वर्तमान में विकासवादी भोगप्रधान युग में व्यक्ति प्राय: अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं की परिधि में सिमटता चला जा रहा है। आर्थिक प्रवाह, संचार क्रान्ति तथा वैज्ञानिक प्रगति, व धर्म संस्कृति सभ्यता तथा चेतना के मूल स्वरूप से युवा पीढ़ी को ही नहीं अपितु वृद्ध एवं किशोरों को स्वेच्छाचारी जीवन जीने की मृगतृश्णा में दौड़ने को जाने- अनजाने में विवश कर रही है। तथा कथित धार्मिक धृतराश्ट्र धर्म को युग धर्म के अनुसार नई परिभाशाओं को मक्कड़ जाल में ही अपनी बुद्धि कौशल समझते हैं। और विभिन्न समुदायों की उपासना पद्धति को ही धर्म समझा जाने लगा है।धर्म वह कवच है जिससे सम्पूर्ण मानव समाज को आधि-व्याधि से सुरक्षित करते हुए Þसर्वभूतेहितेरताß की भावना को प्राणि मात्र के कल्याण की कामना को पुश्ट करते हुए आध्यात्मक तथा आत्मीयता के पर्यावरण की संरचना समय रहते की जा सकती है। आत्मा के बिना शरीर, धर्म के बिना समाज मृतवत् है।
धर्मराज-द्रौपदी तथा सत्यवान-सावित्री का दर्शन आने वाली पीढ़ी के लिए काल्पनिक कथाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं रहेगा।
संस्कृति संस्कारों के अभाव में संस्कृति की चर्चा करना आत्मवचना के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं संस्कारों के वैज्ञानिक रहस्य से अपरिचित वर्तमान के तथाकथित समाज सुधारक संस्कारों की उपेक्षा ही नहीं अपितु उपहास करने में आत्म गौरव समझ रहे है। दुर्भाग्य है कि प्रशासन तथासिक्षा इसमें सह सिक्षा एवं समान अधिकारों को आग लगाकर उदण्डता, अनुशासनहीन, आचरणविहीन युवा पीढ़ी की फसल तैयार करने में प्राण-प्रज्ञा से सिक्षा के उच्च व्यवसायीकरण में जुटे है।
संस्कृत तथा संस्कृति नामक ग्रन्थ डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपने राश्ट्रव्यापी वैिश्वकचिन्तन परक विचार विस्तार से व्यक्त किए है। वर्तमान के िशक्षाविदों को उसे अवश्य पढ़ना चाहिए।
राम-कृश्ण के देश में जन्म लेने वाले धर्म तथा संस्कार विहीन पशुवत जीवन जीने वालों के पद चिन्हों पर चलकर अर्थात पिश्चम के योगवाद से अनुप्राणित तथा कथित िशक्षित राजनैतिक वर्ग ही जातिहीन, धर्मविहीन, अनुशासनहीन सामाजिक एवं राश्ट्रीय विकास का पक्षधर है।
भारतवशZ के अतिरिक्त किसी भी देश में संस्कृति एवं चरित्र को प्राथमिकता नहीं दी जाती यह विश्वविदित कटु सत्य है। संस्कृति से ही मानवीय मूल्यों की गुणवत्ता का आंकलन होता है संस्कारों के प्रति दैनिक तथा व्यक्तिगत जीवन में अन्तरनिश्ठा ही संस्कृति संरक्षण का साश्वत् आधार है।
सभ्यता समाज के पारिवारिक, अनुवांिशक, ऐतिहासिक, धार्मिक, भौगोलिक जीवनशैली की संवाहिका है। वर्तमान के पढ़े लिखे सभ्य कहलाने वाले आधूनिक समाज की दृिश्ट में सभ्यता का प्रतीक जीवन स्तर है। जीवन के महत्व से अनभिज्ञ युवापीढ़ी वास्तविक सभ्यजनों को अिशक्षित मानती है। सभ्यता िशक्षा से ही नहीं, सभ्यता पूर्वजों के सामाजिक, एकान्तिक तथा व्यावहारिक जीवन से परम्परागत अधिकार के रूप में सहज प्राप्त होती है। जल्दी सोना, जल्दी जागना प्रकृतिप्रदत्त समाज की पहली पहचान है। वर्तमान में रात में देर तक जागना, देर से उठना भारतीय भौगोलिक दृिश्ट से भारतीय सभ्यता के प्रतिकूल है। Þउठ जाग मुसाफिर भोर भयों अबेरैन कहां जो सोवत हैß
प्रात: काल जागरण भगवद् स्मरण, धार्मिक साहित्य स्वाध्याय अभिवादन देव, द्विज गुरू तथा माता-पिता तथा वृद्धों को प्रणाम करना हमारी सभ्यता है। आज हम स्वयं इसका और आने वाली पीढ़ी को कितना पालन करते है यहीं हमारी सभ्यता का मानदण्ड है।
चेतना के विशय जानने के पूर्व हमें स्पश्ट रूप से ज्ञान होना चाहिए, चेतन, अथचेतन तथा अचेतन में क्या अन्तर है। चेतना के वास्तविक परिज्ञान के समाज सुधारक, मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक, धार्मिक, जनप्रतिनिधि, सामाजिक तथा व्ौयक्तिक चेतना के विकारण के विशय में योजनाएं बनाने लगते हैं परन्तु उनकी अपनी चेतना का क्या स्तर है इस पर गम्भीरता से बुद्धिजीवियों को विचार करना चाहिए। िशक्षाविदों को सम्मेलन इस प्रकार एक सकारात्मक कदम उठाए तभी राश्ट्रीय सामुहिक, सामाजिक चेतना का वास्तविक लाभ सभी को मिल सकेगा। हशZ का विशय है कि िशक्षाविद् धर्म सभ्यता संस्कृति चेतना के विशय में सामुहिक चिन्तन के लिए एकत्रित हो रहे है।