहने लगे कि इसको मनाओ कि यह कुछ तो सरेंडर करें. तो फिर मैंने नियाज़ी को एक साइड में ले जा कर कहा कि अब्दुल्ला तुम एक तलवार सरेंडर करो, तो वह कहने लगे पाकिस्तानी सेना में तलवार रखने का रिवाज नहीं है. तो फिर मैंने कहा कि तुम सरेंडर क्या करोगे? तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है. लगता है तुम्हारी पेटी उतारनी पड़ेगी... या टोपी उतारनी पड़ेगी, जो ठीक नहीं लगेगा. फिर मैंने ही सलाह दी कि तुम एक पिस्टल लगाओ ओर पिस्टल उतार कर सरेंडर कर देना."

सरेंडर लंच

इसके बाद सब लोग खाने के लिए मेस की तरफ़ बढ़े. ऑब्ज़र्वर अख़बार के गाविन यंग बाहर खड़े हुए थे. उन्होंने जैकब से अनुरोध किया क्या वह भी खाना खा सकते हैं. जैकब ने उन्हें अंदर बुला लिया. वहाँ पर करीने से टेबुल लगी हुई थी... काँटे और छुरी और पूरे ताम-झाम के साथ. जैकब का कुछ भी खाने का मन नहीं हुआ. वह मेज़ के एक कोने में अपने एडीसी के साथ खड़े हो गए. बाद में गाविन ने अपने अख़बार ऑब्ज़र्वर के लिए दो पन्ने का लेख लिखा ’सरेंडर लंच.’ चार बजे नियाज़ी और जैकब जनरल अरोड़ा को लेने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे. रास्ते में जैकब को दो भारतीय पैराट्रूपर दिखाई दिए. उन्होंने कार रोक कर उन्हें अपने पीछे आने के लिए कहा. जैतूनी हरे रंग की मेजर जनरल की वर्दी पहने हुए एक व्यक्ति उनका तरफ़ बढ़ा. जैकब समझ गए कि वह मुक्ति बाहिनी के टाइगर सिद्दीकी हैं. उन्हें कुछ ख़तरे की बू आई. उन्होंने वहाँ मौजूद पेराट्रूपर्स से कहा कि वह नियाज़ी को कवर करें और सिद्दीकी की तरफ़ अपनी राइफ़लें तान दें. जैकब ने विनम्रता पूर्वक सिद्दीकी से कहा कि वह हवाई अड्डे से चले जाएं. टाइगर टस से मस नहीं हुए. जैकब ने अपना अनुरोध दोहराया. टाइगर ने तब भी कोई जवाब नहीं दिया. जैकब ने तब चिल्ला कर कहा कि वह फ़ौरन अपने समर्थकों के साथ हवाई अड्डा छोड़ कर चले जाएं. इस बार जैकब की डाँट का असर हुआ.।  साढ़े चार बजे अरोड़ा अपने दल बल के साथ पाँच एम क्यू हेलिकॉप्टर्स से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे. रेसकोर्स मैदान पर पहले अरोड़ा ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया । अरोडा और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म समर्पण के दस्तवेज़ पर हस्ताक्षर किए. नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया. नियाज़ी की आँखें एक बार फिर नम हो आईं । 
अँधेरा हो रहा था. वहाँ पर मौजूद भीड़ चिल्लाने लगी. वह लोग नियाज़ी के ख़ून के प्यासे हो रहे थे. भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सरों ने नियाज़ी के चारों तरफ़ घेरा बना दिया और उनको एक जीप में बैठा कर एक सुरक्षित जगह ले गए.

ढाका स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है

ठीक उसी समय इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने दफ़्तर में स्वीडिश टेलीविज़न को एक इंटरव्यू दे रही थीं. तभी उनकी मेज़ पर रखा लाल टेलीफ़ोन बजा. रिसीवर पर उन्होंने सिर्फ़ चार शब्द कहे....यस...यस और थैंक यू. दूसरे छोर पर जनरल मानेक शॉ थे जो उन्हें बांग्लादेश में जीत की ख़बर दे रहे थे.श्रीमती गांधी ने टेलीविज़न प्रोड्यूसर से माफ़ी माँगी और तेज़ क़दमों से लोक सभा की तरफ़ बढ़ीं. अभूतपूर्व शोर शराबे के बीच उन्होंने ऐलान किया- ढाका अब एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है. बाक़ी का उनका वक्तव्य तालियों की गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी में डूब कर रह गया । 
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पूरी घटना पढ़ने के बाद मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए और अपनी भारतीय पर गर्व से मस्तक ऊचा हो गया और छाती 56 इंच की हो गई ।

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर विशेष



सुबह सुबह चामुण्डा माता जी के टेकरी में जाने का अवसर मिला । पूरा देवास शहर इस समय पर चामुण्डा मइया की भक्ति में लीन है । (क्या पता माता की भक्ति के लिए जाते है या नयन सुख लेने जाते है) अच्छा लगता है युवाओ में धर्म के प्रति यह झुकाव । पर मन उस समय खिन्न हो जाता है जब बुजुर्गो को रोड के किनारे हाथ फैलाते हुए देखता हु असहाय शरीर, काँपते हुए हाथ,लरजती हु आँखे में याचना के भाव । सच में ये सब देखने के बाद मन इतना दुखी हो जाता है की मेरा मन ही ''माँ'' की भक्ति से कोसो दूर इन बुजर्गो पर केंद्रित हो जाती है ।
एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है. यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है जिसे आज की तथाकथित ''युवा और एजुकेटेड'' पीढ़ी ''बूढ़ा'' कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है. वे लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं । फिर भी हम उस अनुभव से लाभ नहीं उठाते और ठोकर खाने के बाद ''ठाकुर'' कहलाते ।
वृद्ध होने के बाद इंसान को कई रोगों का सामना करना पड़ता है. चलने फिरने में भी दिक्कत होती है. लेकिन यह इस समाज का एक सच है कि जो आज जवान है उसे कल बुढ़ा भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता. लेकिन इस सच को जानने के बाद भी जब हम बूढ़े लोगों पर अत्याचार करते हैं तो हमें अपने मनुष्य कहलाने पर शर्म महसूस होती है ।
हमें समझना चाहिए कि वरिष्‍ठ नागरिक समाज की अमूल्‍य विरासत होते हैं.उन्होंने देश और समाज को बहुत कुछ दिया होता है. उन्‍हें जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों का व्‍यापक अनुभव होता है. आज का युवा वर्ग राष्‍ट्र को उंचाइयों पर ले जाने के लिए वरिष्‍ठ नागरिकों के अनुभव से लाभ उठा सकता है. अपने जीवन की इस अवस्‍था में उन्‍हें देखभाल और यह अहसास कराए जाने की जरुरत होती है कि वे हमारे लिए खास महत्‍व रखते हैं. हमारे शास्त्रों में भी बुजुर्गों का सम्मान करने की राह दिखलायी गई है । यजुर्वेद का निम्न मंत्र संतान को अपने माता-पिता की सेवा और उनका सम्मान करने की शिक्षा देता है.
यदापि पोष मातरं पुत्र: प्रभुदितो धयान् .
इतदगे अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ ममां ॥

अर्थात जिन माता-पिता ने अपने अनथक प्रयत्नों से पाल पोसकर मुझे बड़ा किया है, अब मेरे बड़े होने पर जब वे अशक्त हो गये है तो वे जनक-जननी किसी प्रकार से भी पीड़ित न हो, इस हेतु मैं उसी की सेवा सत्कार से उन्हें संतुष्ट कर अपा आनृश्य (ऋण के भार से मुक्ति) कर रहा हूं ।
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मित्रो आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस है । चलिए संकल्प लेते है की कही भी,कभी भी कोई भी असहाय बुजुर्ग मिलते है तो उनकी सहायता करगे । अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर सभी बुजुर्गो को सादर नमन ।
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नोट ---: फोटो में समाज की कड़वी सच्चाई छिप हुई है ।